नफरती सियासत को निर्णायक झटका

विशेष रिपोर्ट 

कम जनमत के बावजूद मोदी की अगुवाई में बनी एनडीए सरकार
तीसरी बार शपथ ग्रहण कर मोदी ने की पं. जवाहर लाल नेहरू की बराबरी

-वीरेंद्र सेंगर, नई दिल्ली।

18वीं लोकसभा का चुनाव तमाम उम्मीदों और आशंकाओं के बीच सम्पन्न हो गया है। लोकतंत्र के इस महा उत्सव में भले कोई हारा या कोई जीता हो। लेकिन आम मतदाता ही वास्तविक योद्धा साबित हुआ है। आम जनता ने तमाम उहापोह के बीच एक बार फिर ये साबित कर दिया कि भारत में लोकतंत्र की जड़ें काफी गहरी हैं। जो भी सरकारें सत्ता के मद में चूर होकर लोकतंत्र का कचूमर निकालने पर आमादा होती है, उन्हें भारत की जनता सबक सि‌खा ही देती है। या तो ये दुष्ट ताकतें सत्ता से बाहर एकदम हाशिए में चली जाती हैं, या उतनी मजबूर हो जाती हैं कि लोकतांत्रिक मूल्यों से खिलवाड़ की जुर्रत दोबारा ना करें। ताजा जनादेश में भी यह संदेश साफ-साफ पढ़ा जा सकता है।

यूं तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाला एनडीए 294 सीटें पाने में सफल रहा। जबकि सरकार बनाने के लिए बहुमत का आंकड़ा 272 सीटों का है। काम चलाऊ बहुमत मिलने के बाद भी मोदी जी के खेमे में कुछ उत्साही भाव ही दिखा। और नतीजा यह रहा कि तीसरी बार शपथ लेकर नरेंद्र मोदी ने देश के प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू की बराबरी कर ही ली।

