अभी भी जारी है भाजपा नीत एनडीए सरकार में भारतीय कृषि का कॉरपोरेटीकरण

आलेख : डॉ. विक्रम सिंह

भारत में हाल ही में सम्पन्न हुए संसदीय चुनावों में, नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा तीन चुनावों में पहली बार बहुमत हासिल करने में विफल रही। फिर भी, इसने अपने एनडीए गठबंधन सहयोगियों के समर्थन से सरकार बनाई। भाजपा की हार का एक प्रमुख कारण कृषकों (किसानों और खेत मज़दूरों) के बीच गुस्सा और आन्दोलन था। यह 159 ग्रामीण संसदीय क्षेत्रों में उनकी पार्टी की हार और तीन कृषि कानूनों के खिलाफ ऐतिहासिक और सफल किसान-संघर्षों के क्षेत्रों में उनके खराब प्रदर्शन में प्रतिबिंबित होता है।

वही पुरानी जन-विरोधी, कॉरपोरेट परस्त नीतियां

कई आकलनकर्ताओं ने अनुमान लगाया था कि केन्द्र सरकार में अपेक्षाकृत कमज़ोर भाजपा हिन्दुत्ववादी साम्प्रदायिकता की अपनी मूल नीतियों को आगे बढ़ाने से परहेज करेगी और अपने जन-विरोधी नव-उदारवादी आर्थिक एजेंडे को लागू करने की गति को रोक देगी या धीमा कर देगी। कुछ राजनीतिक टिप्पणीकारों और कृषि विशेषज्ञों का मानना था कि केन्द्र सरकार, किसानों के हितों के खिलाफ काम नहीं करेगी, कम से कम उस तरह से तो नहीं, जो खुले तौर पर दिखाई दे।

बहरहाल, सरकार बनने के बाद ये सारी धारणाएं जल्दी ही दूर हो गईं, जब पिछली मोदी सरकार के दौरान प्रमुख नीतिगत निर्णयों के लिए जिम्मेदार व्यक्तियों को प्रमुख नेतृत्वकारी पदों को बरकरार रखा गया।

कृषि मोर्चे पर, सरकार ने एक कदम आगे बढ़कर, शिवराज सिंह चौहान को केन्द्रीय कृषि और किसान कल्याण मंत्री नियुक्त किया, जिनके शासन में 6 जून 2017 को मध्य प्रदेश के मंदसौर में 6 किसानों की हत्या कर दी गई थी। ये किसान सभी फसलों की सकल लागत के 50 प्रतिशत अधिक (C2+50%) पर उचित न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) के साथ गारंटीकृत खरीद तथा कर्ज़माफी के लिए और साथ ही, किसानों की आत्महत्याओं के लिए जिम्मेदार नीतियों का विरोध कर रहे थे।

यह नैतिक रूप से निंदनीय है कि एक राजनेता, जिसके हाथ किसानों के खून से रंगे हुए हैं, उसे कृषि मंत्रालय दिया गया है। यह निर्णय अपने आप में पूरे भारत में किसानों और कृषि संकट के प्रति एनडीए की मानसिकता, दृष्टिकोण और दिशा का प्रतीक है।

पीएम किसान योजना’ के भ्रामक वादे

भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए की केन्द्र सरकार लगातार पिछले भाजपा शासन के नव-उदारवादी एजेण्डे को आगे बढ़ा रही है और कृषि क्षेत्र के पूर्ण काॅरपोरेटीकरण की दिशा में काम कर रही है। नव-निर्वाचित एनडीए सरकार के फैसले, इस प्रवृत्ति की पुष्टि करते हैं। इसका उद्देश्य कॉरपोरेट मुनाफे को अधिकतम करना है, जबकि कृषि के लिए राज्य के समर्थन को और कमज़ोर करना है। हालांकि, मीडिया एक ऐसा माहौल तैयार कर रहा है, जो भ्रामक तरीके से सकारात्मक तस्वीर पेश करता है।

