योगेश कुमार गोयल
पहले से ही प्रदूषण की खतरनाक स्थिति के मद्देनजर पटाखों पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों की धज्जियां उड़ाते हुए दिल्ली-एनसीआर में इस साल भी जिस प्रकार लोगों ने जमकर पटाखे चलाए, उससे वायु गुणवत्ता सूचकांक (एक्यूआई) कई इलाकों में गंभीर स्तर से भी अधिक 480 तक पहुंच गया।
पटाखों के कारण दीवाली के अगले दिन प्रदूषण का स्तर 2017 से 2020 तक जहां क्रमशः 403, 390, 368, 435 था, वहीं इस वर्ष यह सारे रिकॉर्ड तोड़ते हुए 462 के पार जा पहुंचा और प्रदूषण के भयानक स्तर के कारण उत्तर भारत के कई शहर धुंध की मोटी चादर में लिपटे रहे।
यही नहीं, फेफड़ों को नुकसान पहुंचाने वाले जिन महीन कणों पीएम 2.5 कीसुरक्षित दर 60 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर निर्धारित है, उनकी औसत सांद्रता भी इससे करीब सात गुना यानी 430 तक पहुंच गई।
दीवाली के अगले दिन पीएम 10 का स्तर भी 558 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर दर्ज किया गया। स्थिति को विकराल बनाने में खेतों में जलती पराली भी खतरनाक भूमिका निभा रही है।
हाल ही में नासा द्वारा जारी आंकड़े देखें तो हरियाणा में पराली जलने की 9-16 सितम्बर तक कुल 9, 1 अक्तूबर को 35 और 5 नवम्बर को 500 घटनाएं देखी गई, वहीं पंजाब में 19-21 सितम्बर के बीच 50, 1 अक्तूबर को 255 घटनाएं देखी गई लेकिन दीवाली के अगले दिन 5 नवम्बर को पंजाब में पराली जलने की करीब 6000 घटनाओं ने तो पटाखों के विषैले धुएं के साथ मिलकर प्रदूषण को खतरनाक स्तर पर पहुंचा दिया।
वायु गुणवत्ता सूचकांक गंभीर श्रेणी में चले जाने के कारण लोगों को गले में जलन तथा आंखों में पानी आने की परेशानियों से जूझना पड़ रहा है। सबसे ज्यादा परेशानी उन लोगों को है, जिनके फेफड़े कोरोना के कारण पहले ही काफी कमजोर हैं।
स्वास्थ्य विशेषज्ञों के अनुसार आम धारणा है कि प्रदूषण के कारण श्वांस संबंधी परेशानियां ज्यादा होती हैं लेकिन विभिन्न शोधों में स्पष्ट हो चुका है कि प्रदूषण के सूक्ष्म कण हमारे मस्तिष्क की सोचने-समझने की क्षमता को भी प्रभावित करते हैं।
मानव स्वास्थ्य पर वायु प्रदूषण के दुष्प्रभावों के संबंध में यह खुलासा भी हो चुका है कि इससे पुरूषों के वीर्य में शुक्राणुओं की संख्या में 40 फीसदी तक गिरावट दर्ज की गई है, जिससे नपुंसकता का खतरा तेजी से बढ़ रहा है।
मेदांता के चेयरमैन डा. नरेश त्रेहन का कहना है कि जहरीली होती हवा से बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य पर भी गंभीर असर पड़ेगा। बड़ों की तुलना में बच्चे प्रदूषण से ज्यादा प्रभावित होते हैं। दरअसल प्रदूषण के कण जब सतह तक पहुंच जाते हैं तो सबसे ज्यादा बच्चे ही उनके सम्पर्क में आते हैं। ऐसे बच्चे, जो सामान्य दिनों में श्वसन संक्रमण की चपेट में आ जाते हैं, उनमें प्रदूषण के कारण संक्रमण का स्तर काफी बढ़ जाता है।
प्रदूषण के कारण बच्चों में एकाग्रता की कमी, चिड़चिड़ापन इत्यादि परेशानियां भी देखने को मिलती हैं, इसके अलावा प्रदूषण बच्चों की लम्बाई कम होने का भी एक अहम कारण बन रहा है।
दिल्ली और आसपास के इलाकों के अलावा देश के अन्य हिस्सों की वायु गुणवत्ता भी बेहद खराब हो गई है। केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अनुसार दिल्ली के अलावा देश के 19 शहर गंभीर प्रदूषण की चपेट में हैं, जिनमें से अधिकांश उत्तर भारत के हैं।
