देहरादून।4 जुलाई भाकृअनुप-विवेकानन्द पर्वतीय कृषि अनुसंधान संस्थान के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण दिन है। ‘पौधों में भी जीवन है; की खोज करने वाले प्रसिद्ध वनस्पति वैज्ञानिक सर जगदीष चन्द्र बोस के सहयोगी रहे प्रसिद्ध पादप कार्यिकी वैज्ञानिक बोषी सेन ने सन् 1924 में कलकत्ता के आठ, बोस पाड़ा के रसोई घर में इसी दिन विवेकानन्द प्रयोगषाला के नाम से इसकी स्थापना की थी।
स्वामी विवेकानन्द के अनुयायी होने के कारण प्रो. सेन समाजोत्थान के कार्य को भी आध्यात्मिक साधना का अंग मानते थे। संस्थान की स्थापना का विचार आते ही उन्हें प्रेरणा हुयी कि उसका नाम स्वामी जी के नाम पर रखा जाय, प्रो. सेन के प्रपत्रों में मिले स्वामी जी को सम्बोधित एक पत्रा में उनके सक्षम रूप से इसके लिए उन्होंने उनसे अनुमति मांगी थी। 4 जुलाई स्वामी विवेकानन्द का महाप्रयाण दिवस होने के कारण उन्होंने यही दिन अपनी प्रयोगषाला की स्थापना के लिए चुना।
संस्थान का इतिहास
‘विवेकानन्द लैब’ नाम की इस प्रयोगषाला को सन् 1936 में स्थायी रूप से अल्मोड़ा में स्थानान्तरित करके उन्होंने इसके माध्यम से पर्वतीय कृषि को केन्द्रित कर नये-नये प्रयोग और अनुसंधान प्रारम्भ किए। सन् 1959 में यह प्रयोगषाला उत्तर प्रदेष शासन को हस्तान्तरित हो गयी। उसके बाद 1960 में तत्कालीन प्रधानमंत्राी नेहरूजी के सुझाव पर उच्च पर्वतीय क्षेत्रों में कृषि-विकास अनुसंधान के उद्देश्य से लेह, लद्दाख में नयी कार्य योजना आरम्भ की गयी।
लद्दाख कार्य योजना का यह केन्द्र आगे चलकर भारत के रक्षा विभाग के अन्तर्गत कार्य करने लगा और इसी के परिणामस्वरूप डी.आर.डी.ओ. के वर्तमान में लेह लद्दाख एवं पिथौरागढ़ में कार्यरत कृषि सम्बन्धित संस्थान उच्च उन्नतांष अनुसंधान रक्षा संस्थान ;क्प्भ्।त्द्ध एवं रक्षा जैव ऊर्जा अनुसंधान संस्थान ;क्प्ठम्त्द्ध अस्तित्व में आये। सन् 1971 में अपने देहावसान तक पद्मभूषण प्रो. बोषी सेन प्रयोगशाला के अवैतनिक निदेषक बने रहे। उनके देहावसान के पश्चात् इस प्रयोगषाला के महत्वपूर्ण योगदान को देखते हुए 1974 में तत्कालीन प्रधानमंत्राी श्रीमती इन्दिरा गांधी की इच्छा एवं डॉ. एम.एस. स्वामीनाथन के प्रयासों से इसे भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद, दिल्ली के अन्तर्गत उत्तर-पष्चिमी हिमालयी क्षेत्रा (उत्तराखण्ड, हिमाचल प्रदेष, जम्मू तथा कष्मीर) के कृषि विकास सम्बन्धी अनुसंधान का दायित्व मिला।
तब से यह एक पूर्ण संस्थान के रूप में पर्वतीय क्षेत्रा में उगाई जाती विभिन्न फसलों (अनाज, दाल, सब्जियाँ आदि) के सुधार, सुरक्षा, उत्पादन-वृद्धि एवं प्रचार-प्रसार के साथ-साथ कृषि से जुड़े विभिन्न सामाजिक सरोकारों और प्राकृतिक संसाधनों के प्रबन्धन पर कार्य कर रहा है। भाकृअनुप के सम्पूर्ण देष में स्थित विभिन्न संस्थानों के नाम वहां के अनुसन्धान-विषय के अनुरूप रखे गए हैं; जैसे धान अनुसंधान निदेषालय, भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, भारतीय पशु अनुसंधान संस्थान आदि; किन्तु अल्मोड़ा के इस संस्थान का नाम इसके संस्थापक की इच्छा का सम्मान करते हुए स्वामी विवेकानन्द के नाम पर ही बना हुआ है।
