शरणागत मीडिया के लिए क्या सरकार जिम्मेदार है!

रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स की प्रेस फ्रीडम रिपोर्ट सवालों से परे नहीं


डां सुशील उपाध्याय
यह सही है कि भारत में मीडिया को उतनी आजादी हासिल नहीं है, जितनी कि यूरोप, अमेरिका और अन्य विकसित देशों में है, लेकिन क्या मीडिया फ्रीडम के मामले में भारत इतनी खराब स्थिति में है कि उसका स्थान दुनिया के सबसे खराब रिकॉर्ड वाले देशों में शामिल कर लिया जाए ? इस सवाल का जवाब देने के लिए मीडिया एक्सपर्ट होने की जरूरत नहीं है, बल्कि कोई भी जागरूक नागरिक, चाहे वह सत्ताधारी पार्टी का समर्थक हो या न हो, आसानी से इसका जवाब दे सकता है। जवाब ये है कि इस रिपोर्ट को तैयार किए जाने और इसका प्रचार किए जाने के दौरान कई बातों की अनदेखी की गई है।
रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स (आरएसएफ) ने विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक के 21वें संस्करण में भारत को प्रेस की स्वतंत्रता के मामले में 180 देशों में 161 वें पायदान पर रखा है। यानी भारत दुनिया के सर्वाधिक खराब 10-12 फीसद देशों में शामिल है। इस रिपोर्ट के अनुसार, भारत दुनिया के उन देशों में शामिल है, जहां पत्रकारों के लिए काम करने की स्थिति ‘बहुत गंभीर’ है। इस संस्था ने जब से दुनिया में मीडिया की आजादी का मूल्यांकन शुरू किया है, अब तक की उन सभी 21 रिपोर्टों के दृष्टिगत भारत अपने सबसे बेहतरीन प्रदर्शन की तुलना में 30 स्थान नीचे आ गया है। इनमें से 11 स्थानों का झटका तो इसी साल लगा है।
इस रिपोर्ट के अनुसार, केवल पूरी दुनिया में ही नहीं, बल्कि दक्षिण एशिया में भी भारत सबसे खराब प्रदर्शन करने वालों में शामिल है। भारत की स्थिति लगभग बांग्लादेश जैसी बताई गई। इस रिपोर्ट की रोचक बात यह है कि पाकिस्तान की मीडिया को भारत से ज्यादा आजादी हासिल बताई गई है, जहां सेना के बारे में कुछ भी लिखने का मतलब है, अपनी नौकरी और जान दांव पर लगाना। इतना ही नहीं, इस रिपोर्ट में अफगानिस्तान भी भारत से नौ पायदान ऊपर है। तालिबान के राज में जहां कोई महिला पत्रकार काम नहीं कर सकती, टीवी पर महिला एंकर समाचार नहीं पढ़ सकती, किसी महिला को किसी पुरुष का इंटरव्यू लेने या बात करने का अधिकार नहीं है, जहां कोई सरकार नहीं है, बल्कि एक गिरोह सत्ता पर काबिज है, वो भी मीडिया को भारत से ज्यादा आजादी दे रहा है ? ऐसी रिपोर्ट पर कौन भरोसा करेगा! भूटान में कोई पत्रकार वहां की राजशाही के बारे में कुछ नहीं लिख सकता, लेकिन भूटान को 90 वां स्थान मिला है। ऐसी ही सुखद स्थिति अरब देशों की भी बताई गई है।
