आतंकवाद, युद्ध और हिंदुत्वपरस्त राष्ट्रवाद

 जवरीमल्ल पारख

‘पुलवामा के बाद बालाकोट पर हुई ज्यादा बड़ी सर्जिकल स्ट्राइक ने भी आतंकवादी हमलों पर रोक नहीं लगायी बल्कि उरी और पुलवामा से बड़ा हमला कश्मीर के पहलगाम में हुआ। ऐसा प्रतीत होता है कि सर्जिकल स्ट्राइक का मक़सद आतंकवादी हमलों को रोकना नहीं है बल्कि हमला करने वालों को सज़ा देना है। यानी रणनीतिक रूप से सर्जिकल स्ट्राइक का मक़सद हमले का जवाब और बड़े हमले से देना है, बस। नतीजा यह होता है कि दूसरी तरफ़ से भी अगली बार और बड़ा हमला किया जाता है।’– जवरीमल्ल पारख का यह लेख भारत-पाकिस्तान की हालिया झड़प को एक व्यापक परिप्रेक्ष्य में रखकर देखने की कोशिश है। पिछले 70 सालों के इतिहास की कई चीज़ों से जो लोग या तो नावाक़िफ़ हैं, या वर्तमान के साथ उसे जोड़कर नहीं देख पा रहे हैं, उनके लिए यह लेख बहुत उपयोगी, यहाँ तक कि संग्रहणीय है।

आरएसएस ने देश के आज़ाद होने के बाद से हिन्दू जनता को सांप्रदायिक आधार पर संगठित करने के अपने अभियान को कभी रोका नहीं। महात्मा गाँधी की हत्या के कुछ समय बाद ही इसने अयोध्या की बाबरी मस्जिद को लेकर अपने सांप्रदायिक अभियान की शुरुआत कर दी थी। कहा जाता है कि 1528 में बाबर के सेनापति मीर बाक़ी ने बाबर के नाम से अयोध्या में बाबरी मस्जिद का निर्माण कराया था। हिन्दू पौराणिक मान्यता के अनुसार अयोध्या राम की जन्मभूमि मानी जाती है। अगर हम थोड़ी देर के लिए मान भी लें कि राम (जो दरअसल एक मिथकीय कल्पना से अलग कुछ नहीं है) का जन्म अयोध्या में ही हुआ था, लेकिन ठीक उसी जगह राम का जन्म हुआ था जहाँ बाबरी मस्जिद थी, इसका कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है और न ही इस बात का प्रमाण है कि उस जगह पर कभी राम मंदिर था। लेकिन आरएसएस के मनगढ़ंत दावे के अनुसार जहाँ बाबरी मस्जिद थी, वहाँ पर पहले राम मंदिर था और उसी मंदिर को तोड़कर बाबरी मस्जिद बनायी गयी थी। दरअसल, आरएसएस हिंदुओं के धार्मिक विश्वास का इस्तेमाल अपने राजनीतिक लाभ के लिए करना चाहती थी। इसीलिए साज़िश के तहत 22-23 दिसम्बर 1949 की मध्यरात्रि को बाबरी मस्जिद के बीच के गुंबद के नीचे चोरी-छिपे राम की मूर्ति रख दी गयी थी और यह दावा किया गया कि रामलला की मूर्तियाँ ईश्वरीय चमत्कार से स्वयं प्रकट हुई हैं। बाबरी मस्जिद में मूर्तियाँ रखी जाने का बहाना लेकर मस्जिद में मुसलमानों के प्रवेश पर रोक लगा दी गयी थी। मुस्लिम पक्ष मस्जिद में मूर्तियाँ रखे जाने के विरुद्ध अदालत भी गया। स्वयं प्रधानमंत्री नेहरू ने युक्त प्रांत के काँग्रेस नेताओं को मूर्तियाँ हटाने का आदेश दिया। लेकिन स्थानीय अदालत से यथास्थिति बनाये रखने का आदेश प्राप्त कर मूर्तियों को मस्जिद में यथावत बनाये रखा गया। स्पष्ट था कि प्रदेश के काँग्रेस नेताओं की मूर्तियाँ रखने वालों के साथ मिलीभगत थी। अदालतों में मामला तीस साल से अधिक समय तक लटका रहा। मुसलमानों को मस्जिद में नमाज़ पढ़ने से वंचित कर दिया गया। 1984 में इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद हिंदुओं में जो सांप्रदायिक प्रतिक्रिया पैदा हुई, और जिसके कारण जगह-जगह सिखों का कत्ले-आम किया गया, उसके बाद लोकसभा चुनाव में हिन्दू सांप्रदायिक वोट काँग्रेस की ओर हस्तांतरित हो गया। उसीका नतीजा था कि काँग्रेस को लोकसभा में 414 और भाजपा को केवल दो सीटें ही मिली। लेकिन आरएसएस-भाजपा को यह समझने में समय नहीं लगा कि धार्मिक भावना को उद्वेलित करने वाले मसले को लेकर हिंदुओं को एकजुट किया जा सकता है। आरएसएस को तब बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि के मसले का राजनीतिक इस्तेमाल करने का विचार आया। ठीक इसी समय आरएसएस से जुड़े संगठनों ने बाबरी मस्जिद की जगह पर राम मंदिर बनाने की माँग को लेकर आंदोलन करना शुरू कर दिया।

भारत में राजीव गाँधी के शासनकाल में कुछ ऐसी ग़लतियाँ की गयीं, जिनसे आरएसएस-भाजपा को अपनी स्थिति और मज़बूत करने का अवसर मिला। 1985 में मध्य प्रदेश की शाहबानो के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने शाहबानो के पक्ष में फ़ैसला देते हुए गुज़ारा भत्ता देने का आदेश दिया। लेकिन तत्कालीन राजीव गाँधी सरकार ने मुस्लिम तत्ववादियों के दबाव के आगे झुकते हुए सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले को उलट दिया। नये क़ानून के अनुसार, ‘जब एक मुसलमान तलाक़शुदा महिला इद्दत के समय के बाद अपना गुज़ारा नहीं कर सकती है, तो न्यायालय उन संबंधियों को उसे गुज़ारा देने का आदेश दे सकता है, जो मुस्लिम क़ानून के अनुसार उसकी संपत्ति के उत्तराधिकारी हैं। लेकिन अगर ऐसे संबंधी नहीं है अथवा वे गुज़ारा देने की हालत में नहीं है, तो न्यायालय प्रदेश वक्फ़ बोर्ड को गुज़ारा भत्ता देने का आदेश देगा’। इस प्रकार पति को केवल इद्दत की अवधि के लिए गुज़ारा भत्ता देने तक सीमित कर दिया गया। आरएसएस-भाजपा ने इसे मुसलमानों के तुष्टीकरण का एक और उदाहरण बताया।

आरएसएस-भाजपा ने इसके बाद राम मंदिर का आंदोलन और तेज़ कर दिया। हिंदुओं में शाहबानो की तीखी प्रतिक्रिया होती देख हिन्दू पक्ष ने स्थानीय अदालत से मंदिर का ताला खोलने का आदेश हासिल कर लिया। राजीव गाँधी सरकार ने 9 नवंबर 1989 को राम मंदिर का शिलान्यास करने की अनुमति दे दी। राजीव गाँधी सरकार द्वारा हिंदुओं और मुसलमानों के प्रतिगामी और सांप्रदायिक तत्वों को तुष्ट करने के बावजूद 1989 का लोकसभा का चुनाव काँग्रेस नहीं जीत सकी और एक मिली-जुली सरकार विश्वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्व में 2 दिसंबर 1989 में गठित हुई। इस सरकार को भाजपा और वामपंथियों ने बाहर से समर्थन दिया। पिछड़ी जातियों के बीच अपने समर्थन को मज़बूत करने के लिए वी पी सिंह सरकार ने अन्य पिछड़ी जातियों के लिए बनाये गये मण्डल आयोग की सिफ़ारिशों को लागू कर दिया, जिसके अनुसार अन्य पिछड़ी जातियों के लिए शिक्षा और रोज़गार में 27 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था की गयी थी। भाजपा को मण्डल आयोग की सिफ़ारिशों में अपने लिए ख़तरा महसूस हुआ और इस प्रभाव को कम करने तथा राम जन्मभूमि के पक्ष में देश भर में समर्थन जुटाने के लिए भाजपा के तत्कालीन अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी ने गुजरात के सोमनाथ मंदिर से उत्तर प्रदेश के अयोध्या तक रथ यात्रा निकालने का निर्णय लिया। इस रथ यात्रा ने देश में सांप्रदायिक तनाव में काफ़ी वृद्धि कर दी और कई जगह भारी दंगे हुए। लालू प्रसाद यादव सरकार ने बिहार में रथ यात्रा को बीच में ही रोक लिया और लाल कृष्ण आडवाणी को गिरफ़्तार कर लिया गया। बाद में भाजपा ने वी पी सिंह सरकार से समर्थन वापस ले लिया। 1991 में मध्यावधि चुनाव हुए और पी वी नरसिंहा राव के नेतृत्व में एक बार फिर काँग्रेस सरकार गठित हुई और इस सरकार ने पाँच साल की अवधि पूरी की।

