शिक्षा संस्थानों का भ्रष्टीकरण और पाठ्यक्रमों का सांप्रदायीकरण

आलेख : जवरीमल्ल पारख

आज जब मैं मुड़कर पांच दशक पहले के समय पर दृष्टि डालता हूं, तो इस बात को पहचानने में कोई गलती नहीं होती कि 1970 के आसपास के सालों में एक युवक के तौर पर जो स्वप्न हमने देखे थे, जो उम्मीदें पाली थीं, वे एक-एक कर खत्म हो चुकी हैं। ये स्वप्न, उम्मीदें और आकांक्षाएं युवा होती पूरी पीढ़ी की थीं। जो ज्यादा मूलगामी विचारधारा में यकीन करते थे, उन्हें उम्मीद थी कि क्रांति कोई बहुत दूर का सपना नहीं था और जो पूरे देश के लिए उज्ज्वल भविष्य का स्वप्न देख रहे थे, उन्हें भी यकीन था कि हम अपने देश को एक बेहतर देश बना सकेंगे, जिनमें गरीबी नहीं होगी, भुखमरी नहीं होगी। सबको शिक्षा और सबको रोज़गार मिल सकेगा। संविधान में जिस समतामूलक समाज की बात कही गयी है, उसे धीरे-धीरे ही सही हासिल कर लिया जायेगा। इन्हीं उम्मीदों और सपनों ने प्रेरित किया कि सत्ता और धन के पीछे भागने की बजाय एक ऐसे व्यवसाय को अपनाया जाये, जो इन सपनों को पूरा करने में सहायक हो, बाधक न हो। अध्यापन एक ऐसा ही व्यवसाय था। एक अध्यापक के रूप में काम करते हुए महसूस होता था कि राजनीतिक-सामाजिक बदलाव के एक राष्ट्रव्यापी आंदोलन में हम भी शामिल हैं।

लेकिन जिस सच्चाई को हम ठीक से देख नहीं पा रहे थे, वह यह थी कि भारत का संविधान जिन मूल्यों पर टिका था, भारतीय समाज वैसा नहीं था। सामंती और औपनिवेशिक दौर की विकृतियां भारतीय समाज में बहुत गहरे रूप में धंसी हुई थीं। जीवन के हर क्षेत्र में विषमता व्याप्त थी। जाति, धर्म, भाषा, लिंग और क्षेत्र के आधार पर हर स्तर पर भेदभाव व्याप्त था। आर्थिक विषमता के कारण जनसंख्या का बहुत बड़ा हिस्सा जीवन की बुनियादी ज़रूरतों से भी वंचित था।

अशिक्षा, अंधविश्वास और असमानता के विरुद्ध हर स्तर पर संघर्ष करने की ज़रूरत थी। यह सिर्फ़ सरकारी आदेशों और नीतियों से ही संभव नहीं था और न ही पाठ्यक्रमों का हिस्सा बनाने से संभव था। इसके लिए व्यापक जन अभियान की ज़रूरत थी। यह इसलिए भी ज़रूरी था कि इसी के द्वारा हम एक देश के रूप में अपने को एकजुट रख सकते थे और तरक्की भी कर सकते थे। लेकिन कालेज और विश्वविद्यालय जल्दी ही उस राजनीति के प्रशिक्षण केंद्र बनने लगे, जो जाति और धर्म से संचालित थी।

उन सभी राजनीतिक पार्टियों ने जो इस बात में यकीन करती थीं कि पूंजीवाद से देश की प्रगति मुमकिन है, उन्होंने सत्ता में आने या बने रहने के लिए जाति और धर्म का खुलकर इस्तेमाल किया। धीरे-धीरे उन्होंने इस बात को समझ लिया था कि जनता के वास्तविक हितों के लिए काम करने की बजाय जाति और धर्म के आधार पर लोगों की भावनाओं को उकसाकर वोट हासिल करना कहीं ज्यादा आसान है। उन्हें सिर्फ़ यह याद दिलाते रहना था कि जाति और धर्म ही उनकी असली पहचान है और इस आधार पर एकजुट होने से सत्ता में भागीदारी सुनिश्चित की जा सकती है।

