मस्त मलंगों का महाकुम्भ

धर्म-कर्म/भव्य श्रीवास्तव, वरिष्ठ पत्रकार एवं संस्थापक रिलीजन वर्ल्ड

  • यहां दिखता है धर्म, आस्था और संस्कृति का अद्भुत संगम    
  • कुम्भ में नजर आती है भारत की आध्यात्मिक संपदा 

भारत,  दुनियाभर में धार्मिक आस्था का केंद्र है। यहां लोगों का धर्म और आस्था पर अटूट विश्वास है। भारत की यह बात अन्य देश के लोगों को प्रभावित भी करती है। यही कारण है कि दूसरे देशों से भी लाखों लोग भारत के धार्मिक कार्यो में शामिल होने यहाँ बड़ी ही ख़ुशी से आते हैं।भारत के तीर्थस्थलों पर भ्रमण करेंगे तो आप यहाँ आयोजित पर्वों के विभिन्न मेलों में कई विदेशियों को आस्था के रंग में रंगा हुआ पायेंगे।यह बात सिद्ध करती है कि भारत की आस्था पर केवल भारती यही नही अन्य देशों का भी खासा विश्वास है।

इसी आस्था और विश्वास का सबसे बड़ा प्रमाण भारत में आयोजित कुंभ मेला है जो दुनियाभर में सबसे बड़े तीर्थयात्रा के रूप में जाना जाता है। कुम्भ आस्था का महान पर्व है। इसकी तुलना विश्व के किसी भी पर्व से नहीं की जा सकती। इसका ऐतिहासिक, दार्शनिक, सामाजिक कोई भी पक्ष क्यों न लें उसे मापा नहीं जा सकता।कुम्भ पर्व विश्व मे किसी भी धार्मिक प्रयोजन के लिए भक्तों का सबसे बड़ा संग्रहण है। लाखों की संख्या में लोग इस पावन पर्व में उपस्थित होते हैं। कुम्भ का संस्कृत अर्थ है कलश, ज्योतिषशास्त्र में कुम्भ राशि का भी यही चिह्न है।

कुंभ मेलों के प्रकार

महाकुंभ मेला

महाकुंभ मेला केवल प्रयागराज (इलाहाबाद) में आयोजित किया जाता है जो कि प्रत्येक 144 वर्षों के बाद या 12 पूर्ण कुंभ मेलों के बाद आता है।

पूर्ण कुंभ मेला

यदि पूर्ण कुंभ मेला की बात करें तो यह 12 साल में एक बार आयोजित किया जाता है। जैसे कि भारत में मुख्य रूप से चार पवित्र कुंभ स्थान (प्रयागराज, हरिद्वार, उज्जैन और नासिक) हैं। इन चारों में से हर एक स्थान पर बारी-री से 12 साल के बाद पवित्रता और विविधताओं से भरे इस कुंभ के मेला का आयोजन किया जाता है।

 अर्द्ध कुंभ मेला

जैसे कि आप नाम से ही जान सकते हैं कि अर्द्ध मतलब आधा कुंभ मेला जो हर 6 वर्ष में भारत में केवल 2 स्थानों हरिद्वार और प्रयागराज (इलाहाबाद) में लगाया जाता है। मतलब यह 12 वर्ष में 2 बार आयोजित किया जाता है।

माघकुंभमेला

माघकुंभ मेला की बात करें तो इसे सबसे छोटा यामिनी कुंभ मेला भी कहा जाता है। माघ कुंभ मेला प्रत्येक वर्ष केवल प्रयागराज में आयोजित किया जाता है जो हिन्दू कैलेंडर के अनुसार माघ-महीने में आयोजित किया जाता है।

कुंभ मेले का महत्व

कुंभ मेले के महत्व की बात करें तो दुनियाभर में हिन्दू श्रद्धालुओं के लिए इसका बहुत अधिक महत्व है। कहते हैं कि हर हिन्दू को एक बार कुंभ स्नान जरूर करना चाहिए क्योंकि ऐसी मान्यता है कि कुंभ स्नान करने से शरीर और आत्मा दोनों का शुद्धिकरण हो जाता है।इसी कारण कुंभ मेले के आयोजन में लगभग 2 करोड़ से भी ज्यादा भारतीय और विदेशी पर्यटक आकर हिस्सा लेते हैं। कुंभ मेले में आये श्रद्धालु यह भी मानते हैं कि कुंभ का मेला जन-मानस की परमचेतना का प्रतीक है। इसके अलावा हिन्दू श्रद्धालु यह भी मानते हैं कि कुंभ भारतीय प्राचीन सभ्यता का खजाना है।

कुंभ स्नान से मोक्ष की प्राप्ति

हिंदू धर्म में कुंभ की धार्मिक मान्यता है और इसे एक महत्वपूर्ण पर्व के रूप में मनाया जाता है। कुंभ मेला हर 12 साल में आता है। दो बड़े कुंभ मेलों के बीच एक अर्द्धकुंभ भी लगता है। इस बार साल 2019 में आने वाला कुंभ मेला दरअसल, अर्द्धकुंभ ही है। प्रयाग में दो कुंभ मेलों के बीच 6 वर्ष के अंतराल में अर्द्धकुंभ भी होताहै। कुंभ का मेला मकर संक्रांति के दिन शुरु होता है। इस दिन जो योग बनता है उसे कुंभ स्नान-योग कहते हैं। हिंदू धार्मिक मान्‍यता के अनुसार किसी भी कुंभ मेले में पवित्र नदी में स्नान या तीन डुबकी लगाने से सभी पुराने पाप धुल जाते हैं और मनुष्य को मोक्ष की प्राप्‍ति होती है।

ग्रहों की चाल के कारण गंगाजल हो जाता है औषधिकृत

कहा जाता है कि इस दौरान ग्रहों की स्थिति हरिद्वार से बहती गंगा के किनारे पर स्थित हरकी पौड़ी के पास गंगाजल को औषधिकृत करती है तथा उन दिनों यह अमृतमय हो जाती है। यही कारण है कि अपनी अंतरात्मा की शुद्धि हेतु पवित्र स्नान करने लाखों श्रद्धालु यहां जुटते हैं। आध्यात्मिक दृष्टि से अर्द्धकुंभ के काल में ग्रहों की स्थिति एकाग्रता तथा ध्यान साधना के लिए उत्कृष्ट होती है।

मेले का ज्योतिषीय महत्व

कुम्भ पर्व का मूलाधार पौराणिक आख्यानों से साथ साथ खगोल विज्ञान ही है क्योंकि ग्रहों की विशेष स्थितियां ही कुम्भ पर्व के काल का निर्धारण करती है। कुम्भ पर्व एक ऐसा पर्व विशेष है जिसमें तिथि, ग्रह, मास आदि का अत्यन्त पवित्र योग होता है। कुम्भ पर्व का योग सूर्य, चंद्रमा, गुरू और शनि के सम्बध में सुनिश्चित होता है। स्कन्दपुराण के अनुसार,

चन्द्रःप्रश्रवणाद्रक्षांसूर्योविस्फोटनाद्दधौ।

दैत्येभ्यश्रगुरूरक्षांसौरिर्देवेन्द्रजाद्भयात्।।

अर्थात जिस समय अमृत पूर्ण कुम्भ को लेकर देवताओं एवं दैत्यों में संघर्ष हुआ उस समय चंद्रमा ने उस अमृत कुम्भ से अमृत के छलक ने से रक्षा की और सूर्य ने उस अमृत कुम्भ के टूटने से रक्षा की। देव गुरू बृहस्पति ने दैत्यों से तथा शनि ने इंद्रपुत्र जयन्त से रक्षा की। इसीलिए उस देव दैत्य कलह में जिन-जिन स्थानों में (हरिद्वार, प्रयागराज, उज्जैन, नासिक) जिस-जिस दिन सुधा कुम्भ छलका है उन्हीं-उन्हीं स्थलों में उन्हीं तिथियों में कुम्भ पर्व होता है।इन देव दैत्यों का युद्ध सुधा कुम्भ को लेकर 12 दिन तक 12 स्थानों में चला और उन 12 स्थलों में सुधा कुम्भ से अमृत छलका जिनमें पूर्वोक्त चार स्थल मृत्युलोक में है शेष आठ इस मृत्यु लोक में न होकर अन्य लोकों में (स्वर्ग आदि लोकों में) माने जातेहैं। 12 वर्ष के मानका देवताओं का बारह दिन होता है। इसीलिए 12वें वर्ष ही सामान्यतया प्रत्येक स्थान में कुम्भ पर्व की स्थिति बनती है।

