संथाल ब्यूरो चीफ कौशल कुमार
अडानी पावर लिमिटेड ने झारखंड के गोड्डा जिले में 1600 मेगावाट का एक कोयला आधारित थर्मल पावर प्लांट स्थापित करने की योजना बनाई थी, जिसका उद्देश्य बांग्लादेश को बिजली आपूर्ति करना था। इसके लिए 2017 में लगभग 2300 एकड़ जमीन का अधिग्रहण शुरू हुआ, जो 11-12 पंचायत के गाँवों से लिया जाना था। इस जमीन अधिग्रहण को लेकर स्थानीय किसानों और ग्रामीणों में भारी असंतोष था, क्योंकि यह जमीन उपजाऊ थी और उनकी आजीविका का मुख्य स्रोत थी। ग्रामीणों का आरोप था कि सरकार और कंपनी ने उचित प्रक्रिया का पालन नहीं किया और उनकी सहमति के बिना जबरन जमीन ली जा रही थी।
इसी दौरान, प्रदीप यादव, जो उस समय झारखंड विकास मोर्चा (JVM-P) के विधायक थे और पोरैयाहाट से प्रतिनिधित्व करते थे, ने इस आंदोलन का नेतृत्व किया। वे इस क्षेत्र के स्थानीय नेता थे और उनकी अपनी पैतृक गाँव भी प्लांट से कुछ ही किलोमीटर दूर थी।
आंदोलन की शुरुआत और प्रमुख घटनाएँ
सत्याग्रह और धरना: प्रदीप यादव ने 2017 में “जमीन बचाओ संघर्ष समिति” के बैनर तले ग्रामीणों के साथ मिलकर एक अनिश्चितकालीन सत्याग्रह शुरू किया। यह विरोध उस समय शुरू हुआ जब अडानी पावर ने जमीन अधिग्रहण की प्रक्रिया तेज की। यादव और सैकड़ों ग्रामीणों ने गोड्डा में धरना दिया, जिसमें माँग की गई कि बिना 80% ग्रामीणों की सहमति के जमीन नहीं ली जानी चाहिए, जैसा कि भूमि अधिग्रहण अधिनियम 2013 में प्रावधान है।
भूख हड़ताल: अप्रैल 2017 में, यादव ने 45 अन्य ग्रामीणों के साथ भूख हड़ताल शुरू की। यह हड़ताल 22 दिनों तक चली। उनका कहना था कि सरकार ने जन सुनवाई को नकली बनाया और ग्रामीणों की आवाज को दबाया गया। इस दौरान 10,000 से अधिक लोग जिला कलेक्ट्रेट के पास जमा हुए थे, जो आंदोलन का चरम माना जाता है।
गिरफ्तारी: 22 अप्रैल 2017 को, सुबह करीब 4:30 बजे पुलिस ने धरना स्थल पर छापा मारा और प्रदीप यादव को गिरफ्तार कर लिया। उनके खिलाफ कई आरोप लगाए गए, जैसे दंगा भड़काना, सार्वजनिक सेवक को रोकना और आपराधिक साजिश। यादव ने कहा कि उनकी गिरफ्तारी आंदोलन को कमजोर करने की साजिश थी, जो तत्कालीन बीजेपी सरकार के इशारे पर हुई। वे लगभग 6 महीने जेल में रहे।
आंदोलन का प्रभाव और कमजोरी
प्रारंभिक सफलता: यादव के नेतृत्व में आंदोलन शुरू में मजबूत था, और परियोजना में देरी हुई। ग्रामीणों ने दावा किया कि उनकी जमीन का मूल्यांकन वास्तविक कीमत से बहुत कम (लगभग एक तिहाई) किया गया, जिसे यादव ने विधानसभा में भी उठाया। इससे कुछ सुधार हुआ, लेकिन जमीन अधिग्रहण रुका नहीं।
कमजोरी: यादव की गिरफ्तारी के बाद आंदोलन कमजोर पड़ गया। उनके बिना नेतृत्व के अभाव में कंपनी ने ग्रामीणों को प्रलोभन और दबाव के जरिए मैनेज कर लिया। अगस्त 2018 में, अडानी के अधिकारियों ने पुलिस बल के साथ जमीन पर कब्जा कर लिया और निर्माण शुरू कर दिया।
यादव का पक्ष और आरोप
यादव का कहना था कि यह परियोजना स्थानीय लोगों के लिए नहीं, बल्कि बांग्लादेश को बिजली देने के लिए थी, जिससे “सार्वजनिक उद्देश्य” का दावा बेतुका था।
उन्होंने सरकार पर आरोप लगाया कि उसने अडानी को फायदा पहुँचाने के लिए नियमों को तोड़ा और ग्रामीणों को उचित मुआवजा नहीं दिया।
बाद में, 2019 में कांग्रेस में शामिल होने के बाद भी उन्होंने इस मुद्दे को उठाना जारी रखा, जैसे पर्यावरण नियमों के उल्लंघन और कोयले के स्रोत में बदलाव के आरोप।
परिणाम और वर्तमान स्थिति
कानूनी लड़ाई: यादव के खिलाफ 7 मामले दर्ज हुए थे, जिनमें से 4 में उन्हें बरी कर दिया गया। बाकी मामले अभी लंबित हैं। उन्होंने इसे “सत्य की जीत” बताया।
पावर प्लांट: अडानी पावर प्लांट अब चालू हो चुका है, और 2023 में इसने बांग्लादेश को बिजली आपूर्ति शुरू की। हालांकि, स्थानीय स्तर पर नौकरियों, मुफ्त बिजली, और पर्यावरण क्षति को लेकर विवाद जारी है।
