बादल सरोज
लालकिले पर झंडा फहराने के ठीक तीन दिन पहले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी (Prime Minister Narendra Modi )संसद सत्र के बीचों-बीच सागर जिले में जा पहुंचे। उत्तर भारत के कई राज्यों की तरह न सागर में बाढ़ आयी थी, न वहां कोई मणिपुर हो रहा था — मगर इसके बाद भी अति-व्यस्त प्रधानमंत्री ने वहां जाने के लिए समय निकाला, क्योंकि जिस प्रदेश में सागर आता है, उस मध्यप्रदेश में तीन महीने बाद विधानसभा चुनाव होने हैं। अभी तक मोदी की पार्टी की गाड़ी हिचकोले ही खा रही है ; कहीं उनकी विकास यात्राओं पर धूल-मिट्टी फेंककर मध्यप्रदेशवासी ‘मेरी माटी मेरा देश’ मना रहे हैं, तो कहीं करोड़ों रूपये फूंककर की जाने वाली सभाओं को निर्जन बनाकर अपना क्षोभ जता रहे हैं।
सारे दिखाऊ-छपाऊ मीडिया को विज्ञापनों से पाट देने के बाद भी हवा टाईट है – उस पर हर चौथे दिन कोई न कोई घोटाला सामने आ जाता है। जैसे इधर मोदी सागर में भ्रष्टाचार के खिलाफ धांय-धूं कर रहे थे, उधर सोशल मीडिया पर मध्यप्रदेश के ठेकेदारों के एक महासंघ द्वारा हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस को लिखी कथित चिट्ठी की खबर वायरल हो रही थी, जिसमे शिवराज सरकार पर 50 प्रतिशत कमीशन लेने के आरोप में लगाये जाना बताया जा रहा था। भले सरकार ने इस चिट्ठी से पल्ला झाड़ लिया है और इसे वायरल करने वालों पर एफआईआर ठोक दी है, इस चिट्ठी की प्रामाणिकता-अप्रमाणिकता के बिना भी मध्यप्रदेश क्या, देश भर को पता है कि व्यापमं प्रदेश में क्या-क्या हो रहा है और कौन कर रहा है? जब ऐसे बुरे हाल हों और चुनाव में हार की संभावना बड़े-बड़े हरूफों में दीवार पर साफ़-साफ़ लिखी नजर आ रही हो, तो सिवाय झांसापुर की पतली गलियाँ तलाशने के और कोई रास्ता नहीं बचता।
सागर में मोदी वही कर रहे थे ; कवि और सुधारक रैदास – संत रविदास – का कथित रूप से विराट मंदिर बनाने के लिए खुद फावड़ा चलाकर शिलान्यास कर रहे थे। सागर जहां आता है, उस बुन्देलखण्ड और चम्बल के जिलों में दलितों की संख्या सर्वाधिक है, इन्हीं मतदाताओं को रिझाने के लिए यह मयूर नृत्य किया जा रहा था, और जैसा कि खुद के नाचने पर खुद ही रीझने वाले मोर के साथ होता है, वैसा ही यहाँ भी हो रहा था। भाजपा और उसका कुनबा अपनी नग्न असलियत को उजागर कर रहा था ।
रविदास के प्रति भाजपा के कुनबे का “प्रेम” कितना गहरा है, इसकी एक नहीं, अनगिनत मिसालें हैं। योगी आदित्यनाथ के उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री बनने के तत्काल बाद शब्बीरपुर में रैदास की प्रतिमा तोड़ दी गयी – गिरफ्तारियां तोड़ने वालों की नहीं, शिकायत करने वालों की हुई। उसके बाद तो जैसा सिलसिला ही शुरू हो गया : जुलाई 2021 में बिजनौर के गाँव पप्सरा में रविदास के मंदिर पर छत बनाने वालों पर हमला बोल दिया गया, मई 2022 में गाजीपुर के भावरकोल के तराव में, जून 2022 में रूडकी के धर्मपुर गाँव में और अभी जुलाई 2023 में बलिया के पिपरकला गाँव में उनकी मूर्तियाँ तोड़ दी गयीं।