देश में सांप्रदायिक स्थितियों के लगातार बिगड़ते जाने का लाभ भाजपा को मिला। 1984 में भाजपा को ज़रूर केवल दो सीटें मिलीं लेकिन 1989 में उसे 85 सीटें मिलीं और 1991 में 120 सीटें मिलीं। न केवल सीटें, बल्कि वोट प्रतिशत में भी बढ़ोतरी हुई। भाजपा को राम जन्मभूमि आंदोलन के लगातार मज़बूत होते जाने, इसके साथ ही सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का विस्तार होने का लाभ मिला। भाजपा को इस बात का अहसास हो गया था कि राम जन्मभूमि आंदोलन उन्हें केंद्र में राजसत्ता तक पहुँचा सकता है। इसी का नतीजा था कि 06 दिसंबर 1992 को कारसेवा के नाम पर देश भर से कारसेवकों को अयोध्या में एकत्र होने का आह्वान किया गया। जिन्हें कारसेवक कहा जा रहा था, वे दरअसल आरएसएस और उससे सम्बद्ध संगठनों के कार्यकर्ता थे। लाखों की संख्या में एकत्र कार्यकर्ताओं ने बाबरी मस्जिद पर हमला किया और कुछ ही घंटों में 500 साल पुरानी मस्जिद का विध्वंस कर दिया गया। पुरानी और विशाल मस्जिद का विध्वंस बिना योजना के संभव नहीं था। भारत के धर्मनिरपेक्ष चरित्र पर यह सबसे बड़ा हमला था। देश के कई हिस्सों में मुसलमानों पर सुनियोजित हमले हुए। उसके बाद मुंबई और दूसरे शहरों में हिंसक कार्रवाइयाँ हुईं। इन घटनाओं ने मुसलमानों में असुरक्षा की भावना पैदा की। जहाँ भी वे अल्पसंख्यक थे, उन्हें मुख्यधारा से अलगाने की प्रक्रिया तेज़ हो गयी। इसकी प्रतिक्रिया भी हुई। इसी दौरान कश्मीर के हालात बिगड़ते चले गये। कश्मीर और देश के दूसरे हिस्सों में आतंकवादी कार्रवाइयाँ बढ़ गयीं।

बाबरी मस्जिद इस बात का उदाहरण है कि शत्रुता की भावना को भरने के लिए अतीत की ऐसी तस्वीर पेश की जाती है, जिसका सत्य पर आधारित होना ज़रूरी नहीं होता। उसमें बहुत कुछ काल्पनिक और मनगढ़ंत होता है। बाबरी मस्जिद का विध्वंस और उसकी जगह राम मंदिर का निर्माण हिंदुओं की धार्मिक भावनाओं को भड़का कर किया गया। राम जन्मभूमि का पूरा आंदोलन उस एक लक्ष्य को हासिल करने की दिशा में एक क़दम था जो आरएसएस का अंतिम लक्ष्य है : धर्मनिरपेक्ष और लोकतान्त्रिक भारत को ध्वस्त कर उसे हिन्दू राष्ट्र में तब्दील करना। इसके लिए ज़रूरी है कि ग़ैर-हिंदुओं को नागरिकता के उन सब अधिकारों से वंचित किया जाये, जो मौजूदा संविधान भारत के सभी नागरिकों को प्रदान करता है। जब आरएसएस और उससे सम्बद्ध संगठन मुसलमानों की देशभक्ति को संदेह की दृष्टि से देखते हैं, उनके धार्मिक और सामाजिक विश्वासों को ग़ैर-भारतीय बताकर न केवल तीखी आलोचना करते हैं, बल्कि इस वजह से उन पर हिंसक हमले भी किये जाते हैं। कई बार मुसलमानों पर हिन्दू भीड़ गोमाँस रखने के आरोप में हमला कर देती है, जबकि ऐसे हर मामले में आरोप अंततः झूठा निकलता है। इसी तरह लव जिहाद भी एक ऐसा ही फैलाया गया झूठ है, जिसके अनुसार मुसलमान युवक हिन्दू लड़कियों को बहला-फुसलाकर अपने जाल में फाँस लेते हैं और ऐसा आरोप लगाकर मुस्लिम युवाओं पर हिंसक हमले किये जाते हैं।

बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि आंदोलन ने भारतीय राजनीति को निर्णायक रूप से बदल डाला। चुनावों में भाजपा का समर्थन लगातार बढ़ता गया। ज़रूरत इस बात की थी कि अपने को धर्मनिरपेक्ष कहने वाली राजनीतिक पार्टियाँ एकजुट होकर भाजपा के विरुद्ध संघर्ष करतीं, ताकि जनता के बीच उसके बढ़ते समर्थन को नियंत्रित किया जा सके। लेकिन इसके विपरीत बहुत-सी तथाकथित धर्मनिरपेक्ष पार्टियाँ राजनीतिक स्वार्थों से प्रेरित होकर अवसर मिलते ही भाजपा के साथ गठबंधन करने में नहीं हिचकिचाती थीं। 1998 में जब पहली बार भाजपा के नेतृत्व में सरकार बनी, तब उसको समर्थन देने वाली कई और पार्टियाँ भी थीं। 1999 में यह समर्थन और बढ़ा, जिसके कारण भाजपा लगातार पाँच साल तक केंद्र में सत्तासीन रही। आपातकाल के बाद से वामपंथी पार्टियों की नीति यही रही थी कि किसी भी तरह काँग्रेस और भाजपा को सत्ता से बाहर रखना है। लेकिन वे यह नहीं देख पाये कि सत्ता से बाहर रहकर भी ग़ैर-काँग्रेस और ग़ैर-भाजपा सरकारों से नज़दीकियों का लाभ भाजपा को लगातार मिलता रहा है। शायद इसका कारण यह था कि वे अब भी काँग्रेस और भाजपा का मूल्यांकन एक ही तरह से कर रहे थे। तानाशाही प्रवृत्ति की पार्टी (काँग्रेस) और फ़ासीवाद पार्टी (भाजपा) के बीच के अंतर को वे तब तक नहीं समझ पाये, जब तक कि बाबरी मस्जिद का विध्वंस नहीं हो गया।

नरेंद्र मोदी का शासन और उसके निहितार्थ

2002 में गोधरा की घटना और उसके बाद गुजरात में मुसलमानों के नरसंहार ने हालात को और अधिक बिगाड़ा, जिसका पूरा लाभ उठाते हुए भारतीय जनता पार्टी लगातार ताक़तवर होती गयी और नतीजतन 2014 से यह पार्टी एक बार फिर से केंद्र की सत्ता में है। भारतीय जनता पार्टी के मज़बूत होने का अर्थ केवल एक सांप्रदायिक पार्टी का मज़बूत होना नहीं है। वह एक ब्राह्मणवादी-मनुवादी पार्टी भी है, जो संविधान प्रदत्त समानता और सामाजिक न्याय के सिद्धांतों में विश्वास नहीं करती। भारतीय जनता पार्टी (जिसका पहले नाम भारतीय जनसंघ था) जब-जब सत्ता में आयी है, चाहे राज्यों में हो या केंद्र में, उसने उस दिशा में लगातार क़दम उठाये, जो आरएसएस की सांप्रदायिक फ़ासीवादी विचारधारा के पक्ष में जाते हैं। लेकिन 2014 में जबसे नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में केंद्र में भाजपा की सरकार बनी है, हिंदू राष्ट्र बनाने के अपने लक्ष्य की ओर वह तेज़ी से आगे बढ़ी है। लेकिन इस काम में सफलता तभी हासिल हो सकती है, जब व्यापक हिंदू जनता का समर्थन उसे मिले। इस दिशा में तो आरएसएस और उससे संबद्ध सभी संगठन ज़मीनी स्तर पर हमेशा काम करते रहे हैं, लेकिन सत्ता में आने पर वे पूरे सरकारी तंत्र का भी निर्लज्जतापूर्वक अपने लक्ष्यों के लिए इस्तेमाल करते रहे हैं। इनमें पाठ्यक्रमों में फेरबदल, हिंदुत्वपरस्त सांप्रदायिक इतिहास लेखन और अपनी विचारधारा के प्रचार के लिए मीडिया का इस्तेमाल शामिल हैं। आरएसएस और भाजपा के राजनीतिक प्रचार के साधन के रूप में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का जितने बड़े पैमाने पर इस्तेमाल पिछले 11 सालों में हुआ है, वैसा आज़ादी के बाद के किसी भी दौर में नहीं हुआ था। सत्ता के साथ नजदीकियों के कारण ही इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का नाम गोदी मीडिया हो गया है। इस बदलाव की सबसे बड़ी वजह यह है कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया जिन निजी हाथों में हैं, वे सभी या तो भाजपा समर्थक हैं या नहीं चाहते कि उनके अन्य व्यवसायों पर विरोध का नकारात्मक असर पड़े।

