कोरोना की थर्ड वेव, कयामत का इंतजार!

आवरण कथा : आलोक भदौरिया, नई दिल्ली।

 कोरोना महामारी की दूसरी लहर कयामत ढहा रही है। वैज्ञानिक अभी यह ही तय नहीं कर पा रहे हैं कि दूसरी लहर का सर्वाधिक प्रकोप मई के दूसरे सप्ताह में आएगा यह तीसरे सप्ताह में। मौजूदा हालात ही काफी भयावह हैं। ऐसे में तीसरी लहर की बात ही रातों की नींद काफूर कर देने वाली है। मौत के आंकड़े रोजाना नया रिकॉर्ड बना रहे हैं। तो तीसरी लहर कहां जाकर ठहरेगी? क्या बेबसी का मंजर ऐसा ही रहेगा या और भयानक हो जाएगा?
चाहे दिल्ली, मुंबई, कर्नाटक हो या उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश चारों ओर हाहाकार मचा हुआ है। ऑक्सीजन की कमी की खबरें सभी जगह से सुनाई दे रही हैं। अस्पतालों में प्रबंधन दवाइयों से ज्यादा ऑक्सीजन जुटाने में लगा हुआ है। बेड, ऑक्सीजन की उपलब्धता के बारे में डॉक्टर ज्यादा परेशान हैं। मरीजों की देखभाल से भी ज्यादा।

तो इसे क्या कहा जाएगा? ऑक्सीजन सिलेंडर की कालाबाजारी हो रही है। लोग मुंह मांगे दामों पर खरीदने के लिए विवश हैं। यही नहीं, सिलेंडर भरवाने के लिए भी लाइन लग रही है। सिफारिशें अस्पताल में बेड से लेकर सिलेंडर भरवाने के लिए बेहिसाब की जा रही हैं।

शायद ही कोई जनप्रतिनिधि हो, रसूखदार हो जो फोन कर करके थक न गया है। विधायकों तक की नहीं सुनी जा रही है। कई भाजपा विधायकों ने इस मसले पर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को चिट्ठी तक लिखी है। यहां तक कि केंद्र सरकार में मंत्री संतोष गंगवार तक ने चरमराती स्वास्थ्य व्यवस्था को लेकर मुख्यमंत्री को चिट्ठी लिखी है। उन्होंने लिखा है कि स्वास्थ्य विभाग के आला अफसर फोन तक नहीं उठाते हैं। कोरोना संक्रमित मरीज रेफरल के नाम पर अस्पतालों के चक्कर काटने को मजबूर हैं। दवाइयों और चिकित्सीय उपकरणों को डेढ़ गुनी कीमत पर बेचा जा रहा है।
ऐसा नहीं है कि भाजपा सरकार के नुमाइंदों की लिखा-पढ़ी से ही हालात की गंभीरता का पता चलता है। आए दिन ऐसी घटनाएं सुर्खियां बनती रहती हैं। ऐसे ही सुर्खियों में रेमडेसिवीर दवा भी रहती है। चंद रुपयों वाली यह दवा हजारों में बिक रही हैं। ऐसा तब है जब अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान के निदेशक डॉक्टर रणदीप गुलेरिया समेत कई आला डॉक्टर इसके बेजा इस्तेमाल को मना कर चुके हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन( डब्ल्यूएचओ) रेमडेसिवीर को कोरोना के इलाज के लिए रामबाण करार नहीं दे रहा है। फिर भी इसके लिए आपाधापी मची हुई है।
हमें इसके लिए जरा ठहर कर सोचना पड़ेगा। क्या स्वास्थ्य व्यवस्था के बेदम होने का यह प्रमाण नहीं है? क्या यह प्रमाण नहीं है कि जब दुनिया में दूसरी लहर के प्रकोप से लोग मर रहे थे, तब उससे हमने कुछ नहीं सीखा? हमें बताया गया कि लॉकडाउन इसलिए लगाया गया कि देश को तैयारियों का समय मिल सके। क्या पिछले साल लगे लॉकडाउन से मिले समय का हमने तैयारियां करने में कोई उपयोग किया? क्या आपने सुना कि इस दौरान किसी राज्य में स्थायी अस्पताल बनाने की तैयारियां हुईं?
इसके उलट यह जरूर सुना गया कि हम पहले इतने पीपीई किट बनाते थे, अब आत्मनिर्भर हो गए। पहले वेंटिलेटर बेहद कम थे, अब हजारों वेंटीलेटर का ऑर्डर दे दिया गया या तैयार कर दिए गए। मास्क बनाने में रिकॉर्ड बना दिया, अब इनका निर्यात करने लगे हैं। और भी उपलब्धियों का बखान किया जाने लगा।
लेकिन, ऐसी बयानबाजी का क्या हुआ? आठ मई तक देश में चार लाख से ज्यादा लोग रोजाना संक्रमित हो रहे हैं। मौत का आंकड़ा इस दिन चार हजार को पार कर गया। बावजूद इसके अभी यह तय नहीं हो पा रहा है कि संक्रमण की रफ्तार कहां जाकर ठहरेगी? कुछ वैज्ञानिक मानते हैं कि महामारी मई के मध्य तक अपने चरम पर पहुंच चुकी होगी। इसके बाद इसमें कमी आनी चालू होगी।
स्वास्थ्य मंत्रालय के मुताबिक, 24 राज्यों में वायरस से संक्रमण की दर 15 फीसद थी। सात राज्यों में तीस फीसद से ज्यादा थी। यह दर पिछले सप्ताह के टेस्ट की बनिस्पत हैं। अतिरिक्त स्वास्थ्य सचिव आरती आहूजा के मुताबिक, 12 राज्यों में एक्टिव केस की संख्या एक लाख के पार पहुंच चुकी हैं। सात राज्यों में यह तादाद कोई पचास हजार है।