संस्थान के प्रमुख उद्देष्य
प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण और कुषल उपयोग पर विषेष बल देते हुए प्रमुख पर्वतीय फसलों की उत्पादकता और गुणवत्ता में सुधार के लिए मूल, नीतिगत और अनुकूली अनुसंधान करना।
फसलोपरांत ;पोस्ट हार्वेस्टद्ध प्रौद्योगिकी का विकास और मूल्य संवर्धन।
प्रौद्योगिकी का प्रसार और पर्वतीय कृषि में क्षमता निर्माण करना
संस्थान की महत्वपूर्ण उपलब्धियाँ
मक्का की देष की प्रथम संकर किस्म (वीएल मक्का 54), प्याज (वीएल प्याज 67) तथा अतिषीघ्र पकने वाली दाने तथा बेबीकार्न (वीएल मक्का 42) का विकास एवं विमोचन।
कम अवधि में तैयार होने वाली बेबीकार्न प्रजाति वी एल बेबीकार्न 2 तथा स्वीटकार्न प्रजाति वी एल स्वीटकार्न 1 एवं 2 का विकास।
दाने और चारे के लिए द्वि-उद्देष्यीय गेहूँ की किस्मों (वी एल गेहूँ 616 एवं वीएल गेहूँ 829) का विकास।
अरहर की अगेती प्रजाति वी एल अरहर 1 तथा मसूर की प्रजाति वी एल मसूर 129 एवं वी एल मसूर 133 का विकास।
वी0एल0 सब्जी मटर 13 एवं वीएल सब्जी मटर 15 प्रजाति उत्तराखण्ड़ में खेती के लिए अधिसूचित।
मंडुवा एवं मादिरा के लिए विवेक थ्रेसर-कम- पर्लर का विकास।
सार्वजनिक क्षेत्र की प्रथम चेरी टमाटर किस्म वी. एल. चेरी टमाटर 1 का विकास एवं विमोचन।
सार्वजनिक क्षेत्र की प्रथम एडिबल पोड मटर (फली सहित खायी जाने वाली) वी0एल0 माधुरी का विकास।
वी एल लौह हल, वीएल सोलर ड्रायर, वीएल धान थै्रसर , वीएल मडूंवा/मादिरा थ्रेसर, वीएल लाइट टैप आदि लंघु यन्त्रों का विकास एवं वाणिज्यीकरण के द्वारा उपलब्धता।
अति हानिकारक नाषीकीट ”व्हाइट ग्रब“ के वयस्क भृंग (बीटिल) और भूमिगत लार्वा के प्रबंधन के लिए द्वितरफा नीति का विकास एवं वाणिज्यीकरण द्वारा उपलब्धता सुनिष्चिित करना।
विगत वर्शो के दौरान संस्थान द्वारा विकसित 13 प्रजातियाँ (वीएल गेहूँ 2028,वीएल गेहूँ 3010, वीएल कुकीज, वीएल धान 70, वीएल क्यूपीएम हाईब्रिड 45, 61, 63, वीएल मडुंवा 400, वीएल मसूर 150, वीएल मटर 64, वीएल सोया 99 तथा सब्जी मटर की वीएल माधुरी एवं वीएल उपहार) विमोचित एवं अधिसूचित की गयी है।
2021-22 र्में राज्य सरकारों की 166.46 कु0 वीएल जनक बीज की मांगों के सापेक्ष 170.73 कु0 जनक बीज का उत्पादन करके आपूर्तित किया गया।
केन्द्र सरकार की योजनाओं के अर्न्तगत 24 राज्यों में वीएल बीज तथा 16 राज्यों में वीएल लघु कृशि यन्त्रों को पहुूँचाया गया।
शोध उपलब्धियाँ