मार्च में इसी तरह की घटना बलिया के ही मर्ची खुर्द गाँव में हुयी, जहां मूर्ति तोड़ने के साथ झोंपड़ी भी फूंक दी गयी। ऐसी दर्जनों घटनाएँ और भी हुयीं – बाकी हिंदीभाषी प्रदेशों में भी हुईं – लेकिन सिर्फ दूरदराज के गाँवों तक सीमित रहीं हों, यह बात नहीं है। अभी 4 साल पहले वर्ष 2019 के स्वाधीनता दिवस के ठीक एक दिन पहले 14 अगस्त को दिल्ली में संत रविदास का प्रतिष्ठित आश्रम और मंदिर ढहा दिया गया। जनश्रुति के अनुसार खुद रविदास सन 1509 में यहाँ रुके थे – ऐसा माना जाता है कि जिस कुंए से उन्होंने पानी पीया था, वह भी यहाँ मौजूद था खुद बाबू जगजीवन राम, जो तब नेहरू सरकार में मंत्री थे, ने 1 मार्च 1959 को दिल्ली के तुगलकाबाद में बने इस एतिहासिक स्थान का जीर्णोद्धार कराया था। इसे दिल्ली विकास प्राधिकरण द्वारा कथित रूप से अपने स्वामित्व की भूमि बनाने के मुकदमे में सुप्रीम कोर्ट की जस्टिस अरुण मिश्रा की बेंच ने ध्वस्त करने का आदेश दे दिया था ।
संघ-भाजपा कुनबे का रैदास – जिन्हें बाद में संत कहकर रविदास बना दिया गया – से डरना लाजिमी है। रैदास सामन्ती उत्पीडन, रूढ़ियों और अंधविश्वासों के विरोध में उठी आवाजों, भक्ति आन्दोलन की सबसे करारी आवाजों में से एक और खूब खरे-खरे हैं। यही वजह है कि उन्हें सुधार आन्दोलन के मूल्यों पर धर्म बने सिख धर्म में भी सम्मानजनक स्थान मिला है, ग्रन्थ साहिब में रैदास के 40 पद शामिल किये गए हैं। वे कान को घुमाकर नहीं, सीधे उमेठकर पकड़ते हैं और अपराध की जड़ पर वार करते हैं। घुमा-फिराकर गोल मोल बातें नहीं करते, सीधे-सीधे कहते हैं। वर्णाश्रम पर कड़ा प्रहार करते हुए वे इसे हर हालत में खत्म करने की बात करते हैं – कोई बीच का रास्ता नहीं निकालते। वे कहते हैं : “रविदास जन्म के कारने, होत न कोऊ नीच। नर को नीच करि डारिहे, ओछे करम की कीच।”
इसी जैसी एक बात यह भी कि : “नीच न कोई परगना, नीच न कोई गाम। नीच ताहि को जानिये, करै नीच के काम।एक और दोहे में वे कहते हैं :“रविदास इक ही नूर से, जिमि उपज्यो संसार। उंच नीच किह बिध भये, ब्राह्मण अउर चमार।”
वे वर्णव्यवस्था के मूल स्रोत वेदों की वैधता को अस्वीकार करते हैं और जग में वेद वैध मानीजे के अपने पद में उनकी निरर्थकता को “पढ़े सुने कुछ समझि न परई, अनुभव पद न लहीजे” कहते हुए उन्हें सत्य से परे अकथनीय और अकल्पनीय बातों के ग्रन्थ बताते हैं।
मोदी जिन रैदास को मुग़ल कालखंड की पराधीनता के खिलाफ लड़ने का आव्हान करने वाला बता रहे थे, वे संत रविदास साम्प्रदायिकता के खिलाफ भी मजबूती से खड़े होने वाले कवि हैं। ‘मुसलमान सो दोसती, हिंदुअन सो कर प्रीत’ के आव्हान के साथ वे कहते हैं : “मंदिर मस्जिद दोऊ एक हैं, इन मंह अंतर नांहि। रविदास राम रहमान का, झगड़ा कोऊ नाहिं।”