नरेंद्र मोदी शासनकाल का सबसे महत्त्वपूर्ण और दूरगामी असर वाला काम है क़ानूनों में बदलाव। भारतीय जनता पार्टी अपने घोषणापत्रों में तीन लक्ष्यों को बार-बार दोहराती रही है। पहला, कश्मीर से धारा 370 हटाना, दूसरा, समान नागरिक संहिता लागू करना और तीसरा, अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण। इन तीनों का लक्ष्य है, अल्पसंख्यक मुस्लिम आबादी को मुख्यधारा से निकालकर हाशिये पर धकेलना और उन्हें यह एहसास कराना कि भारत में उनकी नागरिकता हिंदुओं के समकक्ष नहीं हो सकती। नरेंद्र मोदी के शासनकाल में कश्मीर से धारा 370 हटायी जा चुकी है, अयोध्या में ठीक जिस जगह पहले बाबरी मस्जिद थी, वहाँ राम मंदिर का निर्माण हो चुका है और जनवरी, 2024 में राम प्रतिमा की ‘प्राण-प्रतिष्ठा’ भी हो चुकी है। समान नागरिक संहिता संबंधी क़ानून कुछ भाजपा राज्यों में बनाये जा चुके हैं और उन्हें लागू भी किया जा चुका है।

जिस दौर में सांप्रदायिक राजनीति का तेज़ी से फैलाव और उभार हो रहा था, उसी दौर में भारतीय राजनीतिक अर्थव्यवस्था भी पूरी तरह दक्षिणपंथी करवट ले रही थी। कह सकते हैं कि इस दौर में पूँजीवादी व्यवस्थाओं का विस्तार हुआ है, उनमें पारस्परिक आदान-प्रदान बढ़ा है और जिस तरह की भी वैकल्पिक व्यवस्थाएँ थीं, वे या तो ढह गयी हैं, या कमज़ोर हुई हैं। इस दौर की तीन पहचानें हैं, निजीकरण, उदारीकरण और भूमंडलीकरण। इसी दौर की उपज आतंकवाद भी है। आतंकवाद को विश्वव्यापी और ख़तरनाक बनाने में यदि अमरीका की नवसाम्राज्यवादी नीतियाँ ज़िम्मेदार हैं, तो उस सैन्य संबंधी प्रौद्योगिकी का भी हाथ है, जो नवीनतम हथियारों और संचार प्रौद्योगिकी के रूप में सामने आयी है। भारत में आतंकवाद कई रूपों में सक्रिय हैं, लेकिन मीडिया आमतौर पर कथित रूप से जिहादी या इस्लामी आतंकवाद को ही अपने हमले का निशाना बनाता रहा है। आतंकवाद यदि एक ओर देशभक्ति की भावनाओं को भुनाने का ज़रिया बनता है, तो दूसरी ओर, यह मीडिया को एक बहुत ही उत्तेजनापूर्ण और रोमांचकारी विषय वस्तु भी प्रदान करता है। मीडिया दर्शकों के इस राजनीतिक दुराग्रह को मज़बूत करता है कि ‘सभी मुसलमान आतंकवादी नहीं होते, लेकिन सभी आतंकवादी मुसलमान होते हैं’, जबकि हिंदुत्वपरस्त आतंकवाद भी अपने खूँखार रूप में सामने आ चुका है। यहाँ यह नहीं भुलाया जाना चाहिए कि गुजरात में मुसलमानों का नरसंहार और बाबरी मस्जिद का विध्वंस, उड़ीसा, कर्नाटक आदि में ईसाइयों पर हमले आतंकवादी कार्रवाइयों से कमतर नहीं है।

2014 में सत्ता में आने के बाद से मोदी सरकार लगातार ऐसे क़दम उठाती रही है, जिसका मक़सद हिंदुओं को सांप्रदायिक आधार पर एकजुट करना है, उनके और मुसलमानों के बीच इस हद तक विभाजन पैदा करना है, जिससे न केवल हिंदू एकजुट हों, बल्कि धार्मिक अल्पसंख्यकों विशेष रूप से मुसलमानों को मुख्यधारा से अलग-थलग भी किया जा सके। चाहे मसला गो-माँस या गो-तस्करी का हो या लव जेहाद का या जय श्रीराम बोलने का, मक़सद यही है कि मुसलमानों में ऐसा भय पैदा किया जाये, जिससे कि वे अपने को मुख्यधारा से अलग-थलग कर लें। उनका मक़सद यह भी है कि वे हिंदुओं के मन में मुसलमानों के प्रति इतनी नफ़रत और घृणा भर दें (और भय भी) कि वे उनका अपने आसपास होना भी बर्दाश्त न कर सके और मौक़ा लगते ही उनके प्रति हिंसक हो जाये। जयपुर से मुंबई जाने वाली ट्रेन में चेतन सिंह नामक सिपाही द्वारा चार मुसलमानों की हत्या इसी बढ़ती नफ़रत का नतीजा था। आरएसएस की कोशिश यह है कि हिंदू यह मानने लगें कि मुसलमान उनके लिए वैसे ही बोझ हैं, जैसे हिटलर की जर्मनी में यहूदी। उनकी समस्त परेशानियों का कारण मुसलमान ही है। इसलिए मुसलमानों के विरुद्ध किया जाने वाला कोई अपराध, अपराध की श्रेणी में नहीं आता। प्रधानमंत्री ही नहीं, भाजपा और संघ का कोई नेता ऐसे हिंसक अपराधों की न तो कभी निंदा करता है और न ही इन अपराधों की रोकथाम के लिए भाजपा सरकार द्वारा कोई क़दम उठाया जाता है। उनकी कोशिश यह भी है कि एक समुदाय के रूप में मुसलमानों की देशभक्ति को हिंदुओं की नज़रों में संदिग्ध बना दिया जाए। उनकी मौजूदगी को औरतों और बच्चों के लिए ख़तरा बताया जाये। उन्हें देश का दुश्मन और आतंकवादी बताया जाये और अगर सभी मुसलमान आतंकवादी नहीं है, तो भी सब मुसलमान आतंकवाद के समर्थक अवश्य हैं, यह हिंदू अपने दिमागों में बैठा ले।

आरएसएस इसके लिए दो और हथियारों का इस्तेमाल कर रहा है। एक, कश्मीर के सभी मुसलमानों को अलगाववादी और पाकिस्तान प्रेरित आतंकवाद का समर्थक बताना, और इसी प्रचार का परिणाम है, कश्मीर फाइल्स जैसी फ़िल्म। दूसरे, वे सभी मुसलमान, जिनके पास भारत की नागरिकता का कोई प्रमाण नहीं हैं, उन्हें घुसपैठिये और देश के लिए ख़तरनाक बताकर बाहर निकालना और जब तक वे भारत से बाहर नहीं जाते, तब तक के लिए उन्हें नागरिक अधिकारों से वंचित करके नज़रबंदी शिविरों में रखना। इसी के लिए नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) लाया गया है, जिसका अगला क़दम नागरिकों का राष्ट्रीय पंजीकरण (एनआरसी) तैयार करना होगा। भारतीय संविधान सभी नागरिकों को— चाहे उनका धर्म, जाति, लिंग, भाषा आदि कुछ भी क्यों न हो — उन्हें समान नागरिकता का अधिकार देता है। लेकिन अब इसमें से मुसलमानों को अलग कर दिया गया है। अगर कोई पड़ोसी राज्य का मुसलमान भारत की नागरिकता लेना चाहता है, तो उसे सीएए के तहत नागरिकता नहीं मिलेगी। जहाँ तक नागरिकता के रजिस्टर का सवाल है, उन सभी लोगों की नागरिकता ख़तरे में पड़ जायेगी, जिनके पास नागरिकता का प्रमाण नहीं होगा। लेकिन मुसलमानों को छोड़कर शेष समुदायों को शरणार्थी मानकर नागरिकता दे दी जायेगी। अगर 2024 के चुनाव में भाजपा को उम्मीद के अनुरूप भारी जीत मिलती, तो निश्चय ही इस बात की संभावना थी कि इस क़ानून को लागू कर दिया जाता।