वृषभ राशि में गुरू मकर राशि में सूर्य तथा चंद्रमा माघ मास में अमावस्या के दिन कुम्भ पर्व की स्थिति देखी गयी है। इसलिए प्रयाग के कुम्भ पर्व के विषय में- वृष राशि गते जीवे“के समान ही “मेष राशि गते जीवे” ऐसा उल्लेख मिलता है।कुम्भ पर्वों का जो ग्रह योग प्राप्त होता है वह लगभग सभी जगह सामान्य रूप से बारहवे वर्ष प्राप्त होता है। परन्तु कभी-कभी ग्यारहवें वर्ष भी कुम्भ पर्व की स्थिति देखी जाती है, जैसा कि इस बार हुआ है। यह विषय अत्यन्त विचारणीय हैं, सामान्यतया सूर्य चंद्र की स्थिति को प्रतिवर्ष चारों स्थलों में स्वतः बनती है। उसके लिए प्रयाग में कुम्भ पर्व के समय वृष के गुरू रहते हैं जिनका स्वामी शुक्र है। शुक्र ग्रह ऐश्वर्य भोग एवं स्नेह का सम्वर्धक है।

गुरू ग्रह के इस राशि में स्थित होने से मानव के वैचारिक भावों में परम सात्विकता का संचार होता है जिससे स्नेह, भोग एवं ऐश्वर्य की सम्प्राप्ति के विचार में जो सात्विकता प्रवाहित होती है उससे उनके रजोगुणी दोष स्वतःविलीन होते हैं। तथैव मकर राशि गत सूर्य समस्त क्रियाओं में पटुता एवमेव मकर राशि स्थचंद्र परम ऐश्वर्य को प्राप्त कराता है। फलतः ज्ञान एवं भक्ति की धारा स्वरूप गंगा एवं यमुना के इस पवित्र संगम क्षेत्र में चारो पुरूषार्थों की सिद्धि अल्प प्रयास में ही श्रद्धालु मानव के समीपस्थ दिखाई देती है। प्रत्येक ग्रह अपने-अपने राशि को एक सुनिश्चित समय में भोगता है जैसे सूर्य एक राशि को 30 दिन 26 घड़ी 17 पल 5 विपल का समय लेता है एवं चंद्रमा एक राशि का भाग लगभग 2। दिन में पूरा करता है तथैव बृहस्पति एक राशि का भोग 361 दिन 1 घड़ी 36 पल में करता है। स्थूल गणना के आधार पर वर्षभर का काल बृहस्पति का मान लिया जाता है। किन्तु सौर वर्ष के अनुसार एक वर्ष में चार दिन 13 घड़ी एवं 55 पल का अन्तरबार्हस्पत्य वर्ष से होताहै जो 12 वर्ष में 50 दिन 47 घड़ी का अन्तर पड़ता है और यही 84 वर्षों में 355 दिन 29 घड़ी का अन्तर बन जाता है। इसीलिए 50वें वर्ष जब कुम्भ पर्व आता है तब वह 11वें वर्ष ही पड़ जाता है।

कहां कहां लगता है कुंभ मेला

हिन्दू धर्म में कुम्भ का पर्व हर 12 वर्ष के अंतराल पर चारों में से किसी एक पवित्र नदी के तट पर मनाया जाता हैः हरिद्वार में गंगा, उज्जैन में शिप्रा, नासिक में गोदावरी और इलाहाबाद में संगम जहां गंगा, यमुना और सरस्वती मिलती हैं।

इलाहाबाद का कुम्भ पर्व –

ज्योतिषशास्त्रियों के अनुसार जब बृहस्पति कुम्भ राशि में और सूर्य मेष राशि में प्रवेश करता है, तब कुम्भ मेले का आयोजन किया जाता है। प्रयाग (इलाहाबाद) के कुम्भ मेले का सभी मेलों में सर्वाधिक महत्व रखता है।

हरिद्वार के कुम्भ पर्व –

हरिद्वार हिमालय पर्वत श्रृंखला के शिवालिक पर्वत के नीचे स्थित है। प्राचीन ग्रंथों में हरिद्वार को तपोवन, मायापुरी, गंगाद्वार औ रमोक्षद्वार आदि नामों से भी जाना जाता है। हरिद्वार की धार्मिक महत्ता विशाल है। यह हिन्दुओं के लिए एक प्रमुख तीर्थस्थान है। मेले की तिथि की गणना करने के लिए सूर्य, चन्द्र और बृहस्पति की स्थिति की आवश्यकता होती है। हरिद्वार का सम्बन्ध मेष राशि से है।

नासिक का कुम्भपर्व –

भारत में 12 में से एक जोतिर्लिंग त्र्यम्बकेश्वर नामक पवित्र शहर में स्थित है। यह स्थान नासिक से 38 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है और गोदावरी नदी का उद्गम भी यहीं से हुआ। 12 वर्षों में एक बार सिंहस्थ कुम्भ मेला नासिक एवं त्रयम्बकेश्वर में आयोजित होता है।  ऐतिहासिक प्रमाणों के अनुसार नासिक उन चार स्थानों में से एक है, जहां अमृतकलश से अमृत की कुछ बूंदें गिरी थीं। कुम्भ मेले में सैंकड़ों श्रद्धालु गोदावरी के पावन जल में नहा कर अपनी आत्मा की शुद्धि एवं मोक्ष के लिए प्रार्थना करते हैं। यहां पर शिवरात्रि का त्यौहार भी बहुत धूमधाम से मनाया जाता है।

उज्जैन का कुम्भ पर्व –

उज्जैन का अर्थ है विजय की नगरी और यह मध्यप्रदेश की पश्चिमी सीमा पर स्थित है। इंदौर से इसकी दूरी लगभग 55 किलोमीटर है। यह शिप्रा नदी के तट पर बसा है। उज्जैन भारत के पवित्र एवं धार्मिक स्थलों में से एक है। ज्योतिषशास्त्र के अनुसार शून्य अंश (डिग्री) उज्जैन से शुरू होता है। महाभारत के अरण्य पर्व के अनुसार उज्जैन 7 पवित्र मोक्षपुरी या सप्तपुरी में से एक है। उज्जैन के अतिरिक्त शेष हैं अयोध्या, मथुरा, हरिद्वार, काशी, कांचीपुरम और द्वारका। कहते हैं  भगवन शिव नें त्रिपुरा राक्षस का वध उज्जैन में ही किया था।

कुम्भ का पौराणिकइतिहास

आइए चर्चा करते हैं कि यह भव्य आयोजन कुंभ मेला कब और कैसे शुरू हुआ। विश्व का सर्वाधिक प्राचीन ग्रन्थ ऋग्वेद है और इसमें भी कुम्भ पर्व का वर्णन मिलता है। ऋग्वेद में कर्मफल के सिद्धांत को कुम्भ पर्व से जोड़ा गया है-वह मनुष्य जो कुम्भ पर्व में कर्म फल के परिणामस्वरूप स्नान, दान तथा होम आदि पवित्र कर्म करता है, निश्च यही इन कर्मों से काठ को काटने वाले कुठार की भांति अपने पापों को नष्ट करता है। विष्णु पुराण में कुम्भ का महत्व बताते हुए कहा गया है कि “अश्वमेध सहस्त्राणिवाज पेयशतानिच। लक्षं प्रदक्षिणा पृथ्वयाः कुम्भ स्नाने हितत्फलम्।।” अर्थात एक हजार अश्वमेध, एक सौ वाजपेय यज्ञ और पृथ्वी की एक लाख प्रदक्षिणा के पुण्य के बराबर अकेले कुम्भ स्नान का फल है।

