यूं ही नहीं बढ़ रही भाजपा-जजपा में रार

  • लोकसभा और विधानसभा चुनाव साथ कराए जाने के बन रहे समीकरण
  • भाजपा और जजपा गठबंधन के लेकर कयासबाजियों का दौर षुरू

सुमित्रा

चंडगढ़।किसी भी राजनीतिक पार्टी को राज्य में अपना जनाधार बढ़ाने का अधिकार है। इसके लिए सभी पार्टियों की तरफ से हरसंभव रणनीति अपनाई जाती है। लोगों से तरह-तरह के दावे और वादे किए जाते हैं। यह कवायद चुनावों के नजदीक आते ही और बढ़ जाती है।

इस दौरान कुछ पार्टियों में दूरियां बढ़नी शुरू हो जाती हैं तो कुछ पार्टियां परिस्थितियों के मद्देनजर एक-दूसरे के नजदीक आने लगती हैं। हर पार्टी अपनी जीत के समीकरणों के हिसाब से फैसले लेती है। लेकिन हरियाणा में इस बार समय से पहले ही ऐसा होता दिख रहा है, जबकि विधानसभा चुनावों में अभी एक साल से ज्यादा का समय बाकी है।

जिस ढंग से सत्तारूढ़ भाजपा-जजपा गठबंधन में रार बढ़ती दिख रही है, उससे लगता है कि लोकसभा चुनावों के साथ ही हरियाणा विधानसभा चुनाव भी करवाए जा सकते हैं। फिर भी सवाल तो उठता है है कि भाजपा-जजपा गठबंधन में रार के क्या मायने हैं? कोई कह रहा है कि जल्दी ही भाजपा और जजपा की राहें अलग हो जाएंगी तो कोई कह रहा है कि हरियाणा में आने वाले विधानसभा चुनावों तक यह गठबंधन जारी रहेगा।

आखिर दोनों पार्टियों के बीच अचानक टकराव क्यों शुरू हुआ? दोनों पार्टियों के सुर क्यों बदल गए हैं? गठबंधन के टूटने से किस पार्टी को फायदा मिलने की उम्मीद है? यह भी देखा जा रहा है कि पिछले चार साल से मिल कर सरकार चलाने में किस पार्टी को लाभ मिला और कौन-सी पार्टी आज घाटे की स्थिति में है?

भाजपा जब पिछले विधानसभा चुनावों के लिए मैदान में उतरी थी, तब मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर ने 75 पार का नारा दिया था। चुनावों से ठीक पहले इंडियन नेशनल लोकदल (इनेलो) से टूट कर नई बनी जननायक जनता पार्टी (जजपा) के नेता दुष्यंत चौटाला (अब उप मुख्यमंत्री) ने कहा था, 75 पार नहीं, हम भाजपा को यमुना पार भेजेंगे।

चुनाव परिणाम आने के बाद भाजपा और जजपा ने मिल कर गठबंधन सरकार बना ली। दोनों पार्टियों (भाजपा 40 और जजपा 10) के साथ आ जाने से सरकार का पांच साल तक बिना किसी झंझट के चलना निश्चित भी हो गया। फिर चुनावों से एक साल पहले दोनों पार्टियों के बीच अचानक रस्साकशी की वजह क्या है?
हरियाणा में भाजपा मामलों के प्रभारी बिप्लब देव क्यों आजाद विधायकों को तलब कर रहे हैं? क्यों उनके साथ बैठकें कर रहे हैं? दिल्ली में बैठकों के जरिए वे राज्य के लोगों को क्या संदेश देना चाहते हैं? हरियाणा लोकहित पार्टी (हलोपा) के एकमात्र विधायक गोपाल कांडा से अचानक बातचीत करने का उनका क्या मकसद है? खट्टर सरकार को समर्थन दे रहे आजाद विधायक क्यों भाजपा प्रभारी बिप्लव देव को जजपा से गठबंधन तोड़ने की सलाह दे रहे हैं?
उप मुख्यमंत्री दुष्यंत चौटाला जब कह रहे हैं कि भाजपा से हमारा गठबंधन है और आगे भी रहेगा। भविष्य में क्या परिस्थितियां होंगी, अभी कुछ नहीं कहा जा सकता, लेकिन इतना जरूर है कि हम भाजपा के साथ मिल कर चलना चाहते हैं। मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर का बयान भी गौर करने लायक है। खट्टर कह चुके हैं कि संगठन अपना काम कर रहा है और सरकार अपना काम कर रही है। गठबंधन सरकार ठीक चल रही है और चलेगी।
ऐसे में भाजपा क्यों गठबंधन के इस मुद्दे को इतना तूल दे रही है? पहले हिमाचल प्रदेश और फिर कर्नाटक में सत्ता से बाहर होने के बाद भाजपा में बेचैनी है। पार्टी हरियाणा में आने वाले चुनावों में जीत के प्रति आश्वस्त होना चाहती है। गठबंधन में टूट की हवा बनाने को ऐसा ही एक बड़ा पैंतरा माना जा रहा है। इस सबके बावजूद क्यों एक साल पहले ही यह भ्रम फैलाया जा रहा है कि भाजपा-जजपा मिल कर चुनाव लड़ेंगे या नहीं? समय आने पर सब तय हो जाना है। फिर इतनी जल्दबाजी क्यों?
जजपा अपना जनाधार टटोलने के लिए जहां अगले महीने से राज्य के सभी लोकसभा क्षेत्रों में रैलियों की योजना बना रही है, वहीं भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष ओमप्रकाश धनखड़ भी सभी सांसदों के साथ बैठक कर स्थिति का जायजा ले रहे हैं। इसमें कोई शक नहीं कि दोनों पार्टियों का अपना अलग वोट बैंक है। भाजपा गैर जाटों के वोट पर आश्रित है, जबकि जजपा का ज्यादा वोट बैंक जाट मतदाता ही हैं। दोनों पार्टियों के गठबंधन के बाद जाट खुद को ठगा हुआ महसूस करते रहे हैं।