राष्ट्रपति भवन में शपथ ग्रहण समारोह का भव्य आयोजन देश-विदेश के राष्ट्राध्यक्षों की अगुवाई में हुआ। इस बार के चुनावी आंकड़ों पर नजर डालें तो भाजपा के सुपर स्टार नेता माने जाने वाले नरेंद्र मोदी के राजनीतिक रुतबे में काफी कमी आ गयी है। बार-बार दावा किया जा रहा था कि इस बार भाजपा को अकेले 370 सीटें मिलेंगी और एनडीए गठबंधन की सीटें चार पार होंगी। पिछले तीन-चार महीने से धौंस जमाता ये नारा उछाला जा रहा था। ऐसा राजनीतिक धमाल मचाया गया, जिससे समूचा विपक्ष मानसिक अवसाद का शिकार हो जाए। ये लक्ष्य पाने के लिए भाजपा के शीर्ष नेताओं ने भी राजनीतिक शुचिता की ऐसी-तैसी करने में कोई हिचक नहीं की। स्वयं आदरणीय प्रधानमंत्री जी ने विपक्ष को कोसने के लिए भाषा का प्रयोग एकदम निचले स्तर तक किया।
तमाम राजनीतिक प्रेक्षक हैरान होते रहे कि इतने आला पद पर विराजमान मोदी जी कैसे सारी राजनीतिक मर्यादाओं का चीरहरण करने लगे? आलोचना के स्वर उठे, तो मोदी के समर्थकों, भक्तों व चरण चंपकों ने इन्हें देशद्रोही तक कह डाला। चुनाव प्रचार के दौर में लोकप्रिय मोदी जी ने जाने कहां से कांग्रेस के चुनावी घोषणा पत्र में वो ‘पढ़’ लिया जो उसमें लिखा ही नहीं था। उन्होंने फरमाया कि कांग्रेस के घोषणा पत्र में देश के इस्लामीकरण की छाप है। ये चुनावी तुष्टीकरण के लिए देश भी तोड़ सकते हैं। उन्होंने देश को आगाह किया था। मोदी जी के ‘अलर्ट’ के बाद मैंने भी कांग्रेस का घोषणा पत्र गौर से पढ़ा। आमतौर पर ये चुनावी घोषणापत्र इतने हवा-हवाई होते हैं, इन्हें पढ़ने की जरूरत नहीं होती। लेकिन जब मोदी जी अपने मुखारविंद से लगातार बड़े ‘खतरे’ के तौर पर बताते रहे। जबकि अपने घोषणापत्र पर वे मौन रहे।
मैं चार दशक से एक पत्रकार के तौर पर चुनावों पर महीन नजर रखता रहा हूं। कभी यह नहीं देखा कि सत्ता पक्ष का मुखिया चुनाव प्रचार में सिर्फ किसी अन्य दल के घोषणा पत्र की बात करता रहा हो। लेकिन अपने मोदी जी तो ‘शेरदिल’ हैं। सही हो या धुर अनर्गल। वे चौड़े होकर बोलते हैं। वैसे भी वे सालों पहले बता चुके हैं कि उनका सीना 56 वाला हैं। यानी वे शेर हैं जो दबना या डरना नहीं जानते। भगवान ही जाने कि उनका सीना 56 का है, या फिर ये भी राजनीतिक जुमला है। यूं तो वे खासे सेहतमंद लगते है। फिर भी 56 रखने में संशय इसलिए है कि इतना चौड़ा सीना किसी इंसान का नहीं हो सकता। यह अलग बात है कि पीएम महाशय! खुद ही कह चुके हैं कि संभव है कि वे जन्में ही न हो, अवतरित हुए हैं। उन्होंने यह ‘अलौकिक’ बात क्यों कही? ये तो वही जाने। कुल जमा ये है कि उन्हें यह अहसास हुआ कि ‘ऊपर’ वाले ने कुछ खास प्रयोजन के लिए उन्हें भेजा है। संसार में बहुत बातें हिडेन होती हैं। क्या पता ये मामला उसी श्रेणी का हो? अलौलिक को सम‌झने की कुव्वत तो मुझमें नहीं है। लेकिन उनकी पार्टी के तमाम स्वनाम धन्य नेता भी इस ‘सत्य’ को स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं। पिछले दिनों मैंने कई नेताओं को इस संदर्भ में टटोलने की कोशिश की थी। ‘रिकार्ड’ में कोई कुछ बोलने को तैयार नहीं हुआ। संभव है उनकी ये ‘चुप्पी’ अपने नेता के प्रति अगाध स्नेह का प्रतीक हो? खैर, उनके इस आत्म विश्वास पर कोई संदेह की सुई नहीं चलाना चाहता। पाठक अपने विवेक का खुद इस्तेमाल करें।
मान लिया जाए कि वे अवतरित हुए हैं। भारतीय हिंदू दर्शन में ये मान्यता है कि दैवीय अवतार समाज में ‘दुष्ट दलन’ के लिए होते हैं। जाति-धर्म की संकीर्ण जंजीरों से लोगों को मुक्ति देने के लिए होते हैं। जन कल्याण के लिए होते हैं, लेकिन मोदी जी का राजनीतिक इतिहास तो कुछ अलग ही है। अपनी “विशिष्ट राजनीतिक पूंजी’ के बल पर वे जीत के ‘महाखिलाड़ी’ बने थे। करीब 15 साल तक वे लगातार सीएम रहे। इस बीच उन्होंने ‘गुजरात माडल’ की सफल मार्केटिंग कर डाली‌। पूरे देश में इसका डंका बजता रहा। गुजरात में टीम मोदी ने कभी विपक्ष को पनपने नहीं दिया था। साम-दाम-दंड-भेद की नीति साधी गयी। उनके आशीर्वाद से आज तक प्रदेश में भाजपा सत्ता में कायम है।
पिछले दस साल से मोदी जी देश के बेमिसाल पीएम हैं। उनका राजनीतिक जादू चला आ रहा है। 2019 के चुनाव में भाजपा अकेले 303 के आंकड़े तक पहुंची थी। मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस इतनी सीटें भी नहीं जुटा पाया था कि उसे संसद में विपक्षी दल की मान्यता भी मिल सके। मोदी सरकार ने ‘कांग्रेस मुक्त’ भारत का नारा दिया था। मजेदार बात है कि उन्हें कांग्रेस से दिक्कत रही है, कांग्रेसियों से नहीं। यदि ऐसा होता तो वे ‘दागदार’ दर्जनों कांग्रेसियों को अपनी पार्टी और सरकार में ‘आत्मसात’ नहीं करते।
भाई! मोदी महाशय तो अवतारी ठहरे। जो वे ठान लेते हैं, उसे कर ही गुजरते हैं, जो वे बोलते हैं, ठीक वही पार्टी के गण बोलें। इसका सफल प्रबंधन वे करते हैं। इसे वे अनुशासन करार देते हैं। इसी प्रक्रिया में मोदी का कद संगठन और सरकार में बहुत विराट बन गया है। व्यवहारिक तौर पर उनकी सरकार में नंबर दो कोई नहीं है। राजनीतिक हलकों में माना जाता है कि मोदी सरकार में एक नंबर के बाद तमाम डैस-डैस-डैस है। दूसरा नंबर दस के बाद आता है। ऐसे में दो नंबर के नेता अमित शाह भी उनके सामने कहीं ठहरते नहीं। राजनाथ सिंह जैसे बड़े कद के नेता प्रतिरक्षा मंत्री होते हुए भी ‘बौने’ हो गए हैं। ‘अवतारी’ कृतित्व है अपने मोदी जी का।
इस बार फांस ये है कि भाजपा बहु‌मत से बहुत पीछे है। सरकार बनाने के लिए उन्हें जदयू के नीतीश कुमार और टीडीपी के चंद्रबाबू नायडू की ‘बैसाखियों’ का सहारा अनिवार्य रूप से लेना पड़ेगा। चंद्रबाबू नायडू पुराने नेता हैं। एक दौर में वे खांटी सेक्यूलर तेवर वाले नेता रहे हैं। मुस्लिम वोट का उन्हें बहुत लालच है। उनकी पार्टी इस समुदाय को चार प्रतिशत आरक्षण देने का संकल्प जता चुकी है।
चंद्रबाबू नायडू को चालाक राजनीतिक सौदेबाज माना जा सकता है। दोनों के राजनीतिक हितों के टकराव का खतरा है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार मजबूत होकर उभरे हैं। वे भी मोदी जी की दबंग शैली की राजनीति के पीड़ित रहे हैं। वे ‘पलटूराम’ की पदवी पा चुके हैं। इंडिया ब्लाक भी मोदी जी को सत्ता से बाहर करने लिए देर-सबेर कोई पांसा खेलने को तैयार हैं। मोदी जी सत्ता में इस बार आ तो गए हैं लेकिन वे कमजोर पीएम होंगे। उनकी सरकार में खूब सांप्रदायिक नफरत का खुला खेल खेलने की आजादी पहले जैसी नहीं होगी। नयी स्थितियों में मोदी जी पीएम बनते भी हैं तो नीतीश और चंद्रबाबू जैसे घाघ नेताओं की बंदिशों में रहेंगे। मुश्किल ये है कि मोदी जी ने कभी साझा सरकारें नहीं चलाई। वे अटल बिहारी वाजपेई जैसे ‘उदार’ भी नहीं है। इसलिए यही कहा जा सकता है कि ‘राजनीतिक अंकुशों के बीच कठिन डगर है पनघट की।’

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