- लगातार हो रही त्रासदियों से ना लोग सीख रहे हैं और ना ही सरकार। पहाड़ का पर्यावरण हमारे देश की राजनीति के विमर्श का विषय कभी नहीं रहा। समय-समय पर होने वाली बड़ी त्रासदियां राजनीतिक दलों के ल्धिर्मपाल धनखड़ाए वोट बटोरने का हथियार जरूर बनती हैं। धर्मपाल धनखड़
देश ने विज्ञान के क्षेत्र में बड़ी उपलब्धि हासिल की है। चंद्रयान-3 ( Chandrayaan-3) की चांद की सतह पर सफल लैंडिंग का जश्न सारा देश मना है। इस जश्न के बीच हम कुछ दिन पहले हिमाचल प्रदेश में बारिश से हुई भारी तबाही भूल गये। साथ ही, अपनी बेबसी पर आंसू बहा रहा रहे शिमला, कुल्लू और मंडी के लोगों के दर्द भी भूल गये हैं। हम ये भी भूल गये हैं कि इसी बारिश के चलते यमुना का पानी दिल्ली में सुप्रीम कोर्ट ( Supreme Court ) की दहलीज तक पहुंच गया था। सच में आम जन की याद्दाश्त बहुत अल्प अवधि की है। साल 2013 की केदारनाथ त्रासदी जिसमें छह हजार से ज्यादा लोग मारे गये थे। इस महा त्रासदी ( tragedy) से भी हमने कोई सबक नहीं लिया। उसे ऐसे भुला दिया, जैसे कुछ हुआ ही नहीं था। हर बड़ी प्राकृतिक त्रासदी के बाद सरकार राहत और बचाव कार्य करने के अलावा मुआवजा बांटकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर देती है। अपनों को खोने के जख्म भी जल्दी भर जाते हैं और त्रासदी को भूलकर जीवन के सामान्य व्यवहार में व्यस्त हो जाते हैं।
केदारनाथ त्रासदी के रूप में प्रकृति की और से दी गयी चेतावनी को यदि हमने समझा होता! उसके संदेश को समझा होता, तो उसके बाद हुई जोशीमठ त्रासदी और चमोली में ऋषि गंगा नदी में ग्लेशियर टूटकर गिरने समेत अन्य घटनाएं शायद नहीं होती। पिछले दो महीने में हिमाचल प्रदेश के शिमला, कुल्लू और मंडी जिलों में प्रकृति ने जो तांडव किया है, उसमें शायद कुछ कम नुकसान होता। अभी तक हिमाचल में 379 लोगों की मौत हो चुकी है और 38 लापता हैं। भारी बारिश, बादल फटने और हिमस्खलन (avalanche) से दस हजार करोड़ से ज्यादा की संपत्ति तबाह हो गयी है। इन दो महीनों में 2457 हिमस्खलन की घटनाएं हुई हैं। गांव के गांव वीरान हो गये हैं। सब जानते हैं कि हिमालय ने ये रौद्र रूप क्यों धारण कर रहा है? किन कारणों से पहाड़ मनुष्यों के रहने लायक नहीं रह गया है? सरकार पर्यावरण को लेकर कतई चिन्तित नहीं हैं। हिमालयी राज्यों की सरकारें राजस्व के लालच और विकास की ललक के चलते तमाम पर्यावरण विरोधी कार्यों (Anti-environmental actions )को ना केवल होने दें रहीं हैं, बल्कि उनके अपने विभाग भी तमाम नियमों और कायदे कानूनों को ताक पर रखकर अंधाधुंध खनन और निर्माण गतिविधियां चला रहे हैं। सामान्य पर्यावरण नियमों की अनदेखी करके पहाड़ों में पत्थर खनन और नदियों में रेत खनन, सड़कें चौड़ी करने और सुरंगें बनाने के लिए अंधाधुंध विस्फोट करना और मलबे का वैज्ञानिक ढंग से ठिकाने नहीं लगाना, नदी-नालों के रास्ते अवरुद्ध करना तथा पहाड़ के पानी की? निकासी की उचित व्यवस्था ना होने से ही ये हालात पैदा हुए हैं।
