इजराइल के प्रति भक्तों की भक्ति

प्रसंगवश

अमरेंद्र कुमार राय

नई दिल्ली। देश कोरोना की महामारी से हलकान है। इससे कैसे बचें, इसके अलावा किसी को दूसरा कुछ सूझ नहीं हो रहा। लेकिन इस माहौल में भी कुछ लोग इजराइल और फिलस्तीन की समस्या को लेकर दुबले हुए जा रहे हैं। जो लोग अपने राज्य और देश की समस्याओं को ठीक से जानते भी नहीं वे भी इजराइल की तारीफ में कसीदे पढ़ रहे हैं। ये वही लोग हैं जो यहां भी हिंदू-मुसलमान करते हैं और उन्हें इजराइल-फिलस्तीन की समस्या में भी हिंदू-मुसलमान जैसा करने का मौका मिल रहा है। ये अलग बात है कि वहां हिंदू नहीं हैं। तो उससे क्या हुआ ? मुसलमान तो हैं। उनकी नजर में इजराइल मुसलमानों को सबक सिखा रहा है और जो भी मुसलमानों को सबक सिखाएगा वो उनकी नजरों में हीरो है।

  • बिना मूल कारण जाने ही कुछ लोग इजराइलफिलस्तीन समस्या को लेकर  चिंतित
  • अमेरिका की शह पाकर इजराइल करता रहा है मनमानीइस बार भारत ने भी साधी चुप्पी

इजराइल और फिलस्तीन की समस्या बहुत पुरानी है। लेकिन फिलहाल टकराव की वजह यरुशलम की अल अक्सा मस्जिद बनी है। यहां थोड़ा यरुशलम के बारे में जान लेना ठीक रहेगा। यरुशलम मुसलमान, ईसाई और यहूदी तीनों धर्मों की आस्था का केंद्र है।  में स्थित अल अक्शा मस्जिद मुसलमानों की मक्का और मदीना के बाद तीसरी सबसे पवित्र मस्जिद है। ईसाइयों के लिए भी यरुशलम पवित्र स्थान है। यहां “द चर्च ऑफ द होली सेपल्कर” है। मान्यता है कि जीसस को इसी जगह पर सूली पर चढ़ाया गया था और यहीं वे फिर से जीवित भी हुए थे। इसी तरह यहूदी भी मानते हैं कि यहां कि “वेस्टर्न वॉल” उनके पवित्र मंदिर का अवशेष है। इस तरह यहां तीनों धर्मों के अनुयायी रहते हैं। यरुशलम अभी भी एक अंतरराष्ट्रीय सरकार के अधीन वाला शहर है। हालांकि इजराइल ने इसके पूर्वी हिस्से पर गैर कानूनी ढंग से कब्जा जमा रखा है।

इजराइल सुप्रीम कोर्ट ने कुछ दिन पहले पूर्वी यरुशलम से फिलस्तीनियों के सात परिवारों को निकाल बाहर करने के आदेश दिए थे। जिसके बाद हिंसा का दौर शुरू हुआ। फिलस्तीनियों में इस बात को लेकर आक्रोश उत्पन्न हुआ। उन्होंने उसके विरोध में प्रदर्शन किया। प्रदर्शनों को रोकने के लिए इजराइल पुलिस तैनात की गई। लोग बताते हैं कि मौजूदा संघर्ष इजराइली पुलिस की हेकड़ी के कारण हुआ। पुलिस ने मस्जिद में मौजूद प्रदर्शनकारियों पर आंसू गैस के गोले छोड़े। जवाब में प्रदर्शनकारियों ने पुलिस पर पथराव किया। इस पर पुलिस ने मस्जिद पर हैंड ग्रेनेड फेंके। यह आक्रोश फिलस्तीन के साथ ही पूरे इजराइल में भी फैल गया। इजराइल में इस लिए कि इजराइल में भी काफी संख्या में फिलस्तीनी रहते हैं। इसी कारण इजराइल में कई जगहों पर प्रदर्शन हुए। फिलस्तीनियों पर हो रही ज्यादती के विरोध में फिलस्तीनियों का आतंकवादी संगठन हमास उनके पक्ष में उतर आया। उसने इजराइल पर सैकड़ों मिसाइलें दाग दीं। इजराइल ने भी जवाबी कार्रवाई की। नतीजा यह निकला कि वहां दोनों तरफ से युद्ध की स्थिति बन गई। इजराइल ने हमास के ठिकानों पर जोरदार हमला किया। बताया जा रहा है कि 2014 के बाद फिलस्तीनियों पर इजराइल का यह सबसे बड़ा हमला है। फिलहाल स्थिति ये है कि संयुक्त राष्ट्र की मध्यस्थता में दोनों के बीच 11 दिन के युद्ध के बाद संघर्ष विराम हो गया है। लेकिन इस संघर्ष में करीब तीन सौ लोगों की जान जा चुकी है। इसमें बड़ी संख्या में बच्चे भी शामिल हैं। ज्यादातर फिलस्तीनी ही मारे गए हैं। ढाई सौ से ज्यादा। पर कुछ इजराइली भी हैं। इजराइल के हमले में भारत का भी एक नागरिक मारा गया। कायदे से तो भारतीयों को इजराइल के हमले का विरोध करना चाहिए। संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद में भारत ने फिलस्तीनियों के पक्ष में ही बयान दिया। पर देश में सत्ताधारी दल के लोग इजराइल का गुणगान कर रहे हैं। ये भी नहीं सोच रहे कि उसके हमले में एक भारतीय की भी जान गई है। पर उन्हें क्या वे भारतीय की मौत पर दुखी होने से ज्यादा इस बात से खुश हैं कि इजराइल मुसलमानों (फिलस्तीनियों) को सबक सिखा रहा है।

