सुशील उपाध्याय
यकीनन, मैं डरा हुआ हूं। हिंदी और राजनीति विज्ञान में 99 और 100 नंबर मिल रहे हैं। मुझे नहीं लगता कि इसके बाद इन बच्चों को कुछ पढ़ने की जरूरत है। इन बच्चों से ज्यादा बड़ा सवाल मूल्यांकन करने वालों पर है। नहीं, नहीं, मैं जला—भुना नहीं बैठा हूं, नाराज भी नहीं हूं। मैंने दसवीं में 55 प्रतिशत से शुरुआत करके एम.ए.(एम.सी.) में 75 प्रतिशत पर समापन किया है। ये पिछली पीढ़ी की बात है, आज के बच्चों से कोई मुकाबला नहीं है। तब 60 फीसद भी किसी चमत्कार से कम न थे
गणित में या विज्ञान में किसी को 100 नंबर मिलें, तो कुछ असंभव बात नहीं है, लेकिन समाजशास्त्र में, अर्थशास्त्र में, राजनीति विज्ञान में, हिंदी, अंग्रेजी में भी 100—100 नंबर मिल रहे हैं। साहित्य और मानविकी में 100—100 नंबर पाने वालों की कॉपियां तो संग्रहालय में रखी जानी चाहिए! इन्हें दुनियाभर में दिखाना चाहिए। इन बच्चों के मां, पिता और शिक्षकों का पद प्रक्षालन होना चाहिए।
वास्तव में, ये मूल्यांकन पद्धति ऐसी दिशा में इशारा कर रही है, जो स्वीकार्य नहीं है। इसके पीछे चाहे स्केलिंग मूल वजह हो, मूल्यांकन का इतना उदार पैमाना चिंताजनक है और डरावना भी। इसी पैमाने का इस्तेमाल यूपी में पिछले चार—पांच साल में जमकर हुआ है। इसका परिणाम था कि यूपी में 50—55 प्रतिशत वाले बच्चे 80—90 प्रतिशत के बीच पहुंच गए। और भी कई राज्य इसी राह पर चल पड़ें हैं।
वैज्ञानिक विषय प्राय: तथ्यों पर आधारित होते हैं इसलिए उनमें 100 अंक पाना आश्चर्य की बात नहीं है, लेकिन भाषाएं और सोशल साइंसेज ‘कथ्य’ पर आधारित होते हैं। कथ्य के मामले में कोई अंतिम सच नहीं होता, फिर 100 अंक कैसे संभव हैं ? यकीन मानिये, मैं अपने बच्चों से 100 अंक की अपेक्षा नहीं रख सकता। वे सम्मानजनक ढंग से पास होते रहे हैं। यह मेरे लिए वही राहत की बात है।
अब, जिनके बच्चों ने 99—100 प्रतिशत अंक पाए हैं, उन्हें बहुत बधाई। बच्चों को भी शाबाशी। पर, एक बार आत्ममंथन जरूर कर लें, न तो बच्चे नंबर पाने वाली मशीन हैं और न ही पढ़ाई का तंत्र अभी रोबोटों द्वारा संचालित है। कई साल से केंद्रीय विद्यालयों के हिंदी शिक्षकों के रिफ्रेशर कोर्स में लेक्चर देने जाता हूं, मुझे उन महान शिक्षा—मूर्तियों को याद करके आह्लाद हो रहा है कि वे हिंदी में 100 अंक पाने वाले बच्चे पैदा कर रहे हैं। आह! ओह! वाह! हा!
डॉ.सुशील उपाध्याय
(पांच साल पुरानी पोस्ट, लेकिन आज भी ज्यों की त्यों ताजी।)