डा सुशील उपाध्याय
किसी भी व्यक्ति, समुदाय और क्षेत्र की पहचान उसकी शैक्षिक, बौद्धिक और सामाजिक प्रगति के आधार पर होती है। इसमें आर्थिक प्रगति भी एक पहलू है, लेकिन उसे शैक्षिक, सामाजिक और सांस्कृतिक पहलुओं पर सर्वोच्चता नहीं दी जा सकती।
प्रगति के इन पहलुओं पर उत्तर भारत और दक्षिण भारत के राज्यों की तुलना करें तो उत्तर के राज्य कई स्तरों पिछड़े हुए दिखते हैं। उत्तर में देश का मालिक होने की अहमन्यता हर तरफ दिखाई देती है। दक्षिणी राज्यों ने अपने यहां शिक्षा, स्वास्थ्य और सामाजिक परियोजनाओं में खर्च करके उत्तर को लगातार पीछे छोड़ा है।
इस तस्वीर को ठीक से समझने के लिए गरीबी और शिक्षा के पैमाने पर केरल और उत्तर प्रदेश की तुलना करके देख सकते हैं।
हाल के दिनों में केरल की चर्चा ‘द केरला स्टोरी’ फिल्म को लेकर हो रही है। इस चर्चा के दौरान वहां के समाज और राजनीतिक-सामाजिक व्यवस्था को इस तरह से चित्रित-रेखांकित किया जा रहा है, जैसे वहां सांस्थानिक तौर पर एक समुदाय द्वारा दूसरे समुदाय की लड़कियों को अगवा करके उनका धर्मांतरण किया जाए जा रहा है।
इस मुद्दे पर पूरा देश उद्वेलित दिखता है, लेकिन इस सबके बीच उन जरूरी चीजों को अक्सर अनदेखा कर दिया जाता है जिनसे हम प्रेरित हो सकते हैं, उन्हें सामने रखकर एक स्वस्थ प्रतिस्पर्धा का विकास कर सकते हैं और समावेशी प्रगति में अपने स्थान का निर्धारण कर सकते हैं। वो चीजे क्या हैं ? वो हैं शिक्षा और स्वास्थ्य।
बीते दिन सीबीएसई ने 10वीं और 12वीं का रिजल्ट घोषित किया तो उत्तर और दक्षिण के बीच का शैक्षिक-बौद्धिक अंतर ज्यादा साफ दिखने लगा। दक्षिण भारत के राज्यों में छात्रों ने जो सफलता अर्जित की, उत्तर भारत उनकी तुलना में बहुत पीछे है।
इसमें भी यदि केरल और यूपी की तुलना करें तो यह अंतर और भी बड़ा दिखाई देता है। सीबीएसई के सभी रीजन में त्रिवेंद्रम रीजन ने लगभग शत-प्रतिशत सफलता प्राप्त की है, जबकि उत्तर प्रदेश के हृदय स्थल प्रयागराज की सफलता केवल 78 फीसद है। यह प्रतिशत किसी खास छात्र का नहीं, बल्कि एक पूरे क्षेत्र की शैक्षिक गुणवत्ता का प्रमाण। दिल्ली, चंडीगढ़ को अपवाद मान लें तो यह आंकड़ा साफ-साफ बताता है कि उत्तर के राज्य केरल के आसपास कहीं नहीं ठहरते।
राजनीतिक मामलों में उत्तर भारत के लोग एक खास तरह के श्रेष्ठताबोध का शिकार रहते हैं और वे श्रेष्ठताबोध से उपजे इसी अहंकार के चलते दक्षिणी राज्यों, उनमें भी खासतौर से केरल को हमेशा नकारात्मक ढंग से चुनौती देते दिखते हैं। यह सच है कि उनकी चुनौती राजनीतिक बयानबाजी से परे जाकर सामाजिक और शैक्षिक प्रगति के आयामों पर कहीं नहीं दिखती, नहीं टिकती। बीते पांच साल में केवल ने अपने प्राइमरी और उच्च प्राइमरी स्कूलों का कायाकल्प कर दिया है। बुनियादी स्तर पर किए गए इस खर्च के परिणाम सेकेंडरी और सीनियर सेकेंडरी स्तर पर दिखाई देते हैं। केरल संभवतः देश का अकेला ऐसा राज्य है, जहां आठवीं से 12वीं तक की सभी कक्षाओं में आईसीटी टूल्स के माध्यम से पढ़ाई हो रही है। स्कूली पढ़ाई को तकनीक से जोड़ने की योजना का क्रियान्वयन भी अनुकरणीय उदाहरण है। इस बाबत सरकार ने करीब 800 करोड़ की योजना बनाई और सरकारी मशीनरी ने इस काम को करीब 600 करोड़ में करके दिखाई दिया। उससे भी बड़ी बात यह कि इस मुहिम में प्रदेश के सक्षम लोगों ने सरकार को 1300 करोड़ से अधिक की मदद कर डाली। ये सब शिक्षा की गुणवत्ता को लेकर हुआ। उत्तर भारत में सरकार, सरकारी तंत्र और आम लोगों की सहभागिता की कोई सफल योजना कहीं दिखाई देती है ? ऐसी सफलता दिल्ली में आम आदमी पार्टी के बहुचर्चित स्कूल प्रोग्राम में भी नहीं दिखती। केरल की सफलताओं का श्रेय किसी खास पार्टी को नहीं दिया जा सकता, वहां जो भी सत्ता में रहा उसने लोगों को आगे लाने का काम बेहतर ढंग से किया जो उत्तर भारत में नजर नहीं आता। उत्तर भारत के राज्यों में केवल लॉलीपॉप दिखते हैं, वह चाहे यूपी हो, राजस्थान, हरियाणा उत्तराखंड हो। सब जगह तदर्थवाद हावी है।
