सुशील उपाध्याय
स्थापित धारणा यही है कि भारत का विभाजन धर्म के आधार पर हुआ है और पाकिस्तान की भौगोलिक सीमाओं को धार्मिक आबादी के आधार पर ही निर्धारित किया गया है, लेकिन दोनों देशों की आजादी और भारत के विभाजन के वक्त के दस्तावेजों को देखें तो साफ पता लगता है कि आखिरी वक्त में विभाजन का आधार (हिंदू-मुसलमान दो अलग कौम हैं।) पूरी तरह से गायब हो गया था। तब पाकिस्तान के कायदे आजम जिन्ना इस कोशिश में जुट गए थे कि किस तरह से उन्हें भारत का ज्यादा से ज्यादा बड़ा हिस्सा पाकिस्तान के लिए मिल जाए। तब वे यह नहीं देख रहे थे कि कौन सा इलाका हिंदू बहुल है और किसमें मुसलमानों की आबादी ज्यादा है।
इसका सबसे पहला प्रमाण जूनागढ़ रियासत है जिसमें बहुसंख्यक आबादी हिंदू थी, लेकिन वहां का मुस्लिम शासक इसे पाकिस्तान में शामिल करने के लिए जिन्ना के प्रभाव में था और हिंदू आबादी की बहुसंख्या जानते हुए भी जिन्ना आखिर तक इस कोशिश में थे कि जूनागढ़ पाकिस्तान मिल जाए। यदि पाकिस्तान का गठन मुसलमान के अलग कौम होने के आधार पर किया जा रहा था तो फिर जूनागढ़ को लेने का कोई तुक दूर तक नजर नहीं आता। यह बात केवल जूनागढ़ तक सीमित नहीं थी, बल्कि आखिरी दम तक पाकिस्तान यह कोशिश भी करता रहा कि हैदराबाद रियासत पाकिस्तान में शामिल हो जाए और यदि पाकिस्तान में शामिल न भी हो तो वह खुद को एक अलग मुस्लिम देश के तौर पर आजाद घोषित कर दे। यहां पर भी वही बात उल्लेखनीय है, जो जूनागढ़ के संदर्भ में कही गई है यानी हैदराबाद शहर एक हिस्से को छोड़ दें तो उस वक्त रियासत के अन्य हिस्सों में हिंदू आबादी बहुमत में थी।
जिन्ना के प्रयास केवल उपर्युक्त दो रियासतों तक सीमित नहीं थे, बल्कि यह कोशिश भी कर रहे कि बंगाल और पंजाब का विभाजन न किया जाए और बंगाल एवं पंजाब पूरा का पूरा पाकिस्तान में मिला दिया जाए। ध्यान से देखने पर साफ पता चलता है कि बंगाल और पंजाब का विभाजन न किए जाने की मांग पूरी तरह से पाकिस्तान की अवधारणा के खिलाफ थी। चूंकि पाकिस्तान का गठन मुसलमानों के लिए मुस्लिम बहुसंख्या वाले इलाकों के आधार पर किया जा रहा था इसलिए यदि पूरा बंगाल एवं पंजाब और यहां तक कि जूनागढ़ एवं हैदराबाद भी पाकिस्तान में सम्मिलित हो गए होते तो फिर पाकिस्तान में गैर मुस्लिमों की आबादी लगभग आधी होती। इस आधार पर देखिए कि जिन्ना किस तरह का पाकिस्तान चाह रहे थे!