जवाहरलाल नेहरू जैसे नेता जो धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं में गहरी आस्था रखते थे और इस खतरे को जानते थे कि आरएसएस और भारतीय जनसंघ (भारतीय जनता पार्टी का पूर्व रूप) जैसे संगठन देश की एकता और अखंडता के लिए खतरनाक हैं, क्योंकि वे बहुसंख्यक हिंदुओं का समर्थन हासिल कर लोकतंत्र का खात्मा कर सकते हैं और फासीवादी सत्ता कायम कर सकते हैं। लेकिन उनका यह विश्वास था कि जनता धर्मनिरपेक्षता के मार्ग पर चलते हुए इन सांप्रदायिक संगठनों को कभी इतनी ताकतवर नहीं बनने देगी कि वे सत्ता पर काबिज हो सकें। नेहरू यह नहीं देख सके कि स्वयं उनकी पार्टी में ऐसे तत्व काफी बड़ी तादाद में थे, जिनकी सोच न केवल दक्षिणपंथी थी, बल्कि सांप्रदायिक भी थी और जातिपरस्त भी थी।

आज़ादी के बाद देश के नवनिर्माण की चुनौतियां और उसको लेकर उम्मीदों की अभिव्यक्ति नेहरू युग की समाप्ति के साथ-साथ कमजोर पड़ने लगी थी। पूंजीवादी विकास के जिस रास्ते पर देश चल रहा था, उससे भारतीय पूंजीपति वर्ग मजबूत होने लगा था। उसके लिए अब किसी तरह के आदर्शवाद की ज़रूरत नहीं थी। व्यवसायिक मानसिकता का वर्चस्व बढ़ रहा था और इस बात को धीरे-धीरे भुलाया जा रहा था कि यह आज़ादी कितने लंबे संघर्ष और बलिदान के बाद हासिल हुई है।

आज़ादी के बाद के दशकों में उच्च शिक्षा के विकास के लिए जो आयोग (राधाकृष्णन आयोग और कोठारी आयोग) बनाये गये, उनमें इस बात पर बल दिया गया था कि शिक्षा संस्थान केवल उपाधियां हासिल करने के केंद्र बनकर न रह जायें, बल्कि वे विचार, विवाद और संवाद के केंद्र बनें। शिक्षा को कक्षाओं तक सीमित न रखा जाये, बल्कि विद्यार्थियों को जीवन के हर क्षेत्र को जानने, समझने और उसमें भाग लेने के अवसर भी मिले। यही वजह थी कि उन्हें अपनी यूनियन बनाने और अपने संस्थान की शैक्षिक और गैर-शैक्षिक गतिविधियों के बारे में अपनी राय रखने का अधिकार दिया गया। अन्य किसी भी क्षेत्र के सरकारी और अर्ध सरकारी कर्मचारियों के विपरीत अध्यापकों को राजनीतिक संगठनों की सदस्यता लेने, आंदोलनों में भाग लेने और चुनाव लड़ने की स्वतंत्रता दी गयी।

कोठारी आयोग की संस्तुति के आधार पर इन्दिरा गांधी के प्रधानमंत्रित्व काल में कालेजों और विश्वविद्यालयों के अध्यापकों का वेतनमान आईएएस अधिकारियों के समकक्ष कर दिया गया। उनके लिए प्रोन्नति के रास्ते भी खोले गये, लेकिन अन्य क्षेत्र के विपरीत उनके बीच किसी भी तरह की श्रेणीबद्धता को स्वीकार नहीं किया गया। ऐसा किया जाना इसलिए जरूरी था कि अध्यापकों की पहचान उनके पद से नहीं, बल्कि उनके ज्ञान से की जाती है, की जानी चाहिए। उन्हें एक दूसरे के अधीनस्थ करने की बजाय बराबरी का दर्जा दिया गया, ताकि उनके बीच स्वस्थ और लोकतांत्रिक संवाद का माहौल कायम किया जा सके।

