झारखंड : गुमला के छाता सराय में पानी की बूँद -बूँद को तरसते असुर

  • पानी का कुआं 3 किलोमीटर दूर अस्पताल की दूरी 40 किलोमीटर
  • प्रसव वेदना से तड़पती रास्ते में दम तोड़ देती है आदिम जनजाति की महिलायें
  • देश की विलुप्तप्राय आदिम जनजाति है असुर
  • गुमला डीसी सुशांत गौरव 21 अप्रैल को पीएम अवार्ड से होंगे सम्मानित

गुमला।  डीसी आईएएस अधिकारी सुशांत गौरव पीएम अवार्ड से सम्मानित होंगे। तीन दिन बाद 21 अप्रैल को दिल्ली के विज्ञान भवन में देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सिविल सर्विस डे पर विज्ञान भवन नई दिल्ली में उन्हें पुरस्कृत कर सम्मानित करेंगे।

 

लेकिन क्या आइएएस सुशांत गौरव इस सम्मान के हकदार हैं? यह सवाल पहाड़ों में मौजूद विलुप्तप्राय जनजाति असुरों की हालत से उठ रहे हैं ।
गुमला जिले के छाता सराय में आदिम जनजाति असुर रहते हैं। जिस हाल में असुर जनजाति के लोग रह रहे हैं उनकी स्थिति को देखकर कलेजा कांप जाता है। छाता सराय और उसके आसपास हजारों साल से असुर पहाड़ की ऊंची चोटी पर रहते हैं। हालांकि, पहाड़ की ऊंची चोटी पर समतल भूभाग है। लेकिन न वहां बिजली है, न पानी की व्यवस्था और न ही स्कूल-अस्पताल।

यकीन नहीं तो पानी असुर से वहां के दुखदायक हालात की जानकारी लें, उनकी वेदना को सुनकर चेहरा शर्म से झुक जायेगा। यहाँ बच्चों की दो बूंद जिंदगी की खुराक तो बहुत दूर की बात है, दो बूंद पानी न मिलने से कई बच्चे दम तोड़ चुके हैं। पानी को अनमोल मानकर ही शायद कुछ लोगों ने अपने बीच कुछ का नाम पानी असुर भी रखा है। छाता सराय में 76 साल की बुजुर्ग महिला का नाम पानी असुर है। उन्हें खुद 3 किलोमीटर दूर जाकर असुरों के खोदे कुएं से पानी लाना होता है। और सबसे चौंकाने वाली बात यह है की यह कुआं भी इनलोगों ने खुद ही खोदा है। खानापूर्ति के नाम पर छाता सराय में एक चापानल नजर आता है , जो किसी काम का नहीं है। कभी कभी बॉक्साइट माइनिंग का काम कर रहे कंपनी के आदिवासी समुदाय के लोग ही इनपर रहम कर टेंकर के माध्यम से पीना दे देते हैं तो प्यास से बिलबिलाते असुरों को तृप्ति मिल जाती हैं।

अंतहीन अन्याय की बदरंग तस्वीर है यह इलाका

छाता सराय की फूलमणि असुर कम्पनी के इस रहमदिली से इत्तेफाक नहीं रखती। फूलमणि कहती हैं कि असुर हजारों साल से वे प्रकृति से तालमेल बैठाकर जीवन यापन कर रहे हैं। उनके इलाके में बॉक्साइट मिला तो कंपनी यहां पहाड़ों का सीना छलनी कर और जमीन को खोदकर कंपनी धड़ल्ले से बॉक्साइट निकाल रही है। कॉरपोरेट सोशल रिस्पांसिबिलिटी के तहत बॉक्साइट माइनिंग करने वाली कंपनी को वहां बहुत बंदोबस्त करने चाहिए थे, लेकिन कुछ नहीं किया, क्योंकि कोई पूछने वाला ही नहीं है।

असुरों के लिए जीरो बटे सन्नाटा इंतजाम

छाता सराय के एकवा असुर व्यवस्था पर तीखा व्यंग करते हैं उनका कहना है की प्रशासन ने असुरों के लिए जीरो बटे सन्नाटा इंतजाम किया है। अगर कोई इंतजाम होता तो जरूर दिखता। बिजली तो ख्वाब में भी नहीं आती, यहाँ लालटेन तक नहीं है। लालटेन इसलिए नहीं है, क्योंकि केरोसिन नहीं है, उनके पास केरोसिन खरीदने को पैसे तक भी नहीं हैं। रात का अंधेरा दूर करने को मशाल जलाई जाती है । वे दिहाड़ी मजदूरी करते हैं मिलता से 150 से 200 रुपए। काम कभी कभी मिलता है । नहीं तो घर बैठना पड़ता है। बस वो वक़्त की रोटी का किसी तरह जुगाड़ हो जाये , इसी में जिंदगी कट रही है । हम असुरों का कोई नहीं है , ना सरकार और ना ही प्रशासन।

