चम चमकी घाम कान्ठियु मा, हिंवाली काँठी चंदी की बणीं गैनी
शीशपाल गुसाईं , भराड़ीसैंण (गैरसैंण) से लौटकर
विधानसभा भराड़ीसैंण लगभग 7841 फीट की ऊंचाई पर स्थित है, जो वाकई एक रत्न है। इस क्षेत्र की प्राकृतिक सुंदरता यहां आने वाले पर्यटकों का स्वागत करने वाले सुहावने मौसम से और भी बढ़ जाती है। बर्फ की चादर से ढकी राजसी दूधातोली पहाड़ियां सूरज की रोशनी में चमकती हैं, जिससे एक ऐसा मनोरम दृश्य बनता है जो किसी दूसरी दुनिया जैसा लगता है। हवा ठंडी और ताजा है, जो रोजमर्रा की जिंदगी की भागदौड़ से दूर एक शांत जगह प्रदान करती है।
इतनी ऊंचाई पर होने से आपको ऐसा लगता है कि आप किसी स्वर्ग में पहुंच गए हैं, जो आपको शांति और सुकून का एहसास कराता है जो कहीं और मिलना मुश्किल है। आसपास का वातावरण मनोरम है, जहां मनोरम दृश्य आपको प्रकृति की भव्यता के बारे में सोचने और उसकी प्रशंसा करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। चाहे आप प्रकृति प्रेमी हों, ट्रेकिंग करने वाले हों या फिर कोई शांतिपूर्ण जगह की तलाश में हों, भराड़ीसैंण आपको एक अविस्मरणीय अनुभव प्रदान करता है जो आपके जाने के बाद भी लंबे समय तक आपके साथ रहता है।
भराड़ीसैंण के सामने कोदियाबगढ़ (दूधातोली) में विश्वविद्यालय बनाना चाहते थे।
वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली एक प्रतिष्ठित भारतीय स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और सामाजिक कार्यकर्ता थे। उन्होंने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और अपने साहसिक और निस्वार्थ कृत्यों के लिए प्रसिद्ध हुए। कोदियाबगढ़ (दूधातोली) को विश्वविद्यालय बनाने का उनका था प्रस्ताव! गढ़वाली ने नेहरू के सामने यह बात रखी थी। इस स्थान की प्राकृतिक सुंदरता और गर्मी के मौसम के लिए इसकी आदर्श स्थिति के कारण था।
यद्यपि किन्हीं कारणों से कोदियाबगढ़ को विश्वविद्यालय नहीं बनाया जा सका, लेकिन वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली का यह प्रस्ताव उनके अपनी धरती के प्रति प्रेम और उसके विकास के प्रति समर्पण को दर्शाता है। असल में, जब यह सपना पूरा नहीं हो सका, तो गढ़वाली ने अपने परिजनों से कहा कि उनकी अस्थियाँ कोदियाबगढ़ में विसर्जित की जाएं। उनके लिए यह स्थान बहुत महत्वपूर्ण था और उन्होंने इसे एक उत्कृष्ट स्थान के रूप में सम्मानित करना चाहा।
प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. शेखर पाठक का कहना है
