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तीन सवारी, एक कहानी

सुशील उपाध्याय

इस कहानी में चार पात्र हैं – एक युवा लड़की, उसके अधेड़ मां-बाप और चौथा पात्र वहां साक्षी भाव से मौजूद है जो घटनाओं को होते हुए देख रहा है। यूं तो इसे कहानी कहना मुश्किल है और ये कहना भी मुश्किल है कि वहां कोई घटना हुई।

शाम का वक्त है, राजधानी एक्सप्रेस अभी दिल्ली से मुंबई के लिए रवाना होनी है। (मेरा गंतव्य महाराष्ट्र का जलगांव है।) ये तीनों सवारी टाइम से पहले ही अपने कोच में आ बैठी हैं। लड़की इस बात से परेशान है कि गाड़ी रवाना क्यों नहीं हो रही है, जबकि अभी गाड़ी के छूटने में 10 मिनट का टाइम है। बेचैनी की स्थिति में वो लगातार बाहर देख रही है और फिर फोन में आंखें गड़ा लेती है। लड़की के पिता ने कोच में आते ही सबसे पहले काम अपनी सीट पर बिस्तर बिछाने का किया। उन्हें आशंका है कि कहीं दूसरे लोग अच्छे चादर, तकिया और कंबल ना ले जाएं। वे पैकेट में बंद चादरों को सूंघकर तय करते हैं कि कौन सी ज्यादा साफ है।
इस बीच लड़की की मां (जो थोड़ी कम लंबाई की हैं, लेकिन काफी वजन उन्होंने एकत्र किया हुआ है) ने अपने पति को ताकीद किया कि बिस्तर बिछाने से पहले कुछ खा लें। मां अपनी बेटी से भी बार-बार खाने के लिए कह रही है और बेटी हर बार चिढ़ कर जवाब देती है। महिला ने जिन चीजों का जिक्र लिया उनमें ग्रिल्ड सेंडविच, फ्राइड मोमो, कचौड़ी और मसाला डोसा है जो अभी गर्म बताया गया है। बेसन के लड्डू भी हैं। लड़की फोन में इतनी व्यस्त है कि यदि फोन में सिर घुसा पाना संभव होता तो शायद उसके सिर की जगह केवल फोन ही दिखाई देता। मां-बाप की तुलना में लड़की काफी दुबली है, उसके ऊपर के दांत कुछ आगे की तरफ हैं, माथा सिकुड़ा हुआ है, लेकिन नाक लंबी है। वो बार-बार नाक पर नीचे खिसकने वाले अपने चश्मे को पीछे की तरफ करके फिर फोन में घुस जाती है।
लड़की की मां ने अपने फोन पर बहुत ऊंची आवाज में धीरेंद्र शास्त्री की कथा सेट की हुई है और बीच-बीच में राधा – राधा नाम भी जपती जाती है। इन दो क्रियाओं के बीच में अपने पति से शाम का पाठ कर लेने और बेटी को कुछ खा लेने के लिए ताकीद करती हैं। अचानक मेरा ध्यान उनकी उंगली पर पड़ा, जिसमें उन्होंने छोटी – सी मशीननुमा कोई चीज पहनी हुई है। शुरू में मुझे लगा कि बीपी नापने या हार्टबीट के बारे में विवरण इकट्ठा करने के लिए यह मशीन पहनी गई होगी। लेकिन गौर किया तो पता लगा कि वे जितनी बार राधा नाम लेती हैं, उतनी बार मशीन का बटन दबाती हैं। आश्चर्य हुआ कि अब माला फेरने का काम भी मशीन के जरिए होने लगा है। खुद के अज्ञानी होने पर झेंप महसूस हुई।
