जद्दोजहद में फंसी ‘सांसें’

वैक्सीन, ऑक्सीजन के इंतजार में दरबदर लोग 

  • हाईकोर्ट की तीखी टिप्पणी के बाद भी लापरवाह सरकार
  • लाशों के ढेर लगे, श्मशान घाट में दिन-रात जल रहे शव

आलोक भदौरिया

नई दिल्ली। दिल्ली के लोगों को ऑक्सीजनकी कमी से मरता नहीं देख सकते हैं। गिड़गिड़ाइए…  उधार लीजिए… चुराइए लेकिन दिल्ली के अस्पतालों को ऑक्सीजन दीजिए। केंद्र हालात की गंभीरता क्यों नहीं समझ रहा है? हम स्तब्ध हैं कि अस्पतालों में ऑक्सीजन नहीं है, लेकिन केंद्र की प्राथमिकता स्टील संयंत्र चलाना है।’ यह तीखी टिप्पणी दिल्ली हाईकोर्ट  के जस्टिस विपिन सांघी और रेखा पल्ली की बेंच ने 21 अप्रैल को याचिका पर सुनवाई के  दौरान की। याचिका मैक्स अस्पताल में ऑक्सीजन की कमी को लेकर दायर की गई थी।

पिछले मार्च माह से ही ऑक्सीजन की किल्लत की खबरें आने लगी थीं। अप्रैल माह में
स्थितियां विकट हो गईं। न केवल महाराष्ट्र, बल्कि देश की राजधानी दिल्ली, उत्तर प्रदेश,
मध्य प्रदेश समेत एक दर्जन राज्यों में अप्रैल माह में हाहाकार मच गया। अस्पतालों में
बिस्तर नहीं बचे। लोगों की भीड़ अस्पताल के एक बिस्तर के लिए तरस गई। हुजूम
अस्पतालों के सामने इकट्ठा हो गया। अपने लोगों के लिए एक अदद ऑक्सीजन बेड के
लिए लोग मिन्नतें करने लगे। वेंटिलेटर बेड भी आनन-फानन में भर गए।