इसमें कोई संदेह नहीं है कि केंद्र में भाजपा के सत्ता में आने के बाद मुख्यधारा का मीडिया मोदीमय हो गया है, लेकिन ऐसा सरकार के दबाव के कारण ही हुआ हो, इसकी संभावना को 50 फीसद से ज्यादा नहीं माना जा सकता। मोदी के पक्ष में झुके ज्यादातर पत्रकार ऐसे हैं जो अपने आर्थिक, राजनीतिक हितों के कारण सत्ता के गुण गाते हैं और पूर्ववर्ती सत्ताओं के लिए भी गाते रहे हैं। उन्हें भविष्य में किसी पारितोषिक या मौजूदा समय में संरक्षण की जरूरत महसूस होती होगी इसलिए वे सत्ता के समर्थक हैं। और वे केवल आज के दौर में ही सत्ता के समर्थक नहीं हैं, बल्कि 2004 में जब सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री बनने से इनकार कर दिया था, तब वे सोनिया गांधी को भारत माता का अवतार साबित करने में लगे थे। इससे पहले इंदिरा गांधी को दुर्गा बताने वाले मीडियाकर्मी भी भारत में ही थे, कहीं बाहर से नहीं आए थे। आने वाले दिनों में यदि कोई और पार्टी सत्ता में आती है तो पत्रकारों का यह वर्ग उसी सत्ता के समर्थन में खड़ा हो जाएगा। तो क्या इसके लिए किसी भी पार्टी या सरकार को दोष दिया जा सकता है! जबकि, इसके लिए वे लोग दोषी माने जाने चाहिए जिन्हें मीडियाकर्मी के रूप में आजादी में नहीं, बल्कि सत्ता के संरक्षण में सुख महसूस होता है।
खेद की बात यह है कि आरएसएफ की रिपोर्ट मीडिया में मौजूद लोगों की उपरोक्त प्रवृत्ति या व्यवहारगत खामी को अपने सूचकांक निर्धारण का हिस्सा नहीं बनाती। इसलिए भारत के विदेश मंत्री इस सूचकांक को उन संस्थाओं का माइंड गेम बताते हैं जो भारत को नीचे रखने में दिलचस्पी लेती हैं। विदेश मंत्री का यह बयान इसलिए तर्कसम्मत लगने लगता है कि भारत को जिन अंतिम 20 देशों के साथ रखा गया है, उनमें से ज्यादातर दुनिया की बदतरीन जगहें हैं। आरएसएफ के अनुसार, इस सूचकांक को किसी भी देश द्वारा पांच श्रेणियों में प्रदर्शन के आधार पर निर्धारित किया गया है, जैसे कि राजनीतिक व्यवस्था, आर्थिक हालात, कानूनी ढांचा, सामाजिक-सांस्कृतिक मानक और पत्रकारों की सुरक्षा। भारत की रैंकिंग पर सवाल उठने के बाद आरएसएफ ने एक बयान में कहा, ‘पत्रकारों के खिलाफ हिंसा, राजनीतिक रूप से पक्षपातपूर्ण मीडिया और मीडिया स्वामित्व के केंद्रीकरण के कारण दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में प्रेस की स्वतंत्रता संकट में है।‘
इनमें से कुछ बातें सही हो सकती हैं, लेकिन कुछ बातों पर गंभीरता से सोचने की जरूरत है। पहली बात, भारत में अफगानिस्तान की तरह राजनीतिक अस्थिरता नहीं है। दूसरी बात, पाकिस्तान की तरह राजनीतिक-आर्थिक संकट नहीं है। तीसरी बात, भारत का संविधान और सुप्रीम कोर्ट, दोनों अपनी प्रतिष्ठा के साथ मौजूद हैं इसलिए कोई संवैधानिक एवं विधायी संकट नहीं है। चौथी बात, भारत में सामाजिक स्तर पर वैसा कोई विघटन नहीं है जैसा कि इजराइल में अरब-यहूदी के बीच, यमन एवं इराक में शिया-सुन्नी के बीच, श्रीलंका में सिंहली-तमिल के बीच, पाकिस्तान, बांग्लादेश में मुसलमानों-हिंदुओं के बीच और म्यांमार में बौद्धों-रोहिंग्या के