इस बीच पति ने खिड़की की तरफ मुंह किया और कई तरह की धार्मिक किताबें और कुछ छोटी मूर्तियां निकलकर सामने रख ली। संभवतः उन्होंने अपना धार्मिक पाठ शुरू कर दिया है। इस बीच उन्हें ख्याल आया कि खाने के लिए घर से जो कचौड़ी रखी जानी थी, उन्हें लाना भूल गए हैं। उन्होंने इस बात पर पत्नी को डांटा। हालांकि मुझे ऐसा लगा कि वे यह दिखाने की कोशिश कर रहे हैं कि पत्नी को डांट सकते हैं। इसके जवाब में पत्नी ने ऊंचे और कड़वे स्वर में उन्हें निर्देशित किया कि वे अपने पाठ पर ध्यान दें। पति ने फिर से पाठ शुरू किया और पत्नी ने माला जपते, कथा सुनते हुए बैग से दो केले निकाले। पहले बेटी को ऑफर किए और बेटी के इनकार करने पर खुद ही खा लिए। छिलके कोच के बाहर डस्टबिन में डालने की बजाय सीट के नीचे खिसका दिए। मैंने सहज ही इसका प्रतिवाद किया तो पति ने अपने पाठ को बीच में ब्रेक देकर मुझसे कहा कि उन्हें पता है, सफाई कैसे रखी जाती है, जब कोच से निकलेंगे तो छिलके बाहर फेंक देंगे।
सवारियों द्वारा अपने सहयात्रियों की ढकी – छिपी परख – पड़ताल की प्रक्रिया के बीच गाड़ी अपने निर्धारित समय पर रवाना हुई। कुछ देर बाद शाम की चाय सर्व हुई, (जो कि शताब्दी, राजधानी, दुरांतो और वंदे भारत आदि में सर्व की ही जाती है) चाय की गुणवत्ता के बारे में कुछ कहना निरर्थक ही है। चाय के साथ जो ऑफर किया गया, वो और भी हैरतनाक था। उसमें 5 रुपए का नमकीन का पैकेट, 5 रुपए का बिस्कुट का पैकेट, एक पीस सोनपापड़ी और एक अधपका हुआ पकौड़ा। गौर कीजिए, यह दिल्ली से मुंबई जाने वाली राजधानी एक्सप्रेस ट्रेन है, जिसका किराया लगभग हवाई जहाज के बराबर है।
वैसे, अहर्निश तरक्की करते हुए देश में इतनी छोटी-छोटी चीजों को नोटिस करने वाले लोग प्रकारांतर से तरक्की की राह की बहुत बड़ी बाधा होते हैं और मैं नहीं चाहता कि मुझे उन लोगों की श्रेणी में रखा जाए जो हर जगह बाधा बनकर खड़े होते हैं। खैर, तीनों ने कुछ खाया, कुछ जूठा करके छोड़ दिया। इस नाश्ते को ग्रहण करते हुए उन्हें बार-बार पानी की उस बोतल की चिंता हो रही थी जो यात्रा करने से पहले ट्रेन में मुहैया कराई जाती है। जितनी बार भी वेटर गुजरा, उन्होंने अपनी तीन बोतलों के लिए निर्देशित किया। अंततः पानी आ ही गया। इस पूरी अवधि में धीरेंद्र शास्त्री की कथा पूरे उच्च स्वर में गुंजायमान हो रही थी। लड़की ने एक – दो बार अपनी मां को इशारों में कहा कि आवाज कम कर लो। महिला को लगा कि उस जगह मौजूद चौथे व्यक्ति यानी मुझे इस कथा से प्रॉब्लम हो रही है। उन्होंने सीधे पूछ लिया कि आपको दिक्कत हो रही है ? मैंने सिर हिलाकर मना किया। लेकिन सुझाव दिया कि बेहतर यह होता कि आप इसके लिए इयर फोन ले लेती तो कथा सुनने में आसानी रहती। मेरा यह कहना महिला के पति को नागवार गुजरा। उन्होंने कहा कि हमारे पास इयर फोन हैं। लेकिन, घर से निकलते वक्त रखना भूल गए। और इस तरह सुनने में भी कोई बुराई की बात नहीं। आखिर, कथा सुन रहे हैं, वेब सीरीज तो नहीं देख रहे हैं! पुरुष के इन वचनों के बाद मुझे खामोशी में ही संबल महसूस हुआ।
