असली गुनाहगार कौन?

दमोह विधानसभा उपचुनाव : राकेश प्रजापति, भोपाल।

भाजपा प्रत्याशी को हराने वालों के खिलाफ शिवराज ने साधी चुप्पी
बड़े-बड़े नेता हार की समीक्षा कर एक-दूसरे पर फोड़ रहे ठीकरा
हाल ही में हुए दमोह विधानसभा उपचुनाव हुआ जिसमें भारतीय जनता पार्टी के प्रत्याशी राहुल लोधी को 17 हजार से अधिक वोटों से अपने निकटतम कांग्रेस प्रत्याशी से हार का सामना करना पड़ा। यह उपचुनाव शिवराज सिंह चौहान के लिए नाक का प्रश्न था। चुनाव में संगठन और सत्ता के बेजा इस्तेमाल करने के बाद भी भारतीय जनता पार्टी को करारी शिकस्त मिली। इस हार ने संगठन और सत्ता दोनों ही पक्ष में कोहराम मचा दिया है! बड़े-बड़े नेता अपनी तरफ से हार की समीक्षा कर एक-दूसरे के ऊपर ठीकरा फोड़ने का काम कर रहे हैं!
बताते चलें कि दमोह विधानसभा क्षेत्र, 2 संसदीय क्षेत्र के बीच पड़ता है जिसमंे दमोह लोकसभा क्षेत्र से सांसद एवं केंद्रीय मंत्री प्रहलाद सिंह पटेल का क्षेत्र है तो वहीं दूसरा खजुराहो लोकसभा क्षेत्र विष्णु दत्त शर्मा का है! वह सांसद के साथ- साथ प्रदेश भाजपा अध्यक्ष भी हैं और ये दोनों सांसद मध्य प्रदेश में मुख्यमंत्री बनने की होड़ में सबसे आगे हैं! महत्वपूर्ण बात यह भी है कि यदि दमोह उपचुनाव भारतीय जनता पार्टी का प्रत्याशी जीत जाता तो पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष बीडी शर्मा तथा केंद्रीय मंत्री प्रहलाद पटेल का कद और ऊंचा हो जाता? एक तरह से भविष्य में मुख्यमंत्री बनने की सूची में इनका नाम अग्रिम पंक्ति में लिखा जाता रहा है!
ज्ञात हो कि जब-जब प्रदेश में राजनीतिक सर्जरी करने और मुख्यमंत्री के परिवर्तन होने की खबरें चली हैं, तब तक बीडी शर्मा और प्रहलाद सिंह पटेल का नाम सुर्खियों में बना रहता है! परंतु अभी दमोह चुनाव हारने के बाद भाजपा प्रदेश अध्यक्ष बीडी शर्मा और सांसद एवं केंद्रीय मंत्री प्रहलाद पटेल के कद और प्रतिष्ठा में कमी आई है। इसी श्रृंखला में दमोह उपचुनाव की हार की जिम्मेदारी प्रदेश के पूर्व वित्त मंत्री श्री जयंत मलैया और उनके पुत्र के ऊपर डाल कर उनसे स्पष्टीकरण लिया जा रहा है! जबकि वास्तविकता यह है कि मलैया मुख्यमंत्री शिवराज के बहुत ही नजदीकी और विश्वसनीय रहे हैं। यह भी कहा जा रहा है कि उपचुनाव हारने के लिए पहले से ही गोटियां बिछाई गई थीं। इन्हीं राजनीतिक गोटियों की जमावट में अंदरखाने से यह भी खबर है कि 5 मई को मां कर्मा बाई की जयंती पर दमोह में साहू समाज द्वारा भव्य आयोजन किया जाना था! साहू समाज के प्रतिष्ठित लोगों ने उस आयोजन के लिए अनुमति मांगी थी। लेकिन जिला कलेक्टर तरुण राठी ने अनुमति देने से मना कर दिया था। औपचारिकता निभाने के लिए मां कर्मा बाई जयंती के अवसर पर प्रदेश अध्यक्ष बीडी शर्मा 5 मार्च को जबलपुर के पूर्व महापौर प्रभात साहू को लेकर पहुंच गए थे, परंतु तब तक सामाजिक ताने-बाने का खेल खराब हो चुका था!
ज्ञात हो कि दमोह चुनाव में जहां वोटिंग होनी थी, उस विधानसभा क्षेत्र में 14 हजार से ज्यादा साहू समाज के मतदाता हैं। जिन्होंने मां कर्मा बाई जयंती के कार्यक्रम की अनुमति नहीं मिलने के कारण भारतीय जनता पार्टी को वोट ना देकर कांग्रेस को वोट दे दिया और सपोर्ट भी किया! हार का दूसरा कारण मध्यप्रदेश-बुंदेलखंड पैकेज में पानी की व्यवस्था के लिए 100 करोड़ रुपए के विकास कार्य किया जाना प्रस्तावित था! परंतु बरसों बाद भी पेयजल की समस्या पूरे बुंदेलखंड में यथावत है। बुंदेलखंड में प्रत्येक विकासखंड के वोटरों ने एक आंदोलन चलाया हुआ था! ‘पानी नहीं तो वोट नहीं।’ यह एक आंदोलन का रूप ले चुका था। परंतु इस ओर मध्य प्रदेश सरकार के मुखिया ने ध्यान ही नहीं दिया और ना ही वोटरों के आंदोलन की चिंता की जो कि वर्षों से वहां की ज्वलंत समस्या है! चर्चा यहां तक कि पानी की समस्या और कार्य करने में लापरवाही के कारण हारने की संभावना की सूचना आई थी तथा प्रदेश सीआईडी ने भी मुख्यमंत्री को पूर्व में ही दे दी थी। यहां शिवराज सिंह चौहान ने आम आदमी के ‘मामा’ कहलाने वाले की छवि को ‘मामा शकुनि’ के रूप में प्रदर्शित किया है। कुल मिलाकर, उपचुनाव के तीर से कई निशाने साधे गए हैं।

