- राज्यपाल सत्यपाल मलिक की बेबाकी ने उड़ाई मोदी सरकार की नींद, किसान उत्साहित
- सरकार में आक्रोश बेकाबू, मुख्यमंत्री खट्टर मान-मनुहार में जुटे
क्या मेघालय के राज्यपाल सत्यपाल मलिक की कुर्सी को कोई खतरा हो सकता है? वे अपना कार्यकाल पूरा करेंगे या फिर उनकी छुट्टी हो जाएगी? आजकल राजनीतिक हलकों में यह सवाल पूछे जा रहे हैं। यह सवाल तब उठे हैं, जब मलिक ने केंद्र के कृषि कानूनों के खिलाफ किसानों के आंदोलन को जायज करार दे दिया है।
किसान आंदोलन के मामले में मलिक का मानना है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह गलत रास्ते पर चल रहे हैं। मलिक ने यह बात हरियाणा में दादरी क्षेत्र के निर्दलीय विधायक सोमबीर सांगवान को लिखी चिट्ठी में कही है। सांगवान ने मलिक की चिट्ठी मिलने की पुष्टि की है।
यहां यह बताना जरूरी है कि खुद सांगवान किसान आंदोलन के समर्थन में खट्टर सरकार से समर्थन वापस ले चुके हैं। उन्होंने हरियाणा पशुधन विकास बोर्ड के चैयरमैन पद से भी इस्तीफा दे दिया था। किसानों की मांगों के समर्थन में केंद्र सरकार पर दबाव बनाने के लिए सांगवान खाप की तरफ से उन्होंने मेघालय के राज्यपाल सत्यपाल मलिक के अलावा पश्चिम बंगाल के राज्यपाल जगदीप धनखड़ और गुजरात के राज्यपाल आचार्य देवव्रत को भी चिट्ठी लिखी थी। खाप-पंचायतों का समर्थन करते रहे पूर्व वित्त मंत्री कैप्टन अभिमन्यु को उन्होंने चिट्ठी लिखी थी। इन सभी का ताल्लुक किसान परिवारों से है।
राज्यपाल मलिक ने अपनी चिट्ठी में लिखा है कि उन्होंने प्रधानमंत्री और गृहमंत्री को यह बताने की कोशिश की है कि वे गलत रास्ते पर हैं। उन्होंने किसानों को दबाने, डराने और धमकाने का प्रयास नहीं करने की भी सलाह दी है। चिट्ठी में यह भी लिखा है कि उन्होंने केंद्र से कहा था कि किसानों को दिल्ली से खाली हाथ नहीं लौटाना चाहिए। इस सिलसिले में अगले महीने जब वे दिल्ली आएंगे तो एक बार फिर किसानों के मुद्दे पर संबंधित नेताओं से संपर्क कर उन्हें किसानों के पक्ष में सहमत करने के प्रयास करेंगे।
मलिक ने अपनी चिट्ठी में यह भी कहा है कि आंदोलन के चलते 300 से अधिक किसानों के जान गंवा देना दुखद है। शांतिपूर्ण तरीके से शानदार और लंबी लड़ाई लड़ने के लिए किसानों को बधाई का पात्र बताते हुए मलिक ने कहा कि केंद्र सरकार ने इन किसानों के प्रति संवेदना में एक शब्द भी नहीं कहा है। उन्होंने कहा कि केंद्र सरकार की मंशा ठीक नहीं है और आंदोलन को तोड़ने और बदनाम करने के प्रयास किये जा रहे हैं।
मलिक राज्यपाल के पद पर रहते हुए इससे ज्यादा क्या कह सकते हैं? मलिक ने तो सांगवान को उनकी चिट्ठी का जवाब दिया है, लेकिन इस बात की उम्मीद कम ही है कि पश्चिम बंगाल या गुजरात के राज्यपाल कोई उत्तर देने का कष्ट करेंगे। पूर्व मंत्री कैप्टन अभिमन्यु भी शायद सार्वजनिक तौर पर केंद्र या हरियाणा की भाजपा-जजपा गठबंधन सरकार के खिलाफ किसी तरह की टिप्पणी करने से बचेंगे।
भाजपा छोड़ने लगे पूर्व मंत्री-विधायक
इसमें कोई शक नहीं कि किसान आंदोलन की वजह से मुख्यमंत्री मनोहर लाल और उनके मंत्रिमंडल के सदस्य सार्वजनिक कार्यक्रमों में हिस्सा लेने से बच रहे हैं। वे जहां भी जाते हैं, किसान न केवल उन्हें काले झंडे दिखाते हैं, बल्कि उनका घेराव भी करते हैं। मंत्रियों, सांसदों और विधायकों को कार्यक्रम बीच में ही छोड़ कर निकलना पड़ता है। स्थिति अच्छी नहीं कही जा सकती। हालात को देखते हुए हरियाणा में पूर्व मंत्री, पूर्व विधायक और पूर्व चेयरमैन भाजपा छोड़ने लगे हैं। भाजपा छोड़ने वाले ज्यादातर नेताओं ने कांग्रेस का ही दामन थामने को प्राथमिकता दी है।