वर्तमान में यह संस्थान अपने लक्ष्य; ‘‘स्थान आधारित विविधता के माध्यम से पर्वतीय कृषि में पारस्थितिकीय टिकाऊपन लाने और उसकी उत्पादकता बढ़ाने’’के उद्देश्य से एक बहुफसली अनुसंधान संस्थान के रूप में कार्य कर रहा है। संस्थान द्वारा खाद्यान्न एवं सब्जी फसलों की अनेक किस्में विकसित की गईं तथा उत्पादन वृद्धि हेतु इन किस्मों की उन्नत सस्य विधियों, अन्तःखेती, फसल सुरक्षा पद्धतियों व फसलचक्रों का विकास किया गया है। यहाँ हुए अनुसंधानों से अनेक कृषक लाभान्वित हुए और इन महत्वपूर्ण शोध कार्यों के लिए संस्थान को दो बार (2000 तथा 2007) भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद् के ‘सरदार पटेल सर्वश्रेष्ठ संस्थान‘ पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है। इसके अलावा वर्तमान में संस्थान मेें फसल उन्नयन, फसलोत्पादन, फसल सुरक्षा एवं सामाजिक विज्ञान विभाग कार्यरत हैं। अल्मोड़ा मुख्यालय से 13 किमी. दूर हवालबाग में इसका लगभग 82 हैक्टेयर क्षेत्राफल का प्रक्षेत्रा है, जहाँ पर पर्वतीय कृषि की विविध फसलों एवं उनके विभिन्न आयामों पर शोध कार्य किये जाते हैं।
संस्थान का उद्देश्य पर्वतीय क्षेत्रा की जलवायु के अनुकूल टिकाऊ और लाभदायक कृषि पद्धतियों का विकास करना है, जिससे इस क्षेत्रा को खाद्यान्न उत्पादन में वृद्धि द्वारा आर्थिक रूप से सबल बनने में सहायता मिल सके।
उच्च उपज क्षमता एवं रोगरोधी प्रजातियों का विकास संस्थान का एक महत्वपूर्ण कार्यक्रम है। अब तक संस्थान की 25 फसलों की 188 से अधिक उन्नत किस्में केन्द्र तथा राज्य प्रजाति विमोचन समितियों द्वारा विमोचित की गई।
संस्थान द्वारा उन्नत प्रजातियों को विकसित करने के लिए स्थानीय जनन द्रव्यों का भी उपयोग किया जाता रहा है। बीज उत्पादन, जैव प्रौद्योगिकी, पादप कार्यिकी, जनन द्रव्य संसाधन, उन्नत सस्य विधि, उन्नत सह फसलें एवं फसल चक्र, मृदा एवं जल प्रबन्ध, रोग एवं कीट प्रबन्ध, चारा एवं चारागाह प्रबन्ध, कृषि सांख्यिकी, कृषि अर्थशास्त्रा कटाई-उपरान्त प्रौद्योगिकी एवं तकनीकी हस्तान्तरण के क्षेत्रों में भी संस्थान का बहुमूल्य योगदान रहा है।
संस्थान द्वारा अपने अधिदेष के अनुसार विभिन्न वर्षों में विकसित प्रजातियों के जनक बीज तैयार कर उनके आधारीय एवं प्रमाणित बीज संवर्धन हेतु राज्य बीज निगम, राज्य सरकार के कृषि विभाग एवं अन्य विभागों को आपूर्ति की जाती है तथा विकसित उन्नत प्रजातियों की वर्षा आधारित (उपरॉऊ) एवं सिंचित (तलॉऊ) दोनों ही अवस्थाआंे में पर्याप्त उपज प्राप्त करने एवं उसमें टिकाऊपन लाने हेतु समरूप उन्नत सस्य तकनीकों, जैसे- बुवाई का समय, बीज की मात्रा, उर्वरक व खरपतवार नाषकों की मात्रा, प्रयोगविधि, मृदा एवं जल प्रबन्धन आदि का विकास किया गया है। परम्परागत फसलों के साथ अधिक लाभदायी फसलों को शामिल कर फसल विविधीकरण पर विशेष बल दिया गया है; जिससे अन्तःफसली या फसलों को क्रमबद्ध रूप में उगाने, लगातार मृदा की उत्पादन क्षमता बढ़ाने, उत्पादन लागत कम करने एवं उत्पादन पद्धति को टिकाऊ बनाये रखने में महत्वपूर्ण योगदान मिल सके। गहन शोध के पश्चात अधिक लाभ देने वाली दलहनी, तिलहनी, बेमौसमी सब्जियों को फसल प्रणाली में शामिल करके उन्नत फसल चक्र, अन्तःखेती एवं रिले क्रॉपिंग पद्धतियों का विकास किया गया है।
