तो लागू होगा राष्ट्रपति शासन!

पहेली बना मणिपुर

  • मुख्यमंत्री स्वयं तेजी से बदलते घटनाक्रम को समझ से परे बता रहे
  • राज्यपाल ने महिलाओं को सेना के अभियान में खलल न डालने की हिदायत ही
  • दिल्ली में राहुल की यात्रा पर नाराजगी, वहीं मणिपुर भाजपा अध्यक्ष ए. शारदा देवी ने सराहा

ममता सिंह, पूर्वोत्तर मामलों की जानकार

मणिपुर में जिस तरह से हालात बिगड़ते और बदलते जा रहे हैं वैसे में यह राज्य राष्ट्रपति शासन की ओर मुड़ गया है। क्योंकि केंद्र और राज्य मणिपुर को और तबाह होते नहीं देख सकते। इंटेलीजेंस ने केंद्रीय गृह मंत्रालय को सौंपी अपनी रिपोर्ट में भी इस बात का उल्लेख किया है कि यहां हालात इतने बेकाबू हो गए हैं कि लग ही नहीं रहा कि राज्य में कोई सरकार है। अब इस राज्य में दिनोदिन बदतर होते जा रहे हालात के लिए जिम्मेदार किसे माना जाए, यह भी यक्ष प्रश्न है।

क्योंकि भारी संख्या में सुरक्षाबलों को भी उतारा गया है। लेकिन संतोषजनक परिणाम दूर-दूर तक देखने को नहीं मिल रहे हैं। इस बीच राजनीतिक पार्टी के नेताओं का वाकयुद्ध भी कम होने का नाम नहीं ले रहा। ऐसे में हालात कब सामान्य होंगे, इस पर देश-विदेश की नजरें टिकी हुई हैं।

मणिपुर को लेकर तरह-तरह की अफवाहें भी सोशल मीडिया में हर वर्ग की ओर से प्रचारित की जा रही हैं। हालांकि, रक्षा विशेषज्ञ यह मानते हैं कि लोगों को भ्रमित करने के मकसद से कभी चीन तो कभी म्यांमार इत्यादि इत्यादि देशों के नाम भी लिए जा रहे हैं।

इस त्राहिमाम त्राहिमाम के बीच सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी के नेता राहुल गांधी ने जून माह में इंफाल, चुराचांदपुर और मोइरांग के राहत शिविरों का दौरा किया। पीड़ितों की समस्याएं सुनीं और चेक भी बांटे। साथ ही, मणिपुर की राज्यपाल अनुसुइया उइके से भी मुलाकात की। वहां से लौटकर राहुल गांधी ने शिविरों में रह रहे लोगों की समस्याओं का जिक्र किया और शांति बहाली की दिशा में हर संभव मदद करने का भरोसा दिलाया।

हालांकि, राहुल मौका मुआयना करने के बाद भी यह नहीं बता पाए कि दोनों समुदाय के बीच शांति कैसे बहाल होगी। इसके काफी पहले केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह भी वहां गए थे और वहां से लौटने के बाद मुख्यमंत्री और उनके कैबिनेट के सहयोगियों को दिल्ली भी बुलाया।
ठीक है राजनीतिक दृष्टिकोण से उपद्रवग्रस्त मणिपुर राज्य का दौरा न सिर्फ कांग्रेस के लिए महत्वपूर्ण है, बल्कि अन्य वर्ग के लोगों के लिए भी खासा महत्व रखने वाला है। मौजूदा समय में राहुल की यात्रा को विशेषज्ञ भी सकारात्मक नजरिए से देख रहे हैं।

दिल्ली में बैठे भाजपा के कई नेता राहुल गांधी की मणिपुर यात्रा की भले ही आलोचना करते रहे हैं लेकिन मणिपुर भाजपा अध्यक्ष ए. शारदा देवी ने उनकी इस यात्रा को सराहा है।
असम के मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा सरमा को भी शांति बहाली के लिए फ्रेमवर्क तैयार करने के लिए लगाया गया लेकिन परिणाम वही ‘ढाक के तीन पात’। हालांकि, उनका दावा है कि मणिपुर के हालात तेजी से सुधर रहे हैं।
मुख्यमंत्री एन. बीरेन सिंह भी तेजी से बदलते घटनाक्रम को समझ से परे बता रहे हैं। तभी तो देश का हर नागरिक मणिपुर के घटनाक्रम को पहेली मान कर चल रहा है। अब कोई तो बताए कि आखिर माजरा है क्या? इस पर बयानबाजी के बजाय समझने की जरूरत है। क्योंकि जब तक हम रोग नहीं समझ पाएंगे, इलाज की परिकल्पना कदापि संभव नहीं है। मौजूदा विकट परिस्थितियों में अमित शाह और राहुल गांधी दोनों की मणिपुर यात्रा को साहसिक नजरिए से देखा जाना चाहिए।