वायुपुराणकेअनुसारश्राद्धे कुम्भे विमुंचंतिज्ञेयं पाप विषूदनम्। श्राद्धंतत्राक्षयं प्रोक्तंजप्य होम तपांसिच।।”

अर्थात त्कुम्भ में जप, तप, होम, हवनादि तथा श्रद्धा कर्म करने से पापों का समूल क्षय हो जाता है। अथर्ववेद में कहा गया है कि “काल के ऊपर भरा कुम्भ रखा है। काल सुदूर आकाश में स्थित है परन्तु लोकों में चलायमान दिखाई देता है।” मनुस्मृति के अनुसार, “कुम्भ-पर्व मनुष्य के द्वारा इस लोक में किए गए सत्कर्मों  हेतु अनेक प्रकार के सुखों को देने वाला और दूसरे लोक में पितरों को उत्तमात्तम सुखों को देने वाला है।”

कुम्भ का विस्तृत वर्णन एवं महात्म्य हमारे स्कन्द पुराण, ब्रह्म पुराण, भविष्य पुराण, वायु पुराण, विष्णु पुराण आदि में विशेष रूप से मिलता है। इसके अतिरिक्त वेदांगों, भाष्यों, स्मृतियों एवं महाकाव्यों में भी विभिन्न रूपों में कुम्भ का वर्णन परिलक्षित होता है। पौराणिक कथाओं के अनुसार, दुर्वासा मुनि के शाप की एक कहानी है जिसके कारण इस भव्य आयोजन कुंभ मेले की शुरुआत हुई।

एक बार दुर्वासा मुनि ने देवताओं को श्राप दे दिया। उसके शाप के कारण, उन्होंने अपनी ताकत खो दी। अपनी ताकत वापस पाने के लिए वह भगवान ब्रह्मा और भगवान शिव के पास गए। उन्होंने देवताओं को सलाह दी कि उन्हें अपनी ताकत वापस पाने के लिए भगवान विष्णु से प्रार्थना करने की आवश्यकता है। भगवान विष्णु ने उन्हें दूध का सागर मंथन करने के लिए कहा जो उस समय अमृत पाने के लिए क्षीर सागर के नाम से जाना जाता था। यह उनकी ताकत वापस पाने का एकमात्र समाधान था, लेकिन यह कार्य उन सभी के लिए बहुत कठिन था। चूंकि इस कार्य को करने के लिए देवताओं के पास पर्याप्त शक्ति और नहीं थी, इसलिए उन्होंने राक्षसों के साथ एक आपसी समझौता किया। केवल एक शर्त पर उनकी मदद करने के लिए राक्षसों पर सहमति व्यक्त की गई। शर्त यह थी कि उन्हें अमरता (अमृत) का आधा अमृत उनके साथ बांटना था।

मेरु पर्वत ने क्षीरसागर को मथने के लिए छड़ी की भूमिका निभाई और नागोंकेराजा “वासुकी” ने पर्वत के चारों ओर रस्सी का भूमिका निभाया। मंथन की प्रक्रिया के माध्यम से चौदह वस्तुओं का उत्पादन हुआ

  • ज़हर
  • कामधेनु(इच्छा-पूर्ति करने वाली गाय के रूप में भी जानी जाती है)
  • उच्छैहिरावस(एक प्रकार का सफे दघोड़ा)
  • ऐरावत(एक हाथी जिसके चार तुक होते हैं)
  • कौत्तुभमणि(एक हीरा)
  • कल्पवृक्ष
  • देवांगनजैसे रंभाआदि।
  • श्रीलक्ष्मीदेवी(श्रीविष्णु की भक्ति)
  • सूरा(शराब)
  • सोम(चंद्रमा)
  • हरिधनु(एकदिव्यधनुष)
  • एकशंख
  • धनवंतरी
  • अमृतकलश या अमृत कुंभ (अमृत का घड़ा)

देवताओं के मन में भय था कि यदि अमृत पान कर दानव अमर हो गए तो वे निश्चित रूप से पूरी दुनिया में कहर मचा देंगे। इसलिए, धनवंतरी अपने हाथों में अमृत कलश लेकर प्रकट हुए, देवताओं ने इंद्र के पुत्र जयंत को उस बर्तन को धनवंतरी से लेने का संकेत दिया।उस अमृत कलश को पाने के लिए दानवों और देवताओं ने लगभग 12 दिन और साथ ही 12 रातें लड़ीं। उस समय का एक दिन वर्तमान समय के एक वर्ष के बराबर माना जाता है।इस लड़ाई के दौरान, अमृत की कुछ बूंदें पृथ्वी के चार स्थानों पर गिरीं।वे स्थान थे प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन और नासिक। इसीलिए इन चार स्थानों पर हर 12 साल में कुंभ मेला मनाया जाता है।

कुम्भ का इतिहास

ऐसा माना जाता है कि कुम्भ मेले का इतिहास कम से कम 850 साल पुराना है। माना जाता है कि आदिशंकराचार्य ने इसकी शुरुआत की थी, लेकिन कुछ कथाओं के अनुसार कुम्भ की शुरुआत समुद्र मंथन के आदिकाल से ही हो गयी थी। कुंभ के मेले को अक्सर “चिरयुवा”और “प्राचीन” कहा जाताहै, जिन्होंने प्रयागराज में बड़े मेले के इतिहास का अध्ययन किया है, वे इसे चौथी शताब्दी से छठी शताब्दी तक एक गुप्तकाल के रूप में निरंतर देखते रहे हैं।

ह्वेनत्सांग और कुम्भ

शुरुआत करते हैं ह्वेनत्सांग से। शायद इस क्षेत्र में एक महान मेले का पहला ऐतिहासिक वर्णन 643 ईस्वी में चीनी बौद्ध भिक्षु यात्री ह्वेनत्सांग द्वारा लिखा गया था, जिन्होंने पवित्र बौद्धग्रंथों को खोजने के लिए भारत की यात्रा की थी। ह्वेनत्सांग ने माघ (जनवरी-फरवरी) के महीने में तीर्थयात्रियों के एक “त्योहार” के आयोजन के बारे में लिखा। उन्होंने बताया कि कैसे राजा हर्षवर्धन ने सभी वर्गों के लोगों को सामान (धनदौलत) देकर तब तक अपनी उदारता का प्रदर्शन किया जब तक कि उनके पास खुद कुछ नहीं बचा रह गया था और केवल एक कपड़ा पहन कर अपनी राजधानी लौट गए थे।

गुप्तकाल में कुम्भ

पांचवीं या छठी शताब्दी तक कानरसिंह पुराण भी इस बात का प्रमाण देता है कि गुप्तकाल के दौरान एक महीने का मेला जाना जाता था। कहा जाता है कि माघ के महीने के दौरान भारत के विभिन्न हिस्सों से इकट्ठे हुए विभिन्न वर्ग के लोग मिलते हैं। यह माघ मेला प्रतिवर्ष अच्छी तरह से संपन्न होता रहा है, जैसा कि आज भी होता है।

मुग़लकाल में कुम्भ

मुगल सम्राट अकबर के समय में प्रयाग का नाम इलाबाद रखा गया था, जो बाद में इलाहाबाद बन गया। सम्राट ने 1582 में शहर का दौरा किया और कहा कि इस रणनीतिक स्थान पर एक किले का निर्माण किया जाए जहां दो जलमार्गों का अभिसरण हो।  किला आज भी कुंभ मेला के मैदान के एक छोर पर उदात्त प्रहरी है।

