तीन दशक में छह बार बदल दी न्यूनतम अर्हता!

सुशील उपाध्याय।
भारत में उच्च शिक्षा की सर्वोच्च नियामक संस्था यूजीसी तीन दशक से अधिक समय में अंतिम रूप से ये तय नहीं कर पा रही है कि विश्वविद्यालयों और डिग्री कॉलेजों में सहायक प्रोफेसरों की अर्हता क्या होना चाहिए। 1991 से 2023 के 32 सालों में औसतन हर पांच साल में न्यूनतम अर्हता को परिवर्तित किया जाता रहा है और यह परिवर्तन अक्सर शीर्षासन का शिकार रहा है।(वैसे तो यह बदलाव एसोसिएट प्रोफेसर, प्रोफेसर और प्राचार्य की योग्यता एवं न्यूनतम एपीआई स्कोर भी किया जाता है, लेकिन इस लेख में सहायक प्रोफेसर से संबंधित परिवर्तनों पर ही चर्चा अभिप्रेत है।) सहायक प्रोफेसर मामले में यूजीसी ने एक बार फिर यू-टर्न लिया है और ध्यान देने वाली बात यह है कि उलझाव पैदा करने के अलावा कुछ भी परिवर्तित नहीं हुआ है।

यूजीसी के निर्णयों को एक क्रम में देखिए तो साफ समझ आएगा कि न्यूनतम अर्हता और योग्यता का किस मनमौजी ढंग से निर्धारण किया जा रहा है। सहायक प्रोफेसर के लिए वर्ष 1991 में पहली बार नेट अनिवार्य किया गया है। इससे पहले 1986 के नियमों में नेट/सेट या एमफिल अथवा पीएच.डी.की कोई अनिवार्यता नहीं थी। 1991 की व्यवस्था को 1995 में बदल दिया गया। नई व्यवस्था में उन युवाओं को भी मौका दिया गया जो एमफिल उपाधि प्राप्त थे अथवा जिन्होंने दिसंबर, 1993 तक अपना शोध प्रबंध विश्वविद्यालय में जमा करा दिया हो।