इसके लिए शिक्षकों को भी अपना संगठन बनाने और एक समुदाय के रूप में अपनी समस्याओं और हितों के बारे में आवाज़ उठाने का अधिकार दिया गया। इसके लिए विश्वविद्यालय के शैक्षिक, वित्तीय और प्रशासनिक निकायों में प्रतिनिधित्व भी दिया गया, ताकि संस्थान के शैक्षिक और प्रशासनिक मसलों के बारे में विचार-विमर्श और निर्णय में उनकी भूमिका भी हो। हां, यह जरूर है कि कुछ अपवादों को छोड़कर अधिकतर विश्वविद्यालय में विभिन्न निकायों में शिक्षकों का प्रतिनिधित्व न केवल बहुत कम है, बल्कि उनका चुनाव होने की बजाय कुलपति द्वारा उनका मनोनयन किया जाता है। नतीजा यह होता है कि अधिकतर मनोनीत प्रतिनिधि कुलपति के प्रति निष्ठा बनाये रखने को ही अपना कर्त्तव्य समझते हैं।

*शिक्षा संस्थाओं का भ्रष्टीकरण*

शिक्षण संस्थाओं के लोकतंत्रीकरण की इन आरंभिक कोशिशों को न स्थायी बनाया जा सका और न आगे ले जाया जा सका। विश्वविद्यालयों की संकल्पना स्वायत्त संस्था के रूप में की गयी थी। उनको वित्तीय अनुदान देने के लिए जिस संस्थान यूजीसी की स्थापना की गयी, उसका काम भी विश्वविद्यालयों को नियंत्रित करना नहीं था। लेकिन विश्वविद्यालयों को अनुदान सरकारों से प्राप्त होता था, इसलिए सरकारी हस्तक्षेप हमेशा एक वास्तविकता बनी रही।

इस हस्तक्षेप को दो तरह से क्रियान्वित किया गया। कुलपतियों की नियुक्ति जिस सर्च कमिटी के माध्यम से की जाती थी, उसका प्रमुख सरकार द्वारा मनोनीत व्यक्ति होता है। यह सर्च कमिटी जिन तीन या पांच नामों की संस्तुति करती है, उसमें से किसी एक का चयन राष्ट्रपति या राज्यपालों के द्वारा होता है, जो उन विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति होते हैं। दरअसल, इन कुलाधिपतियों के माध्यम से शिक्षा मंत्रालय (या सत्ता में जो भी निर्णयों को प्रभावित करने की स्थिति में होता है) ही अंतिम फैसले करता है।

यही नहीं, विश्वविद्यालयों का सबसे शक्तिशाली निकाय जिसे एक्जीक्यूटिव कमिटी या बोर्ड ऑफ मैनेजमेंट कहा जाता है, उनमें कुछ मंत्रालयों के सचिव भी स्थायी सदस्य होते हैं। देखा यही गया है कि सरकार के ये प्रतिनिधि ही एक्जीक्यूटिव कमिटी में लिये जाने वाले निर्णयों को सबसे अधिक प्रभावित करते हैं। इस तरह उच्च शिक्षा के ये संस्थान कागजों पर ही स्वायत्त होते हैं, हक़ीक़त में वे शिक्षा मंत्रालय के विभाग की तरह ही काम करते हैं और कुलपति अपने को इसी रूप में देखते-समझते हैं। उन्हें यह मालूम होता है कि किनकी सिफारिश पर उन्हें यह पद प्राप्त हुआ है, इसलिए उनकी कोशिश उनका कृपापात्र बने रहने की ही रहती है।