बीच बना हुआ है। हां, पत्रकारों की सुरक्षा का मामला ध्यान दिए जाने वाला बिंदु है। लेकिन, इसके लिए केवल भाजपा सरकार को ही जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है। इसके लिए वे पार्टियां भी जिम्मेदार हैं जो देश के दो तिहाई राज्यों में सत्ता संभाल रही हैं या फिर सत्ता में हिस्सेदार हैं। कुछ लोग इस विमर्श का अर्थ सरकार के पक्ष में तर्क गढ़ने के रूप में ले सकते हैं, लेकिन ये मामला किसी सरकार से जुड़ा हुआ नहीं है, यह देश की प्रतिष्ठा से जुड़ा मामला है।
इस रिपोर्ट में सुरक्षा संकेतक श्रेणी में भारत को 172वीं रैंक पर रखा गया है। आरएसएफ के अनुसार, कानूनी रूप से सत्ता में बैठे लोगों द्वारा भी पत्रकारों को कई तरह से परेशान किया जाता है, जिसमें राजद्रोह और आपराधिक मानहानि के आरोप शामिल हैं। रिपोर्ट में कहा गया है, ‘भारतीय कानून सैद्धांतिक रूप से सुरक्षात्मक हैं, लेकिन सरकार की आलोचना करने वाले पत्रकारों के खिलाफ मानहानि, राजद्रोह, अदालत की अवमानना और राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरे में डालने के आरोप बढ़ रहे हैं। उन पर ‘राष्ट्र-विरोधी’ होने का ठप्पा लगाया जाता है।’ इस रिपोर्ट के अनुसार, भारत पत्रकारों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के मानक पर चीन, मेक्सिको, ईरान, सीरिया, यमन, यूक्रेन और म्यांमार के अलावा दुनिया में सबसे खराब है। इसका अर्थ यह है कि गृहयुद्धों का शिकार अफ्रीकी देश, किसी भी तरह के लोकतांत्रिक मूल्यों में यकीन न रखने वाले अरब देश और सोवियत ब्लाॅक के पुराने घटक रहे मध्य एशियाई देश भारत से ज्यादा बेहतर हैं। यहां तक कि सूडान, सोमालिया भी सुखद स्थितियों वाले देश हैं।
इन सब बातों को देखें तो साफ लगेगा कि भारत के बारे में यह रिपोर्ट पूरी तरह विश्वास करने योग्य नहीं है। जहां तक सत्ता के विरोध में खडे़ पत्रकारों और मीडिया संस्थानों की बात है तो इस क्रम में किसी का नाम लिए बिना उन लोगों को पहचाना जा सकता है जो सत्ता के विरोध में लगातार अपनी बात कहते हैं और लिखते हैं। ऐसे पत्रकार केवल केंद्र सरकार के विरोध में ही नहीं, बल्कि वे बंगाल, पंजाब, केरल, तमिलनाड़ू की राज्य सरकारों के खिलाफ भी लगातार लिखते हैं। ये बात अलग है कि इन पत्रकारों ने खुद ही दो श्रेणियां बनाई हुई हैं-एक वे हैं जो केंद्र सरकार के समर्थक हैं और दूसरे वे हैं जो सरकार के संरक्षण में हैं। सरकार के संरक्षण वाले पत्रकार विपक्षी पार्टियों द्वारा शासित राज्यों व उनकी सरकारों के बारे में काफी कुछ लिखते और बोलते हैं। इसी प्रकार विरोधी पत्रकार विभिन्न माध्यमों पर केंद्र के खिलाफ अभियान छेड़े रहते हैं। (इस दौर में तटस्थता और निष्पक्षता की बात तो बेमानी ही होगी। सबसे तटस्थ पत्रकार भी किसी न किसी पार्टी की बैठक, पदयात्रा और नीति निर्धारण में शामिल दिख जाता है!)