केवल शिक्षा ही नहीं बल्कि केरल में स्वास्थ्य सुविधाएं और सामाजिक योजनाओं को लागू करने का रिकॉर्ड भी उत्तर भारत की तुलना में बहुत बेहतर है। हाल के दिनों में सोशल मीडिया पर भारत का एक नक्शा शेयर किया जा रहा है जिसमें अलग-अलग रंगों से देश के बेहद गरीब तथा आर्थिक-सामाजिक स्तर पर समृद्ध राज्यों को दिखाया गया है। इस नक्शे में उत्तर प्रदेश, बिहार, छत्तीसगढ़ और झारखंड (देश का बीमारू इलाका) की स्थिति दयनीय है। वस्तुतः आर्थिक समानता और गरीबी-रेखा के पैमाने पर भी देखें तो उत्तर प्रदेश-बिहार और केरल में जमीन-आसमान का अंतर दिखाई देता है। बिहार में हर दूसरा, उत्तर प्रदेश में हर तीसरा व्यक्ति गरीबी रेखा से नीचे जीवन जी रहा है, जबकि केवल में सौ में एक व्यक्ति इस दायरे में है। दक्षिण के अन्य राज्यों में भी गरीबी का प्रतिशत उत्तर की तुलना बहुत कम है। और केवल दक्षिण ही नहीं, वरन उत्तर के राज्य पश्चिम और पूर्वोत्तर से भी पिछड़े हुए हैं।
हम जैसे बहुत सारे लोग ये कल्पना करते हैं कि काश कोई दिन ऐसा आए जब उत्तर और दक्षिण के राज्यों के बीच विभिन्न सामाजिक सूचकांकों, महिला बराबरी, शिक्षा एवं स्वास्थ्य सुविधाओं को लेकर कड़ा मुकाबला हो और इस मुकाबले में उत्तर के राज्य दक्षिण को पीछे छोड़ दें। यकीनन, एक राष्ट्र के लिए इससे बड़ी कोई सामूहिक उपलब्धि नहीं होगी। लेकिन, इस उम्मीद की राह में एक बड़ा रोड़ा मौजूद है। वह है, उत्तर भारत का मानस, जिसे हिंदी पट्टी का मानस भी कह सकते हैं, उसमें बहुत गहरे तक यह बात बैठी हुई है कि उत्तर ही देश का असली मालिक हैं, वह जिस भाषा को बोलता है, जिस तरह से व्यवहार करता है, राजनीतिक तौर पर जिस प्रकार से सोचता है और नीतियों-योजनाओं को जिस तरह से लागू करता है, वही तरीका अंतिम और श्रेष्ठ है। उत्तर भारत की यह सोच उसे और पिछड़ा बनाती है।
इसी सोच के कारण उत्तर भारतीय राज्यों के मुख्यमंत्रियों, मंत्रियों और नीति-निर्धारकों को दक्षिण से सबक लेने या वहां की बेहतरीन योजनाओं को अपने यहां लागू करने में संकोच का एहसास होता है। सीबीएसई के त्रिवेंद्रम रीजन का 100 प्रतिशत रिजल्ट और प्रयागराज रीजन का 78 प्रतिशत रिजल्ट यह बताने के लिए काफी है कि अभी उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों को कितनी लंबी यात्रा करनी है। यह रिजल्ट के प्रतिशत की बात नहीं है, गुणवत्ता के प्रदर्शन और गुणवत्ता के सतत प्रदर्शन से जुड़ी हुई बात है। शैक्षिक पैमाने पर केवल उत्तर प्रदेश ही दयनीय स्थिति में नहीं है, बल्कि उत्तराखंड का भी ऐसा ही हाल है। उत्तराखंड में सरकार ने बड़े जोर-शोर से अटल उत्कृष्ट विद्यालयों की स्थापना की थी। इन विद्यालयों में उत्तराखंड बोर्ड की बजाए सीबीएसई बोर्ड की पढ़ाई होती है। अब इनका जो रिजल्ट आया है, वह चिंताजनक ही नहीं बल्कि डरावना है क्योंकि सीबीएसई की रिजल्ट श्रेणियों के हिसाब से यह सबसे निचले पायदान का रिजल्ट है। यकीनन, एक दिन में कुछ नहीं बदलेगा, लेकिन स्थानीय परिस्थितियों के हिसाब से योजनाएं बनें, उन्हें लागू करने में ईमानदारी और हर किसी की जिम्मेदारी सुनिश्चित हो, तब शायद कोई ऐसा दिन आए कि सीबीएसई का प्रयागराज और देहरादून रीजन चेन्नई, त्रिवेंद्रम और बैंगलुरू के आसपास हो या उन्हें पीछे छोड़ दे।