पिछले कुछ सालों में हिमालयी क्षेत्रों में फोर लेन हाइवेज का निर्माण, पन बिजली परियोजनाओं और रेल परियोजनाओं पर धड़ल्ले से काम हो रहा हैं। इसके पीछे मंशा केवल एक है कि पहाड़ पर जल्द से जल्द और ज्यादा से ज्यादा पर्यटक पहुंचे सकें। जिससे सरकार की आय में बढ़ोतरी हो। समूचे हिमालय, खास तौर पर हिमाचल, उत्तराखंड और जम्मू-कश्मीर में बड़ी संख्या में मंदिर और तीर्थस्थल हैं। इन तीर्थस्थलों पर श्रद्धालुओं की भीड़ पिछले कुछ सालों में इस कदर बढ़ी है कि हालात भयावह हो रहे हैं। उत्तराखंड की चार धाम यात्रा के दौरान करीब छह महीने में चालीस लाख से ज्यादा श्रद्धालुओं का पहुंचना अपने आप में सवाल खड़े करता है। धार्मिक पर्यटन से सरकारों को राजस्व मिल रहा है और स्थानीय लोगों को रोजगार भी। लेकिन प्राकृतिक रूप से संवेदनशील हिमालय में इस अवांछित जन दबाव को वहन करने की क्षमता नहीं रह गयी है। लगातार हो रही त्रासदियों से ना लोग सीख रहे हैं और ना ही सरकार। पहाड़ का पर्यावरण हमारे देश की राजनीति के विमर्श का विषय कभी नहीं रहा। समय-समय पर होने वाली बड़ी त्रासदियां राजनीतिक दलों के लिए वोट बटोरने का हथियार जरूर बनती हैं। लेकिन पर्यावरण सुधार सरकार की प्राथमिकता कभी नहीं रही। वर्ना कोई कारण नहीं कि तमाम वैज्ञानिक तरक्की के बावजूद समूचे हिमालयी क्षेत्र के लिए पर्यावरण के अनुकूल विकास परियोजनाएं ना बनायी जा सके। ये राजनीतिक इच्छा शक्ति की कमी को ही दशार्ता है।
इसी साल के शुरू में इसरो और रिमोट सेंसिंग एजेंसी ने भूस्खलन की दृष्टि से संवेदनशील 147 जिलों का मैप जारी किया है। इनमें 108 जिले हिमालयी राज्यों के हैं। इनमें उत्तराखंड के सभी तेरह जिले और हिमाचल के 12 में से दस जिले संवेदनशील जोन में हैं। इस समय इन दोनों ही राज्यों की स्थिति बेहद खराब है। अब तक अलग-अलग हिमालयी क्षेत्र को लेकर जितने भी अध्ययन किये गये, चाहे वो केदारनाथ त्रासदी के बाद बनाये कमीशन की रिपोर्ट है या भारतीय भूगर्भ संस्थान की ओर से समय समय पर जारी की गयी रिपोर्ट्स हैं, सब धूल फांक रही हैं। किसी भी रिपोर्ट के निष्कर्षों को लागू करना तो दूर, उन्हें ढंग से पढ़ा तक नहीं गया। जो काम सरकारों को बरसों पहले करना चाहिए था, वो अब सर्वोच्च न्यायालय को करना पड़ है। हिमालय के पहाड़ों की वहन क्षमता के अध्ययन के लिए न्यायालय ने पैनल गठित करने की पहल की है। अदालत की ये पहली स्वागत योग्य है। सवाल फिर वही है कि प्रस्तावित पैनल की रिपोर्ट को सरकार कितनी गंभीरता से लेगी!