आपदा में अवसर को ढ़ूंढते भारत कई मामलों में आत्मनिर्भर हो गया

कोविड-19 से निपटने में अब तक अपनी पीठ खुद ही थप-थपा रही सरकारें सन्न रह गईं।
लगातार यह कहा जा रहा था कि आपदा में अवसर को ढ़ूंढते हुए भारत कई मामलों में
आत्मनिर्भर हो गया। पीपीई किट की उपलब्धता का जोर-शोर से प्रचार-प्रसार किया जाने
लगा। वेंटीलेटर की बढ़ी संख्या का बखान किया जाने लगा। कितनी बड़ी संख्या में टेस्ट
किट उपलब्ध करा दी गई ऐसे तमाम दावे करते केंद्र सरकार थक नहीं रही थीं। दुनिया के
सबसे बड़े टीकाकरण कार्यक्रम का देश में ‘शुभारंभ’ कर दिया गया। शुभारंभ नहीं, बल्कि
दुनिया का सबसे बड़ा ‘कैम्पेन’ छेड़ दिया गया था।
याद करिए जनवरी में देश के मीडिया की यह सबसे बड़ी सुर्खियां थीं। यहां तक कि
भाजपा कार्यकारिणी बैठक में भी तारीफों के कसीदे पढ़े गए। यह बैठक फरवरी माह में
हुई थी। जनवरी महीने में दावोस में भी खूब अपनी तारीफ की गई कि कैसे भारत ने
कोविड की लड़ाई में जीत हासिल की। और, यह दावे उस समय किए जा रहे थे जब
यूरोप, अमेरिका में दूसरी लहर ने सितंबर, अक्तूबर में कहर बरपाना जारी रखा था। तो
क्या यह भारत के लिए कोई सबक नहीं था? क्या हम इतने बेखबर थे? क्या हमारे
नेताओं-नौकरशाहों, विशेषज्ञों को जरा भी अंदाजा नहीं था कि दूसरी लहर भारत में भी आ
सकती है। जब पूरी दुनिया में आई है भारत तो घनी आबादी वाला देश है। यहां यदि ऐसा
हुआ तो क्या होगा? क्या एशिया की सबसे बड़े स्लम धारावी में फैले इस संक्रमण की
विभीषिका से हुक्मरान बेखबर थे? क्या हमें कोई तैयारी नहीं करनी चाहिए थी?
इन सब सवालों का जवाब ‘हां’ में तो कतई नहीं दिया जा सकता है। तो इसका मतलब
क्या है? लापरवाह नौकरशाह हैं और फलस्वरूप लापरवाह सरकारें हैं। आखिर सरकारें
अपनी जिम्मेदारी से कैसे बच सकती हैं? यह सही है कि जब पिछले साल कोरोना
महामारी फैली थीं तो हमारा सिस्टम पूरी तरह तैयार नहीं था। हमारा ही नहीं, दुनिया का
कोई भी सिस्टम किसी भी देश में तैयार नहीं था। दरअसल, किसी भी देश का स्वास्थ्य
सिस्टम महामारी जैसी आपदा के लिए तैयार नहीं था। इसका नतीजा अमेरिका, यूरोप
जैसे विकसित देशों में मौतों की संख्या में बेतहाशा इजाफे के तौर पर सामने आया।
कुछ महीनों के बाद ही वहां हेल्थ सिस्टम को चाक चौबंद कर लिया गया। नतीजतन,
महामारी की दूसरी लहर में इससे मरने वालों की तादाद में बहुत वृद्धि नहीं हो सकी।
लेकिन, हमारे यहां सिर्फ बयानबाजी होती रही। वैक्सीन की खोज में दुनिया की कंपनियां
जुट गईं। अमेरिका, ब्रिटेन जैसे देशों ने वैक्सीन की ईजाद में जुटी दवा की कंपनियों को
इन देशों ने पहले ही ऑर्डर दे दिए। वह भी ईजाद से पहले।
अमेरिका ने पिछले साल मई माह में ही ऑक्सफोर्ड-एस्ट्राजेनेका को 30 करोड़ डोज का
ऑर्डर दे दिया। जुलाई में फाइजर को दस करोड़, अगस्त में मॉडर्ना और जॉनसन एंड
जॉनसन को दस-दस करोड़ का ऑर्डर दिया। इसके अलावा दिसंबर में फाइजर और
मॉडर्ना को फिर से दस-दस करोड़ का ऑर्डर दिया। ब्रिटेन ने भी ऑक्सफोर्ड-एस्ट्रेजेनेका
को पिछले साल मई माह में नौ करोड़ डोज का ऑर्डर दिया। जुलाई में फाइजर को तीन
करोड़ और अगले माह ही जॉनसन एंड जॉनसन को तीन करोड़ खुराक का ऑर्डर दे दिया
था। ब्रिटेन ने अक्तूबर में फाइजर को दोबारा एक करोड़ डोज और नवंबर में मॉडर्ना को
सत्तर लाख डोज का ऑर्डर दिया। यूरोपीय यूनियन ने भी अपना पहला ऑर्डर पिछले साल
अगस्त में तीस करोड़ डोज का एस्ट्राजेनेका को, अक्तूबर में बीस करोड़ डोज का जॉनसन
एंड जॉनसन को, नवंबर में आठ करोड़ डोज मॉडर्ना व तीस करोड़ डोज का ऑर्डर फाइजर
को दिया।
काबिलगौर है कि इन विकसित देशों ने वैक्सीन बनने से पहले दवा कंपनियों को ऑर्डर दे
दिया था। यह जरूरी होता है ताकि कंपनियां अपनी ऑर्डर बुक के हिसाब से उत्पादन
क्षमता को बढ़ा सकें। लेकिन हमने क्या किया? पहला ऑर्डर इस साल जनवरी में
कोविशील्ड (ऑक्सफोर्ड-एस्ट्रेजेनेका) को एक करोड़ दस लाख डोज का दिया। साथ ही,
स्वदेशी भारत बॉयोटेक की कोवैक्सीन को एक करोड़ डोज का दिया। इसके बाद फरवरी
में कोविशील्ड को 8-9 करोड़ खुराक का ऑर्डर दिया गया।
सवाल यह उठता है कि जब बाकी विकसित देश अपनी जरूरतों के हिसाब से करोड़ों
डोज का ऑर्डर दे रहे थे तो हमारे हुक्मरान किस बात का इंतजार कर रहे थे? क्या उन्हें
अपने देश की आबादी का ज्ञान नहीं था? क्या उन्हें पता नहीं था कि देश की 135 करोड़
आबादी में ‘हर्ड इम्युुनिटी’ विकसित करने के लिए भी कम से कम सत्तर प्रतिशत आबादी
का टीकाकरण जरूरी है। तो ऑर्डर देने में देर क्यों की गई?
कोरोना से संक्रमित लोगों का आंकड़ा कहां तक पहुंचेगा, इस बारे में वैज्ञानिकों की राय
अलग-अलग है। आईआईटी कानपुर के प्रोफेसर मनिंद्र अग्रवाल के मुताबिक, एक से
पांच मई के बीच रोजाना साढ़े तीन लाख से ज्यादा संक्रमितों का आंकड़ा पहुंच सकता
है। पीक अवधि 11 से 15 मई के बीच आ सकती है। तब एक्टिव केसों की संख्या 35
लाख तक हो सकती है। यह स्थिति बेहद खतरनाक है। वैसे 24 अप्रैल तक एक्टिव केसों
की संख्या 28,07,574 हो चुकी है। इस दिन 2828 लोगों की जानें गई थीं। संक्रमण
3,42,310 लोगों को हुआ था। यह अपने आप में एक रिकॉर्ड है।
स्थितियां इतनी भयावह हो चुकी हैं कि जस्टिस विपिन सांघी और जस्टिस रेखा पल्ली ने
24 अप्रैल को एक अन्य मामले की सुनवाई करते हुए ‘इसे लहर नहीं सुनामी करार
दिया।’ दिल्ली हाईकोर्ट की पीठ ने ऑक्सीजन की कमी को लेकर चार अस्पतालों की
याचिका पर कहा कि दिल्ली सरकार बताए कि कौन ऑक्सीजन की आपूर्ति बाधित कर
रहा है। अदालत ने दिल्ली सरकार से केंद्र, राज्य या स्थानीय प्रशासन के किसी भी
अफसर द्वारा ऑक्सीजन की सप्लाई को बाधिक करने के एक उदाहरण के बारे में बताने
को कहा। पीठ ने कहा, ‘हम उस व्यक्ति को फांसी पर लटका देंगे। हम किसी को नहीं
बख्शेंगे।’
गंभीर रूप से बीमार कोरोना मरीजों के लिए ऑक्सीजन की कमी को लेकर महाराजा
अग्रसेन अस्पताल, बत्रा अस्पताल, सरोज स्पेशिलिटी और रोहिणी के जयपुर गोल्डन
अस्पताल ने अदालत का रुख किया था।
दिल्ली ही नहीं, मुंबई, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश के कई शहरों में ऑक्सीजन और अस्पतालों
में बिस्तर न होने की सुर्खियां बनने लगीं। ऑक्सीजन की कमी को दूर करने के लिए
आनन-फानन में विदेशों से 50000 मीट्रिक टन आयात करने की घोषणा कर दी गई।
अब जहां तक विदेशों से ऑक्सीजन आयात का मामला है, यह घोषणा भी अप्रैल के दूसरे
सप्ताह में केंद्र सरकार ने कर दी है। लेकिन, 26 अप्रैल तक इस बारे में टेंडर जारी करने
की कोई घोषणा पब्लिक डोमेन में नहीं है। स्वास्थ्य मंत्रालय का खुद मानना है कि इसके
आयात होने में और देश तक पहुंचने में तीन सप्ताह का समय अमूमन लग जाता है।

