डा सुशील उपाध्याय।
एक अनजान नंबर से कॉल आती है। सामने से एक महिला स्वर उभरता है-सर आप शोध पत्र छपवाना चाहते हैं ? एक सप्ताह में छपवा देंगे। आपके पास तैयार न हो तो हमें टॉपिक बता दीजिए। तैयार भी करा देंगे।
हमारे पास सभी विषयों में सुविधा है। जिस में छपवाना चाहते हैं, पीयर रिव्यूड, यूजीसी केयर लिस्टेड, स्कोपस या वेब ऑफ साइंस, सभी में छप जाएगा। और हां, हम सबसे सस्ती दरों पर ये सर्विस उपलब्ध करा रहे हैं। पेपर तैयार करने के लिए पांच हजार लगेंगे।
भाषा, मानविकी, सामाजिक विज्ञानों में यूजीसी केयर लिस्टेड में पांच हजार की फीस लगेगी। जबकि स्कोपस और वेब ऑफ साइंस में आठ हजार लगेंगे। यदि आप करंट इश्यू की बजाय बैक डेट में छपवाना चाहें तो वो भी हो जाएगा। 2009 तक के जर्नलों में छपवा देंगे। आप चाहें तो कुछ रिसर्च जर्नल के नाम भेज देती हूं, इनमें से जिसमें भी कहेंगे, उसमें छप जाएगे। पैसा एडवांस भेजना होगा।इतना व्यापक और गहरा ब्यौरा सुनने के बाद अपने पेशे के प्रति ईमानदार कोई भी शिक्षक और शोधार्थी सदमे का शिकार हो जाएगा। लेकिन, ये आज की स्याह सच्चाई है।
कुछ देर के लिए सांइस के शोध की बात छोड़ दीजिए। भाषा, मानविकी और सामाजिक विज्ञानों के किसी शोधपत्र को तैयार करने में भी महीनों का वक्त लग जाता है। अपेक्षाकृत आसान माने जाने वाले विषयों में भी यदि कोई प्रोफेसर या शोधार्थी साल भर में दो-तीन शोधपत्र लिख और छपवा सके तो यह किसी उपलब्धि से कम नहीं है। जबकि शोध की दुनिया के फ्रॉड को संचालित करने वाले एक सप्ताह में इस काम को निपटाकर रिजल्ट हाथ में थमा देते हैं। इस काम के विज्ञापनों और सूचनाओं से सोशल मीडिया अटा हुआ है। आप इस बारे में एक बार गूगल या किसी अन्य सर्च इंजन पर कुछ तलाश करके देखिए फिर आपके पास सोशल मीडिया माध्यमों के जरिये ऐसी सूचनाओं की बौछार हो जाएगी।
अब इस समस्या के मूल को देखिए। इसका मूल यूजीसी केयर लिस्टेड के निर्धारण की आधी-अधूरी प्रक्रिया में छिपा हुआ है। यूजीसी लिस्टेड और यूजीसी केयर (कंसोर्टियम फाॅर एकेडमिक एंड रिसर्च एथिक्स) लिस्टेड को लेकर यूजीसी कई तरह के प्रयोग करती रही है। उच्च शिक्षा में चयन संबंधी योग्यता के निर्धारण के लिए यूजीसी रेगुलेशन 2018 में शोध पत्रों की संख्या को काफी महत्ता दी गई है। मेरिट के निर्धारण में प्रत्येक शोधपत्र दो अंक का लाभ देता है। इस रेगुलेशन में कहा गया है कि संबंधित शोध पत्र या तो पीयर रिव्यूड जर्नल में छपा हो या फिर यूजीसी केयर लिस्टेड में प्रकाशित हुआ हो। लेकिन, इसके बाद जून, 2019 में यूजीसी ने एक पत्र जारी किया कि नियुक्ति की मेरिट, प्रमोशन एवं अन्य अकादमिक लाभ पाने के लिए वे ही शोध पत्र स्वीकार किए जाएंगे जो यूजीसी केयर लिस्टेड जर्नलों में प्रकाशित हुए हों। यानी पीयर रिव्यूड जर्नलों में प्रकाशित शोध पत्रों की कोई उपयोगिता नहीं रही। (वैसे, ज्यादातर राज्यों में अभी पीयर रिव्यूड और केयर लिस्टेड की गफलत के चलते लोगों की नियुक्ति एवं प्रमोशन आदि में दोनों प्रकार के शोध पत्रों को स्वीकार किया जा रहा है। यूजीसी के आदेशों की राह में बड़ी समस्या ये है कि राज्य विश्विद्यालयों और उच्च शिक्षण संस्थाओं पर यूजीसी का कोई आदेश सीधे लागू नहीं होता। ये तभी लागू होता है जब संबंधित राज्य सरकार इसे अडॉप्ट कर ले। चूंकि ज्यादातर राज्य सरकारों ने रेगुलेशन 2018 के बाद के संशोधन और निर्देश स्वीकार नहीं किए हैं इसलिए सब तरह का गोलमाल चल रहा है।)