संक्रमण की दर
गोवा 48.5 प्रतिशत
हरियाणा 36.1 प्र.श.
पुडुचेरी 34.9 प्र.श.
पश्चिम बंगाल 33.1 प्र.श.
कर्नाटक 29.9 प्र.श.
दिल्ली 29.9 प्र.श.
राजस्थान 29.9 प्र.श.
स्रोत: स्वास्थ्य मंत्रालय, आठ मई।

टीकाकरण की दर

देश पहली खुराक दूसरी खुराक के साथ आबादी के सापेक्ष
अमेरिका 26 करोड़ 11.4 करोड़  34.8 प्रतिशत
ब्रिटेन 5.3 करोड़ 1.77 करोड़  26.5 प्र.श.
इजरायल 1.05 करोड़ 50.8 लाख  56.1 प्र.श.
जर्मनी 3.44 करोड़ 75.7 लाख  9.1 प्र.श.
फ्रांस 2.54 करोड़ 78.3 लाख 11.7 प्र.श.
स्पेन 1.9 करोड़ 59.6 लाख 12.7 प्र.श.
भारत 16.8 करोड़ 3.44 करोड़ 2.5 प्र.श.

                              नौ मई तक के आंकड़े

इसके अलावा देश के तीस जिलों में मई के पहले सप्ताह के मुकाबले दूसरे सप्ताह में संक्रमण की दर बढ़ी है। इनमें केरल के दस जिले, आंध्र प्रदेश के सात जिले, कर्नाटक के बंगलुरु समेत तीन जिले, हरियाणा के गुरुग्राम, फरीदाबाद जिले, पश्चिम बंगाल और महाराष्ट्र के दो-दो जिले शामिल हैं। इसके अलावा इस फेहरिश्त में पटना, चेन्नई और उड़ीसा का खुर्दा जिला भी शामिल हैं।
काबिलेगौर है कि सरकार का इरादा संक्रमण की दर को पांच फीसद से नीचे लाना है।
हैरत की बात है कि देश भर में चरमरा गई स्वास्थ्य सेवा पर उलटबांसियां भी देखने को मिलती हैं। याद करिए कि प्रधानमंत्री के प्रमुख वैज्ञानिक सलाहकार डॉ. के विजयराघवन पहले बयान देते हैं कि देश को तीसरी लहर का भी सामना करना पड़ सकता है। दो दिन बाद ही उनका बयान बदल जाता है। वे कहते हैं कि यदि सबने कोरोना प्रोटोकाल यानी दो मीटर की दूरी, बार-बार हाथ धोना और भीड़-भाड़ से बच कर रहना बरकरार रखेंगे तो इससे बच सकते हैं। उनका यह भी मानना है कि टीकाकरण भी तीसरी लहर को टालने में सफल हो सकता है। लेकिन, वायरस के लगातार रूप बदलते रहने के कारण वैक्सीन भी अपडेट करनी पडे़गी।
दिलचस्प है कि देश की वैज्ञानिक बिरादरी अपनी बातों से क्योंकर पल्ला झाड़ लेती है? ऐसा ही बयान डॉक्टर राकेश मिश्र का भी सामने आता है कि साल की शुरुआत में ही महामारी की दूसरी लहर के बारे में सचेत किया गया था। डॉक्टर राकेश सेंटर ऑफ सेलुलर एंड मॉलिक्यूलर बायोलॉजी के निदेशक हैं। लेकिन वैज्ञानिक की बातों को नौकरशाह यह कहकर टाल देते हैं कि ऐसी कोई चेतावनी नहीं दी गई थी। यहां तक कि स्वास्थ्य मंत्री डॉक्टर हर्षवर्धन भी ऐसी किसी पूर्व चेतावनी की सूचना होने से इनकार करते हैं।
हालांकि, पांचवें सीरो सर्वे में यह तथ्य सामने आया था कि 56.13 प्रतिशत लोगों में एंटीबॉडी विकसित हुई है। यह सर्वे 15 जनवरी से 23 जनवरी तक दिल्ली में किया गया था। यह खतरे की घंटी थी। लेकिन, किसी ने ध्यान नहीं दिया।