पिछले चार दशकों में शिक्षा के क्षेत्र से सरकारें लगातार अपना हाथ खींच रही हैं। स्कूली शिक्षा में सरकारें अपनी भूमिका को सीमित करती जा रही हैं। सार्वजनिक क्षेत्र में नये स्कूल खोले जाने लगभग बंद हो गये हैं और जो खुले हुए हैं, उन्हें भी विभिन्न तरह के बहाने बनाकर बंद किया जा रहा है। उच्च शिक्षा के क्षेत्र में भी निजी और विदेशी संस्थानों को बढ़ावा दिया जा रहा है। इसी का नतीजा है कि उच्च शिक्षा में धीरे-धीरे मानविकी और सामाजिक विज्ञान विषयों को हाशिए पर और प्रौद्योगिकी और प्रबंधन को ही उच्च शिक्षा का पर्याय मानने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। यह सही है कि देश को इंजीनियरों, डॉक्टरों और दूसरे क्षेत्रों के कुशल व्यवसायिकों की जरूरत थी और अब भी है। लेकिन इसके साथ ही ऐसे शिक्षित लोगों की जरूरत भी है, जो ज्ञान-विज्ञान के ऐसे क्षेत्रों में अपना योगदान दें, जिससे देश केवल प्रौद्योगिकी और प्रबंधन में ही नहीं, बौद्धिकता और सर्जनात्मकता में भी प्रगति कर सके।

देश को एकजुट रखने के लिए सांप्रदायिक और सवर्णपरस्त जातिवादी पूर्वाग्रहों के विरुद्ध व्यापक संघर्ष करने की ज़रूरत थी, जिसकी शुरुआत स्कूलों और कालेजों से ही होनी थी, लेकिन ये संस्थान ही इनके मजबूत केंद्र बन गये। उत्तर प्रदेश के जिस कालेज में मैं अध्यापक था, उसके तीन-चौथाई अध्यापक एक ही जाति-समुदाय के थे, क्योंकि उस कालेज की स्थापना जिस व्यक्ति ने की थी, वह उस जाति-समुदाय का ही व्यक्ति था। यह एक कालेज की बात नहीं है। उच्च शिक्षा संस्थान चाहे निजी हों या सरकारी, उनमें जाति और धर्म प्रेरित राजनीति की इतनी ज्यादा दखलंदाजी होती है कि उनसे किसी तरह के सकारात्मक बदलाव में नेतृत्व करने की उम्मीदें दशकों पहले छोड़ी जा चुकी हैं। परिसरों के पतन ने ही आरएसएस जैसे संगठनों को अपने पांव फैलाने और अपने प्रभाव को बढ़ाने का अवसर दिया है।

संविधान में वैज्ञानिक दृष्टिकोण को बढ़ावा देने की जो बात कही गयी, वह कभी भी हमारी शिक्षा व्यवस्था का अंग नहीं बन सकी। नतीजतन आरएसएस जैसा फासीवादी संगठन, जिसे आज़ादी के बाद भी काम करने की छूट दे दी गयी थी, जनता के बीच सांप्रदायिक और जातिवादी ज़हर फैलाने के अपने अभियान को बिना किसी डर के चलाती रही और हिंदू जनता के बीच अपनी जड़ें मजबूत करती गयी। अधिकतर राजनीतिक पार्टियों ने इसको अनदेखा ही रहने दिया।

उन्हें शिक्षा संस्थान खोलने, शिक्षा संस्थानों में अपनी शाखाएं चलाने और अपनी सांप्रदायिक-फासीवादी विचारधारा को फैलाने की न केवल पूरी छूट दी गयी, बल्कि चुनावी दंगल में कांग्रेस को परास्त करने के लिए कथित धर्मनिरपेक्ष पार्टियों ने उनके साथ गठजोड़ कायम किये। आपातकाल के बाद उनकी राजनीतिक ताकत बढ़ती गयी और बाद में बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि आंदोलन ने उनकी ताकत इस हद तक बढ़ा दी कि पहले छह साल और अब लगभग दस साल से भारतीय जनता पार्टी केंद्रीय सत्ता पर काबिज है। इस सांप्रदायिक-फासीवादी सत्ता के आगे एक-एक कर लगभग सभी उच्च शिक्षा संस्थानों ने आत्मसमर्पण कर दिया है।

