इंदिरा के गढ़ में सुमित को घेरने भगवा ने बनाया चक्रव्यूह

हल्द्वानी। राज्य गठन के बाद 2007 के उलटफेर को छोडक़र हल्द्वानी विस पर कांग्रेस का ही कब्जा रहा है। पिछले दो विस चुनाव से तो कांग्रेस अजेय बनी है। इसका एक बड़ा कारण इंदिरा हृदयेश की आम जनता के बीच मजबूत पैंठ और विकास का सपना था।

कांग्रेस शासन के दो कार्यकाल में हल्द्वानी ने विकास की कई कहानियां गढ़ी तो 2017 के बाद विकास के ठहराव को भी देखा है। 2012 में शुरू की गई आईएसबीटी परियोजना को भाजपा ने ठंडे बस्ते में डाला तो अंतरराष्ट्रीय खेल मैदान आज तक खेल विभाग को नहीं मिला है। गौलापार में अंतरराष्ट्रीय स्तर का चिडिय़ाघर महज एक सपने की तरह से लोगों को याद दिला रहा है। हल्द्वानी वाईपास भाजपा की घोषणा से बाहर नहीं आ रहा है। नगर महानगर में बदल रहा है,लेकिन इसके अनुरुप सुविधाओं का इंतजाम नहीं हो सका है।

इसके केंद्र में इंदिरा हृदयेश की असमय मौत ने कांग्रेस के हाथ में भावनात्मक मुद्दा है तो भाजपा भगवा फहराने के लिए चक्रव्यूह की रचना करने में लगी है। मतदान के लिए कम समय है सो भाजपा कांग्रेस को घेरने के लिए अलग अलग तरह की कोशिश कर रही है।

इस बार 207 में इंदिरा के हार के कारण बने मतीन सिद्दीकी एआईएमआईएम तो शोएब अहमद सपा से मैदान में हैं। आप भी अलग अंदाज में दिख रही है।
हल्द्वानी विस एक तरह से कांग्रेस का वोट बैंक मानी जाती है। राज्य गठन के पहले विस चुनाव में पहली बार इस सीट पर कांग्रेस प्रत्याशी डा. इंदिरा हृदयेश और भाजपा प्रत्याशी बंशीधर भगत के बीच कांटे का मुकाबला देखने को मिला था। तब सपा ने भी त्रिकोण बनाया था।

इस मुकाबले में कांग्रेस प्रत्याशी को 23 हजार 327 और भाजपा को 20 हजार 269 वोट मिले थे। सपा प्रत्याशी मतीन ने भी 9 हजार 563 वोट हासिल कर सभी को चौंका दिया था।

अगले विस चुनाव 2007 में कांग्रेस प्रत्याशी डा. इंदिरा हृदयेश विकास के रथ पर सवार थी, तो भाजपा प्रत्याशी बंशीधर भगत सत्ता विरोधी रुझान को लेकर अंदर अंदर ही कांग्रेस की हार की कहानी लिखने में लगे थे। इसमें राज्य आंदोलनकारी एवं कांग्रेस से नाराज मोहन पाठक अलग से धमक विखेर रहे थे। इसकी तस्दीक चुनाव नतीजों ने भी की।

कांग्रेस को 35 हजार 13 वोट मिले तो भाजपा प्रत्याशी ने 39, 248 वोट हासिल कर लिए। इसके इतर मोहन पाठक ने 10 हजार 361 तो मतीन सिद्दीकी ने तो 18 हजार 967 वोट हासिल कर सबका दिल जीत लिया।
इस हार के बाद इंदिरा को जनप्रिय नेता के तौर पर खड़ा कर दिया।

2012 के चुनाव में इंदिरा को 42 हजार 627 वोट मिले तो इसके विपरीत भाजपा प्रत्याशी रेनू अधिकारी 19 हजार 44 वोट पर ही सिमट गई। इस बार मतीन सिद्दीकी का ग्राफ भी घटकर 13 हजार 453 वोट पर सिमट गया।

इसकी परिणति यह 2017 के विस चुनाव में मतीन ने हाथ का दामन थाम लिया और इस बार इंदिरा का मुकाबला करने के लिए भाजपा ने महापौर डा.जोग्रेंद्र पाल सिंह रौतेला को मैदान में उतार दिया। रौतेला ने पहले चुनाव में अच्छा प्रदर्शन किया हालांकि इंदिरा का जादू बरकरार रहा और वे 43 हजार 786 वोट हासिल करने में सफल रही।

तब भाजपा प्रत्याशी को 37 हजार 229 वोट मिले और सपा से शोएब अमहद ने 10 हजार 337 वोट हासिल किए। इस बीच 2021 में चुनाव से कुछ माह पहले इंदिरा की असमय मौत के बाद कांग्रेस ने इंदिरा की सहानुभूति लहर का लाभ लेने के लिए इंदिरा के सबसे छोटे पुत्र सुमित को मैदान में उतारा है।

मतीन ने कांग्रेस का दामन छोडक़र औवेसी की पार्टी एआईएमआईएम से टिकट लिया है तो शोएब अहमद फिर सपा के टिकट पर मैदान में हैं। आप ने समित टिक्कू को उतारा है।

कांग्रेस इस चुनाव में सत्ता विरोधी रुझान के साथ ही इंदिरा के विकास के सपने और सहानुभूति के सहारे आगे चल रही तो भाजपा ने फिर पुराने महारथी पर ही दांव चल कर अभी नहीं तो कभी नहीं का नारा दिया है।

भाजपा पीएम नरेंद्र मोदी की हल्द्वानी जनसभा में हल्द्वानी के विकास के लिए की गई दो हजार करोड़ की घोषणा को भी लोगों तक ले जा रही है।

चुनाव प्रचार में भाजपा को आईएसबीटी, अंतरराष्ट्रीय खेल मैदान, अंतरराष्ट्रीय चिडिय़ाघर,स्टेट बैंक से मुखानी तक नहर कवरिंग और बाईपास की फर्जी घोषणा के लिए भी घेर रही है।

इसके वाबजूद भाजपा प्रत्यशी पार्टी संगठन के सहारे इंदिरा के गढ़ में सुमित को घेरने के लिए चक्रव्यूह की रचना कर चुकी है। इसके लिए पार्टी शाम, दाम,दंड और भेद की नीति पर चलकर आगे बढ़ रही है।

सुमित और जोगेंद्र में पहले भी हो चुकी है भिड़त

कांग्रेस एवं भाजपा प्रत्याशी सुमित हृदयेश की 2018 में हल्द्वानी नगर निगम के चुनाव में भी भिड़त हो चुकी है। तब भाजपा प्रत्यशाी डा. जोगेंद्र पाल सिंह रौतेला ने सुमित हृदयेश को हरा दिया था। इस हार के पीछे सुमित को टिकट देने से कई कांग्रेस नेताओं के नाराज होने के कारण थे।

वे एक ही परिवार के लोगों को टिकट देने की जनता में हवा फैलाने में कामयाब रहे थे। इसके हार के बाद ही इंदिरा और हरीश रावत के बीच दरार पड़ गई थीं। वे एक दूसरे के धुर राजनीतिक विरोधी हो गए थे। अब इस चुनाव में हरीश सुमित का जिताने के लिए काम कर रहे हैं तो इससे भाजपा को इंदिरा के साथ ही हरीश रावत के मोर्चे पर भी जूझना पड़ रहा है।

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