यहां एक और बात ध्यान रखने वाली है कि यूजीसी की केयर लिस्ट एक डायनेमिक प्रोसेस है। हर तीन महीने में नए जर्नल जुड़ते जाते हैं और कुछ बाहर हो जाते हैं। अब सवाल ये है कि जो जर्नल इस सूची से बाहर हुए, उनमें प्रकाशित शोध पत्र मान्य होंगे या नहीं ? कुछ विश्वविद्यालय केयर सूची से निकाले गए रिसर्च जर्नलों के शोधपत्रों को स्वीकार नहीं करते और कुछ सभी तरह के शोधपत्रों को स्वीकार कर रहे हैं। इसमें भी यूजीसी के आदेश की अस्पष्टता ही परेशानी की वजह है। यदि सामान्य तर्क की दृष्टि से देखें तो जिस वक्त शोधपत्र प्रकाशित हुआ, उस वक्त संबंधित जर्नल केयर लिस्ट में था। बाद में उसे सूची से हटाया गया तो इस आधार पर उस वक्त के शोध पत्र को अमान्य नहीं किया जाना चाहिए क्योंकि आज हटाए गए जर्नल को आने वाले दिनों में संबंधित मानकों का पालन किए जाने पर पुनः इसी सूची में शामिल किया जा सकता है। जब तक इस मामले में यूजीसी स्थिति स्पष्ट नहीं करेगी, यह भ्रम बना रहेगा।
जो संस्थाएं इस बात पर अड़ी हैं कि नियुक्ति या प्रमोशन का आवेदन किए जाने के वक्त जो जर्नल केयर लिस्ट में हैं, उन्हीं में प्रकाशित शोध पत्रों को मान्य किया जाएगा तो उनके मामले में केवल एक ही रास्ता बचता है कि रिसर्च की ठगी के धंधे में शामिल लोगों की मदद ली जाए। वजह, वे ही ऐसा चमत्कार या कारनामा कर सकते हैं कि एक सप्ताह या एक महीने के भीतर जितने चाहिए, उतने शोध पत्र प्रकाशित कराकर दे सकते हैं। यूजीसी के प्रावधानों के अनुसार प्रोफेसर बनने के लिए न्यूनतम दस और एसोसिएट प्रोफेयर के लिए सात शोधपत्रों की जरूरत होती है। जबकि, असिस्टेंट प्रोफेसर के चयन में अधिकतम पांच शोधपत्रों के आधार पर अकादमिक मेरिट में दस अंक मिलते हैं।
तो क्या यह मान लें कि यूजीसी केयर लिस्टेड की मौजूदा व्यवस्था के कारण ही शोध से जुड़े इस फ्राॅड को बढ़ावा मिल रहा है ? इस सवाल का हां या ना में सीधा जवाब नहीं दिया जा सकता, लेकिन इस स्थिति के लिए किसी न किसी स्तर पर मौजूदा व्यवस्था दोषी जरूर है। कटु सत्य यह है कि यदि आप 50 हजार रुपये खर्च करने को तैयार हों तो अपने आठ-दस शोध पत्र तत्काल केयर लिस्टेड में छपवा सकते हैं, चाहे उनकी गुणवत्ता कुछ भी हो। और यदि एक लाख खर्च कर सकते हैं तो फिर शोध पत्र लिखने की जरूरत भी नहीं है। सब माल रेडीमेड मिल जाएगा। ये स्थिति बेहद चिंताजनक और डरावनी है। इसका तत्काल समाधान न हुआ तो आने वाले दिनों में और विकट स्थितियां पैदा होंगी।