भारत में आतंकवाद का इतिहास

आरएसएस-भाजपा का यह कहना सही नहीं है कि केवल इस्लामी आतंकवाद ही भारत के लिए सबसे बड़ा ख़तरा रहा है। इंदिरा गाँधी और राजीव गाँधी की हत्या इस्लामी आतंकवाद के कारण नहीं हुई थी। 1980 में सिख उग्रवाद के लगातार गंभीर होते जाने ने न केवल पंजाब, बल्कि देश के दूसरे भागों में भी आतंकवादी घटनाएँ बढ़ती जा रही थी। जरनैल सिंह भिंडरवाले के नेतृत्व में उग्रवादियों ने अमृतसर के स्वर्ण मंदिर पर क़ब्ज़ा कर लिया था। स्वर्ण मंदिर को उग्रवादियों से मुक्त कराने के लिए प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने 2 जून 1984 के दिन स्वर्ण मंदिर में सेना भेजी। इस अभियान को ऑपरेशन ब्लूस्टार नाम दिया गया। सेना ने स्वर्ण मंदिर को उग्रवादियों से मुक्त तो करा लिया, लेकिन इस मुठभेड़ में दर्शन के लिए आये आम नागरिक भी मारे गये और स्वर्ण मंदिर को भी काफ़ी नुक़सान हुआ। स्वर्ण मंदिर सिख समुदाय का सबसे पवित्र धार्मिक स्थल था, इसलिए इसकी सिख समुदाय में बहुत तीखी प्रतिक्रिया होना स्वाभाविक था। 31 अक्टूबर 1984 को इंदिरा गाँधी की सुरक्षा में तैनात दो सिख सिपाहियों ने उन्हें गोलियों से भून डाला। इसकी भयावह प्रतिक्रिया सिखों के विरुद्ध व्यापक जनसंहार में हुई।

श्रीलंका में तमिलों पर हो रहे अत्याचार ने तमिल उग्रवाद को जन्म दिया। राजीव गाँधी ने 1987 में श्रीलंका में शांति क़ायम करने के लिए पीस कीपिंग फोर्सेज़ भेजी। इससे तमिल उग्रवाद के सबसे बड़े संगठन लिबरैशन टाइगर्स ऑफ़ तमिल ईलम (एलटीटीई) से सीधे टकराव की स्थिति पैदा हो गई। 1989 में काँग्रेस लोकसभा चुनाव हार गयी थी, लेकिन विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार ज़्यादा दिन नहीं चली और 1991 में एक बार फिर चुनाव हुआ। अपनी पार्टी के प्रचार के सिलसिले में तमिलनाडु की यात्रा के दौरान राजीव गाँधी पर एलटीटीई के सुसाइड बॉम्बर ने हमला किया। इस हमले में वे मारे गये। इस तरह भारत की पदासीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी सिख अलगाववाद के हाथों मारी गयीं और एक पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गाँधी तमिल अलगववाद के हाथों मारे गये।

लोकसभा चुनाव के दौरान 13 दिसम्बर 2001 को भारत के संसद भवन पर पाकिस्तान समर्थक आतंकवादियों ने हमला किया। बताया जाता है कि इसके पीछे जैश-ए-मोहम्मद का हाथ था। हमले में कुल पाँच आतंकवादी शामिल थे और वे सभी पुलिस की गोली के शिकार हुए। दिल्ली पुलिस के छः जवान, दो संसद सुरक्षा सेवा के जवान और एक माली मारे गये। यह एक बड़ा हमला था और सारे सुरक्षा इंतज़ामों के बावजूद आतंकवादी संसद भवन परिसर में घुसने में कामयाब हुए। कुछ लोग घायल भी हुए।

27 फरवरी 2002 को जब नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे, साबरमती एक्स्प्रेस ट्रेन के एस-6 डिब्बे में आग लग गयी और 59 हिन्दू तीर्थयात्री मारे गये। भाजपा ने और विशेष रूप से गुजरात सरकार ने पूरे प्रदेश में उग्र सांप्रदायिक माहौल बनाया और उसे बनाने में नरेंद्र मोदी की भी सक्रिय भूमिका थी। उसके कारण ज़बरदस्त एकतरफ़ा दंगे भड़क उठे और मुसलमानों का व्यापक नरसंहार हुआ। सरकारी आँकड़ों के अनुसार 2000 से अधिक लोग मारे गये, औरतों का अपमान किया गया और गर्भवती औरतों के पेट तक चीर डाले गये। गुजरात नरसंहार ने नरेंद्र मोदी की उग्र हिंदुत्ववादी छवि बना दी, जिसका पूरा लाभ नरेंद्र मोदी को भी मिला और भाजपा को भी मिला।

आतंकवादी हमलों का सिलसिला लगातार चलता रहा। लेकिन कुछ हमले ऐसे भी हुए, जिनके बारे में संदेह किया गया कि उसके पीछे पाकिस्तान समर्थित आतंकवादी संगठनों का नहीं, बल्कि हिंदुत्ववादी संगठनों का हाथ हो सकता है। 18 फरवरी 2007 में पाकिस्तान जाने वाली समझौता एक्स्प्रेस पर हुए हमले में 70 लोग मारे गये और 50 लोग घायल हुए। उसी साल 18 मई को हैदराबाद की मक्का मस्जिद पर भी हमला हुआ और जिसमें 16 लोग मारे गये और 100 लोग घायल हुए। 11 अक्टूबर 2017 को अजमेर की प्रसिद्ध दरगाह पर भी आतंकवादी हमला हुआ, जिसमें 3 लोग मारे गये और 17 लोग घायल हुए। 29 सितंबर 2008 को महाराष्ट्र के मालेगाँव में हुए आतंकवादी हमले में 10 लोग मारे गये और 80 लोग घायल हुए। इन चारों हमलों के पीछे हिंदुत्ववादी संगठनों का हाथ होने का संदेह किया गया। भारतीय जनता पार्टी की पूर्व सांसद प्रज्ञा सिंह ठाकुर और कुछ अन्य लोगों को इस सिलसिले में गिरफ़्तार भी किया गया। प्रज्ञा सिंह ठाकुर पर आतंकवादी गतिविधियों में शामिल होने का मामला आज भी अदालत में चल रहा है। लेकिन इन्हीं प्रज्ञासिंह ठाकुर को भाजपा ने भोपाल से लोकसभा का न केवल टिकट दिया, बल्कि वह लोकसभा का चुनाव जीतने में भी कामयाब रही। प्रज्ञा सिंह उग्र मुस्लिम विरोधी बयानों के लिए पहचानी जाती हैं। वे गाँधी के हत्यारे नाथुराम गोडसे के समर्थन में कई बार बोल चुकी हैं। हिंदुओं को अपने पास हथियार रखने का आह्वान करती हैं और अभी हाल में मुसलमानों को धमकाते हुए कहा कि अगर आपका धर्म गो-हत्या है, तो हमारा धर्म आपकी हत्या करना है। हिंसा की इन खुली धमकियों के बावजूद उनके विरुद्ध किसी तरह की कार्रवाई नहीं की गयी।

आतंकवाद की सबसे बड़ी घटना, जिसमें पाकिस्तानी आतंकवादियों का हाथ था, मुंबई में 26 नवंबर 2008 को हुई, जिसमें 175 लोग मारे गये और 300 से अधिक लोग घायल हुए। पाकिस्तान स्थित आतंकवादी संगठन लश्कर-ए-तैबा के 10 आतंकवादियों ने समुद्र के रास्ते आकर मुंबई के 8 ठिकानों पर, जिनमें ताजमहल पैलेस होटल, छत्रपति शिवाजी महाराज टर्मिनस, नरीमन हाउस आदि शामिल थे, हमले किये। यह हमला लगभग 4 दिन चला और आतंकवादियों ने बमों का, आरडीएक्स का, धुआँधार गोलीबारी का इस्तेमाल किया। कुछ जगह लोगों का अपहरण भी किया गया। 29 नवंबर की सुबह तक अजमल कसाब को छोड़ कर सारे आतंकवादी पुलिस और सीआरपीएफ के जवानों के हाथों मारे गये। अजमल कसाब को गिरफ़्तार कर लिया गया, उस पर मुक़दमा चलाया गया और 21 नवंबर 2012 को फाँसी दे दी गयी। कुछ पुलिस जवानों के साथ-साथ इस हमले में मुंबई पुलिस के संयुक्त कमिश्नर हेमंत करकरे, जो मुंबई के आतंकवाद विरोधी स्क्वाड के प्रमुख भी थे, मारे गये। हेमंत करकरे ने ही मालेगाँव में हुई आतंकवादी घटना की जाँच की थी और उनकी जाँच से ही हिंदुत्ववादी आतंकवाद का चेहरा भी सामने आया था। तत्कालीन मनमोहन सिंह सरकार ने मुंबई आतंकवादी हमला, जिसे 26/11 के नाम से भी जाना जाता है, की गहरी जाँच करके इस बात के ठोस सबूत एकत्र किये थे कि इस आतंकवादी घटना में पाकिस्तान स्थित आतंकवादी संगठन लश्कर-ए-तयबा का हाथ है। इस जाँच ने उन लोगों के नाम भी उजागर किये, जिन्होंने इसकी पूरी योजना बनायी। पाकिस्तान को भी इस बात को मानना पड़ा और इस संगठन पर वहाँ प्रतिबंध भी लगाया गया।

