देहरादून। उत्तराखंड (Uttarakhand)में धर्म और जात-पात पर चुनावी बिसात सज चुकी है। इसी पर घात-प्रतिघात का दौर जारी है।
चुनावी सियासत क्योंकि जनता का समर्थन जुटाने की कवायद है इसलिए राजनीतिक दल, जाति, धर्म के खांचों में बंटे समाज को खांचों में ही देखकर उनमें से अधिकांश को अपने पक्ष में मोड़ ने की कोशिश में हैं ।
जहां उन्हें लुभाने के लिए वादे-दावे किए जा रहे तो जहां समीकरण अपने मुफीद न हो तो बयानों और सोशल मीडिया के जरिए उन्हें बांटने के लिए दिमागों को भी एक खास सांचे में फिट करने की कोशिशें जारी हैं।
इतना ही नहीं अगर किसी राजनीतिक दल को लग रहा कि फलां जाति, धर्म, समुदाय उसके पाले में नहीं आने वाला तो उनके वोट बांटने के लिए उसी जाति, धर्म, समुदाय का अन्य प्रत्याशी खड़ा करने के अलावा भी तमाम तरीके इस्तेमाल हो रही हैं। इस तरह सियासी जमात जातिगत और सामुदायिक समीकरणों को साधने की कोशिश में है।
जन चौपाल में पीएम नरेंद्र मोदी का कांग्रेस पर मुस्लिम यूनिवर्सिटी के बहाने तुष्टीकरण का आरोप, भाजपा नेताओं का टोपी, दाढ़ी के जरिए कांग्रेस पर वार, राहुल गांधी की गंगा आरती के जरिए बहुसंख्यक समुदाय को रिझाने की कोशिश ,आप सुप्रीमो अरविंद केजरीवाल का उत्तराखंड को दुनिया की आध्यात्मिक राजधानी बनाने जैसे बयान मिसाल है कि सियासत दां अपने चुनाव प्रचार में धर्म का छौंक लगाने से बाज नहीं आ रहे।
हिंदू मुस्लिम सिख ईसाई इन वोटों के लिए लड़ाई
उत्तराखंड की आबादी करीब सवा करोड़ है। सूबे में करीब 8३ फीसदी बहुसंख्यक यानी हिंदू तो करीब 17 फीसद धार्मिक अल्पसंख्यक हैं जिसमें से 14 फीसद मुस्लिम धर्म को मानने वाले हैं।जातिगत आधार पर देखें तो उत्तराखंड सवर्ण बहुल प्रदेश है। उत्तराखंड में सवर्णों की आबादी करीब 6२ फीसदी है।
इसमें भी क्षत्रिय 60 तो ब्राह्मण 40 फीसद हैं। सूबे में 19 फीसद दलित तो चार फीसद जनजातीय समुदाय है। ये उत्तराखंडी समाज का वह ढांचा है जिसे खांचों में खींच सियासी लोग वोट की रोट सेंकते हैं। चुनाव करीब देख हाल में ब्राह्मण समुदाय की नाराजगी के डर से ही भाजपा ने देवस्थानम बोर्ड कानून वापस लिया। सूबे में वैश्य समुदाय की आबादी इतनी नहीं कि वह वोटों की सियासत में ज्यादा कुछ उलटफेर कर सके। प्रदेश में करीब 5 लाख वोटर सवर्ण हैं।
पर सूबे में 19 फीसदी दलित ,करीब 5 फीसदी अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग के वोटर हैं। ये मत अधिकांशत: मैदान में प्रभावी हैं। इनमें भी पहाड़ में खासकर जौनसार में तो सवर्ण जाति के लोग ही एसटी हैं।
जबकि पहाड़ के दूसरे इलाकों में सवर्ण अन्य पिछड़ा वर्ग में शामिल हो गए हैं ऐसे में वे लाभ तो इनके प्रमाण पत्रों का लेते हैं लेकिन मानसिक तौर पर सवर्ण ही हैं। मैदान में दलित वर्ग का बड़ा हिस्सा बसपा की ओर भी रुझान रखता रहा है लेकिन बीते विस और लोस चुनाव में बसपा के वोटो में गिरावट को दलित वोट बैंक के उससे छिटककर भाजपा के पाले में जाने से जोड़कर देखा गया।
माना गया कि उसका मुस्लिम वोट भी कांग्रेस की ओर खिसका। कांग्रेस ने दलितों के मत साधने के लिए भाजपा सरकार छोड़ कांग्रेस में शामिल पुराने कांग्रेसी यशपाल आर्य को चेहरा बनाने का दांव खेला है। वैसे दिलचस्प बात है यह सवर्ण बहुल राज्य में कि नौकरीपेशा एससी-एसटी मध्यवर्गीय समुदाय के प्रमोशन में आरक्षण पर कोई दल साफ-साफ कुछ नहीं कह रहा है।
एससी-एसटी को लुभाने के लिए ऐड़ी-चोटी का जोर
प्रदेश में अनुसूचित जाति के लिए 13 और जनजाति के लिए दो विधानसभा सीटें
यानी एससी-एसटी के लिए 15 सीटें आरक्षित है। चुनाव में अनुसूचित जाति और
जनजाति के वोटरों को लुभाने के लिए राजनीतिक दल ऐड़ी चोटी का जोर
लगा रहे हैं।
वजह है उनका अधिक मतदान प्रतिशत। 2017 के विस चुनाव में 74.60 प्रतिशत एससी और 64.39 प्रतिशत एसटी मतदाताओं ने मतदान किया था। एक अनुमान के मुताबिक उत्तराखंड में एससी वोटर 22 लाख और एसटी वोटर 3.38 लाख के करीब है। इस तरह यह आंकड़ा 25 लाख से अधिक बैठता है यानी किसी को भी हराने जिताने के लिए काफी है।