भारतीय जनता पार्टी जब भी सत्ता में आयी है, उसने शिक्षा क्षेत्र को अपने वैचारिक और राजनीतिक ज़रूरतों के अनुरूप ढालने का अभियान चलाया है। पिछले नौ साल में स्कूली शिक्षा के पाठ्यक्रमों में लगातार बदलाव किये गये हैं। यही नहीं, विश्वविद्यालयों और कालेजों में छात्र संघों और शिक्षक संघों की गतिविधियों पर भी उनके द्वारा अंकुश लगाने की कोशिशें जारी हैं। पहले विश्वविद्यालय परिसरों में अध्यापक और छात्र किसी भी तरह की विचार-गोष्ठी बिना किसी डर के आयोजित कर सकते थे। अनुमति के लिए उन्हें बहुत तरह की औपचारिकताओं को पूरा करने की जरूरत नहीं होती थी। लेकिन अब इस तरह की गतिविधियों के लिए अनुमति लेना बहुत मुश्किल होता जा रहा है। किन विद्वानों को बुलाया जा रहा है, किस तरह के पेपर पेश किये जायेंगे, उनमें सरकार विरोधी तो कुछ नहीं होगा, इन सब पर नजर रखी जाती है।

केंद्र ही नहीं, कई राज्यों में सरकारों (जिनमें गैर-भाजपा सरकारें भी शामिल हैं) ने इस तरह के निर्देश जारी किये हैं कि कालेजों और विश्वविद्यालयों में अध्यापक ऐसी किसी भी गतिविधि में शामिल न हो, जिसमें प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में सरकार या उनके नुमाइंदों की आलोचना हो। कई विश्वविद्यालयों में उन अध्यापकों के विरुद्ध अनुशासनात्मक कार्रवाई की गयी, जिन्होंने नरेंद्र मोदी या उनकी सरकार की नीतियों की आलोचना की।

दिल्ली विश्वविद्यालय जहां अध्यापकों की स्थायी नियुक्ति की बजाय एडहॉक नियुक्ति किये जाने की लंबी परंपरा रही है, वहां आरएसएस समर्थित अध्यापकों की नियुक्ति करने के लिए पुराने एडहॉक अध्यापकों को निकाल बाहर किया गया, विशेष रूप से उन्हें, जो मोदी सरकार के आलोचक थे, भले ही वे कितने ही अच्छे अध्यापक क्यों न रहे हों। इस तरह विश्वविद्यालय विचार-विमर्श के एक लोकतांत्रिक केंद्र की बजाय एक ही विचारधारा के बंद अड्डे बनते जा रहे हैं, जहां किसी भी तरह का विरोधी विचार असहनीय मान लिया गया है।

विश्वविद्यालयों के कुलपतियों और कालेजों के प्रिंसिपलों की नियुक्ति में इस बात का ध्यान रखा जाता है कि जिसकी नियुक्ति की जा रही है, वह आरएसएस की विचारधारा के प्रति निष्ठावान हो। यही नहीं कुलपतियों और प्राचार्यों की नियुक्ति में भ्रष्टाचार एक बड़ा मुद्दा बन गया है। राज्यों के अधीन आने वाले विश्वविद्यालयों में कुलपतियों की नियुक्ति को राज्यपालों द्वारा नियंत्रित करने की कोशिशें की गयी हैं। अध्यापकों की नियुक्ति में भी योग्यता से अधिक संघ के प्रति निष्ठा को या उनकी सिफारिश को वरीयता दी जाती है। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि संघ की सिफारिश पर नियुक्त होने वाले अधिकतर अध्यापक अध्ययन-अध्यापन की बजाय संघ की सेवा को और जरूरत पड़ने पर उनके पक्ष में अलोकतांत्रिक ढंग से दखलंदाजी करने को अपना कर्त्तव्य समझते हैं।