उम्मीद के मुताबिक उनके काम भी नहीं हुए। हरियाणा में लगातार जाट समुदाय के नेता मुख्यमंत्री बनते रहे हैं। जाटों के स्वभाव में दूसरे नंबर की हिस्सेदारी स्वीकार करना नहीं है। लेकिन मजबूरी में उन्हें सब सहन करना पड़ रहा है। ऐसे में उनके पास अभी अगले चुनावों के इन्तजार के अलावा कोई और चारा भी नहीं है।
देखा जाए तो भाजपा पूर्व उप प्रधानमंत्री चौधरी देवीलाल की स्वाभाविक सहयोगी पार्टी रही है। उन्होंने और उनके बेटे पूर्व मुख्यमंत्री ओमप्रकाश चौटाला ने भाजपा के साथ या समर्थन से अपनी सरकारें चलाई हैं। यह पहला मौका है, जब चौटाला के पोते दुष्यंत चौटाला भाजपा सरकार में छोटे साझेदार के तौर पर शामिल हैं। हालांकि, भाजपा को समर्थन के बदले उन्हें न केवल उप मुख्यमंत्री का पद मिला, बल्कि जजपा के दो विधायकों को मंत्री पद भी मिले हैं। पार्टी के कुछ विधायकों और पदाधिकारियों ने बोर्डों-निगमों की चेयरमैनी भी ले रखी है। लेकिन छोटे सहयोगी के नाते जजपा लोगों से किए वादे पूरे करने में नाकाम रही है।
दोनों ही पार्टियां अगला चुनाव मिल कर लड़ेंगी, इसकी उम्मीद कम है। अगर लोकसभा चुनावों के साथ हरियाणा में विधानसभा चुनाव नहीं हुए तो भी यही संभावनाएं हैं। लगता नहीं कि भाजपा समझौते के तहत लोकसभा की 10 सीटों में से एक भी सीट जजपा के लिए छोड़ना चाहेगी। ऐसा भी नहीं हो सकता कि जजपा लोकसभा चुनाव में अपने उम्मीदवार खड़े नहीं करे। विधानसभा चुनावों में भाजपा राज्य की 90 में से कितनी सीटें जजपा को दे सकती है? पार्टी ज्यादा से ज्यादा 10 मौजूदा विधायकों के लिए सीट छोड़ने पर राजी हो सकती है। पिछले चुनाव में जजपा 8 सीटों पर दूसरे स्थान पर रही थी। इस संबंध में भी दोनों पार्टियों के बीच बातचीत हो सकती है। बातचीत के क्या नतीजे निकलेंगे, अभी कुछ कहना ठीक नहीं होगा।
लेकिन लगता यही है कि 90 में से सिर्फ 18 सीटों पर उम्मीदवार उतारने के लिए जजपा नेतृत्व किसी भी सूरत में तैयार नहीं होगा। फिर क्या होगा? जजपा सभी 90 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारने के लिए स्वतंत्र होगी। चुनावों में जजपा को कितनी सीटें मिलेंगी, यह परिणाम आने पर ही पता चलेगा, लेकिन इतना तय है कि चुनावों के बाद जरूरत पड़ी तो जजपा फिर भाजपा के साथ आ सकती है। जब लोग जानते हैं कि भाजपा और जजपा चुनाव से पहले या चुनाव के बाद कभी भी हाथ मिला सकते हैं तो गठबंधन टूटने को लेकर इतनी चर्चा क्यों हो रही है?