संस्थान में हुए विस्तृत शोध कार्याें के आधार पर यदि शीघ्र पकने वाली उन्नत किस्मों को उन्नत सस्य विधियों द्वारा फसलचक्र के रूप में उगाया जाय तो उपरॉऊ में वर्ष में दो फसलें व तलॉऊ में तीन से चार फसलें ली जा सकती हैं। इस प्रकार स्थानीय फसलचक्र से प्राप्त होने वाले कुल उत्पादन व शुद्ध लाभ को तीन से पॉच गुना तक बढ़ाया जा सकता है। इसके अतिरिक्त उपरॉऊ क्षेत्रों में सिंचाई हेतु कम लागत वाले पौलीसीमेन्ट टैंकों को विकसित किया गया है; जिसमें वर्षा-जल तथा नौले आदि से बहने वाले जल का संग्रह कर आवष्यकतानुसार प्रयोग किया जा सकता है। जल स्रोतों के उपयोग तथा पौली हाउस तकनीक द्वारा बेमौसमी सब्जी उत्पादन कर पर्वतीय कृषक प्रति वर्ष अच्छी आय अर्जित कर सकते हैं।
संस्थान द्वारा पर्वतीय क्षेत्रों में विभिन्न फसलों एवं सब्जियों में लगने वाले रोगों एवं कीटों की पहचान कर इनकी रोकथाम के लिये सस्ती एवं प्रभावषाली विधियाँ विकसित की गयी हैं। सूक्ष्म जीवों पर किये जा रहे शोध के फलस्वरूप फसल वृद्धि, रोग-कीटों के नियंत्राण में भी सफलता मिली है। फसलों की कुछ प्रमुख कीट रोधी एवं रोग रोधी दाता किस्मों की पहचान करके उन्हें नई प्रजातियों को विकसित करने में प्रयोग किया गया है। पर्वतीय क्षेत्रा की फसलों को सबसे अधिक हानि पहॅुचाने वाले कुरमुला कीट (एनोमेला डिमिडिएटा) की रोकथाम के लिये किये गये प्रयासों में जैव कीटनाषी तथा संस्थान द्वारा विकसित सस्ते ‘कीट प्रकाष प्रपंच’ काफी उपयोगी सिद्ध हुए हैं। कुरमुला कीट के प्रबन्धन के लिये कीट के रोग जनक एवं कीट-प्रपंचों के प्रविस्तारण परियोजना के अन्तर्गत उत्तराखंड के विभिन्न स्थानों पर किसानों के खेतों में बैसिलस सिरिअस से निर्मित दवा एवं प्रकाष प्रपंचों को स्थापित करने पर कुरमुला से होने वाली हानि रोकने में सन्तोषजनक सफलता मिली।
पर्वतीय क्षेत्रों में कृषकों; विशेषकर कृषक महिलाओं के शारीरिक श्रम को कम करने के उद्देष्य से संस्थान द्वारा वी एल लौह हल, वीएल सोलर ड्रायर, वीएल धान थै्रसर , वीएल मडुंवा/मादिरा थ्रेसर, वीएल लाइट टैªप गेहूॅ व मसूर की पंक्तिबद्ध बुवाई हेतु हल्के सीड ड्रिल, लघु कृषि यन्त्रों को विकसित किया गया है, जो पर्वतीय कृषकों के बीच काफी लोकप्रिय हो रहे हैं। ये यंत्रा कृषकों को मांग के आधार पर उपलब्ध कराये जाते हैं।
संस्थान द्वारा कृषि के लिए अनुपयुक्त भूमि; जैसे- ऊसर अथवा तीव्र ढलान वाली भूमि पर चारा उत्पादन तकनीक विकसित की गयी है। चारे की अधिक उपज देने वाली घास की अनेक नई किस्में; जैसे- हाईब्रिड नेपियर, ओंस, कांगोसिगनल घास, पंगोला रोड्स, सिटेरिया काजुन्गुला तथा डेसमोडियम आदि चयनित की गई हैं। उपयुक्त कृषि वानिकी पद्धतियों के विकास के अन्तर्गत चीड़ एवं देवदार के नीचे उगने वाली हाइब्रिड नेपियर, पंगोला एवं ओंस आदि घासों की पहचान की गयी है। जाड़ों में हरे चारे की कमी को दूर करने में द्विउद्देषाीय गेहूॅ की किस्मों (वी.एल. गेहूॅ 616 एवं वी.एल. गेहूॅ 829) ने बहुत अच्छे परिणाम दिये हैं; जिनसे किसान जाड़ों में हरा चारा तथा बाद में उसी फसल से गेहूॅ; दोनों प्राप्त कर सकते हैं, जिन्हें किसानों द्वारा अत्यधिक सराहा गया है।
