डाॅ. सुशील उपाध्याय
अकादमिक स्वतंत्रता के मामले में वी-डेम की रिपोर्ट को भारत में दो पहलुओं पर देखा जाना चाहिए। ये रिपोर्ट वर्तमान परिदृश्य के साथ-साथ भविष्य की दिशाओं का संकेत भी करती है। भले ही इस रिपोर्ट को पूरी तरह सही मानना संभव न हो और भारत सरकार के स्तर पर इस रिपोर्ट को खारिज कर किया गया हो, लेकिन कुछ संकेतक ऐसे हैं जो विगत दशक के बदलावों की ओर साफ इशारा करते हैं। यहां यह भी समझने की जरूरत है कि विगत एक दशक के बदलावों की जड़े आपातकाल के दौर में निहित हैं।
वी-डेम संस्थान ने अपनी ‘अकादमिक स्वतंत्रता सूचकांक-2023’ के रिपोर्ट में कहा है कि भारत दुनिया के 179 में से उन 22 देशों में शामिल है, जहां शिक्षण संस्थानों और शिक्षाविदों को आज की तुलना में 10 वर्ष पहले ज्यादा स्वतंत्रता थी। इस रिपोर्ट में अमेरिका, चीन, मैक्सिको और भारत की स्थिति को तुलनात्मक रूप से भी प्रस्तुत किया गया है।
रिपोर्ट में दावा किया गया है कि अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप, चीन में शी जिनपिंग और मैक्सिको में लोपेज ओब्राडोर के सत्ता संभालने के बाद अकादमिक स्वतंत्रता संकुचित हुई। हालांकि अमेरिका में जो बाइडेन के राष्ट्रपति बनने के बाद अकादमिक स्वतंत्रता की स्थिति में सुधार हुआ है। लेकिन, अन्य देशों की स्थिति में सुधार नहीं हुआ।
वी-डेम की अकादमिक स्वतंत्रता सूचकांक रिपोर्ट पांच संकेतकों का विश्लेषण करके अकादमिक स्वतंत्रता का मूल्यांकन करती है, जिसमें शिक्षण व अनुसंधान की स्वतंत्रता, अकादमिक आदान-प्रदान एवं प्रसार की स्वतंत्रता, विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता, परिसरों के संचालन की स्वतंत्रता और शैक्षणिक-सांस्कृतिक अभिव्यक्ति शामिल हैं। मौजूदा रिपोर्ट दुनिया भर के 2197 से अधिक विशेषज्ञों के आकलन पर आधारित है। यह रिपोर्ट कहती है कि भारत में विश्वविद्यालय परिसर राजनीतिक हस्तक्षेप से मुक्त नहीं हैं। भारतीय शैक्षिक संस्थानों की संस्थागत स्वायत्तता की स्थिति भी खराब है। खासकर, राजनीतिक मुद्दों को व्यक्त करने में संस्थानों की स्वायत्तता कमजोर हुई है। रिपोर्ट कहती है कि भारत में अकादमिक स्वतंत्रता को बचाने में सक्षम कानूनी ढांचे का अभाव है। इसलिए भारत को शैक्षणिक स्वतंत्रता पर हमलों के खिलाफ प्रभावी कानूनों की जरूरत है। रिपोर्ट कहती है कि भारत में अकादमिक स्वतंत्रता का सुरक्षित रहना इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि दुनिया के सबसे अधिक आबादी वाले देश में अकादमिक स्वतंत्रता में गिरावट विश्व स्तर पर प्रतिकूल परिणाम ला सकती है। इस रिपोर्ट को पूरी तरह मौजूदा सरकार के साथ जोड़कर देखना ठीक नहीं होगा। वैसे भी इस रिपोर्ट में कहा गया है, भारत में विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता में गिरावट का ताजा दौर 2009 में शुरू हुआ। 2013 के आसपास अकादमिक स्वतंत्रता के सभी पहलुओं में तेज गिरावट शुरू हुई और इसके बाद यह सिलसिला लगातार बना हुआ है।
भारत में अकादमिक स्वतंत्रता की रक्षा करने में सक्षम कानून की जरूरत आज से नहीं, बल्कि आपातकाल के दौर से महसूस की जाती रही है। उस वक्त में संजय गांधी के संरक्षण में अकादमिक संस्थानों पर उनके समर्थकों का नियंत्रण था। इसके बाद 1991 में नई आर्थिक नीतियों के लागू होने के बाद जितनी तेजी से शैक्षिक संस्थानों की स्थापना हुई, उतनी ही तेजी से परिसरों के भीतर मौजूद अकादमिक स्वतंत्रता संकुचित हुई। इसकी मुख्य वजह यह थी कि उच्च शिक्षा में आए ज्यादातर प्राइवेट प्लेयर अपने हितों के लिहाज से सरकारों के साथ मिलकर चलने में यकीन करते रहे हैं। उनके लिए अकादमिक स्वतंत्रता से ज्यादा जरूरी बात अपने संस्थानों को बचाए-बनाए रखना और उन्हें निरंतर विकसित करके आर्थिक तौर पर उपयोगी बनाए रखना है। हालांकि, इसके अपवाद संभव है।