विश्वविद्यालय अनुदान आयोग उच्च शिक्षा के माहौल को गिराने में अपना भरपूर योगदान कर रहा है, जिसका मुखिया एक ऐसे व्यक्ति को बनाया गया है जिसने कुलपति पद पर रहते हुए जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की शैक्षिक परिसर के रूप में उज्ज्वल छवि को मटियामेट करने को अपना सबसे जरूरी काम समझा था। यूजीसी समय-समय पर ऐसे निर्देश जारी करता रहता है, जिससे हिंदू राष्ट्र्वादियों की विचारधारा के अनुरूप बदलाव किया जा सके। अभी हाल ही में जारी एक सर्कुलर में यूजीसी ने विश्वविद्यालयों को निर्देश दिया है कि वे अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के संस्थापक और आरएसएस के प्रचारक दत्ताजी दिडोलकर की जन्म शताब्दी मनाएं, जबकि इनका न शिक्षा के क्षेत्र में, न राष्ट्रीय आंदोलन में और न ज्ञान के क्षेत्र में कोई योगदान रहा है। इसी तरह सभी विश्वविद्यालयों को आदेश दिया गया है कि वे अपने विश्वविद्यालय परिसर में सेल्फी पाइंट की स्थापना करें, जहां प्रधानमंत्री मोदी का कटआउट हो और विद्यार्थी उसके साथ अपनी फोटो खिंचवा सकें।

*पाठ्यक्रमों का सांप्रदायीकरण*

जब-जब भारतीय जनता पार्टी सत्ता में आयी है, चाहे राज्यों में या केंद्र में, उसने पाठ्यक्रमों में बदलाव करने की कोशिश की है। इन कोशिशों के पीछे जो भी कारण वे बताते रहे हों, लेकिन उनका मकसद हिंदुत्वपरस्त सांप्रदायिक दृष्टिकोण से पाठ्यक्रमों में फेरबदल करना होता है, चाहे उसके लिए तथ्यों को छुपाना या उनको बदलना ही क्यों न पड़े। 2014 में सत्ता में आने के बाद भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने स्कूली पाठ्यक्रमों में बदलाव की तीन कोशिशें की। पहली कोशिश 2017 में की गयी, जब 182 पाठ्यपुस्तकों में 1334 परिवर्तन किये गये। दूसरी कोशिश तत्कालीन शिक्षामंत्री प्रकाश जावडेकर की देखरेख में 2019 में की गयी और तीसरी कोशिश 2022 में हुई। कोरोना महामारी का बहाना लेकर मोदी सरकार ने यह फैसला किया कि स्कूली पाठ्यक्रमों का बोझ विद्यार्थियों पर कम किया जाए और इसके लिए पिछले साल कथित रूप से ‘पाठ्यक्रम विवेकीकरण’ का कार्य संपन्न किया गया और इसी के तहत उन अंशों को हटाने का प्रस्ताव किया गया, जिनमें उनके अनुसार या तो कई बार दोहराया गया था या जो अब अप्रासंगिक हो गये हैं। 2023-24 सत्र के लिए पाठ्यक्रमों में संशोधनों को प्रस्तावित किया गया।

ये संशोधन इतिहास की पुस्तकों में ही नहीं नागरिक शास्त्र (राजनीति विज्ञान और समाज विज्ञान सहित), विज्ञान और हिंदी के पाठ्यक्रमों में भी किये गये। हटाये गये पाठों में मुख्य रूप से गुजरात दंगे, मुग़ल दरबार, आपातकाल, शीतयुद्ध, नक्सलबाड़ी आंदोलन, कृषि और पर्यावरण संबंधी अध्याय, डार्विन का विकासवाद, वर्ण और जाति संघर्ष, दलित लेखकों का उल्लेख आदि शामिल हैं। महात्मा गांधी की हत्या संबंधी पाठों में किये गये संशोधन पिछले साल घोषित संशोधनों की सूची में शामिल नहीं हैं। उन्हें बिना पूर्व सूचना के हटाया गया है।

एनसीइआरटी के पाठ्यक्रमों में बदलाव के मौजूदा अभियान में सर्वाधिक फेरबदल इतिहास की पुस्तकों में किया गया है। इतिहास संघ परिवार के निशाने पर सदैव से रहा है। वे चाहते हैं कि भारत के इतिहास को इस तरह पेश किया जाए, जिससे उनके राजनीतिक मकसद को पूरा करने में मदद मिले। वे औपनिवेशिक शासकों की तरह भारतीय इतिहास को भी हिंदू और मुसलमान में विभाजित कर देखते हैं। उनकी नज़र में यह देश केवल हिंदुओं का है और मुसलमान आक्रांता हैं। अपनी इस सांप्रदायिक दृष्टि के अनुसार वे इतिहास की पुस्तकों और पाठ्यक्रमों में मुस्लिम शासकों का उल्लेख आक्रांता और आततायी के रूप में ही देखना चाहते हैं, जिन्होंने हिंदू जनता का उत्पीड़न किया था, उनके पूजा स्थलों को तोड़ा था और उनकी स्त्रियों को बेइज्जत किया था।