बाद में, ब्रिटिश लेखकों ने अपने वर्णनात्मक खतों को जोड़ा है। मेले के पारंपरिक दृश्य लगभग अपरिवर्तित रहे हैं: योग प्रदर्शन, धार्मिक ग्रंथों के उपदेश, संन्यासी के प्रदर्शन, सामाजिक-धार्मिक समस्याएं, और संप्रदाय प्रचार, मेले के मुख्य आकर्षण बने हुए हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि कुंभ मेला नाम प्रयाग से लिया गया है, जो आज भी बोला जाता है।

इतिहासकार काम मैकलीन के सावधानीपूर्वक विश्लेषण के निष्कर्ष से निकलता है कि 1860 के दशक से पहले प्रयागराज में कुंभ के पाठस्रोतों में या हर बारह साल में होने वाले एक विशेष मेले का कोई उल्लेख नहीं है, हालांकि माघ मेला अच्छी तरह से जाना जाता था जो हर साल ही लगताहै।

पहला आधुनिक कुंभ मेला 1870 में होने की संभावना समझी जाती है। उन्नीसवीं सदी के मध्य से, त्योहार का आकार और दायरे दोनों में विस्तार हुआ “मेलों में औपनिवेशिक सरकार का हस्तक्षेप, हालांकि अक्सर विवादास्पद रहा है, आमतौर पर उन्हें सुरक्षित बनाना होता है, जिसके परिणामस्वरूप तीर्थयात्रा को और ज्यादा प्रोत्साहित किया जा सके।”

कुम्भ का दार्शनिक पक्ष

सामान्य बोलचाल की भाषा में कुम्भ को एक बड़े मेले के स्वरुप में देखा जाता है। जबकि कुम्भ मेला न होकर ऐतिहासिक, दार्शनिक और सामाजिक पर्व है। मेले का सामान् अर्थ हैः जहां अधिकतम लोग जुड़ें, खूब भीड़भाड़ हो, मनोरंजन के पर्याप्त साधन आदि हों। मेले का योग भौतिक दृष्टि से होता है जबकि पर्व का योग ज्योतिष शास्त्र की कला, पक्ष, नक्षत्र, ग्रह, गणना एवं मुहूर्त द्वारा निर्धारित होता है। इसमें भाग लेने वालों का उद्देश्य धार्मिक पुण्य एवं आध्यात्मिक उन्नति प्राप्त करना होता है।

श्वेताश्वर उपनिषद’ के अनुसार “वयं अमृतस्य पुत्राः”

अर्थात हम अमृत के पुत्र हैं इस वेद वाक्य से ही सिद्ध होता है कि हम अनादिकाल से ही जिज्ञासु रहेहैं। अमृत प्राप्ति की उत्कट अभिलाषा में ही आसुरी शक्तियों के साथ मिलकर मंथन किया था। अब हम इसका दार्शनिक परिपेक्ष देखें तो प्रत्येक जीव को आज भी अपना मंथन करना होता है क्योंकि प्रत्येक जीव के पास अमृतहै। जो सिद्ध योगी हैं वो इस बात से भलीभांति परिचित हैं कि दोनों भृकुटियों के मध्य पियूषग्रन्थि है यही अमृतकुम्भ है। इसमें से ही अमृत का संचरण होता है। जो लोग आत्मज्ञान का मंथन करते हैंउन्हीं को अमृत की प्राप्ति होती है।

कुम्भ का सामाजिक पक्ष

जब कुंभ मेले का आगाज़ हुआ था तो आध्यात्मिक उद्देश्य के साथ कुम्भ को सामाजिक परिपेक्ष्य से भी जोड़कर देखा गया था। यह माना जा सकता है कि कुंभ एक महान सामाजिक और सांस्कृतिक उद्देश्य का पर्व है। इसमें लोग श्रद्धा से अमृतमय तीर्थों पर एकत्रित होकर संतों, विद्वानों के दर्शनों और वचनों द्वारा ज्ञान प्राप्त कर लाभ उठाते हैं।

प्राचीनकाल में यह कुम्भ महापर्व सामाजिक शिक्षा और धर्म के प्रचार-प्रसार का अति उत्तम माध्यम था। वर्तमानकाल में तो यातायात के साधन बहुत विकसित व सुलभ हैं। लोग सरलता से कुम्भ स्थान पर पहुंच सकते हैं लेकिन प्राचीनकाल में ऐसा नहीं था। तब तो लोग पैदल ही लम्बी तथा कष्टकारी यात्रा करके पहुंचते थे। कभी विचार किया है क्या कारण रहा होगा उसकेपीछे।  उसके पीछे उनकीअटूट श्रद्धा एवं प्रबल धार्मिक आस्थाएं ही थीं। कुम्भ का अर्थ उस समय सिर्फ कल्पवास तक ही सीमित नहीं था बल्कि कुम्भ में ज्ञान प्राप्त करनाथा। कुम्भ में जाकर लोग संतों, मनीषियों, विद्वानों और साधुओं की संगत करते थे और सात्त्विकआचरण, सदाचार व लोककल्याण का पाठ सीखते थे तथा वापिस अपने-अपने क्षेत्रों में जाकर इस परम्परा का प्रचार करते थे।

आज भी अगर हम धार्मिक दृष्टिकोण को एक ओर रख दें और कुम्भ को सामाजिक दृष्टिकोण से देखें तो हमारे समाज का एक बहुत बड़ा भाग कुम्भ पर्व में सम्मिलित होकर भावी जीवन को सुधारने का प्रयास करता है। ऐसा नहीं कि कुम्भ में धर्म की चर्चा नहीं होती। कुम्भ ज्ञान औरधर्म चर्चाके बिना अधूरा है। जहाँ धर्म चर्चा उनके लोक परलोक को सुखमय बनाताहै, वहीं ज्ञानचर्चा उन्हें सही दिशा दिखाती है। पहले के समय में कुम्भपर्व माध्यम था राष्ट्रीय एकात्मकता का। कुम्भ मेले मूलतः भावनात्मक एकता के ही तो प्रतीक हैं, जहां बिना किसी भेदभाव के धर्मप्रचार, शिक्षाऔर ज्ञान आदि केआदान-प्रदान के अवसर सुलभ होतेहैं।

कुम्भ हमारी लोक परम्परा का एक ऐसा सनातन पर्व है जिसमेंदर्शन, इतिहास, आध्यात्म, ज्योतिष, पुराण आदि के साथजन-आस्था का समन्वय हो गया है। ज़रा विचार कीजियेगा हमारीपौराणिक कथाओं और लोकपर्व की चिंतनधारा में ‘विष’ और ‘अमृत’ मूलतःमानवजीवन के दो शाश्वत सत्य ‘जन्म’ और ‘मृत्यु’ को ही तो व्यंजित करते हैं अतः अमृत की प्राप्ति का प्रयास अत्यन्त आवश्यकहै। जन्म और मृत्यु के बीच लम्बे अंतराल में ‘जीवन’ होता है। जिसका उचित और अनुचित के बीच का लम्बा संघर्ष चलताहै। और इस संघर्ष का एकमात्र उद्देश्य अमृत प्राप्ति यानि आत्मज्ञान की प्राप्ति है।