आतंकवाद की कोई बड़ी घटना लगभग एक दशक तक नहीं हुई। हाँ, कश्मीर में सैनिक और अर्धसैनिक बलों के साथ मुठभेड़ होती रही या हमले होते रहे। ऐसा ही एक बड़ा हमला 18 सितंबर 2016 को कश्मीर के उरी क्षेत्र के सैनिक शिविर पर हुआ था, जिसमें आतंकवादियों ने 19 भारतीय सैनिकों को मार डाला था। इस हमले का बदला लेने के लिए दस दिन बाद पाकिस्तानी क़ब्ज़े वाले कश्मीर में घुसकर हमला किया गया जिसको सर्जिकल स्ट्राइक नाम दिया गया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसे घर में घुसकर मारने की संज्ञा दी। हालाँकि इस तरह की छः सर्जिकल स्ट्राइक मनमोहन सिंह के कार्यकाल में भी हुई थी, लेकिन इनका प्रचार नहीं किया गया था। हर आतंकवादी हमला भी घर में घुसकर ही किया जाता है। उरी सर्जिकल स्ट्राइक में पाकिस्तान के आतंकवादी शिविर को कितना नुकसान उठाना पड़ा, यह कभी स्पष्ट नहीं हो सका। सर्जिकल स्ट्राइक कभी भी भविष्य के किसी आतंकवादी हमले को नहीं रोक सकता, क्योंकि आतंकवादियों का कितना भी नुक़सान क्यों न हो, उन्हें पुरी तरह ख़त्म करना इसलिए मुमकिन नहीं होता, क्योंकि उसके पीछे पाकिस्तान की सैन्य शक्ति बनी रहती है। उरी के लगभग ढाई साल बाद ही 2019 के लोकसभा चुनाव के कुछ महीने पहले 14 फरवरी को जम्मू-श्रीनगर राष्ट्रीय राजमार्ग पर सुरक्षा बलों के काफ़िले, जिसमें कुल 78 वाहन शामिल थे, के एक वाहन पर सुसाइड बॉम्बर ने हमला किया और इस हमले में केन्द्रीय रिजर्व पुलिस बल के 40 जवान मारे गये। यह आतंकवाद की बहुत दुखद और भयावह घटना थी। लेकिन इस घटना को लेकर कई तरह के सवाल उठे।

इस काफ़िले के सड़क मार्ग से जाने में ख़तरे को देखते हुए सीआरपीएफ ने वायुमार्ग से जवानों को भेजने का सरकार से निवेदन किया था, जिसे सरकार ने ठुकरा दिया था। सैनिकों के इतने बड़े काफ़िले के गुज़रने के रास्ते पर सुरक्षा के पूरे प्रबंध भी नहीं किये गये थे। भाजपा सरकार ने इस घटना का पूरा प्रचार कर चुनाव में पूरा लाभ उठाया, लेकिन आज तक भी यह नहीं बताया गया कि सुसाइड बॉम्बर का वाहन काफ़िले के पास कैसे पहुँच गया। बॉम्बर के पास 300 किलोग्राम आरडीएक्स कहाँ से आ गयी और कश्मीर में इतने सुरक्षा प्रबंधों के बावजूद यह घातक हमला कैसे हो गया। यही नहीं, उसी दौरान देवेन्द्र सिंह नामक पुलिस अधिकारी को पकड़ा गया था, जो अपने वाहन में आतंकवादियों को लेकर जा रहा था। इस पुलिस अधिकारी का क्या हुआ, यह आज तक पता नहीं चला। आज भी पुलवामा हमला एक रहस्य बना हुआ है। इस हमले का बदला लेने के लिए 12 दिन बाद 26 फरवरी को पाकिस्तानी क़ब्ज़े वाले कश्मीर के बालाकोट पर हवाई हमला किया गया। भारत का दावा है कि इस हमले में लगभग 300 आतंकवादी मारे गये। यह कथित सर्जिकल स्ट्राइक उरी के हमले से बड़ी थी और आतंकवादियों को नुकसान पहुँचाने का दावा भी उरी से ज़्यादा बड़ा था। हालाँकि इस हमले के दौरान भारत के एक फाइटर पायलट को पाकिस्तान ने पकड़ लिया था, जिसे कुछ अरसे बाद छोड़ दिया गया।

पहलगाम में आतंकवादी हमला और उसका बदला

पुलवामा के बाद बालाकोट पर हुई ज्यादा बड़ी सर्जिकल स्ट्राइक ने भी आतंकवादी हमलों पर रोक नहीं लगायी, बल्कि उरी और पुलवामा से बड़ा हमला कश्मीर के पहलगाम में हुआ। ऐसा प्रतीत होता है कि सर्जिकल स्ट्राइक का मक़सद आतंकवादी हमलों को रोकना नहीं है, बल्कि हमला करने वालों को सज़ा देना है। यानी रणनीतिक रूप से सर्जिकल स्ट्राइक का मक़सद हमले का जवाब और बड़े हमले से देना है, बस। नतीजा यह होता है कि दूसरी तरफ़ से भी अगली बार और बड़ा हमला किया जाता है। उरी और पुलवामा का हमला सैन्य बलों पर किया गया था, जबकि पहलगाम का हमला नागरिकों पर किया गया था। चार या पाँच आतंकवादी बैसारण घाटी में घुस आये थे, जो सीमा से 200 किलोमीटर अंदर बताया जाता है। वहाँ मौजूद पर्यटकों में से 26 हिन्दू पुरुष पर्यटकों को उनका धर्म पूछकर मार दिया गया था। एक नेपाली पर्यटक को भी मारा गया और एक कश्मीरी मुसलमान खच्चर वाला भी मारा गया, जो पर्यटकों को लाने-ले जाने का काम करता था और जिसने पर्यटकों पर हमले का विरोध करने का साहस दिखाया था। पुलवामा की तरह पहलगाम हमले को लेकर भी कई सवाल उठने लगे। बैसारण घाटी, जहाँ लगभग दो हज़ार पर्यटक एकत्र होते हैं, वहाँ पर्यटकों की सुरक्षा का कोई इंतेजाम नहीं था। पहले एक पुलिस चौकी हुआ करती थी, उसे भी हटा दिया गया था। यह जानबूझकर की गयी लापरवाही थी या कश्मीर में स्थितियों के सामान्य होने का आत्मघाती आत्मविश्वास था? विडंबना यह भी थी कि आतंकवादी वहाँ आये, हमला किया और टहलते हुए चले गये। पुलवामा के हमले के बारे में कई गुप्त सूचनाएँ पहले से मौजूद थीं, इसके बावजूद हमला हुआ। इसका मतलब यह है कि सुरक्षा के लिए ज़रूरी क़दम नहीं उठाये गये। ठीक वैसी ही लापरवाही पहलगाम में भी देखने को मिली है। अगर यह समाचार सही है तो पहलगाम हमले के समय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को कश्मीर की यात्रा करनी थी, लेकिन उस यात्रा को दो दिन पहले निरस्त कर दिया गया। इसका क्या कारण था? क्या इस बार भी हमले की गुप्त सूचना सरकार के पास पहले से मौजूद थी?