स्वाभाविक है कि ऐसे इतिहास को पढ़ने से हिंदुओं के मन में मुसलमानों के प्रति गहरी नफरत पैदा होगी और इस नफ़रत का लाभ उठाकर वे हिंदू राष्ट्र के प्रति अपने जनसमर्थन का विस्तार कर सकेंगे। भाजपा सरकार का मानना है कि मुग़ल आक्रमणकारी थे, इसलिए इनके इतिहास को क्यों पढ़ाया जाना चाहिए। इतिहास की पुस्तकों में से मुग़लों का उल्लेख हटाने के पीछे मुख्य मकसद पाठ्यक्रमों से संबंधित सारी बहस को इतिहास पर केंद्रित करना और इस तरह अपने मुस्लिम विरोधी सांप्रदायिक एजेंडे का प्रचार करने का है। उनकी इन कोशिशों का प्रभाव भी आसानी से पहचाना जा सकता है।

संघ की इतिहास संबंधी दृष्टि में ही बुनियादी खोट है। उनका नवीनतम फैसला कि इतिहास की पुस्तकों में रामायण और महाभारत पढ़ाया जाए, इस बात को बताता है कि वे इतिहास और काव्य और इसी तरह इतिहास और पुराणों में अंतर करने में भी अक्षम है। इतिहास कोई ऐसी चीज नहीं है, जिसमें कुछ भी शामिल कर लिया जाय या जिसे मनमाने ढंग से काटा-छांटा जा सके। तीन सौ साल से अधिक समय तक मुग़लों का शासन रहा है और भारतीय इतिहास में यह काल बहुत महत्त्वपूर्ण भी रहा है। इस काल को पाठ्यपुस्तकों से तो हटाया जा सकता है, लेकिन इन तीन सौ सालों को हटाकर भारत का इतिहास पूरा नहीं हो सकता। यही वह काल भी है, जब एक शक्तिशाली भक्ति आंदोलन उदित और विकसित हुआ था और जिस दौर में नानक, कबीर, रैदास, मलिक मोहम्मद जायसी, मीरा, सूरदास और तुलसीदास जैसे महान संत और कवि पैदा हुए थे।

विडंबना यह भी है कि एनसीइआरटी की हिंदी की पाठ्य पुस्तक से कबीर और मीरा के काव्य को भी हटा दिया गया है। इन्हीं तीन सौ सालों में उस साझा संस्कृति का विकास हुआ है, जिसका गहरा असर आज भी देखा जा सकता है। भाषा, खान-पान, वेशभूषा, स्थापत्य, साहित्य, संगीत, नृत्य, चित्रकला यानी संस्कृति का कोई क्षेत्र ऐसा नहीं है, जिनकी परंपराओं का निर्माण इसी बहुस्तरीय साझेपन से नहीं हुआ है। यहां तक कि धर्म भी इस मेलजोल से अछूता नहीं रहा है। इस दौर में जो नये संप्रदाय, नये पंथ अस्तित्व में आये, वे इसी मेलजोल और साझेपन के परिणाम रहे हैं। इन तीन सौ सालों को पाठ्यपुस्तकों से हटाने का मतलब है हमारे वर्तमान की उस बुनियाद को खोखला करना, जिसके बिना ना हमारा वजूद संभव है और न हमारी पहचान।