पिछले साल विधानसभा उपचुनाव की 28 सीटों में से 19 सीट जीतने वाले दमोह उपचुनाव की मात्र एक सीट कैसे हार सकते हैं? राजनीतिक पंडित भी जानते हैं परंतु कहीं उनकी परिस्थितियां विषम ना हो जाएं अथवा केंद्र सरकार और राज्य सरकार की भृकुटी टेढ़ी ना हो जाए, इसलिए मंुह खोलने की हिम्मत ही नहीं जुटा पा रहे हैं!
जानकार बताते हैं कि 5 मई को जो साहू समाज के कार्यक्रम का आयोजन होने वाला था, उसके मुख्य कर्ताधर्ता किशोर समरीते थे! साहू समाज ने समाज के संरक्षक किशोर समरीते का इशारा पाकर ही भाजपा को वोट नहीं दिया और यह सारे वोट कांग्रेस के खाते में पड़ गए। उपचुनाव में 14 हजार वोटों की बढ़त कांग्रेस के प्रत्याशी के लिए रामबाण साबित हुई! हालांकि कांग्रेस का प्रत्याशी भी कोई बहुत बड़ा ख्याति प्राप्त सामाजिक नागरिक नहीं है और ना ही कोई उसकी कोई खास व्यक्तिगत उपलब्धि है। परंतु इसके बावजूद प्रचंड बहुमत से उपचुनाव को जीत जाना आश्चर्य नहीं समझा जा सकता। इस चुनाव में राजनीति नहीं, महाभारत जैसी रणनीतिक चालें भी चली गई हैं। अपने विरोधियों को ध्वस्त करने के लिए इस उपचुनाव को जीतने की बजाय हराया गया है अर्थात एक-दो लोगों को थोड़े दिन के लिए सुर्खियों में रखकर ताकि लोगों को लगे कि कुछ कार्यवाही होती है। अनुशासन के नाम पर हम राजनीतिक दांवपेच खेल कर कुछ कर सकते हैं। परंतु वास्तविकता इससे कुछ अलग है। करनी कथनी में अंतर होता है। बताया जा रहा है कि पूरे उपचुनाव की प्रक्रिया में दोषी कौन है और राजनीतिक चाल कहां चली जा रही थी, चलने वाला कौन हैं, चलाने वाला वाले कौन हैं और चूक जाने में सहयोगी कौन-कौन हैं अर्थात जो दोषी हैं सभी सुधि पाठक समझते हैं और राजनीतिक पंडित अपनी अपनी राजनीतिक दल की अनुशासनिक मजबूरी के कारण मौन है..? यही उनकी मजबूरी भी है और नियति भी…?

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