इस आतंकवादी हमले से जो पर्यटक घायल हुए थे, उन्हें अस्पताल ले जाने, सुरक्षित होटलों और एयरपोर्ट तक पहुँचाने में कश्मीर के मुसलमानों ने हर तरह का ख़तरा उठाकर मदद की। कई पर्यटकों को वहाँ के नागरिकों ने अपने घरों में शरण भी दी। उस भयावह संकट की घड़ी में स्थानीय नागरिकों की मदद का बहुत सकारात्मक प्रभाव हिन्दू पर्यटकों पर पड़ा, जिन्होंने कैमरे के सामने आकर खुलकर उनकी प्रशंसा की, तो कई पर्यटकों ने सुरक्षा इंतजामों के न होने की तीखी आलोचना भी की। इस आतंकवादी घटना को लेकर पूरे देश में स्वाभाविक रूप से तीखी प्रतिक्रिया हुई। कश्मीरी मुसलमान, जिन्हें यह लग रहा था कि स्थितियाँ सामान्य होती जा रही हैं और पर्यटन उद्योग तेज़ी से फल-फूल रहा है, उनके लिए आतंकवादी घटना बहुत बड़ा आघात थी। इस आतंकवादी घटना के विरोध में हज़ारों की संख्या में कश्मीरी मुसलमान दूसरे दिन से ही पूरे कश्मीर में सड़कों पर निकल आये। यह लंबे समय बाद कश्मीरी मुसलमानों द्वारा भारत के पक्ष में खुलकर अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति थी।

लेकिन शेष भारत में, विशेष रूप से आरएसएस-भाजपा ने इस घटना का लाभ उठाकर लोगों में तीव्र अंधराष्ट्रवादी और मुस्लिम विरोधी भावना भरने की कोशिश की। एक बार फिर आम मुसलमानों, विशेष रूप से कश्मीरी मुसलमानों को हमले का निशान बनाया गया। कश्मीर से बाहर उत्तर भारत के शहरों में पढ़ने वाले कश्मीरी छात्रों पर हमले किये गये। उन्हें या तो भगा दिया गया या उन्हें भागना पड़ा। ठीक उस समय जब पूरी कश्मीर घाटी भारत के साथ खड़ी थी, आतंकवादियों की खोज के नाम पर दो हज़ार से अधिक कश्मीरी युवाओं को संदेह के आधार पर गिरफ़्तार कर जेलों में डाल दिया गया। सैंकड़ों घरों पर बुलडोज़र चला दिये गये। इस आतंकवादी हमले में मारे गये हरियाणा के लेफ्टिनेंट विनय नरवाल की युवा पत्नी हिमांशी नरवाल ने, जो विवाह के कुछ दिनों बाद ही विधवा हो गई थी, शांति और सद्भाव की अपील करते हुए मुसलमानों और कश्मीरियों के प्रति नफ़रत और घृणा फैलाये जाने का विरोध किया, तो भाजपा की ट्रोल सेना ने उन्हें घृणास्पद हमले का निशान बनाया।

इस आतंकवादी घटना का विडंबनात्मक पहलू यह भी था कि आरएसएस-भाजपा ही नहीं, कई विपक्षी दल भी आतंकवादी हमले का बदला लेने की माँग करने लगे। गोदी मीडिया तो पाकिस्तान को नेस्तनाबूत करने का आह्वान करने लगा। कुछ विपक्षी दलों को छोड़कर सरकार से कोई नहीं पूछ रहा था कि जब आये दिन आतंकवादी कश्मीर में घुसने की कोशिश करते हैं और भारतीय सेना के जवानों पर हमला भी करते हैं, तब आम नागरिकों की सुरक्षा को लेकर इतनी बड़ी लापरवाही कैसे बरती गयी, जिसकी वजह से 28 नागरिकों को अपनी जान गँवानी पड़ी। जिस समय पहलगाम में आतंकवादी हमला हुआ, तब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी विदेश यात्रा पर थे और यह समाचार सुनते ही वे यात्रा को बीच में ही छोड़कर स्वदेश लौट आये। लेकिन आते ही वे दूसरे दिन बिहार की यात्रा पर चले गये और वहाँ चुनावी सभाओं में भाषण देने लगे, जिसमें पहलगाम की आतंकवाद को ख़त्म करने और हमला करने वालों को मिट्टी में मिलाने का उद्घोष किया। क्या यह यात्रा अधिक ज़रूरी थी?

इन सब सवालों का जवाब देने के बजाय भारत ने पाकिस्तान को सबक सिखाने के लिए कई तरह के प्रतिबंधों की घोषणा कर दी। पाकिस्तान से आये हुए लोगों को 48 घंटे में हिंदुस्तान छोड़ने को कहा गया। दोनों देशों ने एक-दूसरे के वायुमार्ग से उड़ान भरने पर प्रतिबंध लगा दिया। पाकिस्तान से हर तरह का व्यापार और आवगमन बंद कर दिया गया। लेकिन एक क़दम भारत ने ऐसा उठाया, जो इससे पहले के किसी भी संघर्ष की स्थिति में नहीं उठाया गया था। 1960 में विश्व बैंक की मध्यस्थता में किये गये समझौते के तहत भारत से पाकिस्तान की ओर जाने वाली नदियों को, जिनके पानी का इस्तेमाल करने का अधिकार पाकिस्तान को भी है, रोकने की घोषणा कर दी। यह एक ऐसा क़दम था जिसका इस्तेमाल भारत ने इससे पहले कभी नहीं किया था। यह दरअसल पाकिस्तान की जनता के विरुद्ध उठाया गया क़दम था और यह सीधे तौर पर मानव अधिकारों का उल्लंघन भी था।

पाकिस्तान से प्रतिशोध लेने की आवाज़ दिन-ब-दिन तेज़ होती गयी और उसी का नतीजा था कि 6 और 7 मई की अर्धरात्रि को पाकिस्तान के नौ आतंकवादी ठिकानों पर भारतीय वायु सेना ने हमला कर दिया। यह भी एक तरह की सर्जिकल स्ट्राइक थी, लेकिन उरी और बालाकोट से कहीं ज़्यादा बड़े पैमाने पर। लेकिन इस बार ऐसा नहीं हुआ कि पाकिस्तान की तरफ़ से कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई। पाकिस्तान की तरफ़ से भी जवाबी हमला हुआ और दोनों तरफ़ से हमले ने इस कथित सर्जिकल स्ट्राइक को बिना घोषणा के युद्ध में तब्दील कर दिया। भारत की तरफ़ से दावा किया गया कि आतंकवादी ठिकानों पर हमले ने सौ से अधिक आतंकवादियों को मार गिराया और उनके अड्डे नष्ट कर दिये गये। पाकिस्तान की तरफ़ से दावा किया गया कि भारत के छः लड़ाकू विमान, जिनमें रफाल भी शामिल था, मार गिराये गये। भारत ने इस दावे का न तो खंडन किया और न ही पुष्टि की। जम्मू और कश्मीर की सीमा पर पाकिस्तान की तरफ़ से लगातार गोलीबारी होती रही, जिसकी वजह से सीमावर्ती क्षेत्रों में रहने वाले लोगों को अपना घर-बार छोड़कर भागना पड़ा। पाकिस्तानी गोलीबारी में लगभग 15-20 नागरिक मारे गये। युद्ध दिन-ब-दिन भयावह रूप लेता जा रहा था। वास्तविकता से ज़्यादा गोदी मीडिया पर युद्ध लड़ा जा रहा था, जहाँ पाकिस्तान के बड़े शहर तबाह हो चुके थे, आधा पाकिस्तान भारतीय सेना के क़ब्ज़े में आ चुका था, भारतीय सेना इस्लामाबाद तक पहुँच गयी थी और कराची का बंदरगाह पूरी तरह तबाह किया जा चुका था। लाहौर में भी भारतीय सेना घुस चुकी थी। गोदी मीडिया द्वारा फैलायी जा रही बेबुनियाद झूठी ख़बरों का सरकार द्वारा खंडन भी नहीं किया जा रहा था, जबकि भारतीय सेना द्वारा की जा रही ब्रीफिंग में ऐसा कोई दावा नहीं किया गया था। ज़ाहिर था कि गोदी मीडिया द्वारा फैलाया जा रहा झूठ भारत की आम जनता के लिए था, जिनमें इन झूठे दावों के द्वारा पाकिस्तान विरोधी युद्धोन्माद और विवेकहीन अंधराष्ट्रवाद की भावना भरी जा सके, जिसमें मुस्लिम विरोधी घृणा भी अंतर्निहित होती है।

