राजधानी पटना से देश और मानवता को शर्मसार करने की घटना सामने आयी है। जहां एक महादलित महिला को निर्वस्त्र कर पीटने और उसके मुंह पर पेशाब करने की बर्बरतापूर्ण घटना को अंजाम दिया गया है। बताया जा रहा है कि पीड़ित महिला ने किसी दबंग से नौ हजार रुपए उधार लिए थे। जिसका डेढ़ हजार रुपया ब्याज नहीं चुका पाने के कारण उसके साथ इस घृणित और इंसानियत को शर्मसार करने वाली घटना को अंजाम दिया
धर्मपाल धनखड़
बिहार की राजधानी पटना (Patna) से देश और मानवता को शर्मसार करने की घटना सामने आयी है। जहां एक महादलित महिला को निर्वस्त्र कर पीटने और उसके मुंह पर पेशाब करने की बर्बरतापूर्ण घटना को अंजाम दिया गया है। इस घटना ने नीतीश सरकार (Nitish Government) के सुशासन और सामाजिक न्याय की पोल खोल दी है।
बताया जा रहा है कि पीड़ित महिला ने किसी दबंग से नौ हजार रुपए उधार लिए थे। जिसका डेढ़ हजार रुपया ब्याज नहीं चुका पाने के कारण उसके साथ इस घृणित और इंसानियत को शर्मसार करने वाली घटना को अंजाम दिया है। पुलिस ने एस सी/एसटी एक्ट के तहत मामला दर्ज कर लिया है।
न तो ये देश की पहली शर्मनाक घटना ( Shameful incident) है और ना ही आखिरी। पिछले दो-तीन महीनों में ही राजस्थान, उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश से भी इसी तरह की कई घटनाएं सामने आयी हैं। मणिपुर में दो आदिवासी महिलाओं की नग्न परेड करवाने की घटना का वीडियो सामने आने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र और राज्य सरकारों के खिलाफ तल्ख टिप्पणियां की थीं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Prime Minister Narendra Modi) ने मीडिया के सामने दुख और रोष जताया था। लेकिन ऐसी घटनाओं को लेकर पक्ष-प्रतिपक्ष में रस्साकशी तो खूब होती है, लेकिन संवेदनशीलता नदारद रहती है।
सबसे बड़ी शर्मसार करने वाली बात तो ये है कि आजादी के छिहत्तर साल बाद भी देश के दबे-कुचले तबकों और आदिवासियों व जनजातीय समूहों के लोगों को जीवन जीने लायक सामान्य सुविधाएं भी मुहैया नहीं करवा पा रहे हैं। भारतीय समाज में जाति, धर्म और संप्रदाय के आधार पर भेदभाव की जड़ें बहुत गहरी हैं। देश की सरकार आजादी का अमृतकाल मना रही है। प्रधानमंत्री 2047 तक देश को विकसित राष्ट्र बनाने का संकल्प दोहराते समय लाल किले की प्राचीर से महिलाओं को सम्मान देने की अपील करते हैं।
जो उनके दर्द को बयां करती है। बेशक, हम दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था होने का दंभ भरते हैं। देश विज्ञान के क्षेत्र में नये कीर्तिमान स्थापित कर रहा है। भारतीय संस्कृति के दम पर खुद को विश्वगुरु बनाने के सपने देख रहे हैं। लेकिन आदिवासियों, दलितों, महादलितों और महिलाओं के साथ आये दिन होने वाली शर्मनाक घटनाओं से साफ है कि आज भी हम एक बर्बर समाज हैं।
जातिवाद की गहरी खाई को पाटने में हमारा समाज, हमारे धर्मगुरु और हमारी सरकार बुरी तरह विफल रही हैं। इस स्थिति के लिए जहां सदियों हमारे समाज में व्याप्त ऊंच और नीच की भावना दोषी है। वहीं, हमारा आज का राजनीतिक सिस्टम और सरकारें भी दोषी हैं। राजनीतिक दलों और नेताओं के लिए मानव समाज का हर वर्ग और समूह एक वोट बैंक से ज्यादा कुछ नहीं है। उनकी सोच केवल जनता को बहला-फुसला कर सत्ता हासिल करने की है। कहने को हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश (Democratic country) के निवासी हैं। लेकिन हकीकत ये है कि हम घोर जातिवादी और संप्रदायवादी समाज हैं।
जातिगत और धार्मिक आधार पर वोट देकर चुनी हुई सरकारों से सामाजिक न्याय और समानता की अपेक्षा करना ही बेमानी है। राजनीतिक लोग अपने स्वार्थ के चलते समाज को विभिन्न वर्गों में बांट कर रखना चाहते हैं। जातीय और सांप्रदायिक हितों के टकराव में उलझे लोग शिक्षा, चिकित्सा, रोजगार, समानता और जीवनोपयोगी अनिवार्य सुविधाओं के बारे में सोचना भी नहीं चाहते। उनके लिए अपना जातीय अभिमान व धार्मिक पहचान योजनाबद्ध रणनीति के तहत सर्वोपरि बना दी गयी है।
सरकार यदि वास्तव में देश को तरक्की के शिखर पर ले जाना चाहती है और विश्व की महाशक्ति बनना चाहती है, तो सबसे पहले समाज में सबको बराबरी का अधिकार दिलवाने की दिशा में ईमानदारी से काम करना होगा। राजनीतिक स्वार्थ से ऊपर उठकर समाज के सबसे निचले पायदान पर खड़े आदमी तक शिक्षा, चिकित्सा और रोजगार जैसी जीवनोपयोगी न्यूनतम सुविधाएं उपलब्ध करवाने की दिशा बहुत काम करना बाकी है। किसी भी वर्ग को महज वोटबैंक समझने की सोच को त्याग कर समाज में ऊंच-नीच के भेदभाव को वास्तव में खत्म करने के लिए लोगों को जागरूक करना होगा।
नारी की पूजा करने की बजाय उसे सम्मान के साथ बराबरी का दर्जा देना होगा। पिछले दिनों संसद में महिलाओं के तैंतीस फीसदी आरक्षण का कानून इस मामले में मील का पत्थर साबित हो सकता है। यदि राजनीतिक दलों की मंशा साफ हो। इसके अलावा दलितों और महिलाओं के साथ बर्बरता रोकने के लिए कानून सख्ती से लागू करने होंगे। पुलिस और तंत्र को सत्ता के प्रति नहीं, बल्कि जनता के प्रति जवाबदेह और संवेदनशील बनाने की सख्त जरूरत है।