यादव की भूमिका: 2019 के बाद कांग्रेस विधायक के रूप में, यादव ने विधानसभा में अडानी के खिलाफ सवाल उठाए, जैसे झारखंड को 25% बिजली न मिलना और पर्यावरण नियमों का उल्लंघन।
प्रदीप यादव का अडानी पावर के खिलाफ आंदोलन एक जमीनी नेता के रूप में उनकी सक्रियता को दर्शाता है, जिसने ग्रामीणों के हक के लिए जोखिम उठाया। हालाँकि, उनकी गिरफ्तारी और राजनीतिक दबाव के कारण आंदोलन पूरी तरह सफल नहीं हो सका। यह मामला आज भी झारखंड की राजनीति और कॉर्पोरेट-सरकार संबंधों पर बहस का विषय बना हुआ है।
अडानी को इस आंदोलन से हुआ इतना नुकसान
अडानी पावर प्लांट के लिए गोड्डा में भूमि अधिग्रहण के दौरान शुरू में 12 लाख रुपये प्रति एकड़ मुआवजा दिया जा रहा था, जो बाद में बढ़कर 49 लाख रुपये प्रति एकड़ हो गया। यह बदलाव प्रदीप यादव के नेतृत्व में हुए आंदोलन और ग्रामीणों के विरोध का परिणाम था। आइए, इसे विस्तार से देखें और अडानी को हुए संभावित नुकसान का अनुमान लगाएँ।
मुआवजे में बदलाव का विवरण
शुरुआती मुआवजा: शुरू में, सरकार और अडानी ने गोड्डा की जमीन के लिए 12 लाख रुपये प्रति एकड़ की दर तय की थी। ग्रामीणों और प्रदीप यादव का दावा था कि यह राशि बाजार मूल्य से बहुत कम थी, क्योंकि उस क्षेत्र की उपजाऊ जमीन की कीमत 40-50 लाख रुपये प्रति एकड़ से कम नहीं थी।
आंदोलन का दबाव: 2017 में प्रदीप यादव के सत्याग्रह, भूख हड़ताल, और विधानसभा में इस मुद्दे को उठाने के बाद सरकार को मुआवजे की समीक्षा करनी पड़ी। ग्रामीणों ने भी दावा किया कि भूमि अधिग्रहण अधिनियम 2013 के तहत उन्हें बाजार दर का 4 गुना मुआवजा मिलना चाहिए। इस दबाव के चलते, मुआवजा बढ़ाकर 49 लाख रुपये प्रति एकड़ कर दिया गया।
जमीन की मात्रा: अडानी ने लगभग 2300 एकड़ जमीन अधिग्रहित की थी, जिसमें से अधिकांश उपजाऊ कृषि भूमि थी।
नुकसान का गणितीय अनुमान
शुरुआती लागत: अगर 2300 एकड़ के लिए 12 लाख रुपये प्रति एकड़ की दर से मुआवजा दिया जाता, तो कुल लागत होती:
2300 ×12,00,000=2,760,000,000 रुपये ( 276 करोड़ रुपये )
2300×12,00,000=2,760,000,000रुपये(276 करोड़ रुपये)
बाद की लागत: मुआवजा बढ़कर 49 लाख रुपये प्रति एकड़ होने पर कुल लागत हुई:
2300×49,00,000 = 11,270,000,000 रुपये ( 1127 करोड़ रुपये )
2300×49,00,000=11,270,000,000 रुपये (1127 करोड़ रुपये)
अतिरिक्त खर्च (नुकसान): मुआवजे में वृद्धि से अडानी को हुआ अतिरिक्त खर्च:
1127 करोड़ − 276 करोड़ = 851करोड़ रुपये
1127करोड़−276करोड़=851करोड़रुपये
इसलिए, मुआवजे में वृद्धि के कारण अडानी को 851 करोड़ रुपये का सीधा वित्तीय नुकसान हुआ।
अन्य संभावित लागतें
देरी की लागत: जैसा कि पिछले जवाब में बताया, आंदोलन से 1-2 साल की देरी हुई, जिससे 120-480 करोड़ रुपये की अतिरिक्त लागत (ब्याज, श्रम, उपकरण आदि) का अनुमान है। अगर औसत लेते हैं, तो यह लगभग 300 करोड़ रुपये हो सकता है।
कानूनी और प्रशासनिक खर्च: विरोध को दबाने, कानूनी लड़ाई, और ग्रामीणों को मनाने के लिए भी कुछ खर्च हुआ होगा, जिस (रूढ़िवादी अनुमान) में 50-100 करोड़ रुपये माना जा सकता है।
कुल नुकसान का अनुमान
मुआवजा वृद्धि: 851 करोड़ रुपये
देरी की लागत (औसत): 300 करोड़ रुपये
अन्य खर्च (औसत): 75 करोड़ रुपये
कुल संभावित नुकसान:
851 + 300 + 75 = 1226 करोड़ रुपये
( लगभग 1226 करोड़ रुपये )
851+300+75=1226करोड़ रुपये (लगभग 1226करोड़ रुपये)
निष्कर्ष
प्रदीप यादव के आंदोलन की वजह से अडानी को भूमि अधिग्रहण में मुआवजे के रूप में 851 करोड़ रुपये का सीधा नुकसान हुआ। अगर देरी और अन्य अप्रत्यक्ष लागतों को जोड़ा जाए, तो यह नुकसान 1200-1300 करोड़ रुपये के बीच हो सकता है। यह एक अनुमान है, क्योंकि सटीक आंकड़े अडानी या सरकार ने सार्वजनिक नहीं किए। फिर भी, यह आंदोलन अडानी के लिए एक बड़ा वित्तीय झटका साबित हुआ, हालाँकि परियोजना अंततः पूरी हो गई।