डॉ गोपाल नारसन
समान नागरिक संहिता का अभिप्राय है ,देश या राज्य में प्रत्येक नागरिक के लिए एक ही कानून होगा यानि कोई जातिगत व धर्मगत अथवा क्षेत्रगत आधार पर कोई भेदभाव कानून में नही होगा।यह अच्छा भी है कि प्रत्येक नागरिक को एक समान कानून से अनुशासित दायरे में रखा जाए।इस समान नागरिक कानून के लागू होने के बाद देश इस राज्य जहां भी यह कानून लागू हुआ है, में रहने वाले हर नागरिक के लिए एक समान कानून प्रभावी होगा, चाहे वह किसी भी धर्म या जाति का क्यों न हो। यानी हर धर्म, जाति, लिंग के लिए एक जैसा कानून। अगर समान नागरिक कानून लागू होता है तो विवाह, तलाक, बच्चा गोद लेना और संपत्ति के बंटवारे जैसे विषयों में सभी नागरिकों के लिए एक जैसे नियम होंगे।समान नागरिक संहिता भारत के संविधान के अनुच्छेद 44 का भाग है।भारतीय संविधान में इसे नीति निदेशक तत्व में शामिल किया गया है। संविधान के अनुच्छेद 44 में उल्लेख है कि सभी नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता लागू करना सरकार का दायित्व है।जिसकी पहल उत्तराखंड राज्य ने देश मे सबसे पहले की है,लेकिन उत्तराखंड द्वारा पारित समान नागरिक कानून की परिधि से जनजातियों,आदिवासियों व जौनसारियो को बाहर रखा गया है,जिसके पीछे उनकी परम्परा का हवाला दिया गया है,जबकि कोई न कोई परम्परा तो हर जाति धर्म मे है फिर सिर्फ उन्हें ही छूट क्यों दी गई,यह पूछने पर सरकार के स्तर से भी कोई संतोषजनक जवाब सामने नही आया है। लिव इन रिलेशनशिप मुद्दे पर भी मुख्यमंत्री पुष्कर धामी इन जनजातियों शामिल न करने की बाबत तर्क देते है कि, ”संविधान में ट्राइबल्स के लिए व्यवस्था की गई है, संविधान ने उनके पिछड़ेपन की वजह से, रहन-सहन की वजह से छूट दी गई है। जब हमारी कमेटी गई थी तो कमेटी के लोगों ने उन लोगों से बात की, उनके समूह से बात की। उन्होंने कहा कि उन्हें इसमें, समान नागरिक संहिता में शामिल होने में कोई दिक्कत नहीं है, लेकिन कुछ समय हमें दे दिया जाए, कमेटी की सिफारिश के आधार और संविधान की भावनाओं के आधार पर ऐसाकिया है।”लेकिन सवाल उठता है कि समय तो विपक्ष भी मांग रहा था ,इस कानून के ड्राफ्ट के अध्ययन के लिए,ड्राफ्ट को प्रवर समिति के पास भेजने के लिए सरकार को इतनी भी क्या जल्दी थी कि जनजातियों ने समय मांगा और दे दिया,विपक्ष ने मांगा मना कर दिया और आनन फानन में यह कानून पारित,जिससे साफ है कि जल्दबाजी कानून की नही चुनाव में इस कानून का लाभ लेने की है।यह भी सही है कि समान नागरिक कानून लागू होने का नुकसान जनजातियों को उठाना पड़ेगा। यदि सरकार को उनके हितों की चिंता होती तो उन्हें समान नागरिक कानून से अलग नहीं रखा जाता।कुछ का तर्क है कि जनजातियों की संपत्ति पर समूह विशेष की नजर है जिस कारण उन्हें समान नागरिक कानून से अलग रखा गया है ।
अगर सरकार महिलाओं को बहुविवाह से बचाना चाहती है तो लिव इन पर रोक लगाई जानी चाहिए थी, लेकिन ऐसा नही हुआ। सरकार समान नागरिक कानून के जरिए लिव इन को स्वयं बढ़ावा दे रही है। तीन तलाक के विरुद्ध कानून बन पहले ही बन चुका है तो समान नागरिक कानून में इसे लाने का कोई औचित्य नहीं है। हलाला भी इस्लामिक कानून में दुष्कर्म के समान है, जिस पर सजा का प्रावधान है। संपत्ति में महिलाओं के अधिकार को लेकर भी शरीयत में पहले से व्यवस्था है। महिलाओं को दोनों ओर से अधिकार प्राप्त होते हैं। शादी से पहले हक मेहर की व्यवस्था होती है जो ससुराल पक्ष की ओर से दी जाती है। वहीं, पिता की संपत्ति में भी एक चौथाई हिस्सा लड़की को मिलता है।