आठ मई को ही डॉक्टर हर्षवर्द्धन के स्वास्थ्य मंत्रालय से यह आंकड़ा जारी होता है कि देश भर में कुल संक्रमित में से कोई 1.34 फीसद लोग आईसीयू में है। सात मई को कुल एक्टिव केसों की संख्या 37 लाख 27 हजार के हिसाब से कोई 49,894 लोग ही आईसीयू में भर्ती हैं। कुल 0.39 फीसद यानी 14,521 मरीजों को ही वेंटीलेटर की जरूरत पड़ी। 3.7 फीसद यानी कुल 1,37,768 मरीजों को ही ऑक्सीजन की जरूरत पड़ी।
तो क्या समझा जाए? क्या मामला वाकई इतना गंभीर नहीं है। एक और रिपोर्ट की बानगी देखिए। इंस्टीच्यूट ऑफ हेल्थ मैट्रिक्स एंड इवोल्यूशन (आईएचएमई) ने पहले अंदेशा जताया था कि भारत में जुलाई तक कोई 10,18,879 लोग कोरोना महामारी के चलते जान से हाथ धो बैठेंगे। लेकिन, मई के पहले सप्ताह में आईएचएमई ने अपने आकलन में परिवर्तन कर मरने वालों की तादाद सितंबर तक 14 लाख तक होने का अंदेशा जताया है। वाशिंगटन स्थित इस संस्थान का पिछले साल अमेरिका के बारे में किया गया आकलन काफी हद तक ठीक बैठा था। हालांकि, पिछले साल भारत के बारे में अनुमान सटीक नहीं बैठा था। दुआ करें कि इस बार भी यह आकलन सही नहीं बैठे।
लेकिन, संक्रमण कहां तक पहुंचेगा? इसके बारे में वैज्ञानिकों की अलग-अलग राय है। आईएचएमई के मुताबिक, मई के मध्य तक रोजाना मौतों का आंकड़ा 5600 तक पहुंच सकता है। जुलाई तक संक्रमण दर रोजाना 6-7 लाख तक हो सकती है। अमेरिका स्थित मिशिगन विश्वविद्यालय के आकलन के मुताबिक, दूसरी लहर के पीक के समय संक्रमण दर रोजाना 8-10 लाख होगी। मध्य मई तक रोजाना होने वाली मौत का आंकड़ा 4500 तक हो सकता है। कानपुर आईआईटी के डॉक्टर मनिंद्र अग्रवाल के मुताबिक, मई मध्य तक महामारी के पीक के समय संक्रमण 4.4 लाख रोजाना हो सकती है। एक्टिव मामलों की संख्या 38-48 लाख तक हो सकती है। भारत में इसके चलते अब तक ढाई लाख से ज्यादा मौतें हो चुकी हैं। अमेरिका में अब तक 5.81 लाख मौतें हो चुकी हैं। एक फर्क है अमेरिका जैसे विकसित देशों में पहली लहर में ज्यादा जानें गईं, जबकि दूसरी लहर में कम। इसके उलट भारत में दूसरी लहर में मौतों का आंकड़ा काफी बढ़ गया है।
सबसे चिंताजनक पहलू स्टेट बैंक की रिपोर्ट में उजागर हुआ है। इसके अनुसार दूसरी लहर में लगभग आधे मरीज ग्रामीण क्षेत्रों में मिल रहे हैं। यह तादाद कुल संक्रमण की 48.5 फीसद तक हो सकती है। तो क्या कोरोना वायरस गांवों में घुस रहा है? ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य सेवाओं की बदहाली से कोई भी अंजान नहीं हैं। सरकारों द्वारा किए जा रहे तमाम प्रयास अमूमन मेट्रो और बड़े शहरों तक ही ज्यादा केंद्रित हैं।
