समर्थन मूल्य पर फिर दगाबाजी और कृषि संकट

संजय पराते

हालिया लोकसभा चुनाव के जनादेश ने भाजपा और एनडीए दोनों की साइज में भारी कटौती कर दी है और लगभग 160 ग्रामीण क्षेत्रों में उसे करारी हार का सामना करना पड़ा है। जनादेश कहता है कि वह भाजपा की सांप्रदायिक और कॉर्पोरेटपरस्त नीतियों के खिलाफ है और लोकतंत्र, संविधान और सामाजिक न्याय से खिलवाड़ करने की इजाजत देने के लिए तैयार नहीं है। लेकिन पिछले 15 दिनों के घटनाक्रम और सरकार के फैसले यह बताने के लिए काफी है कि भाजपा को इस जनादेश की कोई परवाह नहीं है और उसकी ‘बोनसाई’ सरकार उन्हीं नीतियों को आगे बढ़ाएगी, जिन नीतियों पर पिछले 10 सालों में चलते हुए उसने देश को एक गहरे संकट में धकेल दिया है। यह अप्रत्याशित और अवाक करने वाली बात है कि इस देश के प्रधानमंत्री के पद की शपथ उस व्यक्ति को दिलाई गई है, जिसको उसकी मूल पार्टी ने ही अपने संसदीय दल का नेता नहीं चुना है। अब संविधान और लोकतंत्र के साथ खिलवाड़ में राष्ट्रपति भी शामिल हैं।

इसी क्रम में ताजा फैसला वर्ष 2024-25 की 14 खरीफ फसलों के बारे में न्यूनतम समर्थन मूल्य का है, जिसके बारे में घोषणा इस देश के कृषि मंत्री की जगह रेल मंत्री ने की है और दावा किया है कि यह घोषित मूल्य लागत का डेढ़ गुना है। एक बार फिर भाजपा सरकार ने किसानों के साथ दगाबाजी की है। विडंबना यह है कि सरकार द्वारा घोषित यह ‘न्यूनतम’ मूल्य ही किसानों की फसलों के लिए ‘अधिकतम’ बन जाता है, क्योंकि चाहे मंडी हो या खुला बाजार, व्यापारी उसे इस न्यूनतम मूल्य से अधिक कीमत देने के लिए तैयार नहीं होता और किसानों के पास ऐसा कोई सुरक्षा कवच नहीं है कि बाजार की इस लूट से अपनी रक्षा कर सके।

देश में लगातार बढ़ रही किसान आत्महत्याओं और कृषि संकट की पृष्ठभूमि में न्यूनतम समर्थन मूल्य के मुद्दे पर विकसित देशव्यापी किसान आंदोलन के संबंध में सभी जानते हैं। किसानों के असंतोष को अपने पक्ष में करने के लिए वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने महंगाई, गरीबी, बेरोजगारी से बदहाल आम जनता से ‘अच्छे दिन’ लाने और किसानों को ‘सी-2 लागत का डेढ़ गुना समर्थन मूल्य’ देने और कर्ज माफ करने का वादा किया था। बाद में, इससे आगे बढ़ते हुए उसने किसानों की आय को वर्ष 2022-23 तक दुगुनी करने का भी वादा किया था।

दस साल का भाजपा राज अपनी कथनी को करनी में इसलिए नहीं बदल पाया, क्योंकि उसकी नीतियों के केंद्र में आम जनता और किसान नहीं, कॉर्पोरेटों का मुनाफा सुनिश्चित करना रहा है। वह इसके लिए अपना पूरा जोर लगा रही है कि देश की परंपरागत कृषि को खत्म किया जाए और विश्व व्यापार संगठन के निर्देशों के अनुरूप भारतीय कृषि का कॉर्पोरेटीकरण किया जाए। पिछली सरकार द्वारा पारित किए गए तीन कृषि कानून इसी उद्देश्य की पूर्ति करते थे, जिसका पूरे देश भर में विरोध हुआ। देश के छोटे-बड़े 600 से अधिक किसान संगठनों ने मिलकर संयुक्त किसान मोर्चा को जन्म दिया और इस मोर्चे की अगुआई में मजदूरों और उनके संगठनों के साथ मिलकर सवा साल तक किसानों के संघर्ष और इसमें 700 से अधिक किसानों के जीवन की आहुति के बाद मोदी सरकार को इन किसान विरोधी कानूनों को वापस लेने की घोषणा करनी पड़ी और सी-2 आधारित समर्थन मूल्य देने का लिखित समझौता करना पड़ा। लेकिन बाद में कॉर्पोरेट लॉबी के दबाव में वह इससे मुकर गई।

