दीदी हैं तो मुमकिन है

 विधानसभा चुनाव 2021

भाजपा के आईटी सेल ने सियासी नीचता से भी परहेज नहीं किया। ममता के हिंदू होने पर भी सवाल उठाए गए। उन्हें ‘ममता बानो’ कहा गया। प्रचारित किया गया कि वह पैदाइशी मुस्लिम हैं। इससे ममता को खुले तौर पर बताना पड़ा कि वह ब्राह्मण की बेटी हैं। उनका गोत्र फलां है और उन्होंने एक रैली में चंडी पाठ भी कर डाला। इसे इस रूप में प्रचारित किया गया कि ममता हार के डर से साफ्ट हिंदुत्व का सहारा ले रही है। लेकिन इसी रणनीति से ममता ने बीजेपी के मंसूबे चौपट कर दिए…

वीरेंद्र सेंगर
नई दिल्ली।करिश्माई प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पश्चिम बंगाल से जोरदार राजनीतिक झटका लगा है। तृणमूल कांग्रेस की प्रमुख ममता बनर्जी ने यह कमाल कर दिया है। वह
लगातार तीसरी बार मुख्यमंत्री की पारी खेलने जा रही हैं। 5 मई को शपथ भी ले रही हैं।
यहां के चुनाव परिणाम के बाद भारतीय राजनीति में एक नये अध्याय की शुरुआत हो गई है। अब विपक्ष को ममता के रूप में एक नया दमदार करिश्माई चेहरा मिल गया है। जो प्रधान जन सेवक उर्फ देश के चैकीदार को मुकाबले की टक्कर दे सकती हैं। दरअसल, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह ने यहां के चुनाव को सीधे अपनी राजनीतिक प्रतिष्ठा से जोड़ दिया था। फरवरी से लेकर अप्रैल तक इन लोगों ने धमाका स्टाइल में जोरदार अभियान चलाया। नारा था, ‘इस बार भाजपा दो सौ से पार’। इस बीच मोदी 17 बार यहां आए। उन्होंने 18 रैलियां कीं। अमित शाह 38 बार आए। उन्होंने तमाम रोड शो भी किए।
जबकि इसी बीच देश में कोरोना ने जोरदार हमला बोल दिया था। पूरे देश में चिताएं जल
रही थीं। चारों तरफ चित्कारें मची थीं।यह सिलसिला और भयानक स्वरूप में अभी जारी है। पूरा देश इस महामारी की विभीषिका से कांप रहा है। पूरी दुनिया में भारत के सरकारी प्रबंधन की थू-थू हो रही है।
दुनिया हैरान है कि कोरोना की दूसरी खतरनाक लहर जब प्रवेश कर रही थी तो यहां के
प्रधानमंत्री और गृहमंत्री दिल्ली छोड़कर पश्चिम बंगाल में अपनी रैलियों के लिए लाखों
लोगों की भीड़ जुटा रहे थे। यह दोनों महाशय खुद मास्क नहीं पहनते थे, तो रैली में आए
लोग भी कोरोना प्रोटोकॉल को अंगूठा दिखा रहे थे। यह बेशर्मी कैमरों के सामने हो रही
थी, जिसे दुनिया भर की मीडिया ने रिपोर्ट किया। 15 दिनों के अंदर ही तबाही का मंजर
बना रहा और कई हजार लोग तिल तिल कर ऑक्सीजन, दवाओं और अस्पतालों के
अभाव में मरे हैं। यह सिलसिला ये पंक्तियां लिखे जाने तक थमा नहीं है। हैरान करने
वाली बात यह है कि मोदी मंडली की प्राथमिकता कोरोना की तबाही को थामने के बजाय
पश्चिम बंगाल का चुनाव जीतने की रही। इसमें भी भाजपा को मुंह की खानी पड़ी है।
पश्चिम बंगाल में विधानसभा की 294 सीटें हैं। इनमें से 292 पर ही चुनाव हुए। दो सौ पार
का नारा देने वाली बीजेपी को यहां 77 सीटें ही मिल पाई हैं। जबकि तृणमूल कांग्रेस ने
2016 के मुकाबले और बेहतर प्रदर्शन कर डाला। उसे इस बार 214 सीटें मिल गई। यह
बात अलग है कि खुद ममता बनर्जी नंदीग्राम से विधानसभा का चुनाव मामूली अंतर से
हार गई। हालांकि, ममता का आरोप है कि दिल्ली के सत्ता पुरुषों ने चुनाव आयोग से
मिलकर उन्हें जानबूझ कर हरवाया है। वे इस धांधली के खिलाफ अदालत जा रही हैं।
इस हार से ममता को एक निजी झटका जरूर लगा है, लेकिन इससे उनके विजय जश्न में
ज्यादा अंतर नहीं पड़ा।
चुनाव आयोग ने तय किया था कि कोरोना महामारी को देखते हुए कोई पार्टी विजय
जुलूस नहीं निकालेगी। लेकिन टीएमसी के उत्साही कार्यकर्ताओं ने कोलकाता में ही कई
जगह इस नियम को तोड़ा। आरोप लगा कि विजय से अति उत्साही टीएमसी के दबंगों ने
कई जगह बीजेपी कार्यकर्ताओं को दौड़ा-दौड़ा कर मारा पीटा। खबर है कि 3 मई तक
हिंसा में 5 लोग मारे भी गए हैं। हालांकि, ममता ने कहा कि मामूली झड़पों को बीजेपी बढ़ा
चढ़ा कर बता रही है, ताकि हार से फोकस हटाया जा सके। इस चुनाव में टीएमसी को