इन उदाहरणों से स्वतः ही स्पष्ट है कि आखिरी दिनों में भौगोलिक इलाकों की लूट जैसी स्थिति पैदा हुई थी। पाकिस्तानी मूल के इतिहासकार और राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर डॉ. इश्तियाक अहमद ने जिन्ना पर अपनी किताब केंद्रित में इस बात का उल्लेख किया है कि पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री लियाकत अली कई मौकों पर यह कह चुके थे कि उनकी रुचि कश्मीर की पहाड़ियों में नहीं बल्कि हैदराबाद में है। यदि पाकिस्तान की स्थापना के आधार को देखें तो उस वक्त उनकी रुचि कश्मीर में ही होनी चाहिए थी क्योंकि वहां पर बहुसंख्यक आबादी मुसलमानों की थी, लेकिन उनके दिमाग में दूसरी चीज काम कर रही थी। वो ये कि कश्मीर एक भौगोलिक इलाका तो था, लेकिन वहां से किसी तरह का रेवेन्यू हासिल होने की संभावना नहीं थी, जबकि हैदराबाद आर्थिक रूप से काफी सुदृढ़, संपन्न था इसलिए उस वक्त पाकिस्तानी लीडरशिप कश्मीर की तुलना में हैदराबाद को ज्यादा प्राथमिकता दे रही थी। (हालांकि, जब अन्य इलाकों को हथियाने के दांव फेल हो गए तो कश्मीर को कब्जाने की कोशिश की गई।)
इसका दूसरा मतलब यह भी है कि देश विभाजन के वक्त मुस्लिम इलाकों में पाकिस्तान की उतनी रुचि नहीं रह गई थी, जितनी पंजाब के हिंदू-सिख बहुल भारतीय इलाके और बंगाल के उस इलाके में थी जिसमें बहुत संख्या में हिंदू थे। जबकि भारत का रुख विभाजन के बाद ही स्पष्ट हो गया था कि उसे पाकिस्तान के भौगोलिक क्षेत्र में किसी तरह के दखल देने या उसे दोबारा हासिल करने की आवश्यकता नहीं है। सन 1948 में अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में पंडित जवाहरलाल नेहरू ने एक व्याख्यान में साफ किया कि वे पाकिस्तान के साथ अच्छे संबंध तो चाहते हैं लेकिन अब दोनों देशों के एकीकरण या री-यूनियन में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं है। भारत में भले ही एक वर्ग ऐसा हो जो अक्सर ‘अखंड भारत’ की बात करता है, लेकिन सरकारी स्तर और नीतिगत तौर पर कहीं भी कोई ऐसा प्रयास नहीं दिखेगा जिससे यह लगेगा कि सरकार ‘अखंड भारत’ के लिए प्रयासरत है अथवा भारत को पाकिस्तान का कोई भौगोलिक हिस्सा अपने नियंत्रण में लेना है। (अधिकृत कश्मीर इसका अपवाद है क्योंकि भारत इसे अपना हिस्सा मानता है।)
वर्ष 2012 में वरिष्ठ पत्रकार शाहिद सिद्दीकी ने गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री (अब प्रधानमंत्री) नरेंद्र मोदी का इंटरव्यू लिया था, जिसमें उन्होंने अखंड भारत के संदर्भ में उनके विचार पूछे थे। तब नरेंद्र मोदी ने कहा था ‘अखंड भारत’ आज की जरूरत नहीं है, लेकिन भारत अपनी सीमाओं को सुरक्षित रखने का प्रबल पक्षधर है। यानी 1948 में पंडित नेहरू के वक्तव्य से लेकर आज तक, भारत कमोबेश उसी स्टैंड पर कायम रहा है। भारत चाहता तो 1965 की लड़ाई के दौरान पूर्वी पाकिस्तान के बहुत बड़े हिस्से को कब्जा सकता था क्योंकि उस वक्त पूर्वी हिस्से में पाकिस्तान की सुरक्षा तैयारियां ना के बराबर थी। इसी तरह से भारत पश्चिमी पाकिस्तान में लाहौर तक पहुंच गया था। यहां पर भी भारत के पास यह विकल्प था कि वह पीछे हटने की बजाए वही पर जमा रहे। वैसे भी, लाहौर जैसी जगह पर नियंत्रण भारत में पंजाबियों और सिखों, दोनों के लिए एक बड़ी भावनात्मक राहत का मुद्दा भी था, लेकिन भारत अपने मूल विचार से पीछे नहीं हटा।
इतिहास के पन्नों में एक और उदाहरण दर्ज है, जिससे पता चलता है कि भारत अपने आकार एवं देश के व्यावहारिक स्वरूप के विषय में कितना अधिक स्पष्ट था। उस वक्त खैबर पख्तूनख्वा जैसे प्रांत को इसलिए भारत में सम्मिलित नहीं किया था क्योंकि वह मुस्लिम बहुल होने के साथ-साथ भौगोलिक तौर पर भारत से बहुत दूर था, जबकि तब वहां सरहदी गांधी खान अब्दुल गफ्फार खान के नेतृत्व में ये हिस्सा भारत में शामिल होने को तैयार था। भारत के विपरीत पाकिस्तान पहले दिन से ही इस कोशिश में लगा रहा कि वह किस तरह ज्यादा से ज्यादा भौगोलिक इलाके को अपने नियंत्रण में ले सके। जम्मू-कश्मीर रियासत पर अक्टूबर 1947 में हुए कबायली हमले, जिसे पाकिस्तानी सरकार एवं सेना का समर्थन हासिल था, के जरिये भी बड़ा इलाका अपने नियंत्रण में लेने की कोशिश हुई थी। जबकि रियासत के राजा ने इसका आधिकारिक विलय भारत में कर दिया था। ज्यादा से ज्यादा इलाके की चाहत में मोहम्मद अली जिन्ना इतने अधिक आतुर थे कि उन्होंने पश्चिमी और पूर्वी पाकिस्तान को आपस में जोड़ने के लिए भारत के बीच से कोरिडोर की मांग भी कर डाली थी, जबकि इस मांग का न तो कोई तार्किक आधार था और न ही इसे पूरा किया जाना संभव था।
