विशेष आलेख : गणेश कछवाहा
“हमें अपनी मानसिक दासता की बेड़ी की एक-एक कड़ी को बेदर्दी के साथ तोड़कर फेंकने के लिए तैयार रहना चाहिए। बाहरी क्रांति से कहीं ज़्यादा ज़रूरत मानसिक क्रांति की है। हमें आगे-पीछे, दाहिने-बाएं दोनों हाथों से नंगी तलवारें नचाते हुए अपनी सभी रूढ़ियों को काटकर आगे बढ़ना होगा।” … “रूढ़ियों को लोग इसलिए मानते हैं, क्योंकि उनके सामने रूढ़ियों को तोड़ने वालों के उदाहरण पर्याप्त मात्रा में नहीं हैं।”
… “धर्म आज भी वैसा ही हजारों मूढ़ विश्वासों का पोषक और मनुष्य की मानसिक दासता का समर्थक है, जैसा पांच हजार वर्ष पूर्व था।”’ … ”सभी धर्म दया का दावा करते हैं, लेकिन हिंदोस्तान के इन धार्मिक झगड़ों को देखिए, तो मनुष्यता पनाह मांग रही है।
राहुल सांकृत्यायन के विशाल साहित्य में से चुने गए उक्त अंशों में उनके क्रांतिकारी विचारों की झलक दिखती है। राहुल सांकृत्यायन, जिन्हें ‘महापंडित’ की उपाधि दी जाती है, हिंदी के एक प्रमुख साहित्यकार थे। वे एक प्रतिष्ठित बहुभाषाविद् थे और बीसवीं सदी के पूर्वार्ध में उन्होंने यात्रा वृतांत/यात्रा साहित्य तथा विश्व-दर्शन के क्षेत्र में साहित्यिक योगदान किया।
वह हिंदी के यात्रा-साहित्य के पितामह कहे जाते हैं। बौद्ध धर्म पर उनका शोध हिंदी साहित्य में युगान्तरकारी माना जाता है, जिसके लिए उन्होंने तिब्बत से लेकर श्रीलंका तक भ्रमण किया था। इसके अलावा उन्होंने मध्य-एशिया तथा कॉकेशस भ्रमण पर भी यात्रा वृतांत लिखे हैं, जो साहित्यिक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण हैं। इस प्रकार, आधुनिक हिंदी साहित्य में राहुल सांकृत्यायन बहुभाषाविद्, अग्रणी विचारक, साम्यवादी चिन्तक, यात्राकार, इतिहासविद्, तत्त्वान्वेषी और युग परिवर्तक साहित्यकार थे। ऐसी प्रतिभा बहुत कम लोगों में देखने को मिलती है।
राहुल सांकृत्यायन का जन्म उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिले के पंदहा गाँव में 09 अप्रैल 1893 को हुआ था। उनके बाल्यकाल का नाम केदारनाथ पाण्डेय था। उनके पिता गोवर्धन पाण्डेय एक धार्मिक विचारों वाले किसान थे। माता का नाम कुलवंती था।
राहुल सांकृत्यायन के जीवन का मूलमंत्र ही घुमक्कड़ी यानी गतिशीलता रही है। घुमक्कड़ी उनके लिए वृत्ति नहीं, वरन् धर्म था। राहुल जी का समग्र जीवन ही रचनाधर्मिता की यात्रा थी। जहाँ भी वे गए, वहाँ की भाषा व बोलियों को सीखा और इस तरह वहाँ के लोगों में घुल-मिल कर वहाँ की संस्कृति, समाज व साहित्य का गूढ़ अध्ययन किया। राहुल सांकृत्यायन उस दौर की उपज थे, जब ब्रिटिश शासन के अन्तर्गत भारतीय समाज, संस्कृति, अर्थव्यवस्था और राजनीति — सभी संक्रमणकालीन दौर से गुजर रहे थे। वह दौर समाज सुधारकों का था एवं कांग्रेस अभी शैशवावस्था में थी। इन सब से राहुल अप्रभावित न रह सके एवं अपनी जिज्ञासु व घुमक्कड़ प्रवृत्ति के चलते उन्होंने घर-बार त्याग कर साधु वेषधारी संन्यासी से लेकर