आदेश में देरी

एक दिलचस्प घोषणा उद्योगों से इंडस्ट्रियल ऑक्सीजन मेडिकल उपयोग के लिए दिए जाने से संबंधित है। इसकी घोषणा भी पहले कर दी गई है। लेकिन, उद्योगों से ऑक्सीजन मेडिकल के लिए दिए जाने का आदेश 22 अप्रैल को जारी किया गया है। लेकिन, इस मौके पर टाटा ग्रुप की तारीफ करनी ही पड़ेगी। इस समूह ने खुद ही सबसे पहले इंडस्ट्रियल ऑक्सीजन स्वास्थ्य क्षेत्र में देने की पहल की है। हालांकि, बाद में इस कड़ी में रिलायंस, बीपी, इंडियन ऑयल का भी नाम सामने आया है।

सवाल यह है कि केंद्र सरकार ने यह आदेश एक माह पहले क्यों नहीं जारी किया? 22 अप्रैल को देश में कुल 295041 लोग संक्रमित हुए थे। मौत 2029 की हुई। नौकरशाहों को सतर्क तो एक माह पहले 22 मार्च को ही हो जाना चाहिए था। तब पहली दफा 46951 लोग संक्रमित हुए थे। एक दिन में रिकॉर्ड तीन हजार से ज्यादा केस सामने आए थे। यह पिछले सप्ताह के मुकाबले 60 फीसद ज्यादा थे। लेकिन, तब सरकार ने इसे कोई विशेष तवज्जो नहीं दी। क्यों?

