सुशील उपाध्याय
युद्ध कहीं भी हो, उसकी कीमत चुकानी ही होती है। इस वक्त केवल यूक्रेन ही नहीं चुका रहा है, बाकी दुनिया भी चुका रही है। भारत के मेडिकल छात्र नवीन की यूक्रेन में मौत (इसके लिए हत्या सही शब्द है!) इस बात का प्रमाण है कि युद्ध उन लोगों से भी कीमत वसूलता है जो न तो इसके लिए जिम्मेदार हैं और न ही इसमें शामिल हैं।
वैसे, नवीन की मौत के लिए केवल युद्ध नहीं, बल्कि सरकारें भी जिम्मेदार हैं, चाहे वे मौजूदा सरकारें हों या इससे पहले की। युद्ध न होता तो कोई चर्चा भी नहीं करता कि भारत के हजारों छात्र यूक्रेन में हैं और हर साल इनकी संख्या बढ़ रही है।
क्या ये शौकिया तौर पर यूक्रेन गए हैं या फिर यूक्रेन में मेडिकल की डिग्री फ्री बंट रही है ? दोनों सवालों के जवाब बेहद आसान है। ये भारत सरकार और राज्य सरकारों की नीतियों के कारण देश से बाहर जाने के लिए मजबूर हुए हैं।
सबको पता है कि भारत में मेडिकल डिग्री में, खासतौर से एमबीबीएस में प्रवेश के लिए कितनी मारामारी है। और उससे भी बड़ी बात ये है कि निजी क्षेत्र में इसकी कीमत इतनी बड़ी है कि कोई आम आदमी तो छोड़िये भारत सरकार के सबसे बड़े अधिकारी भी अपने वेतन के बल पर एक बच्चे मेडिकल डिग्री का बोझ नहीं उठा सकते। सरकार के सबसे बड़े अधिकारियों को टैक्स और पेंशन-फंड कटने के बाद शायद ही हर महीने दो लाख रुपये महीना वेतन मिलता होगा।
क्या इतना बड़े अधिकारी अपने वेतन से निजी मेडिकल काॅलेज में अपने बच्चे की पढ़ाई करा सकते हैं! अगर ईमानदार हैं तो नहीं करा सकते। जिनके पास आय के छिपे हुए स्रोत हैं, वे जरूर करा सकते हैं। ज्यादा दूर जाने की जरूरत नहीं है उत्तराखंड के निजी मेडिकल काॅलेजों में एक साल की फीस 12 से 18 लाख के बीच में हैं। इसमें छिपे हुए खर्च शामिल नहीं हैं।
पांच साल का अनुमान लगाना चाहे तो एक करोड़ तक खर्च हो जाएगा। असली मजबूरी यही है, जिसके चलते हजारों लोगों को अपने बच्चों को यूक्रेन, रूस, पूर्व सोवियत गणराज्यों, चीन, पूर्वी एशियाई देशों और यूरोप के पोलेंड, हंगरी जैसे तुलनात्मक रूप से गरीब देशों में एमबीबीएस की पढ़ाई के लिए भेजना पड़ रहा है।
भारत में जिस काम के लिए पांच साल में एक करोड़ तक खर्च हो रहे हैं, इन देशों में ये काम 20-25 लाख में हो रहा है।
इस स्थिति का जिम्मेदार कौन है ? कम से कम अभिभावक और छात्र तो नहीं हैं। कौन अभिभावक चाहेगा कि उसका बच्चा किसी अनजान देश में विपरीत परिस्थितियों में रहकर पढ़ाई करे। ऐसी कौन-सी वजहें हैं कि भारत के निजी मेडिकल काॅलेजों में इन देशों की तुलना में तीन से पांच गुना तक अधिक फीस है ? और वे कौन लोग हैं जो इतनी बड़े शुल्क ढांचे पर सहमत हो रहे हैं, इसका निर्धारण कर रहे हैं ? वे कहीं से बाहर से नहीं आए हैं।
इसी सिस्टम और सत्ता का हिस्सा हैं। वे स्थिति देश के प्रति गुनाह है, समाज के प्रति गुनाह है और ये मानवता के प्रति उतना ही बड़ा अपराध है जितना कि युद्ध होता है।
याद कीजिए जब कुछ साल पहले छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री अजित जोगी ने ग्रामीण क्षेत्रों में मेडिकल सुविधाएं उपलब्ध कराने के लिए साढ़े तीन साल की मेडिकल डिग्री शुरू कराई थी तो मेडिकल कौंसिल और डाॅक्टरों के संगठन किस तरह गिरोह बनकर टूट पड़े थे। बात साफ है, सारा मामला लाभ कमाने की मंशा से जुड़ा है।