विदेशों से आ रही मेडिकल सामग्री का भी ज्यादातर आवंटन केंद्र और राज्यों के बड़े शहरों के मेडिकल अस्पतालों के लिए ही किया जा रहा है। ऐसी हालत में ग्रामीण इलाकों में संक्रमण और इससे होने वाली मौतों का अंदाज ही लगाया जा सकता है। हवा से खींचकर नाइट्रोजन को अलग कर ऑक्सीजन बनाने वाले ऑक्सीजन कंसन्ट्रेटर कितनी संख्या में ब्लॉक स्तर पर भेजे गए हैं। यह आंकड़ा अब तक पब्लिक डोमेन में नहीं है। यही स्थिति एन-95 मास्क के बंटवारे की है। क्या आपको पता है कि कितने ऐसे मास्क तहसीलों में या प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों तक पहुंचाए गए हैं?
देश में एक बड़ी समस्या ग्रामीण इलाकों में वैक्सीन की पहुंच को लेकर भी है। केंद्र सरकार ने उत्पादन का आधा हिस्सा राज्यों और निजी अस्पतालों के बीच बांट दिया है। कॉरपोरेट अस्पताल तो कोल्ड चेन बरकरार रखते हुए लॉजिस्टिक का खर्च वहन कर लेंगे। उनका ग्राहक तो भुगतान कर सकेगा। अपने ग्रामीण इलाकों के कितने अस्पताल व निजी नर्सिंग होम ऐसा कर सकेंगे?
केंद्र सरकार ने तो बजट में टीकाकरण के लिए 35000 करोड़ आवंटन करने के बाद भी हाथ खींच लिए हैं। 18 से ऊपर की 85 से 90 करोड़ आबादी को दो खुराक यानी 180 करोड़ डोज के भी केंद्र को कुल 27000 करोड़ देने पड़ते। यह सही है कि प्राइवेट स्वास्थ्य सेवाओं को भी मौका मिलना चाहिए। लेकिन, किस कीमत पर? अपना कर्तव्य निभाते हुए भी केंद्र सरकार ऐसा कर सकती थी। यदि किसी को जल्दी चाहिए और जेब इजाजत दे तो वह निजी अस्पतालों की तरफ रुख कर सकता है।
तो अब क्या किया जाए? हाल में अमेरिकी सेंटर फॉर डिजीज कंट्रोल एंड प्रीवेंशन (सीडीसी) ने एक अध्ययन में दावा किया कि नोवल कोरोना वायरस हवा से भी फैल सकता है। यानी दो मीटर की दूरी पर्याप्त नहीं है बचाव में। बोलने या सांस लेने के कारण फैली बूंदे (एरोसोल) काफी देर तक हवा में रहती है। फाइजर के सीईओ अल्बर्ट वाउरिओ पहले ही कह चुके हैं कि छह माह में इसकी बूस्टर डोज लेनी पड़ सकती है। इसके बाद हर छठे महीने या साल में बूस्टर डोज लेने की जरूरत पड़ सकती है। वैक्सीन भी लगातार अपडेट करती रहनी पडे़गी।
यदि गंभीरता से काम किया भी जाए तो भी स्वास्थ्य सेवाओं को पुख्ता होने में वक्त लगता है। बशर्ते, सरकार की प्राथमिकता सूची में लोगों की सेहत ऊपर आ जाए। देखिए। मेडिकल ऑक्सीजन के बारे में मार्च में ही सचेत हो जाते तो इतनी अफरातफरी तो नहीं फैलती। फिलहाल, दूसरी और तीसरी या चौथी लहर की आशंकाओं से ग्रस्त होने के बजाय हाथ धोते रहने और मास्क को जिंदगी का जरूरी हिस्सा मान लेने में ही सबकी भलाई है। तब तक यही श्रेयस्कर है। दोषारोपण से बात नहीं बनने वाली है।