एनसीइआरटी की पाठ्यपुस्तकों में किये गये संशोधनों में सबसे खतरनाक है विज्ञान के पाठ्यक्रमों में किया गया बदलाव। सीबीएसई के दसवीं के पाठ्यक्रम से जैविक विकास का सिद्धांत जो डार्विन के विकासवाद पर आधारित है, को हटा दिया गया है। यहां मोदी सरकार के एक मंत्री के कथन को याद किया जा सकता है, जिसका कहना था कि डार्विन का विकासवाद का सिद्धांत पूरी तरह से गलत है। हमारे किसी बाप-दादा ने बंदरों से मनुष्य बनते हुए नहीं देखा था। इसी संदर्भ में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के उस वक्तव्य को भी याद किया जा सकता है, जो मुंबई में डाक्टरों की एक सभा के सामने दिया गया था और जिसमें उन्होंने यह दावा किया था कि मनुष्य के सिर पर हाथी का सिर लगाना यह बताता है कि हमारे पूर्वज सर्जरी में कितने आगे बढ़े हुए थे।

स्पष्ट है कि जो पौराणिक कल्पनाओं को सच मानते हों, वे विज्ञान के सिद्धांतों में कैसे यकीन कर सकते हैं। यह भी महज संयोग नहीं है कि जहां एक ओर विज्ञान में से डार्विन का विकासवाद हटाया जा रहा है, वहीं दूसरी ओर विश्वविद्यालयों को कहा जा रहा है कि वे ज्योतिष विद्या और पुरोहिती से संबंधित पाठ्यक्रमों को शामिल करें। इग्नू में ज्योतिष को पाठ्यक्रम में शामिल करवाने की कोशिश अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्री काल में की गयी थी, लेकिन उस समय कामयाबी नहीं मिली थी। लेकिन अब संस्कृत विषय के अंतर्गत ज्योतिष को भी शामिल कर लिया गया है।

मौजूदा सत्ता द्वारा पाठ्यक्रमों में बदलाव का उद्देश्य शिक्षा के पूरे क्षेत्र को अपनी विचारधारा के दायरे में लाना है और ऐसा करते हुए वे अतीत और वर्तमान की उन सभी बातों को अध्ययन-अध्यापन के क्षेत्र से बहिष्कृत करना चाहते हैं, जिनके बने रहने से उनके वैचारिक वर्चस्व को अंदर से ही चुनौती मिलने लगती है। महात्मा गांधी की हत्या हो या मुग़ल काल, गुजरात के दंगे हों या विभिन्न जन आंदोलन, आपातकाल हो या लोकतंत्र की चुनौतियां, नक्सलबाड़ी अंदोलन हो या जातिवादी उत्पीड़न, डार्विन का विकासवाद या वैज्ञानिक चेतना, पाठ्यक्रमों में इनका बने रहना उनके सांप्रदायिक और पुनरुत्थानवादी एजेंडे का प्रतिलोम पैदा कर सकता है।

यही डर इन बदलावों के पीछे काम कर रहा है। इसलिए पाठ्यक्रमों के हिंदुत्वपरस्त सांप्रदायीकरण की कोशिशों का विरोध करना हमारे लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष ढांचे को बनाये रखने के लिए ज़रूरी है। यह इसलिए भी ज़रूरी है ताकि आगे आने वाली पीढ़ियां, वैज्ञानिक सोच और लोकतांत्रिक विवेक से वंचित रहकर मध्ययुगीन कूपमंडूकता के दलदल में न फंस जाये।यह भारत की बहुसांस्कृतिक, बहुभाषिक और बहुराष्ट्रीयतावादी पहचान को बनाये रखने के लिए भी ज़रूरी है। यह दौर आज़ादी के बाद का सबसे संकटपूर्ण और चुनौती भरा दौर है। इसका मुकाबला एक शिक्षित और वैज्ञानिक दृष्टि से संपन्न युवा वर्ग ही कर सकता है। लेकिन जिन शिक्षा संस्थानों से ऐसे युवा निकल सकते हैं उन्हें ही नष्ट करने की मुहिम जारी है।

(जवरीमल्ल पारख इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय से सेवानिवृत्त प्रोफेसर और जनवादी लेखक संघ के राष्ट्रीय कोषाध्यक्ष हैं। कई पुरस्कारों से सम्मानित। संपर्क : jparakh@gmail.com, मो. : 98106-06751)*

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