डॉ. शेखर पाठक, उत्तराखंड के प्रसिद्ध इतिहासकार, ने चंद्र सिंह गढ़वाली के बारे में कई महत्वपूर्ण बातें साझा की हैं। उन्होंने बताया कि गढ़वाली का जवाहरलाल नेहरू के साथ गहरा संबंध था और वे अक्सर नई दिल्ली में प्रधानमंत्री निवास में रुकते थे। चंद्र सिंह गढ़वाली की इच्छा थी कि कोटद्वार के पास भरत नगर में एक बसावट बनाई जाए। इसके अलावा, वे दूधातोली कोदियाबगढ़ में विश्वविद्यालय बनाना चाहते थे। डॉ. पाठक ने यह भी कहा कि उस समय गढ़वाल कुमाऊं विश्वविद्यालय के लिए आंदोलन जारी था। हालांकि, बाद में उत्तराखंड के निर्माण के बाद, यहां के क्षेत्र में एक कृषि विश्वविद्यालय स्थापित हुआ।
इससे पता चलता है कि गढ़वाली और अन्य नेताओं की दूरदर्शिता और संघर्षों का असर आज भी उत्तराखंड की शैक्षिक और सामाजिक संरचना पर दिखाई देता है। उनके सपनों और योजनाओं ने राज्य के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली की अस्थियां कोदियाबगढ़ की पहाड़ियों में विसर्जित
वीर चंद्र सिंह गढ़वाली की मृत्यु 1 नवंबर 1979 को विजयादशमी के दिन राम मनोहर लोहिया अस्पताल, नई दिल्ली में हुई। उनके अंतिम संस्कार में तत्कालीन वित्त मंत्री हेमवती नंदन बहुगुणा जी की उपस्थिति रही और दिल्ली में ही उनका दाह संस्कार हुआ। उनकी अस्थियों का कलश उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री कमलापति त्रिपाठी को सौंपा गया जिन्होंने इसे उच्च शिक्षा मंत्री शिवानंद नौटियाल को दिया। नौटियाल जी ने जिलाधिकारी पौड़ी को आदेश दिया कि अस्थि कलश को दूधातोली की पर्वतीय श्रृंखलाओं में स्थित कोदियाबगढ़ में ले जाकर वहां समाधि बनाई जाए। चूँकि अक्टूबर में शीतकाल का समय होता है, जिलाधिकारी ने कोटद्वार में वीर गढ़वाली के परम मित्र कुंवर सिंह नेगी को यह जिम्मेदारी सौंपी।
कुंवर सिंह नेगी ने वीर गढ़वाली के पुत्र, बहू और बेटी के साथ अस्थि कलश को थलीसैंण तक पहुंचाया। फिर अगले दिन सुबह वीर गढ़वाली के अस्थिकलश को ले जाने के लिए वे दूधातोली के दुर्गम रास्ते और जंगली जानवरों के भय के बावजूद पैदल चल पड़े। उनके साथ चार पुलिसकर्मी भी थे। इस कठिन यात्रा के दौरान कुंवर सिंह नेगी ने सभी का हौसला बुलंद रखा। कोदियाबगढ़ पहुंचकर, अस्थि कलश को छह फुट चौड़ी और छह फुट लंबी जमीन में रखा गया। वहां का दृश्य अत्यंत सुंदर और पर्वतों से घिरा हुआ था। प्रकृति की मनोहारी छटा विराजमान होकर वीर गढ़वाली को मानो सलामी दे रही थी। भराड़ीसैंण के सामने दिखाई देता है कोदियाबगढ़! यह घटना वीर चंद्र सिंह गढ़वाली की महानता और साहस का जीवन भर किया गया सम्मान था। उनके अदम्य साहस और बलिदान को हमेशा स्मरण किया जाएगा और उनका प्रेरणादायक जीवन कई पीढ़ियों तक अमर रहेगा।
भराड़ीसैंण गैरसैंण से चमकती है दूधातोली की पर्वत श्रृंखलाएं