आतंकवादी हमला होने के दो सप्ताह बाद भारत की ओर से जवाबी हमला किया गया था जिसे ऑपरेशन सिंदूर नाम दिया गया। इस हमले का उद्देश्य पाकिस्तानी सेना और उनके सैनिक ठिकानों पर हमला करना नहीं था, जैसा कि भारत ने अपनी ब्रीफिंग में घोषणा की थी। मक़सद केवल पाकिस्तान स्थित आतंकवादी ठिकानों पर हमला करना था। ये नौ ठिकाने आतंकवादी अड्डे ही थे जो पाकिस्तान अधीनस्थ कश्मीर और पाकिस्तान के पंजाब प्रांत में मौजूद थे। भारत ने भारी नुकसान पहुँचाने का दावा तो किया, लेकिन जवाबी हमला दो सप्ताह बाद किया गया था, इसलिए क्या इस बात की ज़्यादा संभावना नहीं थी कि इन आतंकवादी ठिकानों को पहले ही खाली कर दिया गया हो और आतंकवादी भी वहाँ से कहीं और सुरक्षित जगहों पर भेज दिये गये हों। और क्या इन हमलों के बावजूद नये आतंकवादी अड्डों के भविष्य में फिर से वजूद में आने की संभावना से इन्कार किया जा सकता है? इसका अर्थ सिर्फ़ यह है कि आतंकवादी हमले और प्रति-आतंकवादी हमले का सिलसिला न केवल चलता रहेगा, बल्कि हर नया हमला दोनों तरफ़ से पहले से ज़्यादा बड़ा और ज़्यादा ख़तरनाक होगा। स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी यह कह चुके हैं कि भविष्य में होने वाले हर आतंकवादी हमले को ‘ऐक्ट ऑफ़ वार’ माना जायेगा। यानी कि हर हमले का जवाब इतने बड़े हमले से दिया जायेगा, जो युद्ध की श्रेणी में आता हो। क्या इससे पाकिस्तान की ओर से आतंकवादी गतिविधियों में कमी आने की संभावना है? इस बार जिस तरह पाकिस्तान ने भारतीय हमले का जवाब दिया है और उसके जवाब के पीछे चीन (और तुर्की) का सक्रिय सहयोग भी रहा है, तब भविष्य में होने वाले युद्ध दोनों देशों के लिए कितने ख़तरनाक साबित होंगे, कहना मुश्किल है। इस बार के अनुभव का विडंबनात्मक पहलू यह भी है कि किसी भी अन्य देश ने आतंकवाद के विरुद्ध भारत की लड़ाई को समर्थन नहीं दिया। यही नहीँ, इसी दौरान पाकिस्तान को अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोश से भारत के विरोध के बावजूद भी ऋण प्राप्त हुआ। पाकिस्तान को सुरक्षा परिषद का अस्थायी सदस्य भी मनोनीत किया गया। यह भारतीय विदेश नीति की क़रारी हार थी।

इस अंधराष्ट्रवाद की हवा चार दिन बाद ही निकल गयी, जब अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने दावा किया कि उनके और उनके उपराष्ट्रपति और विदेश मंत्री के प्रयासों से भारत और पाकिस्तान युद्ध विराम के लिए राज़ी हो गये हैं। राष्ट्रपति ट्रम्प ने यह दावा 10 मई 2025 को भारतीय सेना की शाम छः बजे की ब्रीफिंग से आधा घंटा पहले कर दिया था और युद्धविराम उससे भी आधा घंटा पहले यानी शाम पाँच बजे लागू हो गया था। दस मई को भारतीय समय के अनुसार शाम पाँच बजे दोनों देशों के बीच युद्ध विराम लागू हो गया। भारत ने राष्ट्रपति ट्रम्प के दावों का न तो खंडन किया और न ही युद्धविराम के लिए उनको श्रेय दिया। इसके विपरीत यह कहा गया कि पाकिस्तान की ओर से वहाँ के डायरेक्टर जनरल ऑफ़ मिलिटरी ऑपरेशंस (डीजीएमओ) ने भारतीय डीजीएमओ को फोन किया और उनसे युद्धविराम की अपील की, जिसे भारत ने स्वीकार कर लिया। भारत ने अपनी ब्रीफिंग में अमरीका की मध्यस्थता का कोई उल्लेख नहीं किया। अमरीका ने यह भी दावा किया कि दोनों देश जल्दी ही किसी तटस्थ जगह पर मिलकर कश्मीर सहित आपसी समस्याओं का समाधान खोजेंगे। अमरीकी राष्ट्रपति ट्रम्प लगभग हर रोज़ युद्ध विराम कराने का दावा करते रहे। उन्होंने वहाँ की अदालत में युद्ध विराम संबंधी हलफ़नामा भी दाख़िल किया। ज़ाहिर है कि कोर्ट में दाख़िल किया जाने वाला हलफ़नामा असत्य नहीं हो सकता। डोनाल्ड ट्रम्प ने यह भी दावा किया कि युद्ध विराम इसलिए ज़रूरी था कि दोनों देशों में आणविक युद्ध होने की संभावना बढ़ गयी थी। इस तरह युद्ध विराम द्वारा लाखों लोगों की जान बचायी गयी है। भारत ने इसका भी खंडन नहीं किया। राष्ट्रपति ट्रम्प ने एक अन्य प्रसारण में दावा किया कि उन्होंने दोनों देशों को धमकाया कि अगर वे युद्ध विराम के लिए राज़ी नहीं होंगे, तो अमरीका उनसे व्यापार पर रोक लगा देगा और नहीं तो व्यापार को बढ़ावा देगा। भारतीय प्रवक्ता ने इस दावे का खंडन तो किया, लेकिन पूरे मामले में अमरीकी दख़लंदाज़ी पर भारत चुपी लगाये रहा। युद्ध विराम कराने के अमरीकी दावे की पुष्टि रूसी राष्ट्रपति पुतीन ने भी कर दी है। अगर अमरीका की दख़लंदाज़ी से युद्धविराम हुआ है, तो 1972 के शिमला समझौते का स्वयं भारत ने उल्लंघन कर दिया था, जिसके अनुसार दोनों देश कश्मीर सहित सभी मामलों का किसी तीसरे पक्ष की दख़लंदाज़ी के बिना आपसी बातचीत से समाधान खोजेंगे।

इस चार दिन के युद्ध में दोनों पक्ष अपनी-अपनी जीत का दावा कर रहे हैं। इस लड़ाई में जीत किसे कहेंगे और हार किसे कहेंगे, यह तय करना भी बहुत मुश्किल है। भारत का शुरू से दावा था कि उसका मक़सद पाकिस्तान के साथ युद्ध करना नहीं था, बल्कि उन आतंकी अड्डों को समाप्त करना था, जहाँ से भारत पर आतंकी हमला होता रहा है। अब जब युद्धविराम हो चुका है, तब प्रधान मंत्री का कहना है कि ऑपरेशन सिंदूर ख़त्म नहीं हुआ है, बस उसे स्थगित किया गया है। ऑपरेशन सिंदूर इस बात का उदाहरण है कि घर में घुसकर हमला करने का सिद्धांत ऐसा नहीं है, जो दूसरे पक्ष को जवाबी हमला करने से रोक सके। भारत एक ओर यह मानता है कि उस पर होने वाले आतंकी हमले के पीछे पाकिस्तानी सैन्य सत्ता का हाथ है, यानी कि आतंकवाद पाकिस्तान द्वारा भारत के विरुद्ध चलाया जाने वाला प्रॉक्सी वार (छद्म युद्ध) है। इसलिए यह कहने का कोई अर्थ नहीं है कि सर्जिकल स्ट्राइक के तौर पर पाकिस्तान स्थित आतंकी अड्डों पर हमला करने से आतंकवाद को रोका जा सकता है या उन्हें सबक़ सिखाया जा सकता है, जबकि उसके पीछे एक देश का पूरा सैन्य-तंत्र है। आम तौर पर आतंकी हमलों के पीछे आतंकी संगठनों का नाम लिया जाता है, जो पाकिस्तान से भारत के विरुद्ध अपनी कार्रवाइयाँ चलाते हैं और इसके लिए उन्हें सभी तरह के संसाधन पाकिस्तान मुहैया कराता है। सर्जिकल स्ट्राइक द्वारा इन आतंकी संगठनों को कुछ हद तक नुकसान पहुँचाया जा सकता है, लेकिन स्थायी नुकसान नहीं पहुँचाया जा सकता। स्थायी नुकसान तभी पहुँचाया जा सकता है, जब पाकिस्तान इन आतंकी संगठनों को समर्थन और सहयोग देना बंद कर दे। वह ऐसा तभी कर सकता है जब भारत और पाकिस्तान के बीच संबंधों में मूलभूत सुधार हो। लेकिन जब तक ऐसा नहीं होता है, तब तक भारत को पाकिस्तान से लगने वाली अपनी सभी तरह की सीमाओं पर सुरक्षा व्यवस्था इस हद तक मज़बूत बनानी होगी कि वहाँ से किसी आतंकवादी की घुसपैठ असंभव हो। दूसरा इससे भी ज़्यादा ज़रूरी है, देश के प्रत्येक नागरिक की देशभक्ति पर पूरा विश्वास करना और उनके असंतोष को जड़ से समाप्त करने के लिए ईमानदारी से कोशिश करना।