दरअसल, मोदी-शाह के नेतृत्व में भाजपा का इतिहास किसानों से दगाबाजी और उनके आंदोलनों के बर्बर दमन का इतिहास है। 2014 के चुनाव के बाद ही इस सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में जाकर सी-2 आधारित समर्थन मूल्य देने से इस आधार पर इंकार कर दिया था कि इससे बाजार में विकृति आयेगी। तब से लेकर आज तक वह ए-2+एफएल आधारित समर्थन मूल्य दे रही है, जो सी-2+50% से बहुत नीचे होता है। इससे किसानों को हर साल लाखों करोड़ रुपयों का नुकसान उठाना पड़ता है और खेती-किसानी घाटे का सौदा बन गई है। इस सरकार की दीदादिलेरी देखिए कि जिस एमएस स्वामीनाथन को चुनावी लाभ बटोरने के लिए उसने ‘भारत रत्न’ दिया है, उन्हीं स्वामीनाथन की मूल सिफारिश को लागू करने से इंकार कर रही है और साथ ही जुमलेबाजी भी कर रही है कि वह किसानों को लागत का डेढ़ गुना समर्थन मूल्य दे रही है। विगत वर्षों में जिन विपक्षी राज्यों ने किसानों को राहत देने के लिए बोनस देने की घोषणा की थी, उनको भी परेशान करने और उनके वित्तीय संसाधनों को रोकने की गैर-कानूनी हरकत की गई।

खरीफ फसलों के समर्थन मूल्य में भारी वृद्धि के दावों के बावजूद वास्तविकता यही है कि पिछले वर्ष की तुलना में इस वर्ष धान के मूल्य में 5.33%, मोटे अनाज (ज्वार, बाजरा, मक्का) के मूल्य में औसतन 5.82%, दलहन (अरहर, उड़द, मूंग) में औसतन 7.16% तथा तिलहन (मूंगफली, सूरजमुखी, सोयाबीन, तिल) के मूल्य में औसतन 6.93% की ही वृद्धि की गई है। किसानों के लिए समर्थन मूल्य में यह वृद्धि इसलिए आकर्षक नहीं है कि यह खुले बाजार में खाद्यान्न और सब्जियों की कीमतों में बढ़ी महंगाई से भी कम है, जो औसतन 8 से 10 प्रतिशत तक चल रही है। यह वृद्धि सरकार द्वारा कृषि आदानों (खाद-बीज, कीटनाशक और अन्य कृषि उपकरण) पर 18 से 28 प्रतिशत तक लगाई जा रही जीएसटी से तो हास्यास्पद रूप से कम है, जिनकी लगातार बढ़ती कीमतों और ऊपर से जीएसटी की भारी मार के कारण उत्पादन लागत में भारी वृद्धि हो रही है और भारतीय कृषि का ढांचा चरमरा रहा है।