इजराइल और फिलस्तीन की समस्या पुरानी होने के साथ ही बड़ी गड्ड-मड्ड भी है। पहले विश्व युद्ध के दौरान आज का इजराइल और तब का फिलस्तीन दोनों ही तुर्की के ऑटोमन साम्राज्य के हिस्से थे। प्रथम विश्व युद्ध में तुर्की ने मित्र राष्ट्रों के खिलाफ खड़े देशों का साथ दिया था। इस वजह से तुर्की और ब्रितानी साम्राज्य आमने-सामने आ गए थे। उस समय यहूदियों में जियोनिज्म की भावना चरम पर थी। वे अपने लिए एक देश बनाना चाहते थे। उसी के तहत उन्होंने ब्रितानी सरकार से कहा कि वह अगर उनका देश बनाने में उनकी मदद करने का वादा करे तो वे भी तुर्की के खिलाफ युद्ध में उसकी मदद करेंगे। ब्रिटेन की सरकार इसके लिए तैयार हो गई। वैसे भी ब्रिटेन मजबूत स्थिति में था और युद्ध में उसने तुर्की को हरा दिया। इस तरह ऑटमन साम्राज्य का अंत हो गया। जियोनिज्म की विचारधारा के चलते ही दुनिया भर के यहूदी फिलस्तीन आना शुरू हुए। ब्रिटेन ने भी यहूदियों का साथ दिया और कहा कि वह फिलस्तीन को यहूदियों की मातृभूमि बनाने में मदद करेगा। लेकिन दूसरे विश्व युद्ध में ब्रिटेन बहुत कमजोर हो गया। वह यहूदियों को मातृभूमि बनवाने में पहले की तरह मदद नहीं कर पाया। 1945 में वह इस मसले को संयुक्त राष्ट्र में ले गया। संयुक्त राष्ट्र ने 29 नवंबर 1947 को फिलस्तीन को दो हिस्सों में बांट दिया। पहला हिस्सा बना अरब राज्य फिलिस्तीन और दूसरा हिस्सा बना इजराइल। आप इसे कुछ-कुछ भारत-पाकिस्तान के बंटवारे की तरह भी देख सकते हैं। संयुक्त राष्ट्र ने यरुशलम को अंतरराष्ट्रीय सरकार के अधीन रखा।

यहूदियों का अभी तक अपना कोई देश नहीं था। इसलिए उसने झट से संयुक्त राष्ट्र के फैसले को मान लिया। लेकिन अरब राज्यों ने इसे स्वीकार नहीं किया। जल्दी ही अमेरिका ने और फिर ब्रिटेन ने भी इजराइल को देश के रूप में मान्यता दे दी। आपको मालूम है कि दूसरे विश्व युद्ध में अमेरिका एक बड़ी ताकत बनकर उभरा और उसका समर्थन मिलने से इजराइल की स्थिति बहुत मजबूत हो गई। वह अपने इलाके में एक तरह से दादागीरी करने लगा। उसे जो इलाके संयुक्त राष्ट्र ने दिए उसे वह बढ़ाने लगा। इजराइल सीरिया, जार्डन, लेबनान, मिस्र जैसे कई अरब राज्यों से घिरा हुआ है। और करीब-करीब सबसे उसका विवाद होने लगा। अमेरिका की मदद से 1947 से लेकर 1950 के बीच उसने अपनी स्थिति बहुत मजबूत कर ली। जब इजराइल बना तो उस समय वहां यहूदियों की आबादी मुश्किल से दस फीसदी थी जो बाद में बढ़कर 30 प्रतिशत से ज्यादा हो गई। वह फिलस्तीन के इलाकों को भी जगह-जगह से अपने में मिलाने लगा।

