डा. अर्चना बहुगुणा, वरिष्ठ वैज्ञानिक
भारतीय प्राणी सर्वेक्षण, सोलन, हिमाचल प्रदेश
प्रख्यात पर्यावरणविद् पद्म विभूषण सुंदरलाल बहुगुणा जी आज हमारे बीच नहीं हैं। कोविड-19 के चपेट में आने के बाद बीते 21 मई को 94 साल की उम्र में उनका निधन हो गया। वो हमेशा पर्यावरण प्रेमियों के दिलों में जिंदा रहेंगे। धरती पर जीवन संतुलित बना रहे, आबाद रहे इसके लिए पर्यावरण का संरक्षण अति आवश्यक है। पशु-पक्षी, पेड़-पौधे, वन, पहाड़, नदी, झील आदि के महत्व को उन्होंने जाना और समझा। वे मानते थे कि धरती को पेड़ों से आच्छादित किया जाए, ताकि जीवनदायिनी हवा कम न हो। यदि मानव जीवन बचाना है तो पर्यावरण बचाना ही हमारी प्राथमिकता होनी ही चाहिए। पर्यावरण के संरक्षण के लिए उन्होंने अपना पूरा जीवन लगा दिया और प्रकृति को बचाने के लिए उन्होंने कई मार्ग भी बताए। इसके इतर यदि बात उनके निजी जीवन की करें तो उन्होंने राष्ट्रपिता महात्मा गांधी और आचार्य विनोबा भावे से वो खासे प्रभावित रहे।
कुदरत से उनका जुड़ाव कुछ इस कदर था कि उन्होंने खाने में दिक्कत होने के बावजूद कभी प्लास्टिक के नकली दांत भी नहीं लगवाये। मेरे मायके में जब वे पहली बार मुझसे मिले थे तो वे पहाड़ी लिबास मिरजई पहने थे, जो मुझे बहुत पसंद आया था और मेरी दीदी ‘अल्पना’ ने उनसे कहा था कि अर्चना को आपकी यह पोशाक बहुत पसंद आई है। तो वह अपनी खनकती हंसी के साथ बोले थे ‘अ.च्छा…’ और उस हंसी के साथ उनकी आंखों की चमक और आंखों के किनारों की लकीरें गहरी हो गई थी।
सिर पर सफेद साफा और सफेद कुर्ता पजामा उनकी पसंदीदा गर्मी की पोशाक थी, जिसे मां जी यानी विमला जी अपने हाथ से खादी के साबुन से धोती थी और बकायदा नील लगाती थीं। वह भाग्यशाली रहे कि हिमालय की गोद में, एक छोटे से गांव में पैदा हुए। यही वजह रही कि प्रकृति से उनका जुड़ाव उम्र बढ़ने के साथ और भी गहरा होता गया।
उनका बचपन बड़े संघर्षों में बीता। पिता को उन्होंने बचपन में ही खो दिया, जिनके साथ वह घोड़े पर बैठकर जंगल में घूमा करते थे। फिर मां को भी किस्मत ने उनसे छीन लिया। वो एक बार गंगा में स्नान करने गयीं और उनकी गोद में ही समां गईं। और पीछे छोड़ गयीं चार बच्चे। तभी से उन्हें गंगा में मां दिखाई देती रही। बाबूजी बताया करते थे कि उनकी मां अक्सर व्रत रखतीं और सोने से पहले अपने बच्चों की खुशहाली की प्रार्थना करती थीं। उनके कड़े उपवास देख कर ही शायद उन्हें ‘चिपको आंदोलन’ से लेकर ‘टिहरी बांध के निर्माण के विरोध’ के लिए लंबे उपवास रखने की प्रेरणा मिली।
सुंदरलाल बहुगुणा जी के बेटे राजीव नयन बहुगुणा से मेरा विवाह गंगा किनारे ऋषिकेश आश्रम में हुआ। जहां उन्होंने हमसे हरिजन बस्ती में सफाई करवायी और घाट साफ करवाए थे। एक दिन में विवाह हुआ था, साधारण रीति रिवाज और बिना दहेज के। उपहार लाने की भी मनाही थी।
यह बाबूजी की कल्पना ही थी कि हमारे देश में इस तरह से विवाह संपन्न करवाए जाएं, जिसमें फालतू खर्च ना हो। अपनी बेटी की शादी में तो उन्होंने केले के पेड़ काटने पर भी आपत्ति की थी। और बचपन में राजीव जी की टेरीकोट की शर्ट जला डाली थी। यह कुछ ऐसे प्रसंग हैं जो दर्शाते हैं कि गांधी जी के विचार उनके अंदर कूट-कूट कर भरे थे। और जहां आज की पीढ़ी के युवा ‘हीरो’ फिल्म के हीरो तक ही सिमट कर रह गए हैं, वहीं बाबूजी के ‘हीरो’ गांधी रहे और उनके विचारों को भी वे कभी भूले नहीं।
प्रो. जार्ज जेम्स जो यूनिवर्सिटी ऑफ टेक्सास में प्रोफेसर रहें, उन्होंने उन पर और उनकी पर्यावरण संरक्षण की सोच पर एक किताब लिखी। ‘इकोलॉजी फॉर परमानेंट इकोनामी’। उसे दुनिया भर में पढ़ा जाना चाहिए जिससे कुदरत को संजोने की लड़ाई को जारी रखा जा सके और उसके लिए नीतियों का निर्धारण कैसे हो, उस पर ठोस असरदार कदम उठाए जा सकें।