अखाड़ा

अखाड़ा शब्द को सुनते ही जो दृश्य मानस पटल पर उतरता है वह मल्ल युद्ध का है। किन्तु यहां भाव शब्द की अन्वति और वास्तविक अर्थ से संबोधित है। “अखाड़ा” शब्द “अखण्ड” शब्द का अपभ्रंश है जिसका अर्थ न विभाजित होने वाला है। आदि गुरु शंकराचार्य ने सनातन धर्म की रक्षा हेतु साधुओं के संघों को मिलाने का प्रयास किया था, उसी प्रयास के फलस्वरूप सनातन धर्म की रक्षा एवं मजबूती बनाये रखने एवं विभिन्न परम्पराओं व विश्वासों का अभ्यास करने वालों को एकजुट करने तथा धार्मिक परम्पराओं को अक्षुण्ण रखने के लिए विभिन्न अखाड़ों की स्थापना हुई। अखाड़ों से सम्बन्धित साधु-सन्तों की विशेषता यह होती है कि इनके सदस्य शास्त्र और शस्त्र दोनों में पारंगत होते हैं। अखाड़ा सामाजिक व्यवस्था, एकता और संस्कृति तथा नैतिकता का प्रतीक है। समाज में आध्यात्मिक महत्व मूल्यों की स्थापना करना ही अखाड़ों का मुख्य उद्देश्य है। अखाड़ा मठों की सबसे बड़ी जिम्मेदारी सामाजिक जीवन में नैतिक मूल्यों की स्थापना करना है, इसीलिए धर्मगुरुओं के चयन के समय यह ध्यान रखा जाता था कि उनका जीवन सदाचार, संयम, परोपकार, कर्मठता, दूरदर्शिता तथा धर्ममय हो। भारतीय संस्कृति एवं एकता इन्हीं अखाड़ों के बल पर जीवित है। अलग-अलग संगठनों में विभक्त होते हुए भी अखाडे़ एकता के प्रतीक हैं। अखाड़ा मठों का एक विशिष्ट प्रकार नागा संन्यासियों का एक विशेष संगठन है। प्रत्येक नागा संन्यासी किसी न किसी अखाड़े से सम्बन्धित रहते हैं। ये संन्यासी जहां एक ओर शास्त्र पारंगत थे, वहीं दूसरी ओर शस्त्र चलाने का भी इन्हें अनुभव था।वर्तमान में अखाड़ों को उनके इष्ट-देव के आधार पर निम्नलिखित तीन श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है-

शैव अखाड़े

इस श्रेणी के इष्ट भगवान शिव हैं। ये शिव के विभिन्न स्वरूपों की आराधना अपनी अपनी मान्यताओं के आधार पर करते हैं।

वैष्णव अखाड़े

इस श्रेणी के इष्ट भगवान विष्णु हैं। ये विष्णु के विभिन्न स्वरूपों की आराधना अपनी अपनी मान्यताओं के आधार पर करते हैं।

उदासीन अखाड़ा

सिख सम्प्रदाय के आदि गुरु श्रीनानक देव के पुत्र श्री चंद्रदेवजी को उदासीन मत का प्रवर्तक माना जाताहै। इस पन्थ के अनुयायी मुख्यतः प्रणव अथवा ‘ॐ’ की उपासना करते हैं।

नागा साधुओं के प्रमुख अखाड़े :-

भारत की आजादी के बाद इन अखाड़ों ने अपना सैन्य चरित्र त्याग दिया। इन अखाड़ों के प्रमुख ने जोर दिया कि उनके अनुयायी भारतीय संस्कृति और दर्शन के सनातनी मूल्यों का अध्ययन और अनुपालन करते हुए संयमित जीवन व्यतीत करें। इससमय 13 प्रमुख अखाड़े हैं जिनमें प्रत्येक के शीर्ष पर महन्त आसीन होते हैं। इन प्रमुख अखाड़ों का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार हैं:-

  1. 1.श्रीनिरंजनी अखाड़ा:- यहअखाड़ा 826 ईस्वी में गुजरात के मांडवी में स्थापित हुआ था। इनके ईष्टदेव भगवान शंकर के पुत्र कार्तिक स्वामी हैं। इनमें दिगम्बर, साधु, महन्त व महामंडलेश्वर होते हैं। इनकी शाखाएं इलाहाबाद, उज्जैन, हरिद्वार, त्र्यंबकेश्वर व उदयपुर में हैं।
  2. 2.श्रीजूनादत्त या जूना अखाड़ा:- यह अखाड़ा 1145 में उत्तराखण्ड के कर्णप्रयाग में स्थापित हुआ। इसे भैरव अखाड़ा भी कहते हैं। इनके ईष्टदेव रुद्रावतार दत्तात्रेय हैं। इसका केंद्र वाराणसी के हनुमान घाट पर माना जाता है। हरिद्वार में मायादेवी मंदिर के पास इनका आश्रम है। इस अखाड़े के नागा साधु जब शाही स्नान के लिए संगम की ओर बढ़ते हैं तो मेले में आए श्रद्धालुओं समेत पूरी दुनिया की सांसें उस अद्भुत दृश्य को देखने के लिए रुक जाती हैं।
  3. 3.श्रीमहानिर्वाणअखाड़ा:- यह अखाड़ा 681 ईस्वी में स्थापित हुआ था, कुछ लोगों का मत है कि इसका जन्म बिहार-झारखण्ड के बैजनाथ धाम में हुआ था, जबकि कुछ इसका जन्म स्थान हरिद्वार में नीलधारा के पास मानते हैं। इनके ईष्ट देव कपिल महामुनि हैं।इनकी शाखाएं इलाहाबाद, हरिद्वार, उज्जैन, त्र्यंबकेश्वर, ओंकारेश्वर और कनखल में हैं। इतिहास के पन्ने बताते हैं कि 1260 में महंत भगवा नंदगिरी के नेतृत्व में 22 हजार नागा साधुओं ने कनखल स्थित मंदिर को आक्रमणकारी सेना के कब्जे से छुड़ाया था।
  4. 4.श्रीअटल अखाड़ा:– यह अखाड़ा 569 ईस्वी में गोंडवाना क्षेत्र में स्थापित किया गया। इनके ईष्टदेव भगवान गणेशहैं। यह सबसे प्राचीन अखाड़ों में से एक माना जाता है। इसकी मुख्य पीठ पाटन में है लेकिन आश्रम कनखल, हरिद्वार, इलाहाबाद, उज्जैन व त्र्यंबकेश्वर में भी हैं।
  5. 5.श्रीआह्वान अखाड़ा:- यह अखाड़ा 646 में स्थापित हुआ और 1603 में पुनर्संयोजित किया गया। इनके ईष्टदेव श्रीदत्तात्रेय और श्रीगजानन हैं। इस अखाड़े का केंद्र स्थान काशी है। इसका आश्रम ऋषिकेश में भी है। स्वामी अनूपगिरी और उमराव गिरी इस अखाड़े के प्रमुख संतों में से हैं।
  6. 6.श्रीआनंद अखाड़ा:- यहअखाड़ा 855 ईस्वी में मध्यप्रदेश के बेरार में स्थापित हुआ था। इसका केंद्र वाराणसी में है। इसकी शाखाएं इलाहाबाद, हरिद्वार, उज्जैन में भी हैं।
  7. 7.श्रीपंचाग्नि अखाड़ा:- इस अखाड़े की स्थापना 1136 में हुई थी। इनकी इष्टदेव गायत्री हैं और इनका प्रधान केंद्र काशी है। इनके सदस्यों में चारों पीठ के शंकराचार्य, ब्रहमचारी, साधु व महामंडलेश्वर शामिल हैं। परंपरानुसार इनकी शाखाएं इलाहाबाद, हरिद्वार, उज्जैन व त्र्यंबकेश्वर में हैं।

8.श्री नागपंथी गोरखनाथ अखाड़ा:- यह अखाड़ा ईस्वी 866 मेंअहिल्या-गोदावरी संगम पर स्थापित हुआ। इनके संस्थापक पीर शिवनाथ जी हैं। इनका मुख्य दैवत गोरखनाथ है और इनमें बारह पंथ हैं। यह संप्रदाय योगिनी कौलनाम से प्रसिद्ध हैऔर इनकी त्र्यंबकेश्वर शाखा त्र्यंबकंमठि का नाम से प्रसिद्ध है।

