हन्नान मोल्ला
प. बंगाल के नतीजों का विश्लेषण करने से पहले इस बात को समझना होगा कि वहां की राजनीति बहुत जटिल है। वहां दशकों तक सरकार में रही माकपा की स्थिति यह है कि उसके कार्यकर्ताओं को पिछले आठ-दस सालों से कोई राजनीतिक गतिविधियां नहीं करने दी गई। वहां माकपा के 400 दफ्तर तोड़ दिए गए या जला दिए गए हैं। 750 कार्यकर्ताओं की हत्या कर दी गई है। 50000 समर्थकों को बेघर कर दिया गया है और लगभग एक लाख कार्यकर्ताओं और समर्थकों को झूठे मुकदमों में फंसा दिया गया है। कार्यकर्ताओं और समर्थकों ने राजनैतिक गतिविधियों की बजाए अधिक समय अदालतों का चक्कर काटने में बिताया है।
प. बंगाल में माकपा कार्यकर्ताओं के जो हालात रहे हैं, उन्हें राजधानी दिल्ली में बैठकर नहीं समझा जा सकता। तृणमूल कांग्रेस की आतंक की राजनीति करने के कारण प. बंगाल में माकपा का कार्यकर्ता अप्रासंगिक हो गया था। ऐसी परिस्थितियों में जब पंचायत चुनाव हुए थे, तो 30000 स्थानों पर नामांकन भरने नहीं दिया गया था। पचास हजार स्थानों पर माकपा कार्यकर्ताओं को नामांकन भरने पर धमकाया गया था, यानी कहा जाए, तो माकपा के अस्तित्व पर संकट गहरा गया था। अब माकपा इससे काफी हद तक उबर गई है।
माकपा के जो कार्यकर्ता और समर्थक तृणमूल कांग्रेस के डर की वजह से अपने-अपने इलाकों में कोई गतिविधि नहीं कर पाते थे, वे लाखों की संख्या में कोलकाता की चुनावी रैली में जमा हुए। रैली में शामिल होने वाले लोगों की संख्या 12 लाख आंकी गई। इसमें पूरे प्रदेश के कार्यकर्ता और समर्थक आए थे। बड़ी संख्या में कार्यकर्ताओं और समर्थकों के आने का पहला कारण यह था कि कोलकाता में उन्हें कोई पहचानता नहीं था, इसलिए वे आसानी से रैली में आ सके। दूसरा कारण, ऐसी रैली दस साल के बाद हुई थी। इस रैली में बड़ी संख्या में मजदूर और किसान ही नहीं, छात्र और नौजवान भी शामिल हुए। इससे पार्टी की राजनैतिक गतिविधियां शुरू हो सकी हैं।
विधानसभा चुनाव में माकपा का वोट 6% था। इतने वोटों से रातों रात चमत्कार नहीं हो सकता था, इसलिए लोकसभा के चुनाव में माकपा की सीट जीतने की संभावना नहीं थी। एक सीट पर पार्टी दूसरे नंबर पर रही है, बाकी जगह तीसरे स्थान पर। मुस्लिम वोट बड़ी संख्या में तृणमूल कांग्रेस को गया है और हिंदू वोट तीन हिस्सों में बंटा है, लेकिन एक दर्जन सीटों पर पार्टी ने अपना वोट दुगुना या ढाई गुना किया है।
यह चुनाव माकपा के लिए राजनैतिक रूप से काफी उपयोगी रहा है। इस चुनाव ने माकपा कार्यकताओं में साहस का संचार किया है। हमारे साथियों में आत्मविश्वास भी आया है कि तृणमूल कांग्रेस से मुकाबला किया जा सकता है। यह बड़ी उपलब्धि है, जिसका फायदा आगामी विधानसभा चुनाव में पार्टी को मिलेगा। कांग्रेस के साथ लोकसभा चुनाव लड़ने से उसका वोट तो माकपा को नहीं मिला, लेकिन यह साथ वामपंथी कार्यकर्ताओं और समर्थकों का डर दूर करने में सहायक अवश्य रहा। कांग्रेस के साथ आने का यह फायदा हुआ कि दोनों दलों की संयुक्त बैठक हुई और सड़क पर दोनों के कार्यकर्ता एक साथ निकले, तो तृणमूल के पैदा किए गए खौफ से लड़ सके। आगे भी डटकर सामना करेंगे।