उदाहरण के लिए, मीडिया द्वारा इसे एक महत्वपूर्ण उपलब्धि के रूप में चित्रित करने के बावजूद, पीएम किसान योजना के तहत 2,000 रूपये का वितरण केवल एक सतही तस्वीर है। यह भुगतान प्रत्येक किसान परिवार के लिए प्रति माह केवल 500 रूपये ही है। 2019 में जारी की गई प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि (पीएम किसान) का लक्ष्य शुरुआत में 14.5 करोड़ किसानों को सहायता प्रदान करना था, लेकिन सरकार के अपने आंकड़ों के अनुसार, इसकी पहुंच घटकर सिर्फ 9.3 करोड़ किसानों तक रह गई है। यह योजना किसानों को लाभकारी मूल्य की उनकी न्यायोचित मांग से उनका ध्यान भटकाने के लिए बनाई गई है। लाभकारी मूल्य की सिफारिश एमएस स्वामीनाथन आयोग ने की है, जिसने कानूनी रूप से गारंटीकृत खरीद के साथ सी-2+50 प्रतिशत मूल्य निर्धारण का प्रस्ताव दिया है।

सी2+50% न्यूनतम समर्थन मूल्य से लगातार इनकार

जहां तक लाभकारी मूल्य की बात है, मोदी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार एक बार फिर, खरीफ फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य (जून, 2025 के महीने में घोषित) पर झूठ और धोखे का सहारा ले रही है और दावा कर रही है कि यह उत्पादन लागत से 50 प्रतिशत अधिक है।

वास्तव में खरीफ फसलों की घोषित एमएसपी ए2+एफएल+50 प्रतिशत के फॉर्मूले पर आधारित है, जो सी2+50 प्रतिशत से काफी कम है। एक भ्रामक जानकारी में, सूचना और प्रसारण मंत्री ने घोषणा की कि खरीफ फसलों के लिए एमएसपी उत्पादन लागत का 1.5 गुना निर्धारित किया गया है। कॉरपोरेट मीडिया ने बिना किसी आलोचनात्मक जांच के, सरकार के इस नैरेटिव को बढ़ावा देते हुए, तेजी से इस दावे को स्वीकार कर लिया। वास्तव में, ये दावे भ्रामक हैं, ये 2014 के चुनावी वादे से ठीक उलट हैं, जिसमें स्वामीनाथन आयोग की सी-2+50 प्रतिशत की सिफारिश को अपनाने का वादा किया गया था।

इन एमएसपी दरों से किसानों को भारी नुकसान उठाना पड़ रहा है। धान और कपास के दो उदाहरण लें। सरकार ने धान के लिए 2,300 रुपये प्रति क्विंटल एमएसपी घोषित की है, लेकिन लागत अनुमान के आधार पर, कृषि लागत और मूल्य आयोग (सीएसीपी) के द्वारा, सी-2+50 प्रतिशत फॉर्मूले के अनुसार इसकी गणना 3,012 रुपये प्रति क्विंटल बैठती है। इसका मतलब है कि किसानों को 712 रुपये प्रति क्विंटल का नुकसान हो रहा है। हरियाणा में वर्ष 2024-25 में धान का उत्पादन, वर्ष 2023-24 के समान ही 54.1 लाख टन माना जाए, तो राज्य के धान के किसानों को 3851.90 करोड़ रुपये का नुकसान होगा।

इसी तरह कपास के लिए सरकार द्वारा घोषित एमएसपी 7121रुपये प्रति क्विंटल है, लेकिन सी-2+50 प्रतिशत के अनुसार यह 9345 रुपये प्रति क्विंटल होती है और इस प्रकार इसमें 2,224 रुपये प्रति क्विंटल का नुकसान होता है।

इसी तरह भाजपा की हरियाणा राज्य सरकार ने, 9 अतिरिक्त फसलों समेत, 24 फसलों के लिए एमएसपी घोषित करके किसानों को धोखा देने की कोशिश की है। यह घोषणा सी-2+50 प्रतिशत फॉर्मूले और कानूनी रूप से गारंटीकृत खरीद के बिना की गई है। आगामी विधानसभा चुनावों को देखते हुए ऐसा किया गया है।

कृषि के कॉरपोरेटीकरण के लिए केन्द्रीय बजट

नव निर्वाचित केन्द्र सरकार का पहला केन्द्रीय बजट, स्पष्ट रूप से राज्यों के संघीय अधिकारों का उल्लंघन करता है तथा और अधिक केन्द्रीयकरण का मार्ग प्रशस्त करता है। साथ ही साथ, कृषि के कॉरपोरेटीकरण को बढ़ावा देता है, ताकि लुटेरे कृषि व्यवसायियों के मुनाफों को अधिकतम किया जा सके।