9.श्रीवैष्णव अखाड़ा:- यह बालानंद अखाड़ा ईस्वी 1595 में दारागंज में श्रीमध्यमुरारी में स्थापित हुआ। समय के साथ इनमें निर्मोही, निर्वाणी, खाकी आदि तीन संप्रदाय बने। इनका अखाड़ा त्र्यंबकेश्वर में मारुति मंदिर के पास था। 1848 तक शाही स्नान त्र्यंबकेश्वर में ही हुआ करता था। परंतु 1848 में शैव व वैष्णव साधुओं में पहले स्नान कौन करे इस मुद्दे पर झगड़े हुए। श्रीमंतपेशवाजी ने यह झगड़ा मिटाया। उस समय उन्होंने त्र्यंबकेश्वर के नजदीक चक्रतीर्था पर स्नान किया। 1932 से ये नासिक में स्नान करने लगे। आज भी यह स्नान नासिक में ही होता है।

10. श्री उदासीन पंचायती बड़ा अखाड़ा:-इससंप्रदायकेसंस्थापकश्रीचंद्रआचार्यउदासीनहैं।इनमेंसांप्रदायिकभेदहैं।इनमेंउदासीनसाधु, मंहतवमहामंडलेश्वरोंकीसंख्याज्यादाहै।उनकी शाखाएं  प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन, त्र्यंबकेश्वर, भदैनी, कनखल, साहेबगंज, मुलतान, नेपाल व मद्रास में है।

11.श्री उदासीन नया अखाड़ा:- इसे बड़ा उदासीन अखाड़ा के कुछ सांधुओं ने विभक्त होकर स्थापित किया। इनके प्रवर्तक मंहत सुधीरदासजी थे। इनकी शाखाएं प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन, त्र्यंबकेश्वर में हैं।

12.श्री निर्मल पंचायती अखाड़ा:- यह अखाड़ा 1784 मेंस्थापितहुआ। 1784 में हरिद्वार कुंभ मेले के समय एक बड़ी सभा में विचार विनिमय करके श्रीदुर्गासिंह महाराज ने इसकी स्थापना की। इनकी ईष्टपुस्तक श्रीगुरुग्रन्थ साहिबहै। इनमें सांप्रदायिक साधु, मंहत व महामंडलेश्वरों की संख्या बहुत है। इनकी शाखाएं प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन और त्र्यंबकेश्वर में हैं।

13. निर्मोही अखाड़ा:- निर्मोही अखाड़े की स्थापना 1720 में रामानंदाचार्य ने की थी। इस अखाड़े के मठ और मंदिर उत्तरप्रदेश, उत्तराखण्ड, मध्यप्रदेश, राजस्थान, गुजरात और बिहार में हैं। पुराने समय में इसके अनुयायियों को तीरंदाजी और तलवारबाजी की शिक्षा भी दिलाई जाती थी।

अखाड़ों की व्यवस्था एवं संचालन के लिए पांच लोगों की एक समिति होती है जो ब्रह्मा, विष्णु, शिव, गणेश व शक्ति का प्रतिनिधित्व करती है। अखाड़ों में संख्या के हिसाब से सबसे बड़ा जूना अखाड़ा है, इसके बाद निरञ्जनी और तत्पश्चात्महानिर्वाणी अखाड़ा है। उनके अध्यक्ष श्रीमहंत तथा अखाड़ों के प्रमुख आचार्य महामण्डेलेश्वर के रुप में माने जाते हैं। महामण्डलेश्वर ही अखाड़े में आने वाले साधुओं को गुरु मन्त्र भी देते हैं। पेशवाई या शाही स्नान के समय में निकलने वाले जुलूस में आचार्य महामण्डलेश्वर और श्रीमहंत रथों पर आरूढ़ होते हैं, उनके सचिव हाथी पर, घुड़सवार नागा अपने घोड़ों पर तथा अन्य साधु पैदल आगे रहते हैं। शाही ठाट-बाट के साथ अपनी कला प्रदर्शन करते हुए साधु-सन्त अपने लाव-लश्कर के साथ अपने-अपने गन्तव्य को पहुँचते हैं।

अखाड़ों में आपसी सामंजस्य बनाने एवं आंतरिक विवादों को सुलझाने के लिए अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद का गठन किया गया है। अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद ही आपस में परामर्श कर पेशवाई के जुलूस और शाही स्नान के लिए तिथियों और समय का निर्धारण मेला आयोजन समिति, आयुक्त, जिलाधिकारी, मेलाधिकारी के साथ मिल कर करता है। आज इन अखाड़ों को बहुत ही श्रद्धा-भाव से देखा जाता है। सनातन धर्म की पताका हाथ में लिए यह अखाड़े धर्म का आलोक चहुँओर फैला रहे हैं। इनके प्रति आमजन-मानस में श्रद्धा का भाव शाहीस्नान के अवसर पर देखा जा सकता है, जब वे जुलूस मार्ग के दोनों ओर इनके दर्शनार्थ एकत्र होते हैं तथा अत्यंत श्रद्धा से इनकी चरण-रज लेने का प्रयास करते हैं।

दण्डीबाड़ा

हाथ में दण्ड जिसे ब्रम्हदण्ड कहते हैं, धारण करने वाले संन्यासी को दण्डी संन्यासी कहा जाता है। दण्डी संन्यासियों का संगठन दण्डीबाड़ा के नाम से जाना जाता है। “दण्डसंन्यास” सम्प्रदाय नहीं अपितु आश्रम परम्परा है। दण्ड संन्यास परम्परा अन्तर्गत दण्ड संन्यास लेने का अधिकार सिर्फ ब्राह्मण को है। प्रथम दण्डी संन्यासी के रुप में भगवान नारायण ने ही दण्डधारण किया है।

नारायणं पद्य भवं वशिष्ठं, शक्तिंचतत्पुत्र पाराशरंच

व्यासं शुकंगौड़ पदंमहन्तं गोविन्द योगिन्द्र मथास्य शिष्यं

श्री शंकराचार्य मथास्य पद्य पादं एहस्तामलकंच शिष्यं

तंत्रोटकंवार्तिक कारमन मानस्य गुरु सततं मान तोऽस्मि।।”

तत्पश्चात्भगवान आदि गुरु शंकराचार्य ने चारों दिशाओं में चार मठों की स्थापना की और इन चारों मठों में धर्माचार्यों की नियुक्ति की। तदुपरान्त धर्म की रक्षा के लिए भगवान आदि शंकराचार्य ने दशनाम संन्यास की स्थापना की, जिनमें तीन (आश्रम, तीर्थ, सरस्वती) दण्डी संन्यासी हुए और सात अखाड़ों के रुप में स्थापित हुए। उपर्युक्त तीन नामों में सर्वप्रथम आश्रम आता है। इनका प्रधान मठ शारदा मठ है, इनके देवता सिद्धेश्वर और देवीभद्रकाली होती हैं तथा इनके आचार्य विश्वरुपाचार्य हैं। इनके ब्रह्मचारी की उपाधि ‘स्वरुप’ है। इन्हीं में दूसरा नाम तीर्थ आता है जो आश्रम के ही समस्त आचरण को अपनाते हैं। तीसरा नाम सरस्वती है, जो शृंगेरीमठ के अनुयायी होते हैं।

आचार्यबाड़ा-

आचार्य बाड़ा सम्प्रदाय ही रामानुज सम्प्रदाय नाम से भी जाना जाता है। इस सम्प्रदाय के पहले आचार्य शठ को पहुए जो सूप बेचा करते थे। “शूर्पं विक्रीय विचार शठ कोपयोगी”। उनके शिष्य मुनि वाहन हुए। तीसरे आचार्य यामनाचार्य हुए। चौथे आचार्य रामानुज हुए। उन्होंने कई ग्रन्थ बनाकर अपने सम्प्रदाय का प्रचार किया। तभी से इस सम्प्रदाय का नाम श्रीरामानुज सम्प्रदाय हो गया। इस सम्प्रदाय के अनुयायी नारायण की आराधना करते है और लक्ष्मी को अपनी देवी मानते हैं। कावेरी नदी पर ये अपना तीर्थ मानते हैं और त्रिदंडधारण करते हैं।