चारपाई बन जाती है इमरजेंसी में एंबुलेंस

छाता सराय की मीणा असुर कहती हैं यहां से 40 किलोमीटर दूर बिशुनपुर में स्वास्थ्य केंद्र है। बीमार को चारपाई पर लिटाकर वहां ले जाना होता है, यही उनकी एंबुलेंस है इमरजेंसी में। बीमार को चारपाई पर लिटाकर वहां ले जाना होता है, यही उनकी एंबुलेंस है इमरजेंसी में।आदिम जनजाति की महिलायें प्रसव वेदना से तड़पती रास्ते में हीं दम तोड़ देती है।

असुरों के अस्तित्व पर संकट

असुर जनजाति झारखण्ड की प्राचीनतम एवं आदिम जनजाति है जिनका प्रजातीय संबंध प्रोटो ऑस्ट्रेलायड समूह से है। इस जनजाति को ‘पूर्वादिवा’ भी कहा जाता है। यह जनजाति झारखण्ड में लगभग विलुप्तप्राय हो गयी है । इस जनजाति को सिंधु घाटी सभ्यता का प्रतिष्ठापक माना जाता है। भारत में असुरों की जनसंख्या 1991 की जनगणना के अनुसार केवल 10,712 ही रह गयी है वहीं झारखण्ड में असुरों की जनसंख्या 7,783 है। झारखंड के नेतरहाट इलाके में बॉक्साइट खनन के लिए जमीन और उसके साथ अपनी जीविका गँवा देने के बाद असुरों के अस्तित्व पर संकट आ गया है।

असुर दुनिया के लोहा गलाने का कार्य करने वाली दुर्लभ धातुविज्ञानी

इतिहासकारों और शोधकर्ताओं का यह मानना है यह प्राचीन कला भारत में असुरों के अलावा अब केवल अफ्रीका के कुछ आदिवासी समुदायों में ही बची है। असुर मूलतः कृषिजीवी नहीं थे लेकिन कालांतर में उन्होंने कृषि को भी अपनाया है। आदिकाल से ही असुर जनजाति के लोग लौहकर्मी के रूप में विख्यात रहे हैं। इनका मुख्य पेशा लौह अयस्कों के माध्यम से लोहा गलाने का रहा है। पारंपरिक रूप से असुर जनजाति की आर्थिक व्यवस्था पूर्णतः लोहा गलाने और स्थानान्तरित कृषि पर निर्भर थी, नेतरहाट पठारी क्षेत्र में असुरों द्वारा तीन तरह के लौह अयस्कों की पहचान की गयी थी। पहला पीला, (मेग्नीटाइट), दूसरा बिच्छी (हिमेटाइट), तीसरा गोवा (लैटेराइट से प्राप्त हिमेटाइट). असुर अपने अनुभवों के आधार पर केवल देखकर इन अयस्कों की पहचान कर लिया करते थे तथा उन स्थानों को चिन्हित कर लेते थे। लौह गलाने की पूरी प्रक्रिया में असुर का सम्पूर्ण परिवार लगा रहता था।

आदिम जनजातियों के कल्याण के लिए करोड़ों रुपए कहां हो गए गुम ?

भारत सरकार के अनुसूचित जनजाति विभाग ने आदिम जनजातियों के कल्याण के लिए करोड़ों रुपए आवंटित किए। वे पैसे कहां गुम हो गए पता नहीं चला? वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने वित्त वर्ष 2022-2023 के बजट में जनजातीय कार्य मंत्रालय के लिए 8451.92 करोड़ रुपये निश्चित किए हैं, जो कि वित्त वर्ष 2021-2022 के पिछले बजट 7524.87 करोड़ से ज्यादा है। जनजातीय कार्य मंत्रालय के लिए कुल बजट में 12.32 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी है। 19 जनवरी 2022 को केंद्रीय मंत्रिमंडल के अनुमोदन से जनजातीय कार्य मंत्रालय की 14 योजनाओं के तहत हजारों करोड़ की मंजूरी अलग से है।

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