वेदान्ती, आर्यसमाजी व किसान नेता एवं बौद्ध भिक्षु से लेकर साम्यवादी चिन्तक तक का लम्बा सफर तय किया। सन् 1930 में श्रीलंका जाकर वे बौद्ध धर्म में दीक्षित हो गये एवं तभी से वे ‘राहुल’ हो गये और सांकृत्य गोत्र के कारण सांकृत्यायन कहलाये। उनकी अद्भुत तर्कशक्ति और अनुपम ज्ञान भण्डार को देखकर काशी के पंडितों ने उन्हें ‘महापंडित’ की उपाधि दी एवं इस प्रकार वे केदारनाथ पाण्डे से महापंडित राहुल सांकृत्यायन हो गये।
सन 1937 में रूस के लेनिनग्राद में एक स्कूल में उन्होंने संस्कृत अध्यापक की नौकरी कर ली और उसी दौरान ऐलेना नामक महिला से दूसरी शादी कर ली, जिससे उन्हें इगोर राहुलोविच नामक पुत्र-रत्न प्राप्त हुआ। छत्तीस भाषाओं के ज्ञाता राहुल ने उपन्यास, निबंध, कहानी, आत्मकथा, संस्मरण व जीवनी आदि विधाओं में साहित्य सृजन किया, परन्तु अधिकांश साहित्य हिन्दी में ही रचा। राहुल तथ्यान्वेषी व जिज्ञासु प्रवृत्ति के थे, सो उन्होंने हर धर्म के ग्रन्थों का गहन अध्ययन किया। अपनी दक्षिण भारत यात्रा के दौरान संस्कृत-ग्रन्थों, तिब्बत प्रवास के दौरान पालि-ग्रन्थों, तो लाहौर यात्रा के दौरान अरबी भाषा सीखकर इस्लामी धर्म-ग्रन्थों का अध्ययन किया।
निश्चित ही राहुल सांकृत्यायन की मेधा को साहित्य, अध्यात्म, ज्योतिष, विज्ञान, इतिहास, समाज शास्त्र, राजनीति, भाषा, संस्कृति, धर्म एवं दर्शन के टुकड़ों में बाँटकर नहीं देखा जा सकता। उन्हें समग्रता में ही देखना उचित होगा। “वोल्गा से गंगा” उनकी अमर कृतियों में से एक है।
उनकी अध्ययनशीलता के कारण उनका झुकाव बौद्ध धर्म की ओर होता गया। बौद्ध धर्म में दीक्षा लेकर, वे राहुल सांकृत्यायन बने। बौद्ध धर्म में लगाव के कारण ही वे पाली, प्राकृत, अपभ्रंश आदि भाषाओं के सीखने की ओर झुके। 1917 की रुसी क्रांति ने राहुल जी के मन को गहरे प्रभावित किया। वे अखिल भारतीय किसान सभा के महासचिव भी रहे। उन्होंने तिब्बत की चार बार यात्रा की और वहा से विपुल साहित्य ले कर आए। 1932 को राहुल जी यूरोप की यात्रा पर गए। 1935 में जापान, कोरिया, मंचूरिया की यात्रा की। 1937 में मास्को में यात्रा के समय भारतीय-तिब्बत विभाग की सचिव लोला येलेना से इनका प्रेम हो गया और वे वही विवाह कर के रूस में ही रहने लगे। लेकिन किसी कारण से वे 1948 में भारत लौट आए।
कट्टर सनातनी ब्राह्मण कुल में जन्म लेकर भी सनातन धर्म की रूढ़ियों को राहुल जी ने अपने ऊपर से उतार फेंका और जो भी तर्कवादी धर्म या तर्कवादी समाजशास्त्र उनके सामने आते गये, उसे ग्रहण करते गये और शनै:-शनै: उन धर्मों एवं शास्त्रों के भी मूल तत्वों को अपनाते हुए उनके बाह्य ढाँचे को छोड़ते गये।
सनातन धर्म से आर्य समाज में और बौद्ध धर्म से साम्यवाद — राहुल जी के सामाजिक चिन्तन का ये विकास क्रम है। ‘मज्झिम निकाय’ के सूत्र का हवाला देते हुए राहुल जी ने अपनी ‘जीवन यात्रा’ में इस तथ्य का स्पष्टीकरण इस प्रकार किया है : “बड़े की भाँति मैंने तुम्हें उपदेश दिया है, वह पार उतरने के लिए है, सिर पर ढोये-ढोये फिरने के लिए नहीं।”