यह भी कि :“रैदास कनक और कंगन मांहि, जिम अंतर कछु नांहि। तैसे ही अंतर नाहि, हिंदुअन तुरकन माहि।”
वे श्रम के सम्मान के हामी हैं। उन्होंने लिखा कि :“रविदास श्रम कर खाईहि, जो लौ पार बसाय।नेक कमाई जो करई, कबहूँ न निष्फल जाय।”
रैदास की ठीक यही ताब और ताकत है कि उन्हें चित्तौड़गढ़ के राणा विक्रम सिंह के दरबार में मरवा दिया गया था। उन्हें दण्डित किये जाने के लिए वर्णाश्रमवादियों ने सजा के पक्ष में बाकायदा मनु स्मृति में राजा के लिए गिनाये कामों का हवाला दिया था और रैदास के आचरण को देखते हुए उन्हें मौत के घाट उतारना धर्मसम्मत बताया था।
यही वजह है कि धड़ाधड़ उनकी प्रतिमाओं को उखाड़ा और उजाड़ा जा रहा है। जब उखाड़ने के बाद भी उनका कुछ नहीं बिगाड़ पाए, तो अब खुद घोषित वर्णाश्रमवादी, मनुस्मृति को संविधान की जगह बिठाने का मंसूबा रखने वाली भाजपा और संघ रविदास को समाज के कुछ ख़ास हिस्सों के लिए भाजपा के चुनाव चिन्ह पर बिठाना चाहता है। सागर में उनकी जो विशाल प्रतिमा बनेगी, उसे कमल के फूल पर पधराया जाएगा। इस शिलान्यास समारोह के दिन संघ-भाजपा की 5 समरसता यात्राएं सागर में जाकर मिली थीं। सीधी सी बात है कि रविदास के बहाने चुनाव लड़ने की तैयारी है।
वह भी उस मध्यप्रदेश में जहां रैदास के बंधू-बांधवों दलितों और आदिवासियों दशा देश में सबसे ज्यादा खराब है। सीधी जिले के जसमत कोल – कोल मप्र में आदिवासी होते हैं, जबकि उत्तर प्रदेश में इन्हें अनुसूचित जाति का दर्जा हासिल है – पर भाजपा नेता द्वारा पेशाब किये जाने की घटना के बाद लगातार हर रोज कभी तलवे चटवाने, कभी जूते में पानी पिलाने, तो कभी खुद का ही मैला खिलाने जैसी वारदातें हुईं। हर वारदात में उत्पीड़न करने वाले एक ही तरह के, एक ही धारा के लोग निकले। सागर में शिलान्यास के लिए खोदी गयी मिट्टी की नमी सूखी तक नहीं थी कि मुख्यमंत्री के अपने विदिशा के भगवतपुर में 15 अगस्त को एक सरपंच बारेलाल अहिरवार को इसलिए झंडा नहीं फहराने दिया गया क्योंकि वह दलित जाति का है। ऐसा पहली बार नहीं हुआ – मध्यप्रदेश में हर गणतंत्र दिवस, स्वाधीनता दिवस पर इस तरह की ख़बरें आती रहती हैं।
मौजूदा शासकों के हिसाब से यह वैदिकी हिंसा है, जो हिंसा नहीं होती। यही वजह है कि आज तक इनमे से शायद ही कभी किसी को सजा दी गयी हो। मोदी भी इस मामले में सावधान थे – यही सावधानी थी कि उन्होंने रैदास के दोहे को भी बदलकर ही पढ़ा : “ऐसा चाहूं राज मैं, जहां मिलै सबन को अन्न, छोट बड़ों सभ सम बसें रैदास रहें प्रसन्न।” में ‘सभ सम’ (सभी समान और बराबरी से रहें) को भुला दिया और उसे “सब बसें” करके पढ़ दिया ।
मोदी और उनकी राजनीति और विचार का समूह भूल रहा है कि रैदास इस तरह आसानी से हड़प कर हजम किये जाने वालों में से नहीं है। मध्यप्रदेश की जनता भी उतनी भोली और अज्ञानी नहीं है कि झांसेपुर के राजा के चाहे जिस बाजे के शोर पर थिरकने लगे।