कौन सा वायरस ढहा रहा ज्यादा कयामत

वायरस की प्रकृति में ही बदलाव होता है। यह समय के साथ अपना रूप बदलता रहता है। यही वजह है कि कभी इसके द्वारा संक्रमण की रफ्तार अपने आप कम हो जाती है। कभी अचानक से कहर ढाने लगता है। याद करिए कि महाराष्ट्र, दिल्ली में तो पिछले साल चुनाव नहीं हुए थे, फिर क्यों इसका भयावह रूप सामने आया। दुनिया की सबसे बड़ी स्लम बस्ती धारावी में इसने कयामत बरपा दी थी।
पहले माना गया था कि ब्रिटेन में पाया गया वायरस बी.1.1.7 उत्तर भारत में तेजी से संक्रमण फैला रहा है। बाद में महाराष्ट्र के विदर्भ में पाए गए वायरस बी.1.617 (डबल म्युटेंट) को तेजी से लोगों को संक्रमित करने का जिम्मेदार माना गया।
अब इसके तीन और नए रूप (म्युटेंट) सामने आ चुके हैं। बी.1.617.1, बी.1.617.2 और बी.1.617.3।  वैसे भारत ने भले ही इस म्युटेंट को यह नाम दिया है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इसकी ताकीद नहीं की है। वैज्ञानिकों का मानना है कि किसी एक वायरस के रूप को ही समूचे देश में संक्रमण फैलाने का जिम्मेदार नहीं माना जा सकता है। चिंताजनक सभी हैं चाहे डबल म्युटेंट हो, दक्षिण अफ्रीकी या ब्राजीली वायरस।
हाल में इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च (आईसीएमआर) के अध्ययन में पता चला है कि डबल म्युटेंट के कारण तीसरे दिन के बाद से वजन में कमी, नथुनों में वायरस का ज्यादा इकट्ठा और फेफड़ों में अधिक संक्रमण हुआ है। यह अध्ययन अभी जानवरों पर ही किया गया है।