यही नहीं, चार अप्रैल को संक्रमितों का आंकड़ा कोई एक लाख के करीब हो चुका था। उस समय एक सप्ताह की औसत संक्रमण दर 84313 हो गई थी। तब भी क्या सरकार ने कोई कदम उठाया? काबिलेगौर है कि साप्ताहिक संक्रमण की दर लगातार बढ़ रही थी। यह सवाल तो बनता ही है कि आखिर किसी संवेदनशील सरकार को कब सतर्क होना चाहिए? कितनी मौतों के बाद?

ऐसा ही मामला वैक्सीन की नीति को लेकर है। केंद्र सरकार ने सबको वैक्सीन मुहैया कराने की नीति से पल्ला झाड़ लिया है। अब एक अप्रैल से 18 वर्ष से अधिक आयु के वयस्कों का राज्य सरकारें टीकाकरण करेंगी। कोविशील्ड निर्माता आधी वैक्सीन केंद्र को 150 रुपए में और बाकी आधी में से राज्य सरकार को 400 रुपए में और निजी अस्पतालों को 600 रुपए में देंगी। स्वेदशी कोवैक्सीन निजी अस्पतालों को 1200 रुपए में देगी। आखिर क्या वजह है कि केंद्र और राज्यों के लिए दाम में फर्क किया गया है? फिर यह भी अभी साफ नहीं हुआ है कि यदि वैक्सीन निर्माता को कॉरपोरेट अस्पतालों से ज्यादा कीमत मिल रही है तो वह राज्य सरकार को कम कीमत पर क्यों देंगे? वैक्सीन बंटवारे की क्या शर्तें होंगी? यदि कोई साधन संपन्न राज्य है तो क्या वह दूसरों का हिस्सा नहीं हड़प लेगा?

इस साल बजट पेश करते वक्त वित्त मंत्री निर्मली सीतारमण ने घोषणा की थी कि टीकाकरण के लिए 35000 करोड़ आवंटित किए गए हैं। याद करिए तब भाजपा सांसदों ने कितनी देर तक मेज थपथपाकर इसका स्वागत किया था। एक अनुमान के मुताबिक, इस समय देश में 18 वर्ष से अधिक आयु के कोई 85-90 करोड़ लोग हैं। 90 करोड़ यानी 180 करोड़ डोज को केंद्र से भुगतान के 150 रुपए का गुणा करे तो यह बनते हैं 27000 करोड़। अब जरा इसे सरकार के 35000 करोड़ के आवंटन से मिलाएं। यह भी नहीं भूलिए कि वित्त मंत्री ने कहा था कि जरूरी हुआ तो और धन मुहैया कराएंगे। जरा सोचिए। अब क्या हो रहा है?