उनके अनुसार पैदल यात्रा करना ‘पर्यावरण चेतना’ जगाने का ही नहीं, बल्कि पर्यावरण को पहुंचने वाले नुकसान और उसके कारण जानने का बहुत ही असरदार तरीका है। यह विचार उन्हें विनोबा भावे से मिला था, जब उन्होंने उनसे कहा था कि ‘इस बूढ़े आदमी को कब तक पैदल चलवाओगे।’
तभी से वे पैदल यात्रा करते रहे और ‘कश्मीर से कोहिमा’ तक एक लंबी यात्रा कर डाली। इस यात्रा में वे अचानक किसी गांव में डेरा डाल देते और वहां खेलते बच्चों से उनके घर से रोटी लाने को कहते। यह सुनकर उनके परिवार वाले उनसे मिलने चले आते। ये सभी यात्राएं उन्होंने बिना पैसों के की। इस यात्रा में वह आम लोगों से, अधिकारियों से मिलते और कुदरत पर होने वाले प्रहार का मुआयना करते जाते और लोगों को वनों को बचाने के लिए प्रोत्साहित करते। वे उन्हें वनों के महत्ता की जानकारी देते।
उनके सहयोगी रहे विमला बहुगुणा और उनकी धर्मपत्नी, समाजसेवी घनश्याम सैलानी, धूम सिंह नेगी, चंडी प्रसाद भट्ट व अन्य कई लोगों ने मिलकर चिपको आंदोलन को गति दी। इसमें घनश्याम सैलानी का गीतों के जरिए जनता को जागरूक करने का सरल तरीका उन्हें बहुत भाता था। पहाड़ की महिलाओं और सैलानी जी के गीतों से ही ‘चिपको’ शब्द आंदोलन से जुड़ गया। एक बहुत ही सरल और जनमानस तक पहुंचने वाला नारा ‘क्या है जंगल के उपहार, मिट्टी, पानी और बयार, मिट्टी, पानी और बयार, जीवन के आधार।’ हर पहाड़ी व्यक्ति की जबान तक यह नारा पहुंचा। यह हैं उनके पर्यावरण जागरूकता के लिए सरल भाषा व माध्यम का उपयोग। वहीं, वह बहुत ही परिपक्व भाषा में लेख लिखते रहे जो देश और दुनिया के पत्र-पत्रिकाओं में लगातार छपते रहे।
बाबूजी ने जीवनपर्यंत प्राकृतिक चिकित्सा को ही अपनाये रखा। इसलिए वह 94 वर्ष की आयु तक ठीक-ठाक स्वस्थ रह पाए। कई वर्षों तक वह बस से ही यात्रा करते रहे। सेहत ठीक ना होने पर भी वह किसी भी जनसभा में जाने की जिद करते। उनके अंदर एक ऐसी चिंगारी थी जो कभी बुझी नहीं। वे अपने सिल्यारा आश्रम के लिए सड़क बनवाने के खिलाफ रहे।
श्री देव सुमन, महात्मा गांधी, मीरा बेन, सरला बेन और सर बार्वे बेकर उनके जीवन को 13 वर्ष की अल्पायु से लेकर आगे कई वर्षों तक प्रभावित करते रहे। इसलिए मैं मानती हूं कि कुछ समय का चक्कर था कि उन्हें पर्यावरणविद् बनना ही था। यदि न बनते तो पहाड़ की महिलाओं को ऐसा नेता नहीं मिलता जो इस जन आंदोलन को सही दिशा में ले जा सकता और पर्यावरण संरक्षण की अलख जगा सकता। आज जो भी वन हमारे देश में बचे हैं वह उस जन आंदोलन का ही परिणाम हैं।
बाबूजी के भीतर का पिता कभी-कभी ही खुलकर सामने आता था क्योंकि उन्होंने स्वयं को समाज के लिए समर्पित कर दिया था। मेरे साथ जब भी मेरे घर रहे तो बच्चों के साथ पूरे दादा बन जाते थे। मेरी बेटी के लिए घोड़ा बनते। वह उन्हें पढ़ाती तो उससे नालायक विद्यार्थी की तरह पढ़ कर बहुत प्रसन्न होते।
एक बार कुट्टू के पकोड़े बनाकर खिलाए तो उन्हें अपनी मां की याद आ गई थीं। कहा, ‘तुमने तो बेटी, मुझे मेरी मां की याद दिला दी।’
पर्यावरणविद् पद्म विभूषण सुंदरलाल बहुगुणा जी ने कड़ी मेहनत, लगन और दूरगामी सोच के साथ न केवल वन संरक्षण व पर्यावरण बचाने की ज्योति जलायी थी, बल्कि उसकी लौ से पहाड़, देश और दुनिया को रोशनी दी। भले वो आज हमारे बीच न हों लेकिन मुझे पूरा विश्वास है कि वह फिर पैदा होंगे, किसी जवां के दिल में फिर कसक उठेगी अपनी वसुंधरा के लिए और फिर एक नेता बनेगा पर्यावरण का प्रहरी, क्योंकि अभी बहुत काम बाकी है और युवा पीढ़ी ही उनके काम को आगे बढ़ाएगी।