राहुल सांकृत्यायन को 1958 में साहित्य अकादमी पुरस्कार तथा 1963 में भारत सरकार के पद्मभूषण अलंकरण से विभूषित किया गया। राहुल सांकृत्यायन की स्मृति में भारतीय डाकतार विभाग की ओर से 1993 में उनकी जन्मशती के अवसर पर 100 पैसे मूल्य का एक डाक टिकट जारी किया गया था। पटना में राहुल सांकृत्यायन साहित्य संस्थान की स्थापना की गई है। यहाँ उनसे संबंधित वस्तुओं का एक संग्रहालय भी है। उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिले के पंदहा गाँव में राहुल सांकृत्यायन साहित्य संग्रहालय की स्थापना की गई है। जहाँ उनका जन्म हुआ था, वहाँ उनकी एक वक्ष प्रतिमा भी है। साहित्यकार प्रभाकर मावचे ने राहुलजी की जीवनी लिखी है और उनके व्यक्तित्व के उस हिस्से को उजागर किया है, जिससे लोग अनभिज्ञ थे। यह पुस्तक 1978 में पहली बार प्रकाशित हुई थी। इसका अनुवाद अंग्रेज़ी, रूसी आदि अनेक विदेशी भाषाओं में भी प्रकाशित हुआ। राहुलजी की कई पुस्तकों के अंग्रेज़ी रूपांतर तो हुए ही हैं, चीनी, रूसी आदि अनेक विदेशी भाषाओं में भी उनकी कृतियां लोकप्रिय हुई हैं।
सतमी के बच्चे, वोल्गा से गंगा, बहुरंगी मधुपुरी, कनैला की कथा आदि उनके कहानी संग्रह हैं, तो बाईसवीं सदी, जीने के लिए, सिंह सेनापति, जय यौधेय, भागो नहीं, दुनिया को बदलो, मधुर स्वप्न, राजस्थान निवास, विस्मृत यात्री, दिवोदास, सप्तसिन्धु आदि उनके उपन्यास हैं। उन्होंने विश्व प्रमुख व्यक्तित्वों की जीवनियां भी लिखीं हैं, जिनमें सरदार पृथ्वीसिंह, स्टालिन, लेनिन, मार्क्स, माओ-त्से-तुंग, वीर चन्द्रसिंह गढ़वाली, कप्तान लाल आदि प्रमुख हैं। नए भारत के नए नेता, बचपन की स्मृतियाँ, अतीत से वर्तमान, घुमक्कड़ स्वामी, असहयोग के मेरे साथी, जिनका मैं कृतज्ञ, सिंहल, घुमक्कड़ जयवर्धन, सिंहल के वीर पुरुष, महामानव बुद्ध, लंका, जापान, इरान, किन्नर देश की ओर, चीन में क्या देखा, मेरी लद्दाख यात्रा, मेरी तिब्बत यात्रा, तिब्बत में सवा वर्ष, रूस में पच्चीस मास, विश्व की रूपरेखा, ल्हासा की ओर आदि उनकी अन्य महत्वपूर्ण कृतियां हैं, जिनमें से अधिकांश यात्रा वृतांत हैं।
राहुल जी को हिन्दी और हिमालय से बड़ा प्रेम था। वे 1950 में नैनीताल में अपना आवास बना कर रहने लगे। यहाँ पर उनका विवाह कमला सांकृत्यायन से हुआ। इसके कुछ बर्षो बाद वे दार्जिलिंग (पश्चिम बंगाल) में जाकर रहने लगे, लेकिन बाद में उन्हें मधुमेह से पीड़ित होने के कारण रूस में इलाज कराने के लिए भेजा गया। 1963 में सोवियत रूस में लगभग सात महीनो के इलाज के बाद भी उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं हुआ। 14 अप्रैल 1963 को उनका 70 वर्ष की आयु में दार्जिलिंग (पश्चिम बंगाल) में देहांत हो गया।
उनकी स्मृति को क्रांतिकारी नमन!
*(लेखक ट्रेड यूनियन कार्यकर्ता है और पर्यावरण आंदोलन से जुड़े हैं। संपर्क : 94255-72284)*