राजधानी ट्रेन अपने से आगे चल रही ज्यादातर ट्रेनों को पीछे छोड़ती हुई तेज गति से गंतव्य की तरफ दौड़ी चली जा रही है। गति का संगीत बहुत अनूठा होता है। लेकिन, इस यात्रा में मेरा ध्यान गति की बजाय इस परिवार पर लगा हुआ है। बीच-बीच में जब भी कोई स्टेशन आता है, लड़की अपनी मां से पूछती है कि कौन सा स्टेशन आ गया। महिला अपने पति की तरफ इस प्रश्न को ठेल देती है। पति बाहर की तरफ झांक कर अनुमान से किसी शहर का नाम लेते हैं और फिर अपने धार्मिक पाठ में जुट जाते हैं। करीब दो घंटे के अंतराल के बाद उनका धार्मिक पाठ संपन्न हुआ। इस अवधि में धार्मिक गतिविधियां और खाना-पीना साथ चलता रहा। उनके इस आयोजन में एक मात्र बाधक तत्व की तरह मेरी उपस्थिति थी। मेरी उपस्थिति को खारिज करने के लिए पुरुष ने अपनी बेटी को संबोधित करते हुए कहा कि अगली बार फर्स्ट एसी में चलेंगे। अब सेकंड एसी में भी लोअर क्लास के लोग आने लगे हैं। अनायास खुशी हुई कि यहां एक इंसान मौजूद है जिसने इस सेकंड एसी कोच में मेरे साक्षात मौजूद होने के बावजूद मेरी वर्गीय श्रेणी को पहचान लिया है।
साक्षी भाव से देखने की इस प्रक्रिया में करीब 3 घंटे का अंतराल बीत गया और अंतत वह पल आया जिसकी प्रतीक्षा ये तीनों कर रहे थे। वेटर ने खाने के बारे में पूछा तो उन्होंने अपनी श्रेणी वेज यानी शाकाहारी बताई। मुझे थोड़ी राहत महसूस हुई। हालांकि मुझे इस बात पर कोई एतराज नहीं है कि कोई व्यक्ति क्या खाना पसंद करता है। लेकिन बगल में बैठकर चिकन – मटन खा रहे लोगों के साथ कुछ खा पाना मुश्किल हो जाता है।
कुछ देर बाद खाना आया तो तीनों इतनी तेजी से खाने पर लपके जैसे कई दिनों के भूखे हों। कुछ ही देर में उन्होंने खाने की पैक्ड प्लेट की चीर- फाड़ की और अंततः इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि खाना बेहद खराब है। इससे बेहतर यह होता कि घर से ही खाना लेकर आते। अचानक उनकी स्मृति कौंधी कि वे अपने साथ काफी कुछ खाने के लिए लेकर आए हैं। फिर उन्होंने नीचे की दोनों सीट्स पर खाने को इस तरह फैला लिया कि वहां मेरे बैठे रहने की जगह भी नहीं बन पा रही थी। अगले आधे घंटे में उन्होंने जो कुछ खाया, जो बचाया और जो कुछ फेंकने के लिए तैयार किया, उसकी व्याख्या लगभग असंभव है। उनके व्यवहार को देखकर एक दुख जरूर हुआ कि आखिर संपन्नता अपने साथ संवेदना के साथ जिंदगी जीने का सलीका लेकर क्यों नहीं आती! जिस देश में 20 करोड से ज्यादा लोगों को दो वक्त का खाना ना मिल पाता हो, वहां कुछ लोगों को यह निर्लज्ज छूट प्राप्त है कि वे जी भर कर खाने की बर्बादी करें और इसे अपनी हैसियत के साथ जोड़कर देखें।