सरकार लापरवाह बनी रही: लैंसेट

मशहूर अंतरराष्ट्रीय मेडिकल जर्नल लैंसेट ने भारत में कोरोना के फैलाव के लिए सरकार की लापरवाही को जिम्मेदार माना है। अपने संपादकीय में लिखा है कि सरकार के बड़े अफसरों ने पहले ही इसपर अपनी जीत घोषित कर दी है। सरकार ने बार-बार यह संकेत दिए। कई महीनों तक संक्रमण के मामले कम आने के बाद यह बयानबाजी होती रही कि भारत ने कोविड-19 को हरा दिया। जबकि कोरोना में बदलाव (म्युटेंट) और दूसरी लहर की चेतावनी वैज्ञानिक पहले से दे रहे थे।
लैंसेट के मुताबिक ऐसे बयान दर्शाते हैं कि मोदी सरकार महामारी को लेकर किस हद तक लापरवाह थी। भारत में गलत प्रचार किया गया कि कोरोना पर काबू पा लिया गया है। इसीलिए टीकाकरण की भी दर धीमी हो गई। हालांकि जनवरी में ही इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च(आईसीएमआर) ने एक सीरो सर्वे में बताया था कि सिर्फ 21 प्रतिशत आबादी में ही एंटीबॉडीज बनी है।
लैंसेट ने राजनीतिक और धार्मिक अनुष्ठानों के आयोजन पर भी सवाल खडे़ किए। यही नहीं राज्यों के साथ बगैर चर्चा के अचानक 18 वर्ष से ऊपर की आयु के लिए टीकाकरण खोलने पर भी प्रश्न उठाए। आपूर्ति का ध्यान नहीं रखा गया। जर्नल के मुताबिक मोदी सरकार के सामने दो चुनौतियां हैं, पहला वैक्सीन आपूर्ति बढ़ाना और ऐसा वितरण मॉड्यूल बनाना जिसमें ग्रामीण और गरीब नागरिक भी इसमें शामिल हो सकें।
जर्नल ने अमेरिका के इंस्टीच्यूट फॉर हेल्थ मैट्रिक्स एंड इवोल्यूशन के आंकड़ों का हवाला देते हुए एक अगस्त तक भारत में कोरोना महामारी से कोई दस लाख मौतों का अंदेशा जताया है। भारत को इस संकट से निपटने के लिए उचित कदम जल्द उठाने चाहिए।

उत्पादन ही कम तो कैसे होगा टीकाकरण?

दुनिया के विशेषज्ञ मानते हैं कि टीकाकरण ही नोवल कोरोना वायरस से बचाव का एकमात्र विकल्प है। विकसित देश अपनी अधिकतम आबादी को वैक्सीन देने की तैयारी में जुटे हैं। भारत के उच्चतम न्यायालय ने भी 18 से ऊपर की सभी आबादी के टीकाकरण के बारे में सरकार से पूछा था।
देश में अब तक कुल 16.8 करोड़ लोगों को कोरोना महामारी का टीका लग चुका है। इनमें पहली खुराक कोई 13.38 करोड़ लोगों को दी जा चुकी है। यह आबादी का कोई 9.8 होता है। इसके अलावा दोनों खुराक कोई 3.44 करोड़ लोगों को दी जा चुकी है। यह आबादी का कोई 2.5 फीसद होता है। दूसरे शब्दों में देश की आबादी को यदि कोरोना होता भी है तो ढाई फीसद आबादी को गंभीर दुष्प्रभाव से निपटना नहीं पडे़गा। यानी अस्पताल जाने की नौबत नहीं भी आ सकती है।
तो सवाल उठता है कि सबको कब तक टीका मिल सकेगा? केंद्र सरकार ने दस मई को सुप्रीम कोर्ट में दाखिल हलफनामे में कहा है कि इसमें समय लग सकता है। हलफनामे के मुताबिक, जुलाई तक भारत में विकसित कोवैक्सीन का उत्पादन दोगुना होकर 5.5 करोड़ होने की उम्मीद है। कोविशील्ड का उत्पादन भी 6.5 करोड़ तक होने की उम्मीद है। हाल में मंजूर स्पूतनिक-वी का उत्पादन भी जुलाई तक 1.2 करोड़ डोज हो सकता है। वैसे रूस की वैक्सीन आयातित की जा रही है। मई तक 30 लाख, जून में 50 लाख और जुलाई में एक करोड़ खुराक देश में आ जाएंगी। कुल मिलाकर स्पूतनिक की 1.8 खुराक आयातित भी कर ली जाएंगी।
एक अनुमान के मुताबिक, देश में जुलाई तक 13 करोड़ वैक्सीन का उत्पादन होने लगेगा। सरकार मई, जून और जुलाई में सप्लाई की जाने वाली 11 करोड़ खुराक का भुगतान सीरम इंस्टीच्यूट ऑफ इंडिया को और इसी अवधि में सप्लाई की जाने वाली पांच करोड़ खुराग का भुगतान बायोटेक इंडिया को कर चुकी है। आने वाले समय में कुछ और वैक्सीन देश में आ सकती है।
लेकिन, सरकारी आंकड़ों के मुताबिक देश में 18 से 44 वर्ष की आयु के कोई 59 करोड़ लोग हैं। दो खुराक यानी 122 खुराक की जरूरत होगी। जाहिर है टीकाकरण की यह रफ्तार काफी धीमी है।
एक और दिक्कत वैक्सीन नीति की भी है। सरकार ने 50 फीसद उत्पादन राज्यों और निजी अस्पतालों को सौंप दिया है।