दूधातोली, जिसे उत्तराखण्ड का पामीर भी कहा जाता है, का इतिहास अत्यंत समृद्ध और रोचक है। ब्रिटिश शासनकाल के दौरान, दूधातोली चांदपुर परगना के अंतर्गत आता था। चांदपुर परगना विभिन्न पट्टियों से मिलकर बना था, जिनमें चांदपुर सेली, चांदपुर तैली, लोहबा, रानीगढ़, ढाईज्यूली, चौपड़ाकोट, चौथान, और श्रीगुर शामिल थे। दूधातोली की ऊँची पहाड़ियाँ और हरे-भरे जंगल इसे एक महत्वपूर्ण प्राकृतिक विरासत बनाते हैं। इस क्षेत्र का प्राकृतिक सौंदर्य और बायोडाइवर्सिटी इसे न केवल उत्तराखण्ड का पामीर बनाते हैं, बल्कि यह पर्यावरणीय महत्व का भी क्षेत्र है। इतिहास के संदर्भ में, यह क्षेत्र सदियों से अनेक संस्कृतियों और समुदायों का केंद्र रहा है। इसके आसपास के गांवों और परम्पराओं ने इस क्षेत्र की धरोहर को संजोए रखा है। चांदपुर परगना और इसकी विभिन्न पट्टियाँ प्रशासनिक और सामाजिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण थीं, जो इस क्षेत्र के विकास में अहम भूमिका निभाती थीं। दूधातोली की विशिष्ट भूगोलिक विशेषताएँ और उसके सांस्कृतिक महत्व इसे उत्तराखण्ड के प्रमुख ऐतिहासिक क्षेत्रों में से एक बनाते हैं। यहाँ के लोगों की जीवन शैली और उनकी परम्पराएँ इस क्षेत्र के इतिहास को गौरवपूर्ण बनाती हैं। जब भी सूरज की पहली किरणें भराड़ीसैंण की पहाड़ियों पर चमकती हैं, नेगी जी के गीत मौसम और मन, दोनों को आलोकित कर देते हैं।
भराड़ीसैंण की पहाड़ियों पर नरेंद्र सिंह नेगी जी के गीतों की पहली किरणें
प्रसिद्ध लोक गायक नरेंद्र सिंह नेगी जी के गीतों का सजीव चित्रण उत्तराखंड के सौंदर्य और जनजीवन का वास्तविक अनुभव कराता है। उनके गीत “चम चमकी घाम कान्ठियु मा, हिंवाली काँठी चंदी की बणीं गैनी” में प्राकृतिक दृश्यावली का बहुत ही सुंदर वर्णन है। जब भराड़ीसैंण की पहाड़ियों पर सूरज की पहली किरणें पड़ती हैं, तो वह दृश्य मन को मोह लेने वाला होता है और नेगी जी के गीत की पंक्तियाँ स्वतः ही याद आ जाती हैं। नेगी जी ने अपने गीतों के माध्यम से उत्तराखंड की प्राकृतिक छटा को बेहद करीब से महसूस कराया है। पहाड़ियाँ पर उनके सुंदर दृश्य गीत में जैसे जीवित हो उठते हैं। यह गीत न केवल पहाड़ों की प्राकृतिक सुंदरता को बखूबी उकेरता है, बल्कि वहाँ के जनजीवन, संस्कृति, और परिवेश को भी समाहित करता है।
नेगी जी के गीतों की यही विशेषता है कि वे सुनने वालों को स्थान, समय और संस्कृति से जोड़ कर एक जीवंत अनुभव प्रदान करते हैं। उत्तराखंड के लोगों के दिलों में बसने वाले ये गीत उनकी परंपरा, उनका इतिहास और उनकी पहचान को संजीव बनाए रखते हैं। इन गीतों के माध्यम से नेगी जी ने अपने आसपास के सौंदर्य को शब्दों के माध्यम से सर्वत्र फैलाने का प्रयास किया है, जिसे सुनकर किसी को भी अपने परिवेश से प्रेम हो जाता है।
भराड़ीसैंण क्षेत्र की प्राकृतिक सुंदरता और ऐतिहासिक महत्व के कारण, इसे किसी विशिष्ट समय के लिए सचमुच में राजधानी बनाने की इच्छा जनमानस में जीवित है। यदि यह स्थान साल में दो माह के लिए भी ग्रीष्मकालीन राजधानी बनता है, तो इससे पर्वतीय क्षेत्र का विकास होगा और स्थानीय जनता को भी लाभ पहुंचेगा।