वी-डेम द्वारा तैयार की जाने वाली अकादमिक स्वतंत्रता सूचकांक में रिपोर्ट शून्य से एक तक के पैमाने पर मूल्यांकन किया जाता है, जहां एक को सर्वोच्च अकादमिक स्वतंत्रता माना जाता है। नई सूचकांक तालिका में भारत को 0.38 का स्कोर प्राप्त हुआ। भारत का स्थान नेपाल, पाकिस्तान और भूटान जैसे पड़ोसियों से भी नीचे है। यहां ध्यान रहे कि ये रिपोर्ट शैक्षिक गुणवत्ता का मूल्यांकन नहीं करती। बल्कि, इसका फोकस अकादमिक स्वतंत्रता पर।
भारत इस रिपोर्ट में बांग्लादेश, चीन, अफगानिस्तान और म्यांमार से आगे दिखाया गया है। इस रिपोर्ट का ये वो पहलू है पर जिस भारत को आपत्ति है। ये संभव है कि भारतीय संस्थानों में अमेरिका और यूरोप की तुलना में कम अकादमिक स्वतंत्रता हो, लेकिन क्या इस पर यकीन किया जा सकता है कि भारत में पाकिस्तान, नेपाल और भूटान से भी कम अकादमिक स्वतंत्रता है! पाकिस्तान में केवल सरकार और राजनीति पर ही नहीं, बल्कि शैक्षिक संस्थानों पर भी फौज का दबदबा है। इसी प्रकार नेपाल में नेपाली कांग्रेस के सहयोग से कम्युनिस्ट सरकार चल रही तो स्वयं अनुमान लगाया जा सकता है कि वहां परिसरों में किस स्तर की अकादमिक स्वतंत्रता होगी! भूटान में राजशाही के खिलाफ क्या किसी भी विचार को परिसरों में स्थान दिया जा सकता है? इसका जवाब नहीं में ही है।
यह रिपोर्ट कमोबेश वैसी ही है जैसी कि पिछले दिनों में रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स द्वारा प्रेस फ्रीडम को लेकर जारी की गई थी। प्रेस फ्रीडम सूचकांक में भी भारत की रैंकिंग सबसे निचले देशों में आंकी गई है। इसमें भारत की रैंकिंग अफगानिस्तान और पाकिस्तान से भी नीचे दिखाई गई थी। तब इस रिपोर्ट पर भी सवाल खड़े हुए थे। हालांकि, भारत के मामले में वी-डेम की रिपोर्ट इतना जरूर कहती है कि भले ही, भारत में अकादमिक स्वतंत्रता के संस्थागत आयामों-संस्थागत स्वायतत्ता और परिसर अखंडता पर उल्लेखनीय दबाव है, लेकिन शिक्षाविदों द्वारा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बचाए रखने के प्रयास किए जा रहे हैं। इस प्रकार के प्रयासों की उम्मीद चीन, म्यांमार आदि में नहीं की जा सकती।
केवल इस रिपोर्ट पर ही नहीं, बल्कि इसी के समानांतर जारी की गई अन्य रिपोर्टाें पर भी भारत की सबसे बड़ी चिंता यही है कि इन रिपोर्टाें से देश की नकारात्मक छवि बनाई जा रही है। इसके चलते भारत ने प्रेस की स्वतंत्रता और अकादमिक स्वतंत्रता, दोनों ही मामलों में कड़ा प्रतिवाद किया है। प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के सदस्य संजीव सान्याल का कहना है कि दुनियाभर में जारी की जाने वालीं विभिन्न रैंकिग सूचियों का विरोध किया जाएगा क्योंकि ये एजेंडा आधारित होती हैं। उनका कहना है कि ये सूचियां उत्तरी अटलांटिक से काम करने वाले थिंक टैंकों के छोटे समूहों द्वारा तैयार की जाती हैं और इन्हें तीन-चार एजेंसियों से फंड मिलता है, जो दुनिया का असली एजेंडा निर्धारित कर रही हैं। उनका कहना है कि किसी भी क्षेत्र की गुणवत्ता निर्धारित करने के लिए मानक होना अपने आप में कोई मुद्दा नहीं है। समस्या है कि ये मानक कैसे परिभाषित किए जाते हैं और कौन इन्हें प्रमाण पत्र देता है।
फिलहाल इस रिपोर्ट को एक व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखे जाने की जरूरत है। यदि इसे राजनीतिक आधार पर खारिज कर दिया जाए तो कुछ अच्छे सुझावों की अनदेखी भी हो जाएगी। चूंकि, भारत में उच्च शिक्षा में यूरोपीय और अमेरिकी सांस्थानिक मूल्यों एवं प्रवृत्तियों को प्रमुखता दी जाती रही है इसलिए इस रिपोर्ट के उन पहलुओं को विचार के लिए स्वीकार किया जाना चाहिए जो देश में अकादमिक स्वतंत्रता के माहौल को बेहतर कर सकते हैं। भारत में अकादमिक स्वतंत्रता का मामला सरकार द्वारा की जाने वाली फंडिग के साथ भी नत्थी है। चूंकि, सरकार पैसा देती है इसलिए संबंधित सरकार की वैचारिक मंशा के अनुरूप ढलने की चाहत भी चारों तरफ दिखाई देता है। और जो प्राइवेट संस्थान सरकार से पैसा नहीं लेते, उन पर नियमों का डंडा इतना कड़ा है कि वे सरकारों की सोच के विपरीत किसी विचार को स्वीकार करने की स्थिति में होते ही नहींहैं। वी-डेम की रिपोर्ट पर कोई भी अंतिम राय बनाने से पहले इसे एक बार पढ़े लेना भी कोई बुरी बात नहीं होगी।