रिसर्च की दुनिया में होने वाले फ्रॉड के बहुफलकीय होने का अनुमान इस बात से भी लगा सकते हैं कि कुछ लोगों ने अच्छे और प्रतिष्ठित रिसर्च जर्नलों के क्लोन जर्नल बनाकर उसमें शोधपत्र छापकर शिक्षकों और शोधार्थियों (बल्कि, ग्राहकों कहना ठीक रहेगा!) को पकड़ा दिए हैं। यूजीसी केयर लिस्ट की वेबसाइट पर ऐसे क्लोन जर्नलों की सूची भी जारी की गई है। गौरतलब है कि देशी-विदेशी रिसर्च जर्नलों को दो सूचियों में बांटा गया है। पहली सूची में भारत से प्रकाशित होने वाले करीब 1300 जर्नल शामिल हैं। दूसरी सूची में उन्हें रखा गया है जो पहले से ही वेब ऑफ साइंस, स्कोपस या वर्ल्ड रिसर्च डाटा बेस में सूचीबद्ध हैं। यह सूची काफी लंबी-चौड़ी है। इसमें दुनिया के प्रायः सभी प्रमुख और प्रतिष्ठित जर्नलों के नाम मिल जाएंगे। पहली सूची के 44 ऐसे जर्नलों को चिह्नित किया गया हैं, जिनके क्लोन जर्नल मौजूद हैं। जबकि दूसरी सूची के 55 क्लोन जर्नल अभी तक सामने आ चुके हैं। ये संख्या और भी बड़ी हो सकती है।
यूजीसी ने केयर लिस्टेड की मुहिम को यह कहकर शुरू किया था कि इससे रिसर्च की गुणवत्ता बढ़ेगी, लेकिन यहां कुछ दूसरा ही खेल चल रहा है। जबकि, ऐसा नहीं कि इसका समाधान संभव न हो। यह समाधान तभी संभव होगा, जब केयर लिस्ट को संभालने वाला, देश की प्रतिष्ठित 31 शैक्षिक, अकादमिक एवं शोध संस्थाओं का, कंसोर्टियम इसे लेकर गंभीर हो जाए। सबसे पहला काम तो यह किया जाना चाहिए कि यूजीसी केयर लिस्टेड जर्नलों के अब तक के सभी अंक उसी प्रकार शोधगंगा पर अपलोड किए जाने चाहिए जिस प्रकार थीसिस की जा रही हैं। इससे बैक डेट के अंकों में शोध पत्र प्रकाशित करने का सिलसिला तुरंत रुक जाएगा। यूं तो यूजीसी ने निर्देश दिया हुआ कि जर्नल के प्रकाशन के तुरंत बाद इसके कवर पेज और इंडेक्स को अपनी वेबसाइट पर अपलोड करना होगा। लेकिन, ज्यादातर मामलों में ऐसा होता नहीं है और न ही इसकी मॉनिटरिंग हो रही है।
दूसरा काम यह किया जाना चाहिए कि किसी भी जर्नल के प्रकाशन की तिथि के एक सप्ताह के भीतर उसे शोधगांगा या यूजीसी के नियंत्रण वाले ऐसे ही किसी अन्य पोर्टल पर अपलोड किया जाना अनिवार्य होगा ताकि निर्धारित तिथि के महीनों बाद जर्नल प्रकाशित करके पैसे के बदले शोधपत्रों छापने पर रोक लग सके। इसके साथ सभी शिक्षकों एवं शोधार्थियों के लिए यह अनिवार्य किया जाना चाहिए कि वे जिस संस्था में कार्य कर रहे हैं, उस संस्था या विभाग की वेबसाइट पर भी उनके शोधपत्रों को डाला जाए। इससे पता चल जाएगा कि शोध पत्र नियमित रूप से लिखे गए हैं या वे एक ही बार में ठेका देकर लिखवा लिए गए हैं।
चूंकि, कुछ मामलों में ये शोध पत्र अकादमिक डिग्री जैसे उपयोगिता रखते हैं इसलिए संबंधित जर्नलों के प्रकाशन का दायित्व मुख्यतः विश्वविद्यालयों, अकादमियों, सरकारी शोध संस्थानों और निजी क्षेत्र के प्रतिष्ठित प्रकाशनों एवं शैक्षिक-अकादमिक संघों या संगठनों को ही दिया जाना चाहिए। मौजूदा व्यवस्था में कोई भी व्यक्ति आरएनआई में पंजीकरण के बाद आईएसएसएन नंबर ले लेता है और फिर विश्वविद्यालय के आंतरिक गुणवत्ता सुनिश्चयन प्रकोष्ठ (आईक्यूएसी) से अनुशंसित कराकर केयर लिस्ट में आ जाता है। इसके बाद ज्यादातर मामलों में धंधा शुरू हो जाता। कुछ प्रतिष्ठित जर्नल ही इस धंधेबाजी से बच पाए हैं।
