व्यंग्य : राजेंद्र शर्मा
मोदी जी के विरोधियों के कीड़े पड़ेंगे, कीड़े। सब के सब एड़ियां रगड़-रगड़ के मरेंगे। मोदी जी की और अडानी जी और अंबानी जी की भी ऐसी हाय लगी है कि इन्हें कोई नहीं बचा सकता। और हां! शेयर बाजार में पैसा लगाने वाले उन लाखों की भी तो हाय लगी है, जिनका बिचारों का बेबात लाखों करोड़ का नुकसान हो गया बताते हैं। और वह भी सिर्फ इसलिए कि विरोधियों ने मोदी जी की अडानी जी और अंबानी जी से कुट्टी होने की अफवाह उड़वा दी। इतनी पक्की दोस्ती में कुट्टी; अफवाह का उड़ना था कि शेयर खिलाड़ियों के होश उड़ गए और बाजार धड़ाम हो गया। दसियों लाख की बद्दुआ लगी है। शेयर बाजार से वोट करा लेते, तो हाथ के हाथ चुनाव हार जाते और मोदी जी यूं ही तिबारा जीत जाते। और क्यों न हो, आखिरकार बेचारों के पेट पर लात मारी है। अब प्लीज ये न कहें कि पेट कहां, लात तो शेयरों पर पड़ी है। खाता हो कि तिजोरी, सब पेट के ही तो विस्तार हैं। पेट भरा नहीं कि तिजोरियों का नंबर लगा नहीं।
बेशक, अडानी जी, अंबानी जी की बद्दुआ भी, मोदी जी के विरोधियों को ही लगेगी। वैसे बेचारों ने अभी तक कुछ कहा नहीं है। अभी तक तो धक्के से ही नहीं निकले हैं कि चोरी का माल, बोरे, टैंपू, ये मोदी जी ने क्या कह दिया? और धक्के से निकल भी गए, तब भी अपने मुंह से कुछ कहेंगे, हमें नहीं लगता है। सो मोदी जी जैसी सौ फीसद वाली गारंटी तो नहीं है कि उनकी बद्दुआ विरोधियों को ही लगेगी, पर लगेगी जरूर। आखिरकार, उनसे बेहतर कौन जानता होगा कि मोदी जी ने उनके खिलाफ कुछ भी खुशी से नहीं कहा होगा। इतनी पुरानी और पक्की दोस्ती में कोई क्यों दरार आने देगा? और मोदी जी ने क्या-क्या नहीं किया है, इस दोस्ती की खातिर। हवाई अड्डे दिए। बंदरगाह दिए। सड़कें दीं। तेल दिया। इस्पात दिया। कारखाने दिए। जंगल दिए। पहाड़ दिए। जमीनें दीं। संचार दिया। और तो और बेटे-बेटियों की शादियों की तैयारियों के लिए, देश की वायु सेना की सेवाएं तक दीं। उन्होंने भी बदले में, नहीं — दोस्ती में सौदा नहीं होता, अपनी खुशी से क्या-क्या नहीं दिया! हवाई जहाज दिए। घेर-घेर के अरबपतियों का समर्थन दिया। बिना बांड के ही अपार पैसा दिया। गोदी मीडिया का ब्रह्मास्त्र दिया। और भी न जाने क्या-क्या लिया और दिया गया : दोस्ती में नो हिसाब, नो थैंक यू। ऐसी दोस्ती में कोई दरार आने देगा? कुछ तो मजबूरियां रही होंगी, यूं ही कोई बेवफा नहीं होता!
मजबूरियां भी कोई छोटी-मोटी नहीं, बहुत तगड़ी वाली रही होंगी। वर्ना मोदी जी छोटी-मोटी मजबूरियों से हिलने वाले हैं क्या? छप्पन इंच की छाती कोई दिखाने को ही थोड़े ही रखाई है। दस साल में इन्हीं विरोधियों ने उनकी दोस्ती को बदनाम करने की कोई कम कोशिशें की थीं क्या? क्या-क्या नहीं कहा गया उनके इस रिश्ते को लेकर। क्या-क्या ताने नहीं दिए गए। कैसी-कैसी बातें नहीं कही गयीं। मोदी जी के राज को अडानी-अंबानी राज कहा। अडानी-अंबानी को किसी ने दरबारी, तो किसी ने गोदी पूंजीपति कहा। यारी-दोस्ती को लेन-देन का रिश्ता कहा। मोदानी जैसे नाम तक चला दिए। पर मोदी जी ने इन बातों का नोटिस तक नहीं लिया। जिस-जिस ने भला-बुरा कहा, उसे संसद से निकलवा और दिया। शिकवा-शिकायत तो छोड़ो, मोहब्बत के सिवा और किसी सुर में कभी यारों का नाम तक नहीं लिया। गोदी से बाहर के इक्का-दुक्का खबरचियों ने देश-वेश को चूना लगाए जाने की खबरें छाप दीं, तब भी नहीं। हिंडनबर्ग वालों ने रिपोर्ट निकाल कर शेयर बाजार में हडक़ंप मचवा दिया, तब भी नहीं। पौने दस साल में एक बार भी नहीं। फिर दसवें साल के आखिर में अचानक क्यों? कुछ तो मजबूरियां रही होंगी!