उत्तर-पष्चिमी हिमालयी क्षेत्रों के कृषकों, प्रसार कार्यकर्ताओं, शोधार्थियों तथा कृषि कार्य में संलग्न कार्यकर्ताओं को संस्थान द्वारा विभिन्न प्रषिक्षण कार्यक्रमों, किसान मेलों, अग्रिम पंक्ति प्रदर्षनों तथा प्रकाषनों द्वारा विकसित तकनीकियों का प्रसार किया जाता है। संस्थान द्वारा अल्मोड़ा व नैनीताल जनपदों के चयनित गॉवों भगरतोला और दाड़िमा गॉवों में अब तक 150 से अधिक पौलीहाउस व 140 से अधिक पौलटैंकों का निर्माण किया गया है। कृषि शोध में हुई उपलब्धियों का प्रचार-प्रसार करने के उद्देष्य से संस्थान द्वारा दो कृषि विज्ञान केन्द्रों (एक उत्तरकाषी एवं दूसरा बागेष्वर में) की स्थापना की गयी है। ये कृषि विज्ञान केन्द्र शोध व प्रसार में सामंजस्य बनाते हुए कृषकों को उचित मार्गदर्षन देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं।
किसानों को घर बैठे-बैठे कृषि सम्बन्धी जानकारी उपलब्ध कराने के उद्देष्य से यहां के वैज्ञानिकों एवं तकनीषियनों द्वारा समय-समय पर आकाषवाणी अल्मोड़ा से रेडियो वार्ताएं प्रसारित की जाती हैं। इसमें अधिक गुणवत्ता लाने के उद्देष्य से जुलाई 2009 से प्रत्येक रविवार को सायं 7ः15 बजे कृषि समृद्धि कार्यक्रम का नियमित प्रसारण किया जाता है। इस कार्यक्रम के माध्यम से कृषक घर बैठे ही अपनी समस्याओं का निराकरण प्राप्त कर रहे हैं। इसके अलावा संस्थान के निःषुल्क दूरभाष संख्या 1800-180-2311 पर सम्पर्क कर कृषक प्रत्येक कार्य दिवस को तक अपनी कृषि सम्बन्धी समस्याओं का निराकरण कर सकते हैं। संस्थान अपनी सभी गतिविधियों को सोषल मीडिया (फेसबुक पेज, टीर्वटर व यूटटूब) के माध्यम से आम जन मानस के सम्मुख रखने के साथ ही व्हाट्सप्प, एमकिसान, एंव नीड बेस एस.एम.एस. द्वारा कृषकों को खेती से जुड़ी जानकािरयाँ देने एवं उनकी समस्याओं का समाधान भी उन तक पहुँचाने का कार्य कर रही है।
संस्थान प्रत्येक वर्ष अपने हवालबाग प्रक्षेत्रा में 2 बार (रबी एवं खरीफ) किसान मेलों का आयोजन करता है; जिसमें विभिन्न कृषि विभागों, संस्थानों, कम्पनियों तथा गैर सरकारी संगठनों के कृषि तकनीकी से सम्बन्धित स्टॉल लगाये जाते हैं; जिसमें स्थानीय कृषक बड़ी संख्या में भागीदारी करते हैं और लाभान्वित होते हैं।
संस्थान द्वारा विकसित तकनीकों को कृषकों तक पहुंॅचाने के उद्देष्य से संस्थान कृषि कैलेन्डर, विभिन्न फसलों की उत्पादन-तकनीकों पर आधारित प्रसार-प्रपत्रों एवं प्रसार-पुस्तिकाओं का प्रकाषन करता है जिनमें कृषि क्रिया-कलापों का विवरण दिया जाता है। ये प्रसार-प्रपत्रा कृषकों को निःषुल्क वितरित किये जाते हैं।
संस्थान द्वारा विकसित प्रजातियों एवं तकनीकियों से अधिकाधिक लोगों को लाभान्वित करने के उद्देष्य से इनका व्यवसायीकरण किया जाता है। इसी क्रम में मक्का की प्रजाति विवेक क्यू.पी.एम. 9, सीएलवीएल बेबीकार्न 2, विवेक संकर मक्का 53, 45, 47, वीएलसंकर मक्का 57, वीएल स्वीटकार्न 2, वीएल बेबीकार्न 1, वीएल प्याज 3 के बीज बनाने हेतु तथा विकसित यंत्रों; नामतः विवेक थ्रेषर 1, वी.एल. धान थ्रेषर, वी.एल. इनसैक्ट ट्रैप, वी.एल. स्याही हल, वीएल मक्का शेलर, वीएल सोलर डायर, वीएल पोर्टेबल पालीहाऊस, वीएल पौलीटनल तथा अन्य छोटे यंत्रों के व्यवसायीकरण हेतु विभिन्न कम्पनियों के साथ अनुबन्ध किया गया।