आज स्थिति ये है कि फिलस्तीन एक देश के रूप में आपको कहीं दिखता ही नहीं है। जैसे मुहल्लों में मिली-जुली आबादी रहती है वही स्थिति फिलिस्तीन की हो गई है। इजराइल का जहां मन किया वहीं फिलस्तीनी जमीनी को घेरकर वह यहूदियों को बसा देता है। अगर जरूरत पड़ती है तो उस इलाके से फिलस्तीनियों को चाहे कानून का सहारा लेकर या फिर जोर जबरदस्ती से हटा देता है। यहूदियों की सुरक्षा के नाम पर वह जगह-जगह बाड़ खड़ी कर देता है जहां फिलस्तीनियों के आने-जाने पर रोक लगा दी जाती है। अगर वे आएंगे भी तो उसके लिए इजराइली प्रशासन से अनुमति लेनी पड़ती है। मतलब ये कि जमीन फिलस्तीन की लेकिन कब्जा इजराइल का। संयुक्त राष्ट्र भी इजराइल को उसकी इस हरकत के लिए 77 बार उसकी निंदा कर चुका है पर उसकी कान पर जूं नहीं रेंगती। क्योंकि उसके पीछे अमेरिका खड़ा है। वह जानता है कि उसका कुछ नहीं बिगड़ेगा। इसीलिए वह संयुक्त राष्ट्र की अनदेखी करके फिलस्तीनी इलाकों पर आज भी कब्जा करता रहता है। मौजूदा संघर्ष की भी यही वजह है।

इजराइल पूर्वी यरुशलम से सात फिलस्तीनी परिवारों को हटाकर वहां यहूदियों को बसाना चाहता है। इसके लिए उसने सुप्रीम कोर्ट की आड़ ली है। दरअसल इजराइल जिसकी लाठी उसकी भैंस वाली कहावत चरितार्थ किए हुए है। वह न केवल फिलस्तीन की तुलना में मजबूत है बल्कि उसकी सीमाओं से लगने वाले सारे राष्ट्रों की सम्मिलित ताकत पर भी वह भारी पड़ता है। 1967 के युद्ध में ये बात वो साबित कर चुका है। 1967 में सारे अरब देशों ने मिलकर उस पर हमला किया। फिर भी उसने सबको हरा दिया। दरअसल वह अमेरिका का घनिष्ठ सहयोगी है। अमेरिकी रक्षा संबंधी अति आधुनिकतम तकनीक उसे आसानी से मिल जाती है। अमेरिका पूरी दुनिया के लिए मदद का जो हिस्सा तय करता है करीब उसका 54 प्रतिशत अकेले इजराइल को जाता है। यही वजह है कि इजराइल दुनिया का सातवां सबसे बड़ा निर्यातक देश है।

भारत शुरू से ही फिलस्तीनियों का समर्थक रहा है। हालांकि देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू को भी अंतरराष्ट्रीय माहौल को देखते हुए इजराइल को मान्यता देनी पडी थी पर उन्होंने हमेशा खुलेआम फिलस्तीन का समर्थन किया। तीसरी दुनिया के देशों में भारत के समर्थन पर फिलस्तीनी नेता यासिर अराफात हमेशा गर्व करते थे। वे कई बार भारत आए और भारत से उन्हें उम्मीद से ज्यादा सहयोग मिला। भारतीय प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और अटल बिहारी वाजपेयी भी फिलस्तीन के दौरे पर गए। लेकिन 2014 में नरेंद्र मोदी की नई सरकार बनने के बाद भारत की इस नीति में बदलाव आया है। भारत अब इजराइल का सहयोगी देश बन रहा है। रक्षा के कई मामलों में इसने इजराइल से हाथ मिलाया है। बेशक संयुक्त राष्ट्र में हाल ही में हुई बैठक में भारत ने फिलस्तीन के पक्ष में अपनी बात रखी पर इजराइल की आलोचना से वह बचा। ऐसी कोई बात नहीं कही जिससे इजराइल को नुकसान पहुंचे। यह भारत की फिलस्तीन नीति में बदलाव का संकेत है। उससे भी बड़ा संकेत सत्ताधारी दल के कार्यकर्ताओं का इजराइल के प्रति लगाव है जो इस समय बहुत साफ-साफ देखा जा सकता है।

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