भारत और पाकिस्तान (और चीन भी) एक दूसरे के पड़ोसी देश हैं। उनका एक दूसरे का पड़ोसी होना एक ऐसा सत्य है, जिसे किसी भी स्थिति में बदला नहीं जा सकता। शत्रुता का भाव पड़ोसियों को कभी शांति से जीने नहीं दे सकता। इस ग़लतफ़हमी में जीना कि हम बड़े देश हैं और हमारे पास ज़्यादा ताक़त है और हम अपने शत्रु को परास्त कर सकते हैं, यह महज़ अपने को छलावा देना है। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद जितने भी युद्ध लड़े गये हैं, उनमें दोनों पक्षों के बीच ताक़त का जितना भी अंतर क्यों न रहा हो, ताक़तवर की जीत ही होगी, यह सिद्ध नहीं हुआ है। अमरीका के मुक़ाबले वियतनाम एक छोटा और कमज़ोर देश था और अमरीका ने अपनी पूरी ताक़त झोंक दी थी। लेकिन आख़िरकार अमरीका को ही वियतनाम छोड़कर जाना पड़ा। अफ़गानिस्तान तो और भी कमज़ोर देश रहा है, लेकिन पहले सोवियत संघ को और फिर अमरीका को भी हार-जीत के फ़ैसले के बिना ही अफ़गानिस्तान छोड़ना पड़ा। इस्राइल के मुक़ाबले फिलिस्तनियों के पास अपने हौसले के अलावा क्या है, लेकिन सात दशकों बाद भी हर तरह की कुर्बानी के बावजूद इस्राइल फिलिस्तनियों को परास्त नहीं कर सका।

विभाजन के बाद से भारत और पाकिस्तान के बीच चार-चार युद्ध हो चुके हैं, पिछले चार दशक से पाकिस्तान भारत के विरुद्ध प्रॉक्सी वार भी चला रहा है, लेकिन दोनों देशों को इस लंबी लड़ाई से क्या हासिल हुआ है? 78 साल लंबी लड़ाई के बावजूद दोनों देशों ने एक दूसरे को कमज़ोर ही बनाया है। भारत बड़ा और लोकतान्त्रिक देश रहा है, इसलिए युद्धों के दवाब को कुछ हद तक झेल सकता है। लेकिन पाकिस्तान जहाँ लोकतंत्र अपनी जड़ें जमाने में नाकामयाब रहा है, उसके लिए लगातार युद्ध की स्थिति में रहना उसे कमज़ोर बनाता रहा है और ऐसी स्थिति में उसे कभी अमरीका और कभी चीन की मदद की ज़रूरत रहती है। पाकिस्तान में सत्ता पर सेना का प्रत्यक्ष या परोक्ष नियंत्रण होना दोनों देशों के बीच संबंधों में सुधार की संभावना को वास्तविक नहीं होने दे सकता। इसकी संभावना और भी कमज़ोर हो जाती है, जब सेना इस्लामीकरण में गहरे रूप में जकड़ी हुई हो, क्योंकि यह इस्लामीकरण भारत के प्रति शत्रुता की भावना को उग्र रूप में ज़िंदा रखता है।

इससे बहुत अलग तस्वीर भारत की नहीं है। भारत ने वास्तव में कितनी तरक़्क़ी की है, इसके लिए पाकिस्तान से तुलना करने का कोई अर्थ नहीं है। अगर तुलना की जानी हो, तो चीन से की जानी चाहिए और तभी हम अपने पिछड़ेपन को पहचान सकते हैं। यह सही है कि हमारी अर्थव्यवस्था दुनिया की पाँचवी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है, लेकिन वह इसलिए है, क्योंकि हमारी आबादी 145 करोड़ हैं और प्रतिव्यक्ति आय के लिहाज से देखें, तो भारत 196 देशों में 144वें स्थान पर है, जबकि चीन 69वें स्थान पर है और दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है। इससे भारत की वास्तविक स्थिति का पता लग सकता है। भारत में पिछले 11 साल से सांप्रदायिक फ़ासीवादी पार्टी सत्ता में है और वह सत्ता में बने रहने के लिए पाकिस्तान से शत्रुता को ज़रूरी मानती है। इन दोनों ताक़तों को सत्ता में बने रहने के लिए जनता की बुनियादी समस्याओं से भटकाये रखना ज़रूरी लगता है और इसके लिए धर्मोन्माद और अंधराष्ट्रवाद की ज़हरीली हवा भरते रहना ज़रूरी लगता है। पाकिस्तान में सेना अगर सत्ता पर सीधे तौर पर आसीन न हो (जैसा कि आजकल नहीं है), तो भी नागरिक सत्ता उनके दबाव से कभी स्वतंत्र नहीं हो पाती। सैन्य सत्ता के संरक्षण में विभिन्न जिहादी गुट फलते-फूलते रहते हैं, जिनका इस्तेमाल वे भारत के विरुद्ध प्रॉक्सी वार के लिए करते रहते हैं। लेकिन इसके मूल में कश्मीर की अनसुलझी समस्या भी है, जिसे धर्मोन्माद और अंधराष्ट्रवाद से मुक्त होकर ही सुलझाने की दिशा में बढ़ा जा सकता है। कुछ हद तक यह बात भारत पर भी लागू होती है, जहाँ आरएसएस-भाजपा के सत्ता से बाहर होने पर भी उनका वैचारिक दबाव धर्मनिरपेक्ष पार्टियों पर भी इतना अधिक रहता है कि वे ऐसा कोई क़दम नहीं उठा सकतीं, जो दोनों देशों के बीच शांतिपूर्ण सहअस्तित्व का माहौल निर्मित करने में सहायक हो। यह तभी हो सकता है, जब दोनों देशों के बीच बातचीत के दरवाज़े हर परिस्थिति में खुले रहें। इसके लिए बहुत ज़रूरी है कि अंधराष्ट्रवादी और धर्मोन्मादी ताक़तों को कमज़ोर किया जाये और दोनों देशों की जनता के हित में ज़रूरी हर तरह के संबंधों को बढ़ावा दिया जाये। इसमें सामाजिक, शैक्षिक और सांस्कृतिक आदान-प्रदान, हर परिस्थितियों में खेल-कूद के आयोजन, एक दूसरे के देश में फिल्मों के आयोजन, पर्यटन सहित व्यापार को बढ़ावा दिया जाना और एक-दूसरे के देश में आने-जाने पर न्यूनतम अवरोध ज़रूरी है। ऐसा तभी हो सकता है, जब दोनों देशों में धर्मनिरपेक्ष लोकतान्त्रिक प्रक्रियाएँ मज़बूत हों।

क्या इन दोनों देशों के मौजूदा शासक वर्ग ऐसा होने देंगे, यह दोनों देशों की जनता को सोचना है। भारत में जहाँ अभी ऐसी पार्टी सत्ता में है, जो अपने देश के नागरिकों के एक समूह यानी मुसलमानों की देशभक्ति को संदेह की दृष्टि से देखती है, उसके न केवल सत्ता में रहते, वरन हमारे सामाजिक जीवन का स्वीकार्य हिस्सा होते यह संभव नहीं है। गृहमंत्री अमित शाह ने पश्चिम बंगाल में जनसभा में बोलते हुए एक पूरी तरह से झूठी बात कही कि ममता बनर्जी ने ऑपरेशन सिंदूर का विरोध इसलिए किया, ताकि मुसलमानों का तुष्टीकरण कर सके। सच्चाई यह है कि ममता बनर्जी ने न केवल ऐसी कोई बात नहीं कही, बल्कि विभिन्न देशों में जाने वाले सात दलों में से एक दल में तृणमूल काँग्रेस का एक सांसद भी शामिल है। लेकिन अमित शाह की बात में मुसलमानों के बारे में जो कहा गया है, वह बहुत ही ख़तरनाक है, जिसमें यह मान लिया गया है कि मुसलमानों की देश की वफ़ादारी पर यक़ीन नहीं किया जा सकता। अपने इस बयान पर तो क़ायदे से उन्हें गृहमंत्री के पद से हटा दिया जाना चाहिए!

दोनों देशों की जनता को इस बात को भी गंभीरता से समझना होगा कि उनके सत्ता वर्ग के हाथ में एक ऐसा विनाशकारी (आणविक) हथियार आ चुका है, जो किसी भी उन्माद की स्थिति में व्यापक विनाश का कारण बन सकता है और जिसकी चपेट में पड़ोसी होने के कारण दोनों देश आ सकते हैं। नरेंद्र मोदी एक बार कह चुके हैं कि आणविक हथियार दिवाली पर पटाखे छोड़ने के लिए नहीं बनाये हैं। कुछ इससे मिलती-जुलती बात पाकिस्तान के सेनाध्यक्ष भी कह चुके हैं। अगर दोनों देशों के पास आणविक हथियार हैं, तो उनका इस्तेमाल वहाँ के शासकों के विवेक पर नहीं छोड़ा जा सकता। उनका विवेक कब जवाब दे जाये और जिस तरह से मीडिया झूठी ख़बरें फैलाता है, उसे देखते हुए कोई भी ख़तरनाक अफवाह विनाश का कारण बन सकता है। आणविक हथियारों के इस्तेमाल से बचने का एक ही उपाय है, उनकी पूरी तरह से समाप्ति। क्या भविष्य में ऐसा मुमकिन हो पायेगा?

*(लेखक इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय से प्रोफेसर पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। जनवादी लेखक के राष्ट्रीय कोषाध्यक्ष हैं। संपर्क : jparakh@gmail.com)*

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