क्यों नहीं मिल रही जरूरी मेडिकल ऑक्सीजन

आखिर मेडिकल ऑक्सीजन की पहेली सुलझ क्यों नहीं पा रही हैं? एक माह बाद भी
मरीजों का ऑक्सीजन के लिए तांता लगा हुआ है। आइए इसे आंकड़ों में समझते हैं। देश
भर में कुल ऑक्सीजन का उत्पादन 7000 मीट्रिक टन है। इसमें छह हजार मीट्रिक टन
उद्योगों के लिए और करीब एक हजार टन अस्पतालों के लिए दी जाती है।ऑक्सीजन की आपूर्ति की जिम्मेदारी डिपार्टमेंट ऑफ प्रमोशन ऑफ इंडस्ट्री एंड इंटरनल
ट्रेड (डीपीआईआईटी) को दी गई है। इस विभाग ने 21 अप्रैल को दिल्ली हाईकोर्ट में कहा
था कि देश में ऑक्सीजन की मांग बढ़कर 8000 मीट्रिक टन हो गई है। मौजूदा हालात में
मेडिकल ऑक्सीजन की मांग में 60 फीसद से ज्यादा इजाफा हो गया है।
सरकार के एम्पॉवर्ज्ड ग्रुप ने अप्रैल के दूसरे सप्ताह में दावा किया था कि देश के पास
उद्योगों को दी जाने वाली ऑक्सीजन समेत पर्याप्त मेडिकल ऑक्सीजन है। इस ग्रुप में
विभिन्न मंत्रालयों के सचिव स्तर के अफसर शामिल होते हैं। इसके साथ ही 50000
मीट्रिक टन ऑक्सीजन के आयात की तैयारी है। यानी देश में कुल रोजाना खपत के
बनिस्पत ज्यादा ऑक्सीजन उपलब्ध है।
प्रधानमंत्री कार्यालय के एक वक्तव्य के मुताबिक, 551 प्रेशर स्विंग एब्सॉप्शन ऑक्सीजन
संयंत्र सरकारी अस्पतालों में लगाने की सैद्धांतिक मंजूरी दे दी गई है। यह एक माह में
चालू हो जाता है।
स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के अनुसार, इस साल के प्रारंभ में 162 पीएसए
संयंत्र लगाने के लिए 201-58 करोड़ रुपए जारी कर दिए गए हैं। पिछले साल अक्तूबर में
टेंडर जारी किए गए थे। इनमें से कुल 33 संयंत्र 18 अप्रैल तक चालू हुए हैं। दावा है कि
59 और अप्रैल तक और 80 मई तक चालू हो जाएंगे।
इन बयानों से लगता है कि अब ऑक्सीजन की किल्लत दूर होने ही वाली है। लेकिन,
मंत्रालय की विज्ञप्ति में यह भी बताया गया है कि इन संयंत्र से कुल 154-19 मीट्रिक टन
ऑक्सीजन ही पैदा होगी। कोरोना महामारी के इस भयावह दौर में संयंत्र लगाने की
सुर्खियां भले ही बन जाए, समस्या का ठोस समाधान की दिशा में यह वाकई छोटा कदम
है। अलबत्ता, सामान्य दिनों में इसे पर्याप्त माना जा सकता है।

वैक्सीन कितनी असरदार

हमारे देश में अर्से तक यही बहस होती रही है कि वैक्सीन कितना नुकसान पहुंचा सकती
है। कौन सी वैक्सीन कितना साइड इफेक्ट करती है। दरअसल, यह बहस ही बेमानी थी।
किसी भी वैक्सीन को लेकर यही अध्ययन किया जाता है कि वह कितनी असरदार
(एफीकेसी) होती है।
यदि किसी वैक्सीन की एफीकेसी 71 प्रतिशत है तो इसका सीधा अर्थ है कि 71 प्रतिशत
लोग वैक्सीन लेने के बाद वायरस के गंभीर प्रभाव से बच सकते हैं। हाल में भारतीय
आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) के महानिदेशक बलराम भार्गव ने कहा है
कि भारत में बनी कोवैक्सीन की दूसरी डोज लेने के बाद 0-04 प्रतिशत लोग कोरोना से
संक्रमित हुए। जबकि कोविशील्ड की दूसरी खुराक लेने के बाद 0-057 प्रतिशत लोग ही
बीमारी की चपेट में आए।
भार्गव के मुताबिक, कोविशील्ड की पहली खुराक लेने पर प्रति दस हजार लोगों में
संक्रमित लोगों की संख्या महज दो है, जबकि कोवैक्सीन की पहली खुराक लेने के बाद
प्रति दस हजार लोगों में चार लोग संक्रमित हुए। काबिलेगौर है कि 22 अप्रैल तक
कोविशील्ड की 11-6 करोड़ डोज और कोवैक्सीन की 1-1 करोड़ डोज दी जा चुकी थी।
यह आंकड़े साफ बतलाते हैं कि टीकाकरण के बाद देश की अर्थव्यवस्था कितनी रफ्तार
से आगे बढ़ेगी। यानी जितना तेज टीकाकरण होगा, उतनी ही तेजी से लोगों का भय खत्म
होगा और अर्थव्यवस्था का पहिया उतनी ही तेजी से घूमेगा।

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