भाजपा छोड़ने वाले प्रमुख लोगों में पूर्व मंत्री अत्तर सिंह सैनी शामिल हैं। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कुमारी सैलजा और पार्टी के हरियाणा मामलों के प्रभारी विवेक बंसल की मौजूदगी में उन्होंने भाजपा छोड़ कांग्रेस की सदस्यता ग्रहण कर ली। सैनी हरियाणा विकास पार्टी (हविपा) के टिकट पर हांसी क्षेत्र से विधायक रह चुके हैं। बंसीलाल सरकार में वे बिजली राज्य मंत्री होते थे।
इसके अलावा फतेहाबाद क्षेत्र से इंडियन नेशनल लोकदल (इनेलो) के टिकट पर विधायक रहे बलवान सिंह दौलतपुरिया भी भाजपा छोड़ कर कांग्रेस में शामिल हो गए हैं। दौलतपुरिया ने कृषि कानूनों के खिलाफ करीब पांच महीने से आंदोलन कर रहे किसानों की सुध नहीं लेने पर भाजपा को अलविदा कहने का फैसला किया है। करीब 12 साल बाद वे फिर से कांग्रेस में लौट आये हैं। सिरसा से पूर्व मंत्री जगदीश नेहरा के बेटे और सिरसा केंद्रीय सहकारी बैंक के पूर्व चेयरमैन सुरेंद्र नेहरा और रानिया क्षेत्र से बसपा के टिकट पर चुनाव लड़ चुके बीर सिंह और ऐलनाबाद क्षेत्र के बसपा नेता डॉ. गुरनाम सिंह भी कांग्रेस में शामिल हो गए हैं।
ऐलनाबाद क्षेत्र से भाजपा के टिकट पर दो बार चुनाव लड़ चुके, हरियाणा बीज विकास निगम के पूर्व चेयरमैन पवन बेनीवाल का किसानों के समर्थन में पार्टी छोड़ना एक बड़ा झटका है। बेनीवाल ने सिरसा के शहीद भगत सिंह स्टेडियम में किसानों के धरना स्थल पर पहुंच कर केंद्र के कृषि कानूनों के विरोध में पार्टी छोड़ने का ऐलान किया। जल्द ही ऐलनाबाद क्षेत्र के लिए उप चुनाव होना है। भाजपा यहां से इनेलो नेता अभय चैटाला के खिलाफ बेनीवाल को ही मैदान में उतारने की सोच रही थी, लेकिन उन्होंने पार्टी छोड़ कर भाजपा के प्रदेश नेतृत्व को संकट में डाल दिया है।
बेनीवाल का कहना है कि वे किसान परिवार से हैं। किसानों की राजनीति करते हैं। भाजपा की नीतियां अब किसान विरोधी होती जा रही हैं। किसानों पर अत्याचार को देखते हुए ही उन्होंने भाजपा छोड़ने का निर्णय लिया है। फिलहाल, वे किसी पार्टी में शामिल नहीं हुए हैं, लेकिन जल्दी ही इस मामले में कोई फैसला ले लेंगे। माना जा रहा है कि बेनीवाल कांग्रेस में जा सकते हैं। यदि बेनीवाल कांग्रेस में शामिल होते हैं तो ऐलनाबाद उप चुनाव में एक बार मुकाबला फिर से चौटाला और बेनीवाल के बीच में ही रहेगा। भाजपा-जजपा गठबंधन को मुकाबले को तिकोना बना पाने में कोई कामयाबी मिल पाएगी या नहीं, कुछ कहना मुश्किल है।
बेअसर रहा खट्टर का आग्रह
किसान आंदोलन की वजह से सत्तारूढ़ भाजपा-जजपा गठबंधन परेशानी महसूस कर रहा है, इसे मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर की तरफ से मानवता के हित में किसान संगठनों से अपना आंदोलन खत्म करने के आग्रह से समझा जा सकता है। हालांकि, उनका यह आग्रह बेअसर रहा है। खट्टर ने कहा था, बढ़ते कोरोना संक्रमण को देखते हुए आज के हालात में आंदोलन जारी रखना सही नहीं है। किसान चाहें तो बाद में भी आंदोलन शुरू कर सकते हैं, लेकिन इस समय खुद और अपने परिवार को लोगों की सेहत को ध्यान रखते हुए किसानों को आंदोलन खत्म कर देने का फैसला कर लेना चाहिए। पिछले तीन महीने से ज्यादा समय से मुख्यमंत्री वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिए राज्य के मुद्दों पर अफसरों से मुखातिब होते रहे हैं। किसानों से टकराव टालने के इरादे से ही उन्होंने सोनीपत के बड़ौली गांव में डॉ. भीमराव अम्बेडकर के अपने कार्यक्रम को स्थगित कर दिया था।