इसलिए तात्कालिक प्रतिक्रिया को छोड़ दे तो किसी को फर्क नहीं पड़ता कि कोई युवा एक मेडिकल डिग्री की उम्मीद में यूक्रेन जैसे देश में अपनी जान गंवा देता है। और मामला केवल एक ही युवा तक सीमित रहेगा, ऐसा नहीं है। जितनी बड़ी संख्या में भावी डाॅक्टर यूक्रेन और उसके पड़ोसी देशों पोलेंड, रोमानिया, हंगरी आदि में फंसे हुए हैं, उसे देखकर लग रहा है कि कई और लोगों पर मुसीबत के पहाड़ टूटेंगे।
सरकारें अपनी आलोचना नहीं सुनती। वे किसी भी पार्टी की हों, उनका चरित्र एक जैसा ही होता है। भारत सरकार आज जो काम कर रही है, वो काम एक सप्ताह पहले होना चाहिए था, लेकिन आपात स्थिति वाला काम भी फुरसत से हुआ। इतनी समझ हम सभी को है कि 20 हजार छात्रों या अन्य भारतीय नागरिकों को युद्ध क्षेत्र से बाहर निकालने के लिए कम से कम सौ उड़ानों की जरूरत होगी। युद्ध के पहले एक सप्ताह में महज एक दर्जन उड़ानें संभव हो सकी हैं।
अनुमान लगा लीजिए कि इस गति से कितना वक्त और लग जाएगा। इन 10-12 उड़ानों के लिए मुख्यधारा के मीडिया का एक बड़ा वर्ग सरकार की वाहवाही में जुटा है। एक वर्ग चुप है क्योंकि सरकार के नाराज होने का खतरा है।
जो सवाल उठ रहे हैं, वे बेहद कमजोर आवाज में हैं। आखिर, भारत की वायुसेना किस दिन काम आएगी ? (युद्ध के पांचवें दिन इस बारे में प्रधानमंत्री का एक बयान आया है, जिसमें उन्होंने वायुसेना को लगाने की बात कही है।)
चाहें तो इराक पर कुवैत के कब्जे को याद कर सकते हैं। तब भारत सरकार ने पौने दो लाख लोगों को बाहर निकाला था। उस वक्त वायुसेना ने बड़ी भूमिका निभाई थी। सबको पता है कि युद्ध क्षेत्र में हर मिनट कीमती है।
लोगों को बाहर निकालने का अभियान जितना लंबा चलेगा, परेशानी उतनी ही बढ़ती जाएगी। शायद सरकार को ये भी पता होगा कि उसके पड़ोसी नेपाल, भूटान, बर्मा, श्रीलंका, अफगानिस्तान, मालदीव, बांग्लादेश भी उम्मीद लगाए बैठे हैं कि उनके नागरिकों को भी निकाला जाएगा।
माफ कीजिएगा, मैं इस विचार से सहमत नहीं हो पाता कि भारत सरकार लोगों को निकालकर कोई अहसान कर रही है। ये सरकार की जिम्मेदारी है। और अगर वह ठीक से जिम्मेदारी नहीं निभा पा रही है तो इसके लिए यूक्रेन गए मेडिकल छात्र और उनके अभिभावक जिम्मेदार नहीं हैं।
वस्तुतः ये एक मौका है, जब हम देश के युवाओं को मेडिकल डिग्री के लिए यहां-वहां भटकने की समस्या का वास्तविक समाधान कर सकते हैं। एक व्यापक संदर्भ में देखें तो ये मामला केवल यूक्रेन से 18-20 हजार युवाओं को बाहर निकालने तक सीमित नहीं है, बल्कि यह देश में मेडिकल एजुकेशन के अवसरों की चिंताजनक कमी को रेखांकित करता है।
भारत मेडिकल संस्थानों में दुनिया के उन सबसे खराब देशों हैं जहां 24-25 लाख की आबादी पर महज एक मेडिकल काॅलेज है, जबकि इस वक्त इस संख्या को कम से कम दोगुना किए जाने की जरूरत है। और इसके बाद इसमें हर साल न्यूनतम 5-6 फीसद की सालाना बढ़ोत्तरी की जरूरत है। तब शायद निकट भविष्य में देश को यूक्रेन जैसे किसी देश में भारत के भावी डाॅक्टरों के टार्चर जैसे हालात का सामना न करना पड़े।