इस तिथि से पहले के सभी पीएच.डी. उपाधि धारकों को भी योग्य मान लिया गया। 1998 में इसे फिर बदया गया और नेट/सेट को अनिवार्य कर दिया गया। साथ ही विश्वविद्यालयों को यह छूट दी गई कि वे चाहें तो पीएच.डी. उपाधि के आधार पर भी नियुक्ति कर सकते हैं। बदलाव का यह सिलसिला यहीं पर नहीं रुका। वर्ष 2000 में नए नियम जारी किए गए। नेट/सेट को यथावत रखते हुए स्नातकोत्तर विषयों के लिए पीएच.डी. और स्नातक विषयों के लिए एमफिल को योग्यता बनाया गया। इसी दौर में एक वर्ष की एमफिल उपाधि का कारोबार अपने चरम पर रहा। ये वही समय था जब प्राइवेट विश्वविद्यालयों ने पांव पसारने शुरू किए थे और कुछ विश्वविद्यालयों ने मौके का फायदा उठाते हुए थोक के भाव एमफिल डिग्री बांटी थीं। एमफिल के मामले में नार्थ ईस्ट और दक्षिण भारत के कुछ विश्वविद्यालयों का फर्जीवाडा कई साल बाद पकड़ में आया। लेकिन, तब तक एमफिल के आधार पर हजारों लोग सहायक प्रोफेसर बन चुके थे। (एमफिल डिग्री के मामले में और भी रोचक बात यह रही कि जो उपाधि कुछ साल पहले तक सहायक प्रोफेसर बनने की पात्रता थी, अब नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति में उसका वजूद ही खत्म हो गया। महज कुछ साल के भीतर किसी उपाधि की उपादेयता में ऐसा बदलाव किसी चमत्कार से कम नहीं है।)
वर्ष 2010 का रेगुलेशन आने से पहले वर्ष 2006 में पुराने नियमों में फिर बदलाव किया गया। राज्य स्तर पर होने वाली सेट परीक्षा की पात्रता संबंधित राज्य तक ही सीमित कर दी गई। हालांकि, जिन लोगों ने जून, 2002 से पहले सेट परीक्षा पास की हुई थी, उन्हें पूरे देश में पात्र माना गया। वर्ष 2010 के रेगुलेशन में एक बार पुनः नेट/सेट को अनिवार्य बनाया गया। साथ ही, पीएच.डी. को भी अर्हता में बनाए रखा गया, लेकिन इस पर यह शर्त लगाई गई कि संबंधित पीएच.डी. यूजीसी के रेगुलेशन-2009 के अनुरूप होनी चाहिए। तब यह सवाल उठा कि जो पीएच.डी. वर्ष 2009 से पूर्व हासिल की गई है, उस पर नए नियम पिछले समय से (भूतलक्षी) कैसे लागू होंगे? इसके बाद यूजीसी ने कुछ नियम बनाकर नोटिफाई किए और पीएच.डी. कर चुके लोगों को अपने विश्वविद्यालयों से रेगलुशन-2009 के अनुरूप एक नया सर्टिफिकेट लेना पड़ा।
इन तमाम निर्णयों के क्रम में एक सवाल लगातार बना रहा, जो आज भी मौजूद है, वो ये कि इन बदलावों से पहले क्या यूजीसी ने किसी प्रकार अध्ययन कराया था या विशेषज्ञों की ओर ऐसी कोई रिपोर्ट दी गई थी जिनके कारण ये बदलाव किए गए? यूजीसी द्वारा कभी इस सवाल का जवाब नहीं दिया, वो केवल नई अर्हता एवं योग्यता के बारे में सूचित करके खामोश होती रही है। सहायक प्रोफेसर बनने की अर्हता की इस उलझन में एक पूरी पीढ़ी बीत गई है, लेकिन आज भी कोई अंतिम निर्धारण नहीं हो सका। सबसे नए रेगुलेशन-2023 में एक बार फिर पीएच.डी. को अनिवार्य अर्हता बनाया गया है। इस क्रम में यह अनिवार्य किया गया कि संबंधित पीएच.डी. यूजीसी के रेगुलेशन-2016 के अनुरूप होनी चाहिए। जो पुराने पीएच.डी. वाले हैं, उनकी पीएच.डी.रेगुलेशन-2009/2016 के अनुरूप होनी जरूरी कर दी गई।
इसी क्रम में कोरोना से पहले भारत के शिक्षा मंत्री ने ऐलान किया कि एक जुलाई, 21 से सभी विश्वविद्यालयों में पीएच.डी. के आधार पर ही नियुक्ति की जाएंगी। बाद में इस डेडलाइन को एक जुलाई, 2023 कर दिया गया। और जब तक यह व्यवस्था लागू होती, इससे पहले ही यूजीसी ने एक बार फिर अर्हताओं को सिर के बल खड़ा कर दिया। नए आदेश में कहा गया है कि सहायक प्रोफेसर के लिए नेट/सेट की अनिवार्य योग्यता होगी। इस आदेश से युवाओं में यह भ्रम पैदा हुआ कि अब पीएच.डी. की कोई हैसियत नहीं रह गई, लेकिन ऐसा नहीं है। 2018 के रेगुलेशन में केवल इतना बदलाव किया गया कि पीएच.डी. की अनिवार्यता खत्म करके उसे पूर्व की भांति वैकल्पिक योग्यता में सम्मिलित किया गया है यानी जिनकी पीएच.डी. रेगुलेशन-2009/2016 के अनुरूप है, वे नियुक्ति के लिए पात्र बने रहेंगे।
इस क्रम में एक खास बात ध्यान में रखने वाली है कि भले ही यूजीसी ने नेट/सेट को अनिवार्य कर दिया हो, लेकिन एपीआई (अकादमिक परफॉरमेंस इंडेक्स) मेरिट में पीएच.डी. के 30 नंबर निर्धारित किए गए हैं, जबकि नेट के लिए 5 और नेट-जेआरएफ के लिए 7 नंबर तय हैं। अब खुद अनुमान लगा लीजिए कि जो युवा केवल नेट अथवा सेट पास हैं, वे मेरिट में पीएच.डी. का मुकाबला कैसे कर पाएंगे! बीते सालों में पीएच.डी. उपाधि की खरीद-फरोख्त के जितने मामले सामने आए हैं, उन्हें देखते हुए लगातार यह मांग उठ रही है कि सहायक प्रोफेसर की न्यूनतम अर्हता नेट/सेट के साथ पीएच.डी. निर्धारित की जानी चाहिए। इससे पिछले दरवाजे की नियुक्तियों पर काफी हद तक रोक लग जाएगी।
इस मांग के जवाब में यह कहा जाता है कि उपर्युक्त योग्यता के दृष्टिगत समुचित आवेदक नहीं मिल पाएंगे। रिक्त पदों के अनुरूप आवेदक न मिलने की बात में इसलिए कोई दम नहीं है क्योंकि देश में ऐसे लोगों की संख्या लाखों में है जो नेट/सेट-पीएच.डी. उपाधि धारक हैं। यदि सहायक प्रोफेसर की न्यूनतम योग्यता को नेट/सेट के साथ पीएच.डी. स्तर पर लाया जाता है फिर साक्षात्कार से पहले स्क्रीनिंग टेस्ट की जरूरत भी नहीं पड़ेगी। कई मामलों में स्क्रीनिंग टेस्ट में भी गोलमाल का अंदेशा रहता है। वैसे, इस नए बदलाव के संदर्भ में इस बात से राहत महसूस कर सकते हैं कि यूजीसी द्वारा किया गया ये बदलाव भी जल्द बदल सकता है। वैसे भी, नए वेतन आयोग के साथ नया रेगुलेशन आएगा ही जो कि 2026 में आ सकता है इसलिए मौजूदा अर्हताएं एक बार फिर बदलेंगी, लेकिन अंततः रहेंगी ज्यों की त्यों ही।

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