सुरक्षा के मामले में आरएसएफ का जोर इस बात पर है कि ‘पत्रकारिता के प्रोफेशनल तरीकों और नैतिकता के अनुसार समाचारों-सूचनाओं की पहचान करके, उन्हें इकट्ठा करने और प्रसारित करने की आजादी होनी चाहिए। इन दायित्वों का निर्वहन किसी भी प्रकार के शारीरिक, मनोवैज्ञानिक या पेशेवर नुकसान के जोखिम के बिना हो, यह सरकार की जिम्मेदारी है। उदाहरण के लिए किसी की नौकरी खत्म किए जाने, पेशेवर उपकरणों की जब्ती या मीडिया प्रतिष्ठानों में तोड़फोड़ जैसा कुछ नहीं होना चाहिए।’ इन सैद्धांतिक बातों पर शायद ही किसी का विरोध हो। लेकिन, सवाल यह है कि क्या भारत में सत्ता प्रतिष्ठानों, चाहे वे केंद्र सरकार के हों या राज्य सरकारों के हों, उनके द्वारा पत्रकारों पर सांस्थानिक तौर पर नियंत्रण की कोशिश की जा रही है ? इस सवाल का जवाब आरएसएफ जैसी संस्था द्वारा नहीं दिया जा सकता है। क्योंकि इसकी रिपोर्ट में समग्र दृष्टि का अभाव है।
हालांकि, पक्ष-विपक्ष के अनेक तर्काें के बीच इस रिपोर्ट का एक बिंदु काफी महत्वपूर्ण है। वो है, मीडिया के भीतर केंद्रीकरण की प्रवृत्ति। इस वक्त पूरे देश में गिनी-चुनी मीडिया कंपनियां हैं जो देश के मुख्यधारा के मीडिया को नियंत्रित करती हैं। ये स्थिति वैसी है जैसे कि टेलीकॉम सेक्टर में दिखती है। वहां सरकारी, गैरसरकारी सभी मिलाकर चार-पांच कंपनियां रह गई हैं। यही हाल मीडिया का होता दिख रहा है। टाइम्स समूह, एचटी मीडिया लिमिटेड, द हिंदू समूह और नेटवर्क 18 आदि के स्वामित्व और आकार में लगातार बढ़ोत्तरी हुई है। सर्वाधिक प्रसार वाले अखबारों और पत्रिकाओं की सूची देखने पर ये पता चलता है कि विविधता घट रही है और स्वामित्व कुछ खास कंपनियों के पास जा रहा है। इसमें चिंता की बात यह है कि ये मीडिया घराने अन्य कई प्रकार के धंधों में भी लगे हैं इसलिए वे ढके-छिपे तौर पर सरकार के साथ सहमति बनाकर चलते हैं। ऐसे में उनका प्राथमिक हित अपने पाठक या दर्शक को समाचार और सूचनाएं देने की बजाय ऐसे समाचार और सूचनाएं देने पर ज्यादा होता है जो कि उनके बिजनेस माॅडल को बढ़ावा देता हो, सहयोग करता हो।
यह स्थिति सरकार को भी भाती है। उसे कोई अतिरिक्त प्रयास किए बिना ही मीडिया के भीतर समर्थक हासिल हो रहे हैं। अब क्या मीडिया के बहुलवाद के इस खात्मे के लिए सीधे तौर पर सरकार या सरकारों को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है ? दुनिया के किसी भी हिस्से की सरकारें हो और वे किसी भी पद्धति से चुनी गई हों, उनका जोर सदैव मीडिया को अपने पक्ष में करने पर रहता है। कौन सरकार ऐसी होगी जो मीडिया को अपने खिलाफ मुहिम छेड़ने के लिए माहौल और सुविधाएं उपलब्ध कराएगी ? और कौन सरकार ऐसी होगी जो स्वतः शरणागत हो रहे मीडिया को लात मारेगी। सारतः यह कहा जा सकता है कि रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स की रिपोर्ट भारतीय मीडिया की पूरी तस्वीर प्रस्तुत नहीं करती। यहां केवल सरकार/सरकारों का नहीं, बल्कि मीडिया का चरित्र भी उसे शरणागत बना रहा है। भारत भले ही मीडिया के लिए स्वर्ग न हो, लेकिन वैसा नर्क भी नहीं है जैसा दुनिया के युद्धग्रस्त, एथेनिक तौर बंटे हुए, धार्मिक कारणों से विभाजित और राजनीतिक प्रणाली की वजह से बंद देशों में है। इस रिपोर्ट में जो अच्छे संकेतक हैं, उन्हें स्वीकार किया जाना चाहिए और जो महज अनुमान और धारणाओं पर केंद्रित हैं, उन्हें अस्वीकार किया ही जाना चाहिए।

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