आचार्य बाड़ा संप्रदाय में ब्रह्मचारी दीक्षा आठ वर्ष से अधिक आयु के बालकों को दी जाती है। इसके बाद उन्हें वेद अध्ययन कराया जाता है।सामवेद को ये अपना वेद मानते हैं। आराधना के कई चरणों की परीक्षा के बाद ही उन्हें संन्यास दिया जाता है। उन्हें इस बात की स्वतंत्रता है कि पढ़ाई पूरी होने पर वे चाहे तो गृहस्थ हो सकते हैं परन्तु संन्यासी होने के बाद परिवार से नाता छूट जाता है।

पंच संस्कार की दीक्षा

संन्यासियों को पंच संस्कार की दीक्षा दी जाती है-

1 . जिनमें शंखचक्र गरम करके हाथ के मूल में स्पर्श कराया जाता है,

2 . माथे पर चंदन का त्रिपुंडटी का धारण कराया जाता है

3 . सन्तों का भगवान के नाम पर नामकरण किया जाता है

4 . तत्पश्चात उन्हें गुरुमंत्र दिया जाता है

5 . यज्ञ संस्कार के बाद उन्हें संप्रदाय की परंपरा से जोड़ा जाता है

निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है आचार्य बाड़ा विशिष्ट द्वैतवाद का उत्कृष्ट उदाहरण है तथा यह सम्प्रदाय अपने और ईश्वर को अलग मान अपने इष्ट की आराधना करता है।

नागासाधु

सभी साधुओं में नागा साधुओं को सबसे ज्यादा हैरत और अचरज से देखा जाता है। यह आम जनता के बीच एक कौतुहल का विषय होते है।  यदि आप यह सोचते है कि नागा साधु बनना बड़ा आसान है तो यह आपकी गलत सोच है। नागा साधुओं की ट्रेनिंग सेना के कमांडों की ट्रेनिंग से भी ज्यादा कठिन होती है, उन्हें दीक्षा लेने से पूर्व खुद का पिंडदान और श्राद्ध तर्पण करना पड़ता है।  पुराने समय मेंअखाड़ों में नाग साधुओं को मठो की रक्षा के लिए एक योद्धा की तरह तैयार किया जाता था। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि मठों और मंदिरों की रक्षा के लिए इतिहास में नागा साधुओं ने कई लड़ाइयां भी लड़ी हैं।

कुंभ मेले के आकर्षण

शाही स्नान कुंभ का आकर्षण केंद्र माना जाता है लेकिन इसके अलावा आपको प्रयागराज में होने वाले कुंभ के कुछ और मुख्य आकर्षण के बारे में भी पता होना जरूरी है।

1 पेशवाई

पेशवाई या प्रवेशाई एक देशज शब्द है जिसका अर्थ है शोभायात्रा। कुंभ के आयोजन में पेशवाई काफी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं क्योंकि यह दूर दूर से आने वाले लोगों का स्वागत करती है और उन्हें होने वाले आयोजनों के बारे में बताती है।साधु संत की टोलियां धूमधाम से हाथी, घोड़े, बैंड बाजे के साथ कुंभ पहुंचते हैं। जिस मार्ग पर यह शोभायात्रा निकाली जाती है, उसकी दोनों ओर भारी संख्या में श्रद्धालु पुष्पवर्षा के लिए खड़े रहते हैं। अखाड़ों के लिए निर्धारित स्थलों पर भी सेवादार माल्यार्पण करने के लिए खड़े रहते हैं।स्वागत के लिए खड़े इस भीड़ का रोमांच देखने लायक होता है। अभी तक कुंभ में केवल 13 अखाड़े ही पेशवाई निकालते हैं।

कुंभ के रस्मो-रिवाज़

कुंभ मेला मात्र एक आयोजन नहीं बल्कि यह महापर्व हमारे देश की परंपरा है। हमारी यह सांस्कृतिक विरासत करोडों लोगों की आस्था से जुड़ी धरोहर है। कुंभ मेंस्नान के लिए सभी लोग तत्पर दिखते हैं लेकिन इस मेले के भी कुछ रस्मोरिवाज हैं। इस महामेले में सबसे पहले शंकराचार्य की सेना और नागा साधुओं को ही डुबकी लगाने की अनुमति होती है। उसके बाद आम जन स्नान के लिए जाते हैं। वैसे तो कुंभ में स्नान का वर्णन हमारे कई शास्त्रों और पुराणों में मिलता है लेकिन माघ मास में स्नान करने का विशेष ही महत्व है। कहते हैं जो एक बार कुंभ में डुबकी लगा ले उसकी 10 पीढ़ियों तक के पाप नष्ट हो जाते हैं। उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है और वह जीवनमरण के चक्र से मुक्त हो जाता है। यहां आने वाले सभी साधू अपनी तपस्या में लीन रहते हैं और कुंभ जैसा नजारा किसी भी आयोजन में देखने को नहीं मिलता। यह एक ऐसा आयोजन है जहां हर श्रद्धालु बिना निमंत्रण के अपनी मनोकामनाएं सिद्ध करने के लिए जाते हैं और वापस आते समय एक ऐसा धार्मिक एवं आध्यात्मिक अनुभव साथ लाता है जो उसे जीवनभर सुखद अनुभूति प्रदान करता है।

आध्यात्मिक महत्व

सांस्कृतिक, धार्मिक, आध्यात्मिक और ऐतिहासिक दृष्टिकोण के साथ साथ वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी कुंभ मेला महत्वपूर्ण है। कुंभ मेले के दौरान विशिष्ट ग्रह स्थिति के कारण वातावरण में निर्मित प्रभाव आध्यात्मिक अभ्यास और धार्मिक अनुष्ठानों के लिए बना है। इस प्रयोजन के लिए, ऋषि, ऋषि और भक्त कुंभ पर्व के दौरान कुंभ मेले के स्थान पर जाते हैं और धार्मिक अनुष्ठान करते हैं जैसे कि गंगा नदी में स्नान, देवताओं की पूजा, पितृतरपण (मृतक पूर्वजों को जल चढ़ाना), श्राद्ध, यज्ञ-यज्ञ, दान, ध्यान, तपस्या और आध्यात्मिक अभ्यास।कुंभ मेला के आध्यात्मिक महत्व को समझने के लिए, आइए हम उद्देश्य को समझें। चार तीर्थ स्थानों में कुंभ पर्व के दौरान कुंभ मेले का उद्देश्य आध्यात्मिक है। हरिद्वार, प्रयाग आदि पवित्र तीर्थ स्थानों पर दूर-दूर से आने वाले भक्तों को कुंभ पर्व पर दिव्य नदी गंगा में स्नान-ध्यान कर पवित्र स्नान करने और आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करने के लिए आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करना चाहिए।

 साधु और संत

आध्यात्मिक दृष्टिकोण से कुंभ मेले का उद्देश्य यह है कि भक्तों को आध्यात्मिक साधना जैसे ध्यान, दान, यज्ञ,  तपस्या आदि करके आध्यात्मिक रूप से प्रगति करनी चाहिए और मृत्यु के बाद आगे की गति प्राप्त करनी चाहिए। करोड़ों भक्त इसकी व्याप्ति की सीमा हैं

गंगा नदी में पवित्र स्नान के लिए प्रयाग में आयोजित महाकुंभ मेले में न्यूनतम 5 करोड़ श्रद्धालु शामिल होते हैं, जबकि हरिद्वार, उज्जैन और त्रयम्बकेश्वर नासिक में कुंभ मेलों में 1 से 2 करोड़ श्रद्धालु शामिल होते हैं। जैन, बौद्ध और सिखधर्म के अनुयायी भी ‘कुंभ मेलों’ में भाग लेते हैं।प्रयाग में ‘कुंभ मेले’ में भाग लेने वाले भक्तों की संख्या ‘गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड’ में दर्ज की गई है।