सम्मान एवं पुरस्कार-
संस्थान को अब तक अनेक सम्मानों एवं पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चुका है; जिनमें से कुछ प्रमुख पुरस्कार एवं सम्मान इस प्रकार हैं-
दो बार (2000 तथा 2007) भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद् का सरदार पटेल सर्वश्रेष्ठ संस्थान पुरस्कार।
उत्तर पष्चिमी हिमालयी क्षेत्रा में गेहूँ-धान की किस्मों तथा उन्नत तकनीकों का उपयोग कर अधिक उत्पादन प्राप्त करने हेतु संस्थान के वैज्ञानिकों को भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद का टीम एवार्ड (2005-06)।
उत्तर-पष्चिमी हिमालय में सफेद गिडार के प्रबन्धन हेतु पर्यावरण सम्मत नवीन प्रोद्यौगिकी विकसित करने के लिये एनआरडीसी का ‘सामाजिक नवाचार पुरस्कार (सोसाइटल इनोवेषन एवार्ड) – 2008’ तथा वर्ष 2009 में ‘वाइपो गोल्ड मेडल’ अर्न्राष्ट्रीय पुरस्कार।
संस्थान द्वारा विकसित मंडुवा/मादिरा थ्रेषर को एनआरडीसी का ‘मेरीटोरियस इन्वेन्षन अवार्ड 2006’।
प्राकृतिक संसाधन प्रबन्धन (मृदा विज्ञान, सस्य विज्ञान, कृषि वानिकी) में उत्कृष्ट शोध कार्य हेतु वैज्ञानिकों को भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद का टीम एवार्ड (2007-08)।
संस्थान में दीर्घ काल तक उर्वरता प्रबन्धन बनाये रखने हेतु 1973 से किये जा रहे अध्ययन से पता चलता है कि संस्तुत रासायनिक उर्वरक के साथ गोबर की खाद 10 टन प्रति हैक्टेयर की दर से देने पर विभिन्न फसलों की पोषण सम्बन्धी समस्या के निराकरण के साथ ही मृदा की भौतिक अवस्था को भी बचाया जा सकता है। संस्थान के इस अनुसंधान के लिए 1988 में इसे कृभको बारानी खेती के प्रथम पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
‘धान के रोग’ तथा ‘उत्तर-पष्चिमी पर्वतीय क्षेत्रों में कृषि उत्पादकता की वृद्धि’ के लिये उन्नत तकनीकें’ नामक पुस्तकों को भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद का डा. राजेन्द्र प्रसाद पुरस्कार।
कृषि तकनीकों के विकास एवं प्रसार में उत्कृष्ट योगदान हेतु महेंद्रा समृद्धि इंडिया एग्री अवार्ड 2012 के अन्तर्गत कृषि संस्थान सम्मान।
ऐतिहासिक किस्मों वीएल मक्का 54, हिम 128 एवं वीएल गेहूँ 421 जो कि मील का पत्थर साबित हुई है। के विकास के लिए संस्थान सम्मानित ।
आखिल भारतीय समन्वित शोध परियोजना के तहत कृषि में प्लास्टिक के अनुप्रयोग के लिए सर्वश्रेष्ठ संस्थान पुरस्कार।
कदन्न फसलों हेतु वर्ष 2017-18 के लिए सर्वश्रेष्ठ प्रर्दषन केन्द्र पुरस्कार।
जनजातीय कृषि प्रणालियों में उत्कृष्ट अनुसंधान के लिए फखर्रूदीन अली अहमद पुरस्कार 2019।
पंण्डित दीन दयाल उपाध्याय आंचलिक कृषि विज्ञान प्रोत्साहन पुरस्कार 2019।
वर्ष 2020-21 के लिए भाकृअनुप बीज परियोजना के तहत सर्वश्रेष्ठ प्रदर्षन केन्द्र पुरस्कार (भाकृअनुप संस्थान श्रेणी)