पेटेंट कानून में बदलाव आसान नहीं

  • पिछले साल कानून में बदलाव की मांग का विकसित देशों ने किया था विरोध
  • उनका तर्क था कि ऐसा करने पर दवा कंपनियों की नई खोज पर पड़ेगा असर

अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन का पेटेंट कानून के मसले पर रुख बदलना वाकई बड़ी बात है। कोरोना महामारी के इस दौर में अनेक देश वैक्सीन की बाट जोह रहे हैं। इसकी वजह समूची दुनिया की आवश्यकता के अनुरूप इसका उत्पादन नहीं हो पाना है। लेकिन, बौद्धिक संपदा कानून में बदलाव की डगर लंबी है।
नोवल कोरोना वायरस से पिछले कोई डेढ़ साल से पूरी दुनिया प्रभावित है। अब तक दुनिया में 15 करोड़ 80 लाख लोग इससे संक्रमित हो चुके हैं। 32 लाख 80 हजार लोगों की जान जा चुकी है। यह आंकड़े आठ मई तक के हैं। यह आंकड़े डराते हैं कि इतने ज्यादा लोगों की जान जा चुकी है। करोड़ों लोग अस्पतालों या अपने घरों में आइसोलेशन में रहकर इससे निपटने में लगे हैं।
इन सबकी आस इस महामारी से निपटने में वैक्सीन की भूमिका पर टिकी है। पिछले साल से दुनिया की बड़ी दवा कंपनियां इससे निपटने के लिए कमर कस चुकी थीं। आनन-फानन में वैक्सीन विकसित की गई। कई वैक्सीन का इस वायरस पर असर 70 फीसद से लेकर 92 फीसद तक पाया गया। महामारी के मद्देनजर ‘एमरजेंसी’ प्रावधान के तहत इनके उपयोग को मंजूरी दे दी गई।
लेकिन, बड़ा सवाल इनकी उत्पादन क्षमता का है। अमेरिका, ब्रिटेन और यूरोपीय यूनियन ने अपनी दवा कंपनियों को इतना बड़ा ऑर्डर दिया कि यह कंपनियां इन देशों के ऑर्डर पूरा करने में ही लगी हुई है। बाकी देशों तक वैक्सीन की पहुंच आसान नहीं हो पा रही है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने को विवैक्स कार्यक्रम के तहत अफ्रीका सहित अनेक कम और मध्यम आय वर्ग के देशों में वैक्सीन पहुंचाने की योजना भी बनाई है। पर, यह इतना आसान नहीं है।
इसलिए पिछले साल अक्टूबर में जब भारत और दक्षिण अफ्रीका ने महामारी के मद्देनजर बौद्धिक संपदा कानून में बदलाव की मांग उठाई तो तब विकसित देशों ने इसका विरोध किया था। उनका तर्क था कि ऐसा किए जाने पर दवा कंपनियों की नई खोज पर असर पड़ेगा।
यह तर्क सामान्य परिस्थितियों के मद्देनजर वाजिब माना जा सकता है। लेकिन, महामारी में यह कतई वाजिब नहीं है। यह सच है कि दवा कंपनियां कई प्रकार की शोध में लगी रहती हैं। इनमें से कई दफा नई दवा का आविष्कार नहीं हो पाता है। सारी कवायद बेकार हो जाती है। नतीजतन, इस ‘शोध’ में किया गया सारा खर्च बेकार हो जाता है। इसलिए यह कंपनियां किसी एक आविष्कार के सहारे ही खर्च की भरपाई करती हैं।
शोध के बाद तैयार दवा का पेटेंट उसी कंपनी के पास ही एक निश्चित अवधि तक रहता है। ताकि वह अपना मुनाफा सुनिश्चित कर सके। लेकिन, यह मुनाफाखोरी कितनी होगी यह कौन तय करेगा? मशहूर उद्योगपति बिल गेट्स भी कंपनियों के हक में खड़े हैं। काबिलेगौर है कि उनकी कंपनी माइक्रोसोफ्ट द्वारा हर साल एंटी वायरस डालकर कंप्यूटर का ऑपरेटिंग सिस्टम दुरुस्त रखना पड़ता है। दवा कंपनियां ही नहीं बल्कि उद्योगपतियों की एक जमात पेटेंट कानून में ढिलाई के पक्ष में नहीं खड़ी हैं।
यूरोपियन यूनियन के चेयरमैन चार्ल्स माइकेल ने आठ मई को कहा है कि यूरोपीय यूनियन कई देशों का मानना है कि इस महामारी से निपटने के लिए जल्द से जल्द वैक्सीन बनाने की जरूरत है। लिहाजा, अमेरिका और ब्रिटेन जैसे देशों को इसके उत्पादन में काम आनेवाली सामग्री के निर्यात में उदारता बरतनी चाहिए। माइकेल ने यह भी कहा है कि सभी यूरोपीय यूनियन के देशों ने तय किया है कि तैयार खुराक का भी निर्यात तेजी से करना चाहिए। आंकड़ों के मुताबिक, बीस करोड़ खुराक 90 देशों को भेजी भी है और इतनी ही अपने नागरिकों को भी दी है।
विश्व व्यापार संगठन की नई डायरेक्टर जनरल गोजी ओकोंजो-ईवियाला भी भारत और दक्षिण अफ्रीका के इस प्रस्ताव के पक्ष में नजर नहीं आती हैं। हाल में एक अखबार में उन्होंने कहा है कि पेटेंट कानून में अस्थायी बदलाव करने से बेहतर है कि किसी तीसरे विकल्प पर बात की जाए। उन्होंने तीसरे विकल्प के तौर पर भारत के सीरम इंस्टीच्यूट ऑफ इंडिया का हवाला दिया। यह संस्थान भी तो लाइसेंसिंग के तहत एस्ट्राजेनेका-ऑक्सफोर्ड की वैक्सीन ‘कोविशील्ड’ के नाम से बना रहा है।