ऐसा नहीं है कि मुख्यमंत्री खट्टर ही आंदोलन खत्म कराने के पक्ष में हैं। उप मुख्यमंत्री दुष्यंत चौटाला ने भी केंद्र सरकार को कृषि कानूनों के मुद्दे पर आंदोलनकारी किसानों से फिर से बातचीत शुरू करने पर जोर दिया है। दुष्यंत चौटाला ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चिट्ठी लिख कर आग्रह किया है कि किसानों से उनकी मांगों पर दोबारा से बातचीत शुरू की जानी चाहिए। लंबे खिंचते आंदोलन को चिंता का विषय बताते हुए दुष्यंत ने कहा है कि अन्नदाता का इस तरह दिल्ली के बॉर्डर पर बैठा रहना ठीक नहीं है। बातचीत से हर समस्या का समाधान संभव है। इससे पहले उन्होंने भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे.पी. नड्डा से भी दिल्ली में मुलाकात की थी।
गृह मंत्री अनिल विज भी ऐसा ही चाहते हैं। विज भी केंद्र से किसानों के साथ बातचीत शुरू करने की वकालत कर चुके हैं। विज ने इस तरह की खबरों का खंडन किया है कि हरियाणा सरकार बॉर्डर पर बैठे किसानों को हटाने के लिए ‘ऑपरेशन क्लीन’ अभियान शुरू करने जा रही है। विज के मुताबिक, लोकतंत्र में आंदोलन का सभी को अधिकार है, बशर्ते इससे दूसरे लोगों के अधिकार प्रभावित नहीं होने चाहिए। विज इस हक में नहीं हैं कि किसानों को जबरदस्ती बॉर्डर से हटाया जाए। भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष ओमप्रकाश धनखड़ भी समझ रहे हैं कि किसान आंदोलन की वजह से भाजपा नेता पिछले पांच महीनों से अपने घरों में बंद होने को मजबूर हैं।
इस बीच मुख्यमंत्री खट्टर के मानवता के आधार पर बॉर्डर पर जारी आंदोलन को खत्म करने के आग्रह पर किसान यूनियन की प्रतिक्रिया सार्थक नहीं रही है। किसान यूनियन के नेता गुरनाम सिंह चढूनी का कहना है कि उस समय मानवता कहां चली गई थी, जब सर्दी के मौसम में सड़कों पर बैरिकेड लगा कर दिल्ली जा रहे किसानों का रास्ता रोका गया था? किसानों पर ठंड में वाटर कैन से पानी की बौछारें की गई थी? कृषि कानूनों के खिलाफ कुरुक्षेत्र में रैली कर रहे किसानों पर पुलिस से लाठीचार्ज करवाया गया था? तब खट्टर सरकार ने क्यों मानवता को भुला कर किसानों पर ज्यादती करवाई थी? इस तरह का कोई आग्रह करने से पहले क्या सरकार को इन सवालों का जवाब नहीं देना चाहिए?
कुल मिलाकर, यह कि मेघालय के राज्यपाल मलिक की तरफ से किसानों को समर्थन देने से किसानों का उत्साह बढ़ा है। जिस तरह से पूर्व मंत्री और पूर्व विधायक पार्टी छोड़ रहे हैं, उससे भाजपा में चिंता बढ़ी है। मुख्यमंत्री के आंदोलन खत्म करने के आग्रह के बाद बॉर्डर पर किसानों की तादाद बढ़ाने के फैसले से साफ है कि वे कृषि कानूनों को रद्द करवाए बिना वापस घर नहीं लौटना चाहते। माना जा रहा है कि पश्चिन बंगाल, असम, केरल, तमिलनाडु और पुदुचेरी विधानसभा चुनावों के परिणाम भाजपा के पक्ष में आए तो शायद किसानों की मांगों पर केंद्र का रवैया उपेक्षापूर्ण ही रहे। यदि नतीजे खिलाफ गए तो किसानों की मांगों पर गौर करने के लिए केंद्र को जरूर मजबूर होना पड़ सकता है।