कुल बजट के प्रतिशत के रूप में, कृषि और सम्बद्ध क्षेत्रों के लिए आबंटन 2019 में 5.44 प्रतिशत से लगातार घटकर वर्तमान में केवल 3.15 प्रतिशत रह गया है। यह वित्तीय वर्ष 2022-23 में कृषि और सम्बद्ध गतिविधियों के लिए आबंटन की तुलना में 21.2 प्रतिशत की कमी को दर्शाता है।

इसके अतिरिक्त, पशु पालन के लिए आबंटन में लगभग 24.7 प्रतिशत की महत्वपूर्ण गिरावट आई है। उर्वरकों के लिए वित्त पोषण में भी, पिछले वर्ष की तुलना में लगभग 34.7 प्रतिशत की कमी की गई है, जो कुल 87,238 करोड़ रूपये की कटौती है। इन महत्वपूर्ण कटौतियों से कृषि उत्पादकता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ने की संभावना है।

डिजिटलीकरण के नाम पर कॉरपोरेट नियंत्रण

वर्तमान एनडीए शासन की कृषि नीतियां मुक्त-बाजार की विचारधारा से अत्याधिक प्रभावित हैं। कृषि के कॉरपोरेटीकरण की एक सुविचारित योजना के हिस्से के रूप में, भाजपा के नेतृत्व वाली केन्द्रीय कैबिनेट ने 2 सितम्बर, 2024 को डिजिटल कृषि मिशन (डीएएम) पर मुख्य ध्यान देते हुए, सात नई योजनाएं शुरू करने का फैसला किया है। इसका कुल परिव्यय कृषि और सम्बद्ध क्षेत्रों के लिए लगभग 14,000 करोड़ रूपये है। अधिकांश भारतीय किसान छोटे, सीमांत, भूमिहीन या बंटाईदार किसान हैं। यदि ये किसान व्यवसाय-संचालित डिजिटलीकरण में एकीकृत हो जाते हैं, तो लुटेरे कॉर्पोरेट कृषि उत्पादन पर हावी हो सकते हैं, जिससे किसानों की आजीविका खतरे में पड़ सकती है।

यह नोट करना महत्वपूर्ण है कि यह पहलकदमी, जो कृषि आय को “बढ़ाने” का दावा करती है, एक ऐसे समय में सामने आई है, जब मोदी के “किसानों की आय दोगुनी करने” का कुख्यात वादा, पूरी तरह से अपनी विश्वसनीयता खो चुका है। यह रूख अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी के हितों के साथ करीब से जुड़ा हुआ है।

देश के शासक वर्ग का यह परिप्रेक्ष्य विश्व बैंक की रिपोर्ट “व्हाट्स कुकिंगः डिजिटल ट्रांस्फॉरमेशन ऑफ द एग्रीफूड सिस्टम’’ से प्रभावित और निर्देशित है। यह परिप्रेक्ष्य, किसानों से अधिक जानकारियां प्राप्त करके, डिजिटल कॉरपोरेशनों द्वारा बाजार की शक्ति प्राप्त करने की परिकल्पना करता है।

कृषि अनुसंधान का कॉरपोरेटीकरण

केन्द्र सरकार का मुक्त बाजार की नीतियों के प्रति झुकाव, हाल ही में घोषित कृषि अनुसंधान के ’’आधुनिकीकरण’’ की योजना में स्पष्ट दिखता है। यह पहलकदमी कृषि अनुसंधान को अत्यंत नव-उदारवादी नई शिक्षा नीति (एनईपी) के साथ जोड़ने के लिए तैयार है।

इसके चलते सार्वजनिक निवेश में और कमी आएगी तथा भारतीय कृषि के लिए अनुसंधान एजेंडे को आकार देने में, डिजिटल और कृषि कॉरपोरेशनों का प्रभाव बढ़ेगा। इस विकास को बेयर, सिंजेण्टा और अमेजॅन जैसे बहुराष्ट्रीय निगमों के बड़े पैमाने पर कृषि शोध क्षेत्र में प्रवेश के संदर्भ में देखा जाना चाहिए, जिन्होंने भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) के साथ समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं। इसके अतिरिक्त, वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने अपने 2024-25 के बजट भाषण में, प्रतिस्पर्धी ढांचे के तहत निजी अनुसंधान के लिए सार्वजनिक वित्त पोषण की पेशकश की, जो इसी बदलाव को रेखांकित करता है। यह कदम देश की खाद्य सुरक्षा के लिए खतरा पैदा कर सकता है।