ट्रेन में जो खाना सर्व किया गया, उसकी मात्रा काफी थी इसलिए मैंने पूरी प्लेट लेने की बजाय उसमें से दही, रोटी और पनीर की सब्जी वापस कर दी क्योंकि मेरी रुचि केवल दाल- भात (चावल) खाने में थी। मुझे जानकारी नहीं थी कि खाने के बाद आइसक्रीम भी सर्व की जाएगी, लेकिन मेरे सहयात्री इससे वाकिफ थे। उन्होंने खाना खाने (वस्तुतः खाना बर्बाद करने) के कुछ देर बाद आइसक्रीम की मांग की। रोचक बात यह है कि आइसक्रीम मिलने के बाद, उसे खाने की बजाय अपने पास ही सजा कर रख लिया। बाद में जब वेटर प्लेटें उठाने आया तो उसने आइसक्रीम को फालतू समझकर उसे उठाने के बारे में पूछा। महिला ने जवाब दिया कि उनकी बेटी को रात में भूख लगती है इसलिए वो इस आइसक्रीम को रात में खाएगी।
जैसा कि मेरा अनुमान था, उस लड़की को इस आइसक्रीम की वास्तव में जरूरत नहीं थी। सुबह तक आइसक्रीम वहीं पर रखी हुई मेल्ट हो गई और आखिरकार उसे उठाकर कूड़े में फेंक दिया गया। मनोवैज्ञानिक बताते हैं कि भीतरी असुरक्षा का शिकार लोग खाने के मामले में ऐसा बर्ताव करते हैं। यह असुरक्षबोध उन्हें जरूरत से ज्यादा खाना समेटने के लिए प्रेरित करता है। साथ ही मनोवैज्ञानिक ये भी मानते हैं कि थोड़ी मेंटल ट्रेनिंग के बाद इस मानसिक रोग से छुटकारा पाया जा सकता है।
धीरेंद्र शास्त्री का प्रवचन रात 11 बजे तक चलता रहा। वो भी तब बंद नहीं हुआ, जब आसपास के कुछ लोगों ने इस ऊंचे स्वर की कथा पर ऐतराज जताया। महिला को यह अच्छा नहीं लगा। उन्होंने कथा का स्वर कम नहीं किया। ऐसा लगा कि वे आसपास के लोगों को चुनौती दे रही हैं। मैं, ऊपर की सीट पर जाकर सो गया। रात में किसी प्रहर में नीचे से आ रही खर्राटों की अनेक आवाजों से आंख खुली। धीरेंद्र शास्त्री की कथा तो बंद हो गई थी लेकिन खर्राटों का स्वर पूरे माहौल में गूंज रहा था। छोटे – बड़े, दीर्घ – हृस्व, लघु – गुरु, सभी तरह के खर्राटें एक – दूसरे से होड़ ले रहे हैं। ऐसे माहौल में नींद टूट जाए तो फिर दोबारा मुश्किल होती है। वैसे, ट्रेन में आमतौर से वे ही लोग आसानी से सो पाते हैं जो निरंतर यात्राएं करते हैं। कई लोगों को इन यात्राओं की लत लग जाती है। ओशो रजनीश के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने अपने जीवन में इतनी ज्यादा ट्रेन यात्राएं की थीं कि बाद के दिनों में उन्हें सोने के लिए ट्रेन की आवाजों की जरूरत महसूस होती थी।