रिकॉर्ड 48.5 फीसदी वोट मिले, जबकि सीधे मुकाबले में भाजपा को महज 37 फीसदी
वोट मिल पाए। जबकि 2019 के लोकसभा चुनाव में इस पार्टी ने 40 में से 18 लोकसभा
सीटें जीत ली थीं। ममता शासन की 10 साल की एंटी इनकम्बेंसी भी थी। इसलिए
भाजपा को यहां जीत हासिल करनी कुछ आसान लग रही थी। भाजपा ने यहां अपने कई
मुख्यमंत्री और लगभग पूरी कैबिनेट प्रचार युद्ध में झोंक दिया था।
उत्तर प्रदेश के फायर ब्रांड मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ यहां पार्टी के स्टार प्रचारक रहे।
उन्होंने लोक-लाज किनारे रखकर खाटी आक्रामक हिंदुत्व की सियासी भड़काऊ शैली
अपनाई। 70 फीसदी हिंदू आबादी वाले इस राज्य में हिंदू-मुस्लिम का ध्रुवीकरण करने
की जोरदार कोशिश की। जबकि इस राज्य का इतिहास रहा है कि यहां कभी भी
सांप्रदायिक आधार पर राजनीति का घृणित कार्ड नहीं खेला गया। इस बार भाजपा ने
जमकर यह कार्ड खेला। यहां तक की गोदी मीडिया के जरिए ममता को तरह तरह से
बदनाम किया गया। भाजपा के आईटी सेल ने सियासी नीचता से भी परहेज नहीं किया।
ममता के हिंदू होने पर भी सवाल उठाए गए। उन्हें ‘ममता बानो’ कहा गया। प्रचारित किया
गया कि वह पैदाइशी मुस्लिम हैं। इससे ममता को खुले तौर पर बताना पड़ा कि वह
ब्राह्मण की बेटी हैं। उनका गोत्र फलां है और उन्होंने एक रैली में चंडी पाठ भी कर डाला।
इसे इस रूप में प्रचारित किया गया कि ममता हार के डर से सॉफ्ट हिंदुत्व का सहारा ले
रही है। प्रबुद्ध सेक्युलर समाज ने इसके लिए ममता की तीखी आलोचना भी की थी।
लेकिन इसी रणनीति से ममता ने बीजेपी के मंसूबे चैपट कर दिए।
यहां कांग्रेस और वामदलों ने गठबंधन के रूप में चुनाव लड़ा। 2016 के विधानसभा
चुनाव में दोनों दलों ने 79 सीटें जीत ली थी। भाजपा ने महज 3 सीटें जीती थीं। इस बार
कांग्रेस का गठबंधन शून्य पर आउट हो गया क्योंकि जोरदार चुनावी अभियान ने भाजपा
और टीएमसी के बीच चुनावी लड़ाई सीधे आमने-सामने की कर दी। इसका नतीजा रहा
कि इस गठबंधन को एक भी सीट नहीं मिल पाई। कांग्रेस को महज 3.02 प्रतिशत वोट
मिल पाए, जबकि पिछले विधानसभा चुनाव में पार्टी का वोट शेयर 12.25 प्रतिशत था।
वामदलों का वोट शेयर इस बार महज 4 फीसदी के करीब रहा। यहां कांग्रेस ने
रणनीतिक कारणों से चुनाव प्रचार में ज्यादा जोर भी नहीं लगाया था। कांग्रेस के पूर्व
अध्यक्ष राहुल गांधी ने महज दो विधानसभा क्षेत्रों में दो रैलियां की थी। भाजपा ने अपने 4
सांसदों को भी चुनाव मैदान में उतारा था। आसनसोल से सांसद बाबुल सुप्रियो को भी
कोलकाता की टालीगंज सीट से चुनाव लड़ाया। सुप्रियो केंद्र में मंत्री भी हैं। लोकप्रिय
चेहरा भी हैं, लेकिन 50 हजार से चुनाव हारे। मुश्किल से उनकी जमानत बच पायी।
बाकी तीन सांसद भी चुनाव हार गए।
भाजपा के रणनीतिकारों ने लोकप्रिय बंगाली सुपरस्टार मिथुन चक्रवर्ती को भी स्टार
प्रचारक के रूप में मैदान में उतारा था। उन्होंने एंट्री लेते ही जोरदार चर्चित डायलॉग बोला
था कि वे कमजोर नहीं हैं। विरोधी समझ ले कि वह कोबरा (सांप) है। ये कोबरा डराता ही
नहीं, बल्कि दंश भी मारना भी जानता है। इस बयान को लेकर मिथुन दा हंसी का पात्र
बने। लेकिन उनकी सभाओं में भारी भीड़ जुटी रही। क्योंकि भाजपा ने चुपके-चुपके यह
अफवाह फैला दी थी कि पार्टी चुनाव जीती तो मिथुन दा ही सीएम का चेहरा बनेंगे। इस
चक्कर में मिथुन दा भी झोंक में तमाम बेतुके डायलॉग बोलते रहे। यह अलग बात है कि
मिथुन के जरिए कई सीटों पर भाजपा को बढ़त मिली। ऐसा चुनावी विश्लेषक मान रहे हैं।
लेकिन करारी हार के बाद मिथुन दा लोकप्रियता की अपनी काफी पूंजी गंवा चुके हैं।
मायूसी से उन्होंने अपना दर्द जाहिर किया कि यह सियासत तो फिल्मी दुनिया से भी
ज्यादा नंगी और लुच्ची है। पता नहीं वह क्यों भावना में बहकर इस कीचड़ में आकर धंस
गए। एक बंगाली अखबार में उनका यह दर्द सामने आया है।
तमिलनाडु और केरल में नहीं गली दाल, असम ने बचा ली भाजपा की लाज