इंडिया गठबंधन में होने के बावजूद तृणमूल कांग्रेस से माकपा की लड़ाई बंद होने का सवाल ही नहीं है। दोनों दलों के रिश्ते इतने खराब हो चुके हैं कि दोस्ती संभव नहीं लगती। माकपा के कार्यकर्ताओं और समर्थकों पर तृणमूल सरकार में कई झूठे मुकदमे लगाए गए हैं, वे इस दोस्ती में हमेशा बाधक बनेंगे।
ममता बनर्जी को खुद को और अपने भतीजे अभिषेक बनर्जी को कथित विभिन्न घोटालों में केंद्र की एजेंसियों से बचाना है। अगर मोदी और ममता बनर्जी के संबंध अच्छे नहीं होते, तो ममता का भी हश्र झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल जैसा होता। हालांकि ममता बनर्जी और मोदी के संबंध अच्छे हैं, लेकिन तृणमूल कांग्रेस एनडीए का हिस्सा नहीं बन सकती। ममता बनर्जी जानती हैं कि भाजपा के साथ जाने से मुस्लिम वोट बैंक पूरी तरह से खिसक जाएगा।
लोकसभा चुनाव में तृणमूल कांग्रेस से पिछड़ने के बाद भाजपा प. बंगाल में बैकफुट पर चली गई है। लोकसभा चुनाव में भाजपा की असफलता का कारण यह है कि भाजपा ने ममता बैनर्जी सरकार के भ्रष्टाचार को प्रमुख मुद्दा बनाने की बजाय हिंदुत्व और सी ए ए (नागरिकता संशोधन अधिनियम) के नाम पर वोट मांगा। ममता बैनर्जी की सरकार पर चिट फंड और नौकरी घोटाले जैसे एक दर्जन बड़े मामले चल रहे हैं, जिसमें उनके मंत्री और कई बड़े नेता जेल जा चुके हैं। माकपा ने चुनाव में इस मुद्दे को उठाया, लेकिन उसकी पहुंच बहुत सीमित है।
प. बंगाल की जटिल राजनीति को समझने के साथ ही इस बात पर भी गौर करना होगा कि वहां रिकॉर्ड मतदान होता है और चुनाव के दौरान और चुनाव के बाद हिंसा भी होती है। इस बार भी मतदान केंद्रों पर हमला हुआ। चुनाव नतीजों के बाद माकपा कार्यकताओं और कार्यालयों पर बड़े पैमाने पर हमले किए गए हैं, आगजनी हुई है।
तृणमूल कांग्रेस के फैलाए गए आतंक से अब हमारी पार्टी काफी हद तक उबर चुकी है। अब हम संघ-भाजपा की फासीवादी-सांप्रदायिक राजनीति और तृणमूल कांग्रेस की आतंक की राजनीति का हर तरह से मुकाबला करने के लिए तैयार है। अब हमारे कार्यकर्ता और समर्थक आगामी विधानसभा चुनाव की तरफ देख रहे हैं। उन्हीं के भरोसे कह सकता हूं कि विधानसभा चुनाव में माकपा अधिक मजबूती से तृणमूल-भाजपा से मुकाबला करेगी। विधानसभा में माकपा की सीटें शून्य नहीं आएंगी।
(लेखक पूर्व सांसद और माकपा के केंद्रीय समिति के सदस्य तथा अखिल भारतीय किसान सभा के उपाध्यक्ष हैं।)