इस समय देश में विश्वविद्यालयों, शोध संस्थानों एवं आकदमियों की कुल संख्या 1200 से अधिक है। इनमें डिग्री काॅलेजों और राज्य स्तर की शोध संस्थाओं एवं आकदमियों को जोड़ लें तो ये आंकडा 50 हजार के पार पहुंच जाएगा। इनमे 10 हजार से ज्यादा संथाएं पोस्ट ग्रेजुएट और रिसर्च लेवल की हैं। यदि उच्च शिक्षा एवं शोध के स्तर की ये संस्थाएं अपना रिसर्च जर्नल प्रकाशित कराकर केयर लिस्टेड नहीं करा सकती तो फिर इन पर सवाल खड़े किए ही जाने चाहिए। जैसे ही रिसर्च जर्नलों का प्रकाशन निजी लोगों के हाथ से निकलकर प्रतिष्ठित संस्थानों और संगठनों के हाथ में आएगा तो इसमें बेहतरी आएगी ही। यहां एक और बात ध्यान देने वाली है कि यूजीसी ने शोध पत्रों की गुणवत्ता और चोरी से दूर रहने का काम संबंधित शोध पत्र लेखकों, शोधकर्ताओं और जर्नल के संपादकों एवं प्रकाशकों को ही दिया हुआ है। यूजीसी के 20 अप्रैल, 2020 के एक पत्र में साफ किया गया है कि केवल दूसरे के शोध कार्य की ही नहीं, बल्कि अपने पहले किए हुए काम की नकल से भी बचना है। इसे सेल्फ-प्लेगेरिज्म की श्रेणी में रखा गया है। इसका अर्थ यह है कि यदि कोई व्यक्ति अपनी थीसिस, रिसर्च प्रोजेक्ट आदि के काम को समुचित उल्लेख के बिना दोबारा शोधपत्रों के रूप में छपवाता है तो यह बौद्धिक चोरी की श्रेणी में आएगा। अब आप अनुमान लगा लीजिए कि जब शोध पत्र ही ठेके पर लिखे और छपवाए जा रहे हैं तो बौद्धिक-साहित्यिक चोरी की किसे फिक्र होगी!
इस समस्या का एक समाधान यह हो सकता कि प्रोफेसर एवं एसोसिएट प्रोफेसर आदि पदों पर चयन एवं प्रमोशन के लिए शोध पत्र की अनिवार्यता को वैकल्पिक बनाया जाए और इसके विकल्प के तौर पर अपने विषय में लिखी गई मौलिक किताबों को प्राथमिकता दी जाए। ये किताबें कितनी भी कमजोर गुणवत्ता वाली हों, लेकिन शोधपत्रों की तुलना में इनके लेखन में अधिक मेहनत करनी होगी और ठेके पर लिखवाने का काम भी आसानी से नहीं हो सकेगा। (हालांकि, किताबें और उनमें शामिल होने वाले चैप्टर भी ठेके पर लिखवाए जाते रहे हैं। अब तो यह काम और भी बड़े पैमाने पर हो रहा है।) वैसे भी यूजीसी ने अपने नए पीएचडी रेगुलेशन में शोधार्थियों द्वारा शोध पत्र प्रकाशित कराए जाने की अनिवार्यता को समाप्त कर दिया है। साथ ही, कैरियर एडवांस स्कीम के तहत एसोसिएट प्रोफेसर और प्रोफेसर पद पर प्रमोशन पाने वालों के लिए रिसर्च गाइड करने की अनिवार्यता को भी शिथिल किया है। इसी प्रकार केयर लिस्टेड जर्नलों में शोध पत्रों प्रकाशन के लिए भी विकल्प सोचे जाने चाहिए। चूंकि, मेरा संबंध भाषा और मानविकी विषयों के साथ इसलिए साइंस और टेक्नोलॉजी की रिसर्च की स्थिति पर संबंधित विषयों के जानकार ही बेहतर टिप्पणी कर सकते हैं, लेकिन यूजीसी के नियम उनके मामले में भी लागू होते हैं इसलिए उन्हें भी वैकल्पिक व्यवस्था के दायरे में लाए जाने की जरूरत है। अन्यथा की स्थिति में फर्जी रिसर्च का धंधा रुकने की बजाय और बढ़ता रहेगा।