सुशील उपाध्याय।
शब्दों की भी एक राजनीति होती है और राजनीति शब्दों के अर्थों का निर्धारण अपनी सुविधा के अनुरूप करने के लिए हमेशा ही क्रियाशील होती है। लेकिन, कोई भी राजसत्ता कितनी भी प्रभावशाली क्यों न हो, वह शब्दों को अपनी पसंद के अर्थ में थोपने में प्रायः सफल नहीं होती। वजह, शब्दों को उनके अर्थ लोक से यानी समाज से मिलते हैं। हालांकि, समाज के साथ एक बड़ी चुनौती यह होती है कि उसका सबसे समावेशी रूप भी प्रभावशाली बहुसंख्यकों (इसमें धार्मिक बहुसंख्यक भी सम्मिलित हैं) द्वारा निर्धारित होता है। इसका उदाहरण साल 2022 में लोकसभा द्वारा जारी अमान्य शब्दों की सूची के रूप में देख सकते हैं या फिर वर्ष 2021 में हरियाणा में ‘गोरखधंधा’ शब्द के प्रयोग पर रोक के तौर पर देख सकते हैं। हमारे दैनिक व्यवहार में प्रयोग होने वाले शब्दों के सिर पर नफरत और निंदा का बोझ भी लाद दिया जाता है। इस क्रम में तीन शब्द देखिए-लुच्चा, लंपट, गोरखधंधा।
‘लुच्चा’ शब्द सुनते ही किसी बदमाश और चरित्रहीन व्यक्ति का ख्याल आता है, लेकिन अपने मूल अर्थ में यह शब्द बहुत ही सम्मानित शब्द से विकसित हुआ है। भारत में धर्मों के विकास में क्रम में अब से ढाई हजार साल पहले जैन धर्म और बौद्ध धर्म सामने आए। जैनों में, विशेषतौर पर दिगंबर संप्रदाय में, साधुओं द्वारा बालों का लुंचन किया जाता है यानि हाथों से बाल उखाड़े जाते हैं। ये क्रिया वर्तमान में भी मौजूद है। इसी से लुंच और लुच्च और लुच्चा का विकास हुआ। इस शब्द के साथ नकारात्मक अर्थ को जोड़ने का काम जैन धर्म के निंदकों द्वारा भी किया गया। समय के साथ इस शब्द का मूल अर्थ तिरोहित हो गया और बहुत ही भद्दा अर्थ सामने आया-नंगा, बदमाश, चरित्रहीन, मर्यादाहीन। अब इसके दो रूप प्रचलन में हैं, पुरुष के लिए लुच्चा और स्त्री के लिए लुच्ची। अब स्थिति यह है कि कोई चाहकर भी इस शब्द को उसके मूल अर्थ तक नहीं ले सकता। शब्दकोशों में दर्ज अर्थ की बात अलग है।
ऐसा ही दूसरा शब्द लंपट है। ध्वनि साम्य के आधार पर देखें तो शब्द बनेगा-लंबपट या लंब-पट। यानी जिसका पट (अंगरखा, पूरे शरीर पर पहना हुआ बिना सिला कपड़ा) लंबा है। आज भी बौद्ध भिक्षु इसी प्रकार का लंबपट पहनते हैं। प्रयत्न लाघव के नियम को सामने रखकर देखें तो ‘ब’ ध्वनि का लोप हुआ और लंपट हाजिर हो गया। इस बदलाव में कोई बुराई नहीं थी, लेकिन इसके साथ जो अर्थ नत्थी किया गया, वह घृणित था। अब लंपट का अर्थ है-गिरा हुआ इंसान, औरतबाज, चरित्रहीन, कामी, व्याभिचारी। इस पर भी यही बात लागू होती है जो लुच्चा शब्द पर लागू हुई। इस शब्द पर नए अर्थ के आरोपण का जिम्मा बौद्ध-निंदकों ने संभाला। इसे विशेषण के रूप में स्त्री-पुरुष, दोनों के लिए प्रयोग में लाया जाता है। इन दोनों शब्दों को लेकर प्रख्यात कवि लीलाधर जगूड़ी का मानना है कि जैन और बौद्ध धर्माें के विकास के बाद तीन तरह के साधू-संन्यासी भिक्षा मांगने आते थे। संभवतः इनकी पहचान को स्पष्ट करने के लिए लंबपट, लुंचित आदि का प्रयोग हुआ होगा और बाद में धार्मिक वैमनस्य के कारण इन्हें नकारात्मक अर्थ में प्रयोग किया जाने लगा।
लगभग यही स्थिति गोरखधंधा शब्द की भी है। इस शब्द के बारे में पहले भी बहुत कुछ लिखा जा चुका है। नुसरत फतेह अली खान की एक कव्वाली का मुखड़ा है-तुम इक गोरखधंधा हो। वे इसके जरिये ईश्वर की सत्ता को अबूझ मानते हैं। लेकिन, अब गोरखधंधा का शब्द को अनैतिक और गैरकाूननी कामों के लिए इस्तेमाल में लाया जाता है। मूलतः गोरखधंधा शब्द नाथ, योगी, जोगी, जुगी संप्रदाय की धर्म-साधना में प्रयुक्त एक आध्यात्मिक पारिभाषिक शब्द है। मान्यता है कि गुरु गोरखनाथ ने परम सत्य को पाने के लिए कई विधियों को निर्धारित किया। ये विधियां अपने स्वरूप में जटिल और कठिन हैं। आम आदमी के लिए उन्हें समझना मुश्किल होता है इसीलिए इन्हें गोरखधंधा या धंधारी कहा जाने लगा। बाद में उसे उलझन और झंझट वाले कामों के लिए इस्तेमाल किया जाने लगा। कुल मिलाकर यह शब्द अपने मूल अर्थ से काफी दूर हो गया और निंदात्मक स्वर के साथ जुड़ गया।
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