यह बात भी दीगर है कि अमित शाह केंद्रीय गृह मंत्री हैं और वे तगड़ी सुरक्षा में मणिपुर गए। हर वर्ग के लोगों से मुलाकात भी की। बावजूद मणिपुर में गोलीबारी की आवाज नहीं थमी। निश्चित रूप से राहुल गांधी की भी सुरक्षा व्यवस्था तगड़ी की गई, तभी वे उपद्रवग्रस्त मणिपुर में दौरा कर सके और जमीनी हालात का अध्ययन स्वयं भी कर सके।
मणिपुर में घटनाक्रम रोजाना बदल रहे हैं जो वाकई चिंता का विषय है। अमित शाह और राहुल दोनों का ही मानना है कि हिंसा से कोई हल नहीं निकल सकता। और किसी भी तरह की वार्ता से पहले शांति बहाली जरूरी है।
मणिपुर में सुरक्षा बलों की संख्या दोगुनी कर दी गई है। बावजूद हिंसा जारी है। सशस्त्र बल (विशेष शक्तियां) अधिनियम (अफस्पा) जिन शहरों से हटाया गया है वहां सैन्य ऑपरेशन चलाना काफी जोखिम भरा है। इन इलाकों में मजिस्ट्रेटों की तैनाती कर दी गई है। अचरज की बात यह है कि जिन इलाकों में अफस्पा लागू है, वहां भी मजिस्ट्रेट को साथ रखने की बात की जा रही है। जबकि, इसका कोई औचित्य ही नहीं है।