प. बंगाल का चुनाव अभियान तो हाई वोल्टेज रहा। इसी से देश-दुनिया की आंखें यहां के चुनाव में लगी रही। यहां भाजपा को सियासी लाभ तो हुआ, लेकिन उसके सत्ता पाने के मंसूबे ध्वस्त हो गए। ममता बनर्जी बंगाल की शेरनी साबित हुई। जिसने दिल्ली के दो बब्बर शेरों को सियासी मैदान से पूंछ दबाकर लौटने के लिए मजबूर कर दिया। यहां के अलावा चार राज्यों में और चुनाव संपन्न हुए उनकी भी कुछ चर्चा जरूरी है।यह चुनावी राज्य हैं असम, पुदुचेरी, केरल और तमिलनाडु। पश्चिम बंगाल के बाद भाजपा के लिए असम का चुनाव खास महत्वपूर्ण रहा। यहां भाजपा की सत्ता थी। इसे बचाना ही बड़ी चुनौती थी, जिसे भाजपा ने शानदार जीत हासिल करके पूरी कर ली। यहां उसका मुख्य मुकाबला सीधे कांग्रेस से रहा। तमाम कोशिशों के बावजूद कांग्रेस नेतृत्व वाला गठबंधन कामयाब हो नहीं पाया। जबकि प्रियंका गांधी और राहुल गांधी ने यहां जोरदार चुनावी अभियान चलाया था, लेकिन भाजपा का सांप्रदायिक धु्रवीकरण का खेल सब पर भारी पड़ा। 126 सदस्यीय विधानसभा में कांग्रेस को महज 29 सीटें मिली, जबकि 2016 में इस पार्टी को 26 सीटें मिली थी। 2016 में कांग्रेस का वोट शेयर 31 फीसदी था, वो इस बार घटकर 30 फीसदी रह गया। असम में इस बार कांग्रेस ने बदरुद्दीन अजमल की पार्टी एआईयूडीएफ से चुनावी गठबंधन किया। अजमल मुस्लिम समाज में पैठ रखते हैं, लेकिन असमी हिंदू समाज में उनकी छवि खलनायक वाली ही भाजपा ने गढ़ी है। इसमें उसे खासी कामयाबी मिली। यह बात अलग है कि कांग्रेस गठबंधन का वोट शेयर भाजपा से कहीं अधिक रहा लेकिन सीटें कम रहीं। कांग्रेस गठबंधन का वोट शेयर 42.6 प्रतिशत रहा, जबकि भाजपा को महज 39.7 फीसदी वोट मिले लेकिन सीटें ज्यादा मिली। इस तरह असम में कड़े मुकाबले में भाजपा की सियासी इज्जत बच गई, जबकि कांग्रेस को गहरा झटका लगा। असम से कांग्रेस को जीत की उम्मीद थी।