और साहेब के लिए, चुनाव से बढ़कर मजबूरी क्या होगी? आखिरकार, कुर्सी है, तो जहान है और दोस्तों का कल्याण भी। पर इस बार तो कुर्सी पर ही बन आयी। सब सैट था। तीसरी बार, चार सौ पार का नारा भी था। दोस्तों की मेहरबानी से मीडिया गोदी में था और चुनाव आयोग जेब में। पैसों के पहाड़ लगे थे। ईडी-सीबीआई सब दौड़-दौड़कर जा रहे थे और विरोधी नेताओं को पकड़-पकड़ कर, वाशिंग मशीन में या जेल में पहुंचा रहे थे। और तो और 2047 वाली प्लानिंग पर ऐसे लोग भी मुंडी हिला कर रहे थे, जिनका अगली जून के खाने का ठिकाना तक नहीं था। पर तभी न जाने कैसी हवा चली कि लोग विरोधियों के भड़काने से भड़कने लगे, कभी बेरोजगारी, तो कभी महंगाई को सच मानने पर अड़ने लगे। पहले चरण में टैम्पो ढीला नजर आया तो साहेब ने हिंदू-मुस्लिम का अपना प्रिय राग छेड़ दिया। 14 फीसद मुसलमानों से, 80 फीसद से ज्यादा हिंदुओं के लिए खतरे का डंका पीट दिया। पर ढाक के वही तीन पात। पब्लिक का वही जाप — महंगाई, बेरोजगारी; बेरोजगारी, महंगाई! जमीन खतरे में दिखाई, मंगलसूत्र खतरे में बताया, मकान खतरे में बताया, भैंस तक खतरे में बतायी, पर भुक्खड़ पब्लिक की वही रट — महंगाई, बेरोजगारी। ऊपर से इसके ताने और कि अडानी, अंबानी से नाता क्या कहलाता है? बंदे की सटक गयी और क्या? फिर तो जो हुआ, सो सबने सुना और देखा।
हमें तो लगता है कि अडानी जी, अंबानी जी भी समझते होंगे। आखिर, इतने पुराने और पक्के दोस्त हैं। इत्ती सी बात पर दोस्ती में दरार थोड़े ही पड़ने देंगे। हां! ये बात जरूर है कि मोदी जी के मुंह से जो चोरी का माल वाली बात निकल गयी, वह जरा ज्यादा हो गया। चोरी का माल भी चिल्लर टाइप नहीं, बोरों में भर-भरकर। बोरे भी टैंपुओं पर लाद-लादकर। और वह भी दुश्मनों को पहुंचाने की बात। ये तो दोस्ती के जरा ज्यादा ही सख्त इम्तहान वाली बात हो गयी। और वह भी साहेब के मुंह से जो गाते थे — ये दोस्ती हम न छोड़ेंगे, छोड़ेंगे दम, मगर साथ न छोड़ेंगे! दम की छोड़ो, गद्दी पर बात आयी, उतने पर ही दोस्ती पर सवाल खड़ा कर दिया। नाराजगी न सही, पर कुछ मलाल तो अडानी जी, अंबानी जी को भी जरूर होगा। जिसकी बिल्ली उसे से म्याऊं! बेशक, मोदी जी भी पुरानी दोस्ती का वास्ता देकर पुचकार रहे हैं। एक दिन का प्रचार मौन रखकर पश्चाताप कर चुके हैं। और दोबारा बोरे और टैंपू का नाम भी नहीं लेने की कसम खा रहे हैं। पर अब क्या वह पहले जैसी यारी नजर आएगी? दोस्ती का धागा एक बार तो चटक कर टूट गया। अब दोबारा जोड़ भी लेंगे तो क्या पहले जैसा जुड़ पाएगा? रहीमदास जी तो मुगलों के टैम में ही कह गए थे — टूटे से फिर ना जुड़े, जुड़े गांठ पड़ जाए।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक ‘लोकलहर’ के संपादक हैं।)