जब तक मैं चैतन्य हुवा, तीनों सुबह की चाय पी रहे थे और फिर बारी-बारी से बाहर के माहौल को देखकर कभी निंदा भाव से, कभी तुलना के भाव से और कभी अहो भाव से टिप्पणियां कर रहे थे। बातचीत से अंदाजा हुआ कि लड़की किसी स्कूल में पढ़ाती है और पिता का अपना कोई बिजनेस है। उनकी यात्रा का प्रयोजन किसी विवाह में शामिल होना है, लेकिन साथ ही उन्होंने कोई धार्मिक स्थल भी चुना हुआ है जहां वे धर्म लाभ हेतु दर्शन करने जाएंगे। फिलहाल, उनकी चिंता इस बात को लेकर ज्यादा है कि उनके रहने की व्यवस्था जिस होटल में की गई है, वह उनके रहने के स्तर का है या नहीं है।
बीती शाम की तरह ही सुबह भी ट्रेन में नाश्ता दिया गया। वह भी लगभग वैसा ही था, जैसा कि बीते रोज मिला था। बस, इसमें थोड़ा – सा पोहा बढ़ा दिया गया था। मैं, करीब 5 साल के अंतराल के बाद राजधानी या शताब्दी ट्रेन में यात्रा कर रहा था। बीच में कोरोना के कारण बहुत कम यात्राएं हुई। इस अंतराल के दौरान एक बड़ा बदलाव नोटिस किया कि राजधानी जैसी ट्रेन में सफाई का स्तर लगभग वैसा ही हो गया, जैसा कि बाकी सामान्य ट्रेनों में होता है। शुरू के वर्षों में इन ट्रेनों में सफाई, खान-पान और स्टाफ के व्यवहार को लेकर फीडबैक कराया जाता था, लेकिन मौजूदा यात्रा के दौरान ऐसा नहीं हुआ। एक और अंतर दिखा, राजधानी ट्रेन के कोचों में चाय – बिस्कुट, इयरफोन – हेडफोन, आगरा का पेठा और इनके साथ जो कुछ बेचा जा सकता है, उनके वेंडर पूरी आजादी के साथ आवाज़ लगाते हुए घूम रहे थे। पहले इन ट्रेनों में वेंडर्स को अनुमति नहीं थी क्योंकि खाना – पीना ट्रेन में ही दिया जाता है।
एक और रोचक बात देखने को मिली। पहले जो कंबल दिए जाते थे, उनकी लंबाई लगभग 6 फिट होती थी। अब न जाने किस कलाकार व्यक्ति का दिमाग सक्रिय हुआ होगा कि इन कंबलों की लंबाई घटा दी गई है। ऐसे में, यदि कोई पूरे आकार का पुरुष यह सोचे कि इन्हें ओढ़ कर कंबल ओढ़ने जैसी अनुभूति से रूबरू हो सकेगा तो उसे निराशा की अनुभूति होगी।
बिना किसी घटना के यह कहानी यहीं खत्म होती है क्योंकि मेरा स्टेशन आ गया है। मेरे सहयात्रियों को अभी कुछ और घंटे की यात्रा करनी है। लोअर बर्थ के नीचे उनके द्वारा ठुसे गए कई बैगों के बीच मेरा दुबला – पतला बैग लगभग मरने जैसी स्थिति में पड़ा हुआ था। जैसे- तैसे उसे वहां से निकलकर खुली हवा में सांस लेने का मौका दिया। प्लेटफॉर्म पर आने के बाद मैंने इन तीनों दिव्य सवारियो की तरफ मुस्कुरा कर देखा और बाहर की तरफ बढ़ गया। इनकी यात्रा भी मंगलमय हो। गेट पर चेकिंग के वक्त ई-टिकट दिखाया तो टिकट पर दर्ज एक पंक्ति पर निगाह पड़ी कि मेरी यात्रा का 43 परसेंट हिस्सा सरकार ने वहन किया है। मेरा भी मन किया कि सरकार को बताऊं कि 30 परसेंट इनकम टैक्स और 12-18 परसेंट जीएसटी का भुगतान करता हूं। इसलिए मेरी तरफ कुछ शेष नहीं है। यदि शेष हो तो सूचित कीजिएगा।
ट्रेन पूरी रफ्तार के साथ मुंबई की ओर बढ़ चली और मैं जलगांव स्टेशन पर अपने मित्रों को पाकर आह्लादित हूं।

 

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