स्वामीनाथन आयोग ने फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य का आधार तय किया है फसल उत्पादन की सकल लागत (सी-2 मूल्य) को, जिसे भाजपा ने आपराधिक ढंग से मानने से इंकार कर दिया है। स्वामीनाथन आयोग ने सकल लागत सी-2 का डेढ़ गुना न्यूनतम समर्थन मूल्य देने की सिफारिश इसलिए की थी कि देश के विकास में अपना सर्वोच्च योगदान देने वाला किसान परिवार आत्मसम्मान के साथ अपनी आजीविका कमा सके और उसके जीवन स्तर में अपेक्षित वृद्धि हो। सत्ता में तीसरी बार मोदी का आना देश के किसानों के लिए फिर से एक आपदा है, क्योंकि उसने फिर से किसानों को सी-2 आधारित वास्तविक समर्थन मूल्य देने से इंकार कर दिया है।

वर्ष 2014-15 से लेकर इस वर्ष तक केंद्र सरकार द्वारा विभिन्न फसलों के लिए घोषित समर्थन मूल्य पर नजर डालें, तो पिछले दस सालों में इन फसलों के समर्थन मूल्य में वृद्धि की वार्षिक औसत दर 5.87% से लेकर 17.67% तक रही है। धान के मामले में यह वृद्धि दर 6.91% वार्षिक रही है, तो मोटे अनाजों के मामले में औसतन 11.92%, दलहन के मामले में 7.85% तथा तिलहन के मामले में औसतन 9.20% वार्षिक रही है। लेकिन समर्थन मूल्य में यह वृद्धि दर फसल उत्पादन की बढ़ती लागत की भरपाई कर किसानों को सम्मानजनक जीवन देने और बाजार की महंगाई का मुकाबला करने की ताकत देने के लिए अपर्याप्त ही रही है। नतीजन, मोदी सरकार के आने के बाद पिछले एक दशक में न केवल किसानों की औसत कर्जदारी बढ़ी है, बल्कि किसान आत्महत्याएं भी बढ़ी है। आज हमारे देश के आधे किसान परिवार ऋणग्रस्त हैं और उन पर औसतन 74,121 रूपये का कर्ज चढ़ा हुआ है। इस कर्ज का 44% गैर-बैंकिंग और वास्तव में महाजनी कर्ज है। इस कर्ज के कारण जब उनके सम्मान को चोट पहुंचती है, तो उनके पास आत्महत्या करने के सिवा और कोई उपाय नहीं बचता। मोदी राज में किसान आत्महत्या की दर पहले की तुलना में डेढ़ गुना से ज्यादा हो गई है।

खरीफ फसलों के समर्थन मूल्य में भारी वृद्धि के सरकारी और कॉर्पोरेट मीडिया के प्रचार के बावजूद वास्तविकता यही है कि ये मूल्य सी-2 आधारित वास्तविक समर्थन मूल्य से कोसों दूर है : जैसे, सामान्य धान के लिए यह 23.63%, ज्वार के लिए 24.03%, मक्का के लिए 20.39%, मूंगफली के लिए 25.25%, कपास के लिए 23.80% कम है। एक सामान्य व्यक्ति के लिए यह सोचना ही कितना पीड़ादायक है कि उड़द दाल पैदा करने वाला किसान 2344 रूपये प्रति क्विंटल या तिल उत्पादक किसान 2961 रूपये प्रति क्विंटल या फिर कपास पैदा करने वाला किसान 2224 रूपये प्रति क्विंटल का घाटा उठाकर ‘देश सेवा’ के लिए खेती-किसानी में लगा रहे! लेकिन इससे हमारे प्रधानमंत्री की नींद खराब नहीं होती।