कुछ लोग अदालतों के हर फैसले में कमियां ढूंढ़ते हैं, दीवाली पर आतिशबाजी पर प्रतिबंध संबंधी अदालत के फैसले का भी धार्मिक परम्पराओं में अदालती हस्तक्षेप का मामला बताकर जमकर विरोध किया गया और काफी हद तक उसी का परिणाम रहा कि इस वर्ष देश के लगभग तमाम हिस्सों में जबरदस्त आतिशबाजी हुई।
ऐसे अदालती फैसलों का विरोध करते समय हम भूल जाते हैं कि दीवाली तो पटाखों की शुरूआत होने के सदियों पहले से ही मनाई जाती रही है। वैसे भी देखा जाए तो सरकारें और देश की तमाम जिम्मेदार संस्थाएं देश को प्रदूषण के कहर से बचाने में नाकारा साबित हो रहे हैं।
दिल्ली में सभी तरह के पटाखों पर पूर्ण प्रतिबंध होने के बावजूद खूब पटाखे चले, कहीं कोई किसी को रोकने वाला नहीं था। इसी प्रकार हरियाणा में भी सरकार द्वारा कई जिलों में पटाखों पर प्रतिबंध लगाया गया था लेकिन पुलिस-प्रशासन की नाक तले या यूं कहें कि उन्हीं के संरक्षण में पर्यावरण के लिए जानलेवा हर तरह के पटाखे खुलेआम बिके।
तमाम चेतावनियों और दिशा-निर्देशों के बावजूद अब दिल्ली की रात और उसके बाद प्रदूषण का स्तर इतना खतरनाक हो जाता है कि ऐसा लगने लगता है, मानो किसी संक्रामक बीमारी ने हमला बोल दिया हो। ऐसे में अगर लोगों के स्वास्थ्य के मद्देनजर सर्वोच्च न्यायालय ऐसे कठोर फैसले लेने पर विवश होता है तो इसमें गलत क्या है।
ऐसे फैसलों को धर्म और आस्था की चाशनी में घोलकर देखने के बजाय अगर अदालत के ऐसे फैसलों की सदाशयता को समझें और उन्हें व्यावहारिक बनाने में अपने-अपने स्तर पर प्रयास करें तो यह स्वास्थ्य के लिहाज से न केवल दूसरों के बल्कि स्वयं अपने हित में भी होगा।
पर्यावरण संरक्षण पर प्रकाशित हुई अपनी पुस्तक ‘प्रदूषण मुक्त सांसें’ में मैंने पटाखों से होने वाले प्रदूषण पर विस्तार से प्रकाश डालते हुए बताया है कि पटाखों में हरी रोशनी के लिए बैरियम का उपयोग किया जाता है, जो रेडियोधर्मी तथा विषैला होता है जबकि नीली रोशनी के लिए कॉपर के यौगिक का इस्तेमाल होता है, जिससे कैंसर का खतरा होता है और पीली रोशनी के लिए गंधक इस्तेमाल किया जाता है, जिससे सांस की बीमारियां जन्म लेती हैं।
पटाखों के फूटने के करीब 100 घंटे बाद तक हानिकारक रसायन वातावरण में घुले रह सकते हैं। पटाखों के धुएं में सल्फर डाईऑक्साइड, नाइट्रोजन ऑक्साइड, कार्बन मोनोक्साइड, ऐस्बेस्टॉस के अलावा विषैली गैसों के रासायनिक तत्व भी पाए जाते हैं, जो ग्लोबल वार्मिंग के लिए भी अनुकूल परिस्थितियां पैदा करते हैं।
बारूद और रसायनयुक्त पटाखों के जहरीले धुएं से श्वांस संबंधी रोग, कफ, सिरदर्द, आंखों में जलन, एलर्जी, उच्च रक्तचाप, दिल का दौरा, एम्फिसिया, ब्रोंकाइटिस, न्यूमोनिया, अनिद्रा सहित कैंसर जैसी असाध्य बीमारियां फैल रही हैं। पटाखों के शोर और प्रदूषण से दुधारू पशुओं में एडरलीन हार्मोन कम हो जाता है, जिसका उनके दूध देने की क्षमता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
पटाखे तैयार करते समय ध्वनि, प्रकाश व धुआं उत्पन्न करने वाले जिन तत्वों का प्रयोग किया जाता है, उनमें 75 प्रतिशत शोरा अथवा बारूद, 10 प्रतिशत गंधक और 15 प्रतिशत कोयला होता है। पटाखों की कानफोडू आवाज से कानों के पर्दे फटने तथा बहरेपन जैसी समस्याएं भी तेजी से बढ़ी हैं।
जहरीले पटाखों के कारण बैक्टीरिया तथा वायरस संक्रमण की संभावनाएं बढ़ जाती हैं। एम्स निदेशक डा. रणदीप गुलेरिया ने तो चेतावनी भरे लहजे में कहा भी है कि बढ़ते प्रदूषण से देश में कोरोना के मामले बढ़ सकते हैं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और पर्यावरण मामलों के जानकार हैं तथा पर्यावरण संरक्षण पर चर्चित पुस्तक प्रदूषण मुक्त सांसें लिख चुके हैं)