इन तमाम उदाहरणों को देखें तो यह बात बहुत स्पष्ट होती है कि जिन्ना का व्यक्तित्व कई तरह के विरोधाभासों का केंद्र था। अक्सर यह देखने को मिलता है कि वे तार्किक रूप से सोचना और निर्णय लेना बंद कर देते थे और विभाजन के वक्त ‘जो भी हाथ लगे, उसी को हथिया लेने‘ की प्रवृत्ति का शिकार हो गए थे। उनकी इस प्रवृत्ति को देखें तो यह स्पष्ट होता है की ‘टू नेशन थ्योरी’ पूरी तरह से ‘डिफेक्टिव थ्योरी’ बन चुकी थी। यह बात भी इतिहास की किताबों में बहुत प्रामाणिक रूप से दर्ज है कि जिन्ना पाकिस्तान के हिस्से वाले पंजाब में सिखों-हिंदुओं को इसलिए बनाए रखना चाहते थे ताकि
इनके बहाने और ज्यादा इलाका हासिल किया जा सके और जरूरत पड़ने पर इन्हें ‘होस्टेज’ के रूप में इस्तेमाल किया जा सके। अच्छी बात यह थी कि उस भारत का नेतृत्व पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों के भविष्य को देख पा रहा था। इसलिए परोक्ष तौर पर पाकिस्तान के अल्पसंख्यकों को भारत आने के लिए प्रोत्साहित किया गया और पाकिस्तान में सताए गए लोगों को स्वीकार करने का सिलसिला आजादी के करीब एक दशक बाद तक भी चलता रहा।
महात्मा गांधी मोहम्मद अली जिन्ना की मनस्थिति को बहुत पहले ताड़ चुके थे। उन्होंने 20 जनवरी, 1940 के हरिजन सेवक में मोहम्मद अली जिन्ना के बारे में टिप्पणी लिखी थी। जिससे यह साफ पता चलता है कि टू नेशन थ्योरी की आड़ में जिन्ना किसी भी तरह देश का बंटवारा करके उसके मुखिया बनना चाहते थे। इसका प्रमाण यह है कि तब वे देश के अलग-अलग हिस्सों में तीन ऐसी पार्टियों के साथ गठजोड़ करने को आतुर थे, जिनका जिन्ना के वैचारिक धरातल से किसी भी तरह का जुड़ाव नहीं था। वे मुंबई में डॉ. अंबेडकर की पार्टी, मद्रास में जस्टिस पार्टी और पश्चिम बंगाल में हिंदू महासभा के साथ लगातार बातचीत कर रहे थे।
गांधी जी अपने लेख में कहते हैं कि मिस्टर जिन्ना जिस प्रकार से अन्य पार्टियों से संपर्क बढ़ा रहे हैं और उन्हें अपने पाले में खींचने की कोशिश कर रहे हैं तो मैं इस बात से खुश हैं कि भविष्य में भारत में दो बड़ी राजनीतिक पार्टियां होंगी जिसमें एक कांग्रेस होगी और दूसरी पार्टी में डॉक्टर अंबेडकर के समर्थक, जस्टिस पार्टी के लोग, हिंदू महासभाई और मुस्लिम लीग वाले शामिल होंगे। महात्मा गांधी जिन्ना की इन कोशिशों को इस तरह से भी देख रहे थे कि शायद इससे टू नेशन थ्योरी का फितूर जिन्ना के दिमाग से दूर हो जाए। गांधी जी के ऐसा सोचने की एक बड़ी वजह यह थी कि इंग्लैंड से पढ़ाई करके लौटे जिन्ना अपने प्रारंभिक दौर में प्रखर राष्ट्रवादी थे, बाद में वे समन्वयवादी हो गए। फिर मुस्लिम राष्ट्रवादी होकर हिंदुओं से नफरत करने लगे और जब पाकिस्तान के गवर्नर जनरल बने तो एक बार फिर हिंदू और मुसलमानों में समन्वय की बात करने लगे।
वस्तुतः न केवल जिन्ना, बल्कि उनके बाद पाकिस्तान को लीड करने वाले तमाम नेताओं की पहली चाहत न तो इस्लाम थी और न पाकिस्तान थी। वे केवल सत्ता चाहते थे जो संभवतः उन्हें देश के विभाजन के जरिए ही मिल सकती थी। इस विषय पर और अध्ययन के लिए स्वीडन में रह रहे पाकिस्तानी मूल के प्रोफेसर डाॅ. इश्तियाक अहमद, डॉ. अजीत जावेद, इस्लामाबाद में रह रहे ‘फाइव रिवर फें्रडशिप फोरम’ के समन्यक शकील चैधरी और कायदे आजम यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर रहे डॉ. वसीम को सुना और पढ़ा जा सकता है। इनके शोध और अध्ययन में ऑब्जेक्टिविटी को देखा जा सकता है। साथ ही, इनके लेखन और वक्तव्यों में भारत या पाकिस्तान का पक्षकार बनने की इनमें कोई चाहत नहीं दिखती।