इससे किसानों को होने वाले नुकसान का आकलन हम धान के मामले से समझते हैं। इस वर्ष केंद्र सरकार द्वारा सामान्य धान का समर्थन मूल्य 2300 रूपये प्रति क्विंटल घोषित किया गया है, जबकि सी-2+50% के आधार पर वास्तविक समर्थन मूल्य 3012 रूपये होता है। इस प्रकार धान उत्पादक किसान को प्रत्येक क्विंटल पर 712 रूपये का नुकसान हो रहा है। वर्ष 2022-23 में केंद्र सरकार ने पूरे देश में 570 लाख टन चावल खरीदा था। इसका अर्थ है कि पूरे देश में लगभग 855 लाख टन धान की सरकारी खरीद हुई होगी। यदि इसे ही आधार माना जाए, तो किसानों को होने वाला नुकसान 60,876 करोड़ रुपए बैठता है। इस गणना में मंडियों और बाजारों में होने वाली किसानों की अतिरिक्त लूट को और केंद्र सरकार के उस छल कपट को शामिल नहीं किया गया है, जिसके जरिए उत्पादन लागत को कम दिखाने के लिए कृषि आदानाें की कीमतों को बढ़ा-चढ़ाकर कम दिखाती है। अन्य फसलों का उत्पादन करने वाले किसानों को होने वाले नुकसान का भी आंकलन इसी प्रकार किया जा सकता है और इस सबको गणना में शामिल करने पर किसानों को होने वाला नुकसान लाखों करोड़ रुपयों का होगा।

किसानों की यही लूट समग्र किसान समुदाय की बर्बादी और कॉर्पोरेटों की बरकत और उनके मुनाफे का आधार है। आज किसानों पर जो लाखों करोड़ रुपयों का कर्ज चढ़ा हुआ है और जिसे माफ करने से यह सरकार लगातार इंकार कर रही है, किसानों की इसी लूट का नतीजा है। इस लूट के कारण किसानों की होने वाली आत्महत्याओं के लिए भी जिम्मेदार इस सरकार की कॉर्पोरेटपरस्त कृषि नीतियां ही हैं। इन्हीं नीतियों का नतीजा है कि किसानों की कृषि आय में कमी आई है। वर्ष 2019 के एक सर्वे के अनुसार, एक किसान परिवार विभिन्न फसलों से औसतन 3798 रूपये मासिक ही कमाता है और यह वर्ष 2012 के आधार पर 5% गिरावट को दिखाता है। ये किसान परिवार पशु पालन, व्यवसाय और मजदूरी से हुई अतिरिक्त कमाई पर ही जिंदा है। इसके बाद से सरकार के पास कोई आंकड़े नहीं है कि पिछले पांच सालों में किसानों की कितनी आय बढ़ी है और उसकी आजीविका में कितना सुधार हुआ है। हां, मानव विकास संकेतकों और भूख सूचकांक के आधार पर हम यह जरूर कह सकते हैं कि हमारा अन्नदाता किसान समुदाय पहले की तुलना में आज और बदहाल हुआ है, उनके बीच भुखमरी और कुपोषण का स्तर बढ़ा है और इन नीतियों की सबसे ज्यादा मार बच्चों और महिलाओं पर पड़ रही है।

आज हमारे देश में जो भयावह कृषि संकट है, वह किसानों की लगातार गिरती आय, उसकी ऋणग्रस्तता और आत्महत्या में परिलक्षित होता है। इससे उबरने का एक बड़ा रास्ता उन्हें स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों के आधार पर लाभकारी समर्थन मूल्य देने और किसानों की सभी फसलों की सरकारी खरीद की कानूनी गारंटी से ही निकल सकता है। लेकिन यह रास्ता कॉर्पोरेट मुनाफे को चोट पहुंचाने वाला रास्ता है और मोदी सरकार ने अपने रवैए से साफ कर दिया है कि वह किसानों के रास्ते में कीलें तो बिछा सकती है, लेकिन कॉर्पोरेटों के लिए बिछे गलीचे को वह खींच नहीं सकती। ऐसी हालत में विपक्ष की एकजुटता से संसद के अंदर और बाहर मजदूरों के साथ मिलकर सड़कों पर संघर्ष के सिवा और कोई रास्ता इस देश की जनता के पास नहीं है। आने वाले दिनों में एक वैकल्पिक नीतियों के आधार पर जन संघर्षों की एक नई लहर और लामबंदी देखने को मिलेगी। आम जनता का ऐसा एकजुट संघर्ष ही देश को संकट से बाहर निकाल सकता है।

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