राष्ट्रीय सहकारिता नीति -राज्यों के संघीय अधिकारों पर हमला

भारतीय कृषि में सहकारिताएं महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं, खासकर छोटे और सीमान्त किसानों के लिए, जो कर्ज़ लेने के लिए, कमजोर बैंकिंग संरचना के कारण, ऋण सहकारी समितियों पर निर्भर होते हैं।

केरल के सहकारिता आन्दोलन ने, इस मॉडल के महत्व और क्षमता को दर्शाया है। बहरहाल, ऐसा प्रतीत होता है कि भाजपा के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार सहकारी समितियों और समूहों को निशाना बना रही है, जो मुनाफे को अधिकतम करने के नव-उदारवादी सिद्धान्त के विकल्प के रूप में अधिशेष के साझा बटवारे पर आधारित हैं।

हालांकि सहकारी क्षेत्र संवैधानिक रूप से राज्य का विषय है, लेकिन मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल के दौरान 2021 में, अमित शाह के नेतृत्व में सहकारिता मंत्रालय की स्थापना की गई थी। इस मंत्रालय ने सहकारी नीति के सम्बन्ध में राज्य सरकारों के अधिकारों पर अतिक्रमण करने के व्यवस्थित प्रयास किये हैं।

मीडिया रिपोर्टों के अनुसार, इसने ’’नई राष्ट्रीय सहयोग नीति’’ का एक मसौदा तैयार किया है, जो भारी केन्द्रीयकरण पर ज़ोर देता है और सहकारी समितियों के प्रबन्धन में आरएसएस को एक महत्वपूर्ण भूमिका देने का प्रयास करता है।

ग्रामीण जनता के काम के अधिकार पर नीतिगत हमला जारी है

मनरेगा संकटग्रस्त कृषि अर्थव्यवस्था में, ग्रामीण आबादी, विशेष रूप से खेत मज़दूरों और छोटे किसानों के लिए, काम के अवसरों के माध्यम से, एक बड़ी राहत प्रदान करता है। ग्रामीण गरीबों की आजीविका और समूची ग्रामीण अर्थव्यवस्था के लिए, इसके महत्व के साबित हो जाने बावजूद, मोदी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार, इस योजना को कमजोर करना जारी रखे हुए है।

मनरेगा के लिए हाल ही में किया गया बजट आबंटन 86,000 करोड़ रुपए पर पहले जितना ही बना हुआ है, जिसमें से 42,000 करोड़ रूपये (लंबित बकाया सहित), जुलाई 2024 तक, पहले ही खर्च किए जा चुके हैं। इससे वित्तीय वर्ष के शेष आठ महीनों के लिए केवल 44,000 करोड़ रूपये ही बचते हैं।

यह स्थिति मनरेगा के प्रति, भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार की असंवेदनशीलता को उजागर करती है और इस कारण ग्रामीण संकट और बढ़ने तथा ग्रामीण क्षेत्रों से पलायन बढ़ने की सम्भावना है।

मवेशी अर्थव्यवस्था पर हमला

भाजपा के नेतृत्व वाली केन्द्र सरकार के तहत, गौरक्षा के नाम पर हमले काफी बढ़ गए हैं। भाजपा के चुनाव अभियान द्वारा फैलाए गए नफरत के माहौल ने अल्पसंख्यकों पर, जिसमें मवेशी व्यापार में संलिप्त लोग भी शामिल हैं, हमले तेज कर दिए हैं, जबकि मवेशी व्यापार भारत की कृषि अर्थव्यवस्था का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है।