जब समान नागरिक कानून के जरिए लिव इन रिलेशनशिप को पंजीकरण की मान्यता दी जा रही है ,इससे हमारी संस्कृति प्रभावित होगी। इस तरह तो लिव इन रिलेशनशिप का पंजीकरण करा कर एक तरह से शादी घोषित हो जाएगी, जबकि लिव इन रिलेशन में रहने का मतलब किसी एक के साथ रहने से भी नहीं है। महिला और पुरुष एक दूसरे से अलग होने के बाद किसी और के साथ भी लिव इन में इस व्यवस्था के मुताबिक रहते सकते हैं तो इसमें संस्कृति कहां बच पाएगी?हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 2(2) कहती है कि इसके प्रावधान अनुसूचित जनजातियों पर लागू नहीं होंगे,कानून की धारा 5(5) और 7 में कहा गया है कि प्रथागत प्रथाएं प्रावधानों पर हावी रहेंगी।लेकिन समान नागरिक कानून आने के बाद यह छूट नहीं मिल पाएगी। मुस्लिम पर्सनल (शरीयत) एप्लीकेशन एक्ट, 1937 में कहा गया है कि शरीयत या इस्लामी कानून के तहत शादी, तलाक और भरण-पोषण लागू होगा,लेकिन अगर समान नागरिक कानून आता है, तो शरीयत कानून के तहत तय विवाह की न्यूनतम उम्र बदल जाएगी और बहुविवाह जैसी प्रथाएं खत्म हो जाएंगी,यह लाभ जरूर इस कानून से हो सकता है।सिखों की शादी संबंधित कानून 1909 के आनंद विवाह अधिनियम के अंतर्गत आते हैं। इसमें तलाक का कोई प्रावधान नहीं है, ऐसे में तलाक के लिए उनपर हिंदू विवाह अधिनियम लागू होता है।लेकिन अगर समान नागरिक कानून आता है तो एक सामान्य कानून सभी समुदायों पर लागू होने से सुगमता रहेगी, ऐसे में आनंद विवाह अधिनियम भी खत्म किया जा सकता है।पारसी विवाह और तलाक अधिनियम, 1936 में प्रावधान है कि जो भी महिला किसी अन्य धर्म के व्यक्ति से शादी करती है, वह पारसी रीति-रिवाजों और रीति-रिवाजों के सभी अधिकार खो देगी, लेकिन समान नागरिक कानून आने पर यह प्रावधान भी समाप्त हो जाएगा। पारसी धर्म में गोद ली हुई बेटियों को अधिकार नहीं दिए जाते, जबकि गोद लिया बेटा सिर्फ पिता का अंतिम संस्कार कर सकता है। अगर समान नागरिक कानून लागू किया जाता है तो सभी धर्मों के लिए संरक्षकता और हिरासत कानून सामान्य रूप से स्वीकार्य हो जाएंगे और यह व्यवस्था खत्म हो जाएगी। ईसाई तलाक अधिनियम 1869 की धारा 10A(1) के तहत आपसी सहमति से तलाक के लिए आवेदन देने से पहले पति-पत्नी को कम से कम दो साल तक अलग रहना अनिवार्य है। लेकिन समान नागरिक कानून आने के बाद ये बाध्यता भी खत्म हो जाएगी।सन 1925 का उत्तराधिकार अधिनियम ईसाई माताओं को उनके मृत बच्चों की संपत्ति में कोई अधिकार नहीं देता है,ऐसी सारी संपत्ति पिता को विरासत में मिलती है। समान नागरिक कानून आने पर यह प्रावधान भी खत्म हो जाएगा। आदिवासी समाज परंपराओं, प्रथाओं के आधार पर चलता है, ऐसे में समान नागरिक कानून में यदि आदिवासियों को शामिल किया जाता तो उनके सभी प्रथागत कानून खत्म हो जाते,लेकिन ऐसा हुआ नही है।यह इस समान नागरिक कानून की बड़ी खामी कही जा सकती है।इसी तरह से छोटानगपुर टेनेंसी एक्ट, संथाल परगना टेनेंसी एक्ट, एसपीटी एक्ट, पेसा एक्ट के तहत आदिवासियों को झारखंड में जमीन को लेकर विशेष अधिकार प्राप्त हैं, समान नागरिक कानून के लागू होने और उसमें इन लोगो को शामिल करने से उनके ये अधिकार खत्म हो जाएंगे।समान नागरिक कानून के लागू होने से पूरे देश में विवाह, तलाक, विभाजन, गोद लेने, विरासत और उतराधिकार एक समान हो जाएगा। ऐसे में महिलाओं को संपत्ति का सामान अधिकार मिल जाएगा,हालांकि सुप्रीम कोर्ट पहले ही उक्त बाबत विधिक व्यवस्था दे चुका है। अगर कोई गैर आदिवासी एक आदिवासी महिला से शादी करता है तो उसकी अगली पीढ़ी की महिला को जमीन का अधिकार मिलेगा,यह लाभ आदिवासियों को समान नागरिक कानून में शामिल होने से मिलता जिससे वे वंचित रह गए।
(लेखक विधिवेत्ता व वरिष्ठ पत्रकार है)