वैसे भी विश्व व्यापार संगठन में सहमति के आधार पर ही कोई फैसला किया जा सकता है। संगठन के अनुच्छेद क.3 और क.4 में कहा गया है, ‘अभूतपूर्व परिस्थितियों’ में पेटेंट कानून में परिवर्तन किया जा सकता है। यानी यह मुमकिन है। लेकिन, सवाल उठता है कि अमेरिका ने भी चार माह तक इस बारे में अपना मुंह नहीं खोला था। वह भी बीती चार मई को ही इस बिंदु पर राजी हुआ है। जर्मनी जैसे बड़े देश अब भी बौद्धिक संपदा अधिकार के पक्ष में खडे़ हैं।
तो साफ है कि पेटेंट कानून में बदलाव की डगर आसान नहीं है। दरअसल, हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि यदि इसमें बदलाव हो भी जाता है तो इसमें प्रयुक्त सामग्री के निर्माता तो अमेरिका, जर्मनी और ब्रिटेन जैसे देश ही रहेंगे। जब विश्व व्यापार संगठन की हाल में बनी डीजी आइविएला भी सीरम इंस्टीच्यूट जैसी सिर्फ उत्पादन करने वाली कंपनियां ही चाहती हैं तो बड़े बदलाव की सोचना जल्दबाजी होगी।
आलोक भदौरिया, नई दिल्ली।

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