7 जून, 2024 को एक विशेष जघन्य घटना घटी, जब छत्तीसगढ़ में महासमुंद-रायपुर सीमा पर महानदी पुल पर, एक आपराधिक गिरोह ने, दो मवेशी ले जाने वाले मज़दूरों की बेरहमी से हत्या कर दी और एक अन्य को गम्भीर रूप से घायल कर दिया। यह स्पष्ट है कि भाजपा की राज्य और केन्द्र सरकारें, इन अपराधियों के खिलाफ कार्रवाई करने में न केवल विफल रही हैं, बल्कि उन्हें प्रभावी रूप से संरक्षण दे रही हैं।

मवेशी अर्थव्यवस्था किसान परिवारों की आय में 27 प्रतिशत का योगदान देती है और भारत गोमांस निर्यात करने वाला दूसरा सबसे बड़ा देश है। मवेशी व्यापारियों और मज़दूरों पर हमले, मवेशी व्यापार को बाधित करते हैं, जिससे किसान अपने पशुओं को लाभकारी मूल्य पर बेचने में असमर्थ हो जाते हैं।

नवनिर्वाचित संसद ने गोरक्षा के नाम पर, भीड़ द्वारा की जाने वाली हत्या और घृणा अपराधों को रोकने के लिए, कानून बनाने की तत्कालिक मांग को सम्बोधित नहीं किया है। पशुपालकों, व्यापारियों और उद्योग में काम करने वाले मज़दूरों के हितों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए, मुकदमों और सज़ाओं में तेजी लाने हेतु फास्ट-ट्रैक अदालतों की भी सख्त जरूरत है।

भाजपा और एनडीए की केन्द्र सरकार, न केवल ऐसी नीतियों को लागू कर रही है, जो भारतीय कृषि, कृषि अर्थव्यवस्था और किसानों को कमजोर करती हैं, बल्कि वे इन उपायों के प्रति जनता के प्रतिरोध को बदनाम करने के लिए, सक्रिय रूप से किसान विरोधी प्रचार को भी बढ़ावा दे रही हैं।

हिमाचल प्रदेश के मंडी निर्वाचन क्षेत्र से, भाजपा की नवनिर्वाचित सांसद कंगना रनौत की टिप्पणियों को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए। हाल ही में एक साक्षात्कार में, उन्होंने दावा किया कि अब रद्द कर दिये गए, तीन कृषि कानूनों के खिलाफ किसानों का आन्दोलन ’’भारत में बांग्लादेश जैसी स्थिति’’ पैदा कर रहा था। साथ ही उन्होंने जोड़ा कि विरोध स्थलों पर ’’लाशें लटक रही थीं और बलात्कार हो रहे थे’’। उन्होंने कथित ’’साजिश’’ में चीन और अमेरिका की संलिप्तता का भी आरोप लगाया।

कंगना किसानों और किसान आंदोलन पर अपने विवादास्पद विचारों के लिए जानी जाती हैं। भाजपा के टिकट पर उनकी उम्मीदवारी, किसानों के खिलाफ उनके अभियान का समर्थन है। वास्तव में, उन्होंने इसी अभियान के जरिए, अपनी जगह पक्की की है।

हालांकि भाजपा ने हरियाणा में आगामी विधानसभा चुनावों में प्रतिक्रिया के डर से, कंगना की टिप्पणियों से खुद को दूर कर लिया है, लेकिन इस सार्वजनिक दूरी को दिखाकर, किसानों को मूर्ख बनाना सम्भव नहीं है, क्योंकि वे पहचानते हैं कि भाजपा मौलिक रूप से उनके विचारों का समर्थन करती है।

आने वाले दिनों में सरकार के समर्थन से कृषि में निजी पूंजी का हस्तक्षेप बढ़ेगा। पहले ही सरकार द्वारा बड़े कृषि व्यवसायियों के हितों को आगे बढ़ाने के लिए, किसान उत्पादक संगठनों (एफपीओ) का उपयोग करने की कोशिशें चल रही है। इसका मुकाबला किसानों और मज़दूरों के व्यापक आंदोलन से ही हो सकता है।

कुल मिलाकर, केन्द्र सरकार की वर्तमान दिशा, मोदी शासन के दो कार्यकालों के दौरान देखी गई कॉरपोरेट परस्त, किसान विरोधी नीतियों की निरंतरता को दर्शाती है।

(डॉ. विक्रम सिंह अखिल भारतीय खेत मजदूर यूनियन के संयुक्त सचिव हैं। संपर्क : 96540 14004)

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