दरअसल, केंद्र और राज्य दोनों की एक ही मंशा है कि सैन्य ऑपरेशन के दौरान स्थानीय लोगों के मन में असुरक्षा की भावना नहीं पनपे। और ऐसी विकट स्थिति में सेना कोई चमत्कार नहीं कर सकती। मौजूदा समय में सुरक्षा बल भी फूंक फूंक कर कदम उठा रहे हैं। क्योंकि पूर्वोत्तर में सैन्य कार्रवाई के दौरान सुरक्षाबलों पर आरोप भी लगते रहे हैं। लेकिन जिस तरह से भीड़ सेना को रोक रही है, कहीं भीड़ आतंकियों को छुड़ा रही है तो कहीं मुख्यमंत्री का इस्तीफा तक फाड़ दे रही है, यह बात भी समझ से परे है। ये सिलसिला यदि यूं ही चलता रहा तो मणिपुर में अमन चैन की राह आसान नहीं होगी।
मणिपुर के बारे में तरह तरह के चैंकाने वाले तथ्य भी सोशल मीडिया में प्रसारित किए जा रहे हैं। आश्चर्य की बात यह है कि सरकार यह दावा कर रही है कि इंटरनेट सेवा ठप है। कनेक्टिविटी से मणिपुर अलग थलग पड़ गया है। तो शेष भारत के साथ ही निकटवर्ती देशों में मणिपुर की विस्फोटक तस्वीरें कहां से जा रही हैं। यह बात केंद्रीय गृह मंत्रालय को समझना चाहिए। कहीं ऐसा तो नहीं, कि सरकारी तंत्र का दुरुपयोग कोई न कोई कर रहा है, यदि ऐसा है तो यह काफी निंदनीय कृत्य है। घर-घर में हथियार हैं और लूटे गए हथियार भी बेचे जा रहे हैं तो यह भी विचारणीय प्रश्न है। क्योंकि शुरुआती दौर में वहीं से खबरें प्रचारित की जा रही थीं कि विद्रोहियों के पास चीन निर्मित हथियार हैं और अब यह बताया जा रहा है कि कुछ विद्रोहियों के पास पुलिस के शस्त्रागार से लूटे गए हथियार हैं। और मामले की जांच करने यदि उच्च स्तरीय टीम जाती भी है तो उन्हें रोक दिया जाता है। क्या यह हैरान कर देने वाली बात नहीं है?
सुरक्षा से जुड़ी एजेंसियां बार बार केंद्रीय गृह मंत्रालय को अलर्ट कर रही हैं। इससे ज्यादा खुफिया रिपोर्ट की व्याख्या नहीं की जा सकती, क्योंकि यह देश की राष्ट्रीय सुरक्षा का मसला है। हां, इतना जरूर है कि केंद्र और राज्य को और अधिक चौकस होना होगा।
दूसरी ओर, मणिपुर में राजनीतिक नौटंकी भी बंद होनी चाहिए, क्योंकि इससे शांति प्रयासों में व्यवधान आना तय है। अभी हाल में मुख्यमंत्री एन. बीरेन सिंह का इस्तीफा समर्थकों ने फाड़ दिया। यह सब क्या है? यदि मुख्यमंत्री को भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व ने इस्तीफा सौंपने का इशारा किया है तो ईमानदार छवि वाले एन. बीरेन सिंह को इस्तीफा राज्यपाल को सौंप देना चाहिए था। मुख्यमंत्री को समर्थकों के भावनात्मक वेग में न बहते हुए राजधर्म का पालन करना चाहिए। क्योंकि उन्हीं की अगुवाई में वहां पूर्ण बहुमत वाली सरकार चल रही है। लेकिन जिस तरीके से मणिपुर में हिंसा फैल रही है, यदि दो महीने बाद ही सही, इस पर तत्काल विराम न लगाया गया तो पूरे देश में यही संदेश जाएगा कि मणिपुर की हिंसा के पीछे कहीं न कहीं सियासी दांवपेच जरूर है। यह सत्य है कि वहां डबल इंजन की सरकार है। लेकिन भाजपा का शीर्ष नेतृत्व भी नहीं चाहेगा कि अन्य राज्यों में जहां इस वर्ष चुनाव होने हैं, वहां इस राज्य की परछाई भी न पहुंचे। इसलिए देर-सबेर भाजपा का थिंक टैंक मणिपुर को लेकर कभी भी कोई महत्वपूर्ण निर्णय ले सकता है। अन्य चुनावी राज्यों में इसका असर नहीं पड़े, इसके लिए भाजपा का शीर्ष नेतृत्व अपने मुख्यमंत्री के लिए और सख्त आदेश जारी कर सकता है।
मणिपुर में फिलहाल जो कुछ भी चल रहा है, भले ही उसमें कोई भी समुदाय शामिल हो, इसको राजनीतिक नजरिए से ही देखने की कोशिश करनी चाहिए। क्यांेकि बंदूकों और बमों के धमाकों से हिंसा पर काबू नहीं पाया जा सकता। अभी हाल ही में सरेआम एक डेडबाॅडी को वहां के सबसे बड़े महिलाओं के बाजार यानी ईमा बाजार में लाकर रखा गया। जिसे देख वहां के लोग और भड़क गए। मतलब साफ है कि इस तरह के माहौल में ऐसे घटनाक्रम जहां लोगों का मनोबल तोड़ते हैं और उनमें बदले की भावना और अधिक प्रबल होती है। जिला प्रशासन को चाहिए कि इस तरह की घटनाओं से बचा जाए।
इसी प्रकार की एक और हैरतअंगेज घटना वह रही, जिसमें सशस्त्र संगठनों और सेना में जारी जंग के बीच करीब 1500 महिलाओं का हुजूम टूट पड़ा। जिसे देख सेना को पीछे हटना पड़ा और 12 उपद्रवियों को छुड़ाने में महिलाएं कामयाब हो गईं। इस प्रकरण पर वहां की राज्यपाल ने भी गहरी चिंता जताते हुए कहा है कि सुरक्षा बलों का रास्ता न रोका जाए।
बहरहाल, इस तरह की घटनाएं बताती हैं कि मणिपुर में जंगलराज है। इसका उपाय तत्काल खोजा जाना चाहिए, क्योंकि इससे यहां की आम जनता भी त्रस्त है। खेती-बाड़ी से लेकर तमाम उद्योग धंधे बंद पड़े हैं। यदि इस तरह की जंग 3-4 महीने और चल गई तो मणिपुर की अर्थव्यवस्था को सुधरने में कम से कम दस साल लग जाएंगे। किसी भी सरकार को तमाशबीन नहीं बनना चाहिए। आज मणिपुर को फौरी इलाज की जरूरत है। राजनीतिक विश्लेषक भी मानते हैं कि इसका इलाज राजनीतिक गलियारे से ही संभव है तो फिर देरी क्यों? क्योंकि हिंसा की लपटों का असर मिजोरम समेत पूर्वोत्तर के कुछ अन्य राज्यों की सियासत में भी दिखने लगा है। इससे पीछे मुख्य कारण यह भी है कि कुकी और मैतेई समुदाय के लोग पूर्वोत्तर के अमूमन सभी राज्यों में बसे हुए हैं। लिहाजा, किसी भी पार्टी को वोट बैंक की सियासत न करते हुए मानवता के नाते आपसी एकता का परिचय देना चाहिए। वरना, सत्ता राजनीतिक पार्टियों के हाथों से निकल कर सशस्त्र विद्रोहियों के हाथों में पहुंच जाएगी। इससे राजनीतिक पार्टियों को परहेज करना चाहिए, वरना मणिपुर में इंसानियत का कत्ल यूं ही होता रहेगा।

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