अनिश्चितता से बढ़ा अर्थव्यवस्था को खतरा

विशेष रिपोर्ट, आलोक भदौरिया, नई दिल्ली।

  • कोरोना की दूसरी लहर ने फिर से खड़ी कर दीं चुनौतियां  
  • देश एक बार फिर से देशव्यापी लॉकडाउन झेलने को तैयार नहीं

कोरोना की दूसरी लहर ने अर्थव्यवस्था के लिए फिर से चुनौतियां खड़