शुरुआत, पूर्व केंद्रीय मंत्री चैधरी बीरेंद्र सिंह के परिवार और उप मुख्यमंत्री दुष्यंत चैटाला के परिवार के बीच चल रही जुबानी जंग में भाजपा प्रभारी विप्लव देव के कूद पड़ने से हुई है। विप्लव देव ने कह दिया है कि प्रेमलता (चौधरी बीरेंद्र सिंह की पत्नी) ही उचाना क्षेत्र से भाजपा की उम्मीदवार होंगी। उचाना क्षेत्र से इस समय दुष्यंत चौटाला विधायक हैं। उन्होंने ही प्रेमलता को शिकस्त दी थी। दुष्यंत चौटाला कह चुके हैं कि वे उचाना से फिर मैदान में उतरेंगे, जबकि प्रेमलता के सांसद बेटे बृजेन्द्र सिंह भाजपा को सलाह दे रहे हैं कि भाजपा को हरियाणा में किसी के साथ चुनावी गठबंधन की जरूरत नहीं है।
ऐसे में सवाल तो उठेगा ही कि एक सीट को लेकर इतना बवाल क्यों? क्या यह मसले पर सार्वजनिक बहस की आवश्यकता है? क्या दोनों पार्टियां मिल बैठ कर कोई फैसला नहीं ले सकती? क्या इस मुद्दे को लोगों के बीच ले जाने की कोई जरूरत है? देखा जाए तो अभी नहीं है, लेकिन दोनों पार्टियों को लगता होगा कि माहौल अभी से बनाना होगा।
कह सकते हैं कि आने वाले चुनावों तक टकराहट का माहौल दिखते रहना चाहिए।
जजपा जाट वोट बैंक पर अपनी पकड़ बनाये रखने की कोशिश में है। ऐसा इसलिए कि राज्य का जाट मतदाता अब पूर्व मुख्यमंत्री हुड्डा के पक्ष में मजबूती से खड़ा होता दिखने लगा है। यह भी ठीक है कि लगातार दो बार सत्ता में आई भाजपा भी गैर जाट मतदाताओं को उम्मीद के मुताबिक खुश नहीं कर पाई है। ऐसे में दोनों पार्टियों को अपना अपना वोट बैंक बनाये रखने के लिए एक-दूसरे से टकराते हुए नजर आना होगा।
हरियाणा से पहले राजस्थान में विधानसभा चुनाव होने हैं। राजस्थान में कांग्रेस के प्रभाव वाले जाट बहुल क्षेत्र में जजपा सेंध लगाए, यह भाजपा के हक में होगा। जजपा के जितने भी जाट उम्मीदवार मैदान में उतरेंगे, वे कांग्रेस के ही वोट काटेंगे। इससे भाजपा को सहूलियत होगी। जजपा ने राजस्थान में चुनावी तैयारियां शुरू भी कर दी हैं, लेकिन उप मुख्यमंत्री दुष्यंत चैटाला यदि भाजपा के साथ खड़े दिखेंगे तो जाट मतदाताओं का उन्हें राजस्थान में कितना समर्थन मिलेगा, कुछ कहना मुश्किल है। इतना जरूर है कि वे भाजपा के साथ जितना लड़ते दिखेंगे, हो सकता है, जहां कांग्रेस कमजोर हो, वहां मतदाता जजपा उम्मीदवारों का समर्थन कर दे।
हरियाणा विधानसभा चुनावों में भी ऐसा ही हुआ था। लोगों ने भाजपा को सत्ता नहीं सौंपी थी। भाजपा की सीटें 47 से घाट कर 40 रह गई थीं। जहां-जहां कांग्रेस कमजोर थी, वहां-वहां लोगों ने जजपा उम्मीदवारों की नैया पार लगा दी। ऐसे में जजपा ने 10 विधायकों के सहारे भाजपा की फिर से सरकार बनवा दी। क्या राजस्थान में यह फार्मूला काम आएगा? हरियाणा के लोग देख और समझ चुके हैं, ऐसे में लोग भाजपा और जजपा के बीच शुरु होती दिख रही इस लड़ाई पर यकीन कर पाएंगे? देखते रहिए, अभी गंगा में बहुत पानी बहना है।

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