वर्ष 1942 में, लॉर्डलिन लिथगो, भारतीय वायसराय ने एक विमान में पंडित मदन मोहन मालवीय के साथ यात्रा करते हुए प्रयाग में ‘कुंभमेला’ देखा। वह लाखों भक्तों के समुद्र को देखकर चकित थे और उन्होंने उत्सुकता से पंडित जी से पूछा, “मालवीयजी, आयोजकों ने ‘कुंभमेले’ में लोगों को इकट्ठा करने के लिए बहुत परेशानी उठाई होगी? आयोजकों ने कितना खर्च किया होगा? मालवीय जी नेकहा, “केवल दो पैसे!”इस जवाब को सुन कर लॉर्डलिन लिथगो ने पुनःपूछा,  “पंडित जी, क्या आप मुझे चिढ़ा रहे हैं?”मालवीय ने अपनी जेब से पंचांग की एक प्रति निकाली और उसे लॉर्डलिन लिथगो को सौंपते हुए कहा, “यह केवल दो पैसे की लागत है। लोगों को इसके माध्यम से  ‘कुंभमेले’ की पवित्र अवधि के बारे में पता चलता है। तदनुसार, उनमें से प्रत्येक अपने दम पर पवित्र स्नान के लिए इकट्ठा होता है। किसी को भी व्यक्तिगत निमंत्रण नहीं दिया गया है।”

गंगा में स्नान

गंगाप्रयाग (गंगा), हरिद्वार (गंगा), उज्जैन (क्षिप्रा) और त्र्यंबकेश्वर नाशिक (गोदावरी) में गुप्त रूप से निवास करती है। गंगा नदी में स्नान करने के बाद से कुंभमेले के दौरान विशेष धार्मिक स्नान, श्रद्धालु और संत स्नान करते हैं। कुंभ मेले के दौरान स्नान करने से पृथ्वी के चारों ओर 1,000 अश्वमेध यज्ञों, 100 वाजपेय यज्ञोंऔर 1 लाख प्रदक्षिणाओं (परिक्रमा) करने के लिए योग्यता प्राप्त होती है। इसी प्रकार, कुंभ मेले के दौरान एक बार स्नान करने से, कार्तिक महीने में 1000 स्नान के बराबर, माघ महीने में 100 स्नान और वैशाख माह के दौरान नर्मदा नदी में 1 करोड़ स्नान होते हैं।

कुंभ मेला स्थानों और गंगा नदी के बीच संबंध

प्रयाग और हरिद्वार में कुंभ मेले गंगा नदी के तट पर आयोजित किए जाते हैं। त्र्यंबकेश्वर नासिक में कुंभ मेला गोदावरी नदी के तट पर आयोजित किया जाता है। ऋषि गौतम  ‘गोदावरी’ के नाम से गंगा को त्रयम्बकेश्वर-नासिक के पवित्र स्थान पर लाये। ब्रह्मपुराण कहता है कि ‘विंध्य पर्वत से परे गंगा नदी को गौतमी (गोदावरी) कहा जाता है।’ गंगा का मुख्य उद्देश्य दिवंगत पूर्वजों को मुक्ति प्रदान करना है। इसलिए, धर्मकुंभ मेले के दौरान गंगा में स्नान के अलावा पितृपर्ण भी होता है। ‘वायु-पुराण’ कहता है कि कुंभमेला श्राद्ध कर्म करने के लिए उपयोगी है।

साधु और संतों द्वारा प्रवचन

कुंभ में धर्म और आध्यात्मिकता उनके लिए भक्तों को आकर्षित करती है। कुंभ मेले के दौरान, संतों का दर्शन और धर्म, अध्यात्म, ‘रामायण’, ‘महाभारत’ आदि विषयों पर प्रवचन और व्याख्यान श्रद्धालुओं के लिए प्रेरणादायक हैं।

समाज में असमानताओं को भुला दिया जाता है

‘कुंभमेला’ के दौरान, ‘अन्न-छत्रों के लिए आध्यात्मिकता का एक आधार है। यहां, एकभक्त, जो एक करोड़पतिहै, को एक गरीब भिखारी के बगल में बैठे भगवान के प्रसाद (पवित्र संस्कार) के रूप में भोजन करते देखा जाता है।

हरिद्वार और कुंभ

पुराणों में हरिद्वार को महापुण्यवाला तीर्थ कहा गया है। “हरिद्वारं महापुण्यं देवर्षिसत्तम। यत्रागंगा वहत्येवतत्रोक्तमं तीर्थमुक्तमम्।।” हरिद्वार में ब्रह्मकुण्ड, हरकीपैड़ी सबसे पवित्र तीर्थ-स्थान माना गया है। यहीं पर प्राचीनकाल से ही लोकमान्यता के अनुसार, ‘विष्णु और शिव एवं हरिऔर हर के निवास के कारण हरिद्वार में हरद्वार नाम प्रख्यातहै।’ यह मान्यता भी है कि ब्रह्मा ने यहीं पर तपस्या भी की थी। ब्रह्मा द्वारा किए गए यज्ञ के पवित्रास्थान को ब्रह्म-कुण्ड के नाम से जाना जाता है। यहीं पर ब्रह्माजी की पादुका भी है। गंगावतरण के समय श्रीब्रह्माजी ने गंगाद्वार पर ही प्रकट होकर महाराजा भगीरथ को आशीर्वाद देते हुए कहा था,”इयंचदुहिताज्येष्ठातवगंगाभविष्यति।

त्वत्कृतेनचनाम्राथलोकेस्थास्यतिविश्रुता।।”

अर्थात गंगा तुम्हारी बड़ी पुत्री समझी जाएगी, क्योंकि तुम्हारे ही प्रयत्न से यह भूतल पर आई है।

महाभारत के आदि-सम्भवपर्व-अध्याय 67 में गंगाद्वार में भीष्म के पिता महराजर्षि भूपति प्रतीप द्वारा किए गए कठोर जप यज्ञ का वर्णन है, जहां श्री गंगा जी स्वयं प्रकटहुई एवं आश्वासनदिया, “त्वद्भक्तया तुभजिष्या मिप्रख्यातं भारतकुलं”, अर्थात तुम पर भक्ति करके एवं तुम्हारे अनुरूप मैं इस भारतवंश की सेवाकरूंगी।

सबके हितार्थ राजा प्रतीप ने गंगाद्वार “हरिद्वार” में जप किया। स्पष्ट है कि इन्द्रप्रस्थ के सम्राट गंगाजी के वरदान से ही ;समस्त भारत, विशेषतः उत्तर-भारत में वंशव वैभव सम्पन्न रहे। हरिद्वार की आध्यात्मिक महत्तासम्राट विक्रमादित्य के राज्यकाल से भी पूर्व विख्यातर ही होगी। तभी तो सम्राट के परमविद्वान, ज्ञानवान, भाई महाकविभर्तृहरि द्वारा की गई गंगाद्वार “हरिद्वार” तपस्या की पुण्य-स्मृति में पौड़ियों और हवन कुण्ड आदि का निर्माण या पुनर्निर्माण करवाया गया। श्रद्धालुजन का विश्वास है कि हरिद्वार में ‘हरकी पैड़ी’ नाम भर्तृहरि के समय से विख्यातहुआ। हरिद्वार की महिमा का वर्णन करते हुए पद्म पुराण ने इस तीर्थ को धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष देने वाला बताया ह।

हरिद्वार-स्य सदृशं शक्र प्रस्थग तस्यवै।

नतीर्थं पृथिवीलोके चतुर्वर्गपफलप्रदम्।।”

अर्थात् इस पृथ्वी पर हरिद्वार के सामान अन्य कोई तीर्थ, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का देने वाला नहीं है।

गंगा द्वार पर महाकुम्भ और हरिद्वार का प्राचीनतम ऐतिहासिक सम्बन्ध निर्विवाद है।

  -भव्य श्रीवास्तव, वरिष्ठ पत्रकार एवं संस्थापक रिलीजन वर्ल्ड

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