तमिलनाडु में डीएम के नेतृत्व वाले गठबंधन में कांग्रेस शामिल थे। डीएमके नेता स्टालिन का करिश्मा चला। उसने अन्नाद्रमुक को बुरी तरह हराया। इस गठबंधन में ही भाजपा शामिल थी। तमिलनाडु में इस बार कांग्रेस को 16 सीटें मिलीं, जबकि पिछले विधानसभा चुनाव में महज 8 सीटें मिल पाई थी। केंद्र शासित प्रदेश पुडुचेरी में कांग्रेस ने सत्ता गंवा दी है। यहां विधानसभा की मात्र 30 सीटें हैं। यहां भाजपा गठबंधन को सफलता मिली है। केरल में 140 सीटें हैं। यहां पर लगातार दूसरी बार सीपीएम के नेतृत्व वाले एलडीएफ गठबंधन को सफलता मिल गई। केरल में कांग्रेसी नेतृत्व वाले यूडीएफ गठबंधन को महज 40 सीटें मिल पाई, जो कि पिछले चुनाव से भी कम है। उल्लेखनीय है कि दशकों से ये सिलसिला चल रहा था कि यहां हर चुनाव में सत्ता में बदलाव होता रहा है। लेकिन इस बार यह परंपरा टूट गई। यहां 85 वर्षीय इन पिनराई विजयन के नेतृत्व वाला गठबंधन जीत गया। विजयन दोबारा सीएम की कुर्सी संभाल रहे हैं। इससे भी कांग्रेस को खास झटका लगा है। क्योंकि राहुल गांधी इसी राज्य के वायनाड से सांसद हैं। इस बार उन्होंने अपना ज्यादा समय केरल में ही लगाया था। लेकिन मुख्यमंत्री विजयन का बेहतरीन काम कांग्रेस पर भारी पड़ा। भाजपा दशकों से केरल पर नजर लगाए हैं। पिछली बार केवल एक सीट पर खाता खुल गया था, लेकिन इस बार सूपड़ा साफ हो गया।केरल में इस बार भाजपा के मंसूबे बड़े थे। उसने मेट्रोमैन बुजुर्ग ई श्रीधरण को भी दांव पर लगा दिया। उन्हें पलक्कड़ सीट से चुनाव लड़ाया। साथ में अपना सीएम चेहरा भी घोषित किया था। उसके 50 वर्षीय मेट्रोमैन ने पूरे दमखम से चुनाव लड़ा। लेकिन सर्वाधिक साक्षर राज्य ने भाजपा की सांप्रदायिक राजनीति को जोर का झटका दिया है। नामी-गिरामी मेट्रोमैन भी बेइज्जत हो गए। यहां कांग्रेस के उम्मीदवार के सामने उनकी जमानत भी जब्त हो गई। वे घोर बुढ़ापे में हंसी का पात्र बने, सो अलग।

कोरोना महामारी के बीच चुनाव कराना भाजपा को बहुत भारी पड़ा है। 5 महीने से चल रहा किसान आंदोलन भी देशव्यापी हो गया है। इनकी नाराजगी भी भाजपा को झेलनी पड़ रही है। दमोह (मध्यप्रदेश) लोकसभा का उपचुनाव इसके चलते कांग्रेस की झोली में चला गया। तीन और लोकसभा के चुनाव भाजपा हार गई है। यहां तक कि उत्तर प्रदेश के पंचायती चुनाव में भी भाजपा को जोर का झटका लगा है। योगी-मोदी का करिश्मा यहां अभी उतार पर है। भाजपा यह प्रचारित करने में लगी है कि चुनाव में कांग्रेस का दमनिकल गया है। पर तथ्यात्मक रूप से यह बात एकदम गलत है। कांग्रेस को झटका जरूर लगा है, लेकिन पांचों राज्यों में उसका प्रदर्शन भाजपा गठबंधन से बेहतर रहा है।

पांचों राज्यों में 824 विधानसभा क्षेत्रों में हुए चुनाव परिणाम बता रहे हैं कि भाजपा गठबंधन को 230 सीटें मिली हैं जबकि कांग्रेस गठबंधन को 262 सीटें मिली हैं। टीएमसी को 214, वामदलों को 93 और अन्य को 26 सीटें मिली हैं।

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