अदालत की फटकार से चलती सरकार

कृति सिंहदेहरादून।

उत्तराखंड के आईएफएस अधिकारी को हटाए जाने का मामला चर्चा में  

कॉर्बेट टाइगर रिजर्व में निदेशक रहते पेड़ों के अवैध कटान और निर्माण के आरोप

आरोपों की जांच ईडी और केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो सीबीआई कर रही

लगता है उत्तराखंड सरकार तभी कुछ करती है जब अदालत की फटकार लगती है। इसी सितंबर की शुरुआत में सुप्रीम कोर्ट की फटकार खाने बाद उत्तराखंड सरकार ने वरिष्ठ आईएफएस अधिकारी राहुल को राजाजी टाइगर रिजर्व के निदेशक के पद से हटा दिया। राहुल के खिलाफ कॉर्बेट टाइगर रिजर्व में निदेशक रहते पेड़ों के अवैध कटान और अवैध निर्माण के आरोप हैं जिनकी जांच प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) और केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (सीबीआई) कर रहे हैं। फटकार के बाद अब राहुल को मुख्य वन संरक्षक मॉनिटरिंग, असेसमेंट, आईटी एंड एडमिनिस्ट्रेशन के पद पर तैनाती दी गई है। आईएफएस राहुल को दो साल पहले पेड़ों के अवैध कटान और अवैध निर्माण के आरोपों के बाद कॉर्बेट के निदेशक पद से हटाया गया था। हाईकोर्ट ने 2023 में इस मामले की जांच सीबीआई को सौंप दी थी। हाल में प्रदेश सरकार ने जांच और उनके विरुद्ध रिपोर्ट पर लंबित अनुशासनात्मक कार्यवाही को दरकिनार कर राहुल को राजाजी टाइगर रिजर्व के निदेशक बना दिया। क्योंकि कॉर्बेट में पेड़ों के अवैध कटान और अवैध निर्माण मामला सुप्रीम कोर्ट में चल रहा है तो मामले की सुनवाई में यब बात भी आई। सुप्रीम कोर्ट की जस्टिस बीआर गवई, प्रशांत कुमार मिश्रा व वीके विश्वनाथन की पीठ के सामने सेंट्रल एम्पावर्ड कमेटी (सीईसी) ने राहुल को राजाजी टाइगर रिजर्व का निदेशक बना देने पर आपत्ति जताई और कहा कि मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने इस तैनाती के मामले में वन मंत्रालय के मुख्य सचिव और सीईसी की सिफारिशों को अनदेखा कर राहुल को राजाजी का निदेशक बना दिया। सुप्रीम कोर्ट इस बार पर सीएम पुष्कर सिंह धामी पर बहुत बिफरा और जस्टिस बीआर गवई ने बहुत सख्त टिप्पणी करते हुए कहा- हम सामंती युग में नहीं है कि जैसा राजाजी बोलें वैसा चले। वह सीएम हैं तो क्या कुछ भी कर सकते हैं? सार्वजनिक विश्वास का सिद्धांत भी होता है। जब मंत्री और मुख्य सचिव से मतभेद हो तो कम से कम लिखित में कारण के साथ विवेक का इस्तेमाल किया जाना चाहिए था।

 पीठ ने सरकार की मनमानी पर टिप्पणी करते हुए कहा कि भ्रष्टाचार के आरोपी अधिकारी को निलंबित करने के बजाय उसका स्थानांतरण कर देना कतई उचित कदम नहीं है। दिलचस्प बात यह है कि अदालत में सरकार की ओर से राहुल को अच्छा अफसर बताया गया और कहा गया कि हमें उन्हें खोना नहीं चाहिए। हैरत की बात है कि अदालत की फटकार से पहले जब तबादले के ठीक बाद यह समाचार अखबारों में प्रकाशित हुआ था कि मुख्यमंत्री ने वन मंत्री व मुख्य सचिव की असहमति के बावजूद राहुल को राजाजी की जिम्मेदारी सौंप दी तो डैमेज कंट्रोल के लिए वन मंत्री सुबोध उनियाल से बयान दिलाया गया कि फैसले में उनकी भी सहमति थी उन्होंने राहुल की तैनाती का इस तर्क के साथ बचाव किया कि अभी जांच में वह दोषी नहीं माने गए है। ऐसे कई मामले हैं जहां जांच जारी रहने पर तैनाती दी जाती रही है। लेकिन अगले ही दिन एक अंग्रेजी अखबार ने वन मंत्री और मुख्य सचिव की असहमति का समाचार सबूतों सहित छाप दिया।

वैसे बता दें कि जिम कॉर्बेट नेशनल पार्क के कोर एरिया में अवैध और मनमाने निर्माण के साथ पेड़ों की कटाई के मामले में सुप्रीम कोर्ट पहले भी राज्य सरकार के वन मंत्री और आरोपी वन अधिकारियों को फटकार लगा चुका है। उस दौरान अदालत ने कहा था कि आप लोगों ने सार्वजनिक विश्वास के सिद्धांत को कूड़ेदान में फेंक दिया है। कोर्ट ने तब टिप्पणी करते हुए कहा था कि सरकार के इस कदम से यह बात तो साफ है कि तत्कालीन वन मंत्री और डीएफओ ने खुद को कानून मान लिया था। उन्होंने कानून की धज्जियां उड़ाते हुए और व्यावसायिक उद्देश्यों के लिए पर्यटन को बढ़ावा देने के नाम पर इमारतों के निर्माण के लिए बड़े पैमाने पर पेड़ों की अवैध कटाई की। सर्वोच्च न्यायालय ने पहले केंद्रीय अधिकार प्राप्त समिति, एनटीसीए, भारतीय वन्यजीव संस्थान और केंद्रीय पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के प्रतिनिधियों वाली एक समिति के गठन का निर्देश दिया था। इस समिति को स्थानीय पर्यावरण की क्षतिपूर्ति और बहाली के उपायों की सिफारिश करने का आदेश  दिया गया था ताकि क्षति होने से पहले की मूल स्थिति में पहुंचा जा सके। बहरहाल सुप्रीम कोर्ट की सीधे मुख्यमंत्री को फटकार और सरकार की छीछालेदर के बाद राहुल को राजाजी टाइगर रिजर्व के निदेशक के पद से हटा दिया गया।

ऐसा नहीं कि सरकार को सुप्रीम फटकार पहली बार लगी हो। इसी साल मई में सुप्रीम कोर्ट ने जंगलों में आग के मसले पर सरकार को अकर्मण्यता के लिए फटकार लगाते हुए  बुधवार को उत्तराखंड सरकार से 48 घंटे के भीतर एक विस्तृत रिपोर्ट दाखिल करने को कहा था। न्यायमूर्ति बीआर गवई, एसवीएन भट्टी और संदीप मेहता की पीठ ने राज्य के उप महाधिवक्ता जतिंदर के सेठी से कहा था – “पिछली सुनवाई के दौरान आपने जंगल में लगी आग पर काबू पाने के बारे में जो गुलाबी तस्वीर पेश की थी, वह सही नहीं लगती।” तब सेठी ने दावा किया था कि पिछले तीन दिनों में जंगल में आग लगने की कोई नई घटना नहीं हुई है और आज तक तीन स्थानों पर जंगल में आग लगी हुई है। सेठी ने राज्य में वनों की आग को नियंत्रित करने के लिए एक स्थायी तंत्र के लिए व्यापक सुझाव देने के लिए छह सदस्यीय विशेषज्ञ समिति गठित करने का सुझाव दिया  था, लेकिन एमिकस क्यूरी के परमेश्वरन ने उनका विरोध किया और पीठ को बताया कि पहले से ही राष्ट्रीय वन अग्नि योजना और उत्तराखंड वन अग्नि शमन

नीति 2022 है, जो सभी केवल कागजों पर हैं। सेठी ने फिर केंद्र सरकार से धन की कमी पर दोष मढ़ने का प्रयास किया, जिस पर पीठ ने कहा कि केंद्र को राज्य को धन जारी करने में कोई समस्या नहीं होनी चाहिए, क्योंकि दोनों ही एक ही राजनीतिक दल द्वारा शासित हैं। तब वन विभाग में भारी मात्रा में खाली पदों का मसला भी उठा। सुप्रीम कोर्ट की फटकार से बचने के लिए सुनवाई से एक दिन पहले ही  मुख्यमंत्री ने भारी मात्रा में निलंबन किए थे। इसी तरह इसी साल फरवरी में सुप्रीम कोर्ट ने पतंजलि आयुर्वेद के भ्रामक विज्ञापन के मामले में  कानून के उल्लंघन के लिए पतंजलि के खिलाफ कार्रवाई नहीं करने के लिए उत्तराखंड सरकार को फटकार लगाई थी। कोर्ट ने कहा था कि, वो राज्य लाइसेंसिंग प्राधिकरण की कार्रवाई से स्तब्ध है जो ये दिखाती है कि अधिकारियों ने फाइलों को आगे-पीछे करने के अलावा कुछ नहीं किया। कोर्ट ने उत्तराखंड सरकार से साफ कहा कि वो हरिद्वार स्थित पतंजलि आयुर्वेद के भ्रामक विज्ञापनों से जुड़े मामले में उसे छूट नहीं देगी। पतंजलि और उसकी सहायक कंपनी दिव्य फार्मेसी के खिलाफ कानूनी कार्रवाई करने में राज्य की लाइसेंसिंग अधिकारियों को विफल बताते हुए अदालत ने उत्तराखंड सरकार को फटकार लगाई. पीठ ने पूछा कि क्या राज्य सरकार को ये नहीं सोचना चाहिए था कि लाइसेंसिंग अधिकारी की कंपनी के साथ मिलीभगत है।

न्यायमूर्ति अमानुल्लाह ने उत्तराखंड सरकार का प्रतिनिधित्व कर रहे वरिष्ठ अधिवक्ता ध्रुव मेहता से कहा, ‘केंद्रीय मंत्रालय से पत्र आता है और ये बहुत स्पष्ट है कि गेंद आपके पाले में है। आपको (राज्य को) इसे रोकना चाहिए. यदि ऐसा नहीं किया जाता है तो एफआईआर दर्ज करें। सभी शिकायतें आती हैं और उन्हें आपके (राज्य) पास भेज दिया जाता है और लाइसेंसिंग प्राधिकारी उसे जिला अधिकारी को भेज देते हैं’।

लाइसेंसिंग प्राधिकारी ने जिला कार्यालय को जांच करने और रिपोर्ट देने के लिए लिखा है। अधिकारी का कहना है कि इसे कार्रवाई के लिए आपके (राज्य के) पास भेज दिया गया है। आप इससे संतुष्ट हैं तो आप इसे केंद्र को वापस भेज दें। अदालत ने पूछा कि ड्रग ऑफिसर और लाइसेंसिंग ऑफिसर का क्या काम है? आप किसका इंतजार कर रहे थे? कोर्ट ने  पूछा कि ‘क्या सरकार को ड्रग्स एंड मैजिक रेमेडीज एक्ट की जानकारी नहीं थी? इस सबके फटकार के बाद उत्तराखंड सरकार ने दिव्य फामेर्सी की कुछ दवाओं को प्रतिबंधित किया। सुप्रीम कोर्ट ही नहीं बल्कि नैनीताल हाईकोर्ट की कई मामलों में प्रदेश सरकार को फटकार के बाद ही सरकार हरकत में आई। बीते साल लोकायुक्त की नियुक्ति की मांग को लेकर नैनीताल हाईकोर्ट में दाय़र जनहित याचिका की सुनवाई में भी कोर्ट ने सरकार को फटकार लगाई थी। हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश विपिन सांघी एवं न्यायमूर्ति राकेश थपलियाल की खंडपीठ ने राज्य सरकार को लोकायुक्त की नियुक्ति करने के लिए तीन माह का अंतिम मौका दिया है। कोर्ट ने कहा है कि जब तक लोकायुक्त की नियुक्ति नहीं हो जाती, उनके कार्यालय के कर्मचारियों को वहां से वेतन न दिया जाए। चाहे तो सरकार उनसे अन्य विभाग से कार्य लेकर उन्हें भुगतान कर सकती है।

2021 में रोडवेज कर्मचारियों के वेतन मामले में उत्तराखंड हाईकोर्ट ने सैलरी को कर्मचारियों का संवैधानिक अधिकार बताते हुए आर्टिकल 23 का हवाला देते हुए कहा कि फटकार लगाई थी कि बिना पैसे के मजदूरी या बेगारी नहीं कराई जा सकती है। अधिकारियों ने  आर्थिक संकट का हवाला दिया तो फटकार लगाते हुए कहा कि क्या यह मान लिया जाए कि स्टेट पर वित्तीय संकट आ खड़ा हुआ हैऔर क्या ऐसे निर्णय बोर्ड को लेने का अधिकार कानून या संविधान देता है। अदालत ने कहा कि यह अपराध की श्रेणी में आता है। 2021में ही चार धाम यात्रा के मामले में हाईकोर्ट ने सरकार को फटकार लगाते हुए कहा था कि चर धाम में हरिद्वार कुंभ जैसे हालात न हों। एसओपी समय पर जारी हो। अधिकारी अंतिम समय में फैसले ले रहे हैं। इसके अलावा हाईकोर्ट महाकुंभ आयोजन व कोरोना को लेकर आरटी-पीसीआर यानी स्वास्थ्य जांच व स्वास्थ्य सुरक्षा के मसले पर फटकार लगा चुका है। यही नहीं सरकार गेस्ट टीचर व उपनल कर्मचारियों के मसले पर भी हाई कोर्ट से फटकार खा चुकी है। इस सबके बावजूद सरकार में कामकाज किस तरह हो रहा है इसकी मिसाल 400 करोड़ का बताया जाने वाला एनएच-74 घोटाला है। जिसकी जांच में प्रदेश शासन ने को आरोपित अधिकारियों को क्लीन चिट दे दी लेकिन हाल में ईडी ने घोटाले के आठ आरोपितों के खिलाफ चार्जशीट लगा दी यानी आरोपपत्र तय कर दिए। ऐसे में यह सवाल तो खड़ा हो ही गया है घोटाले के जिन आरोपितों को सरकार ने अपनी जांच में क्लीन चिट दे दी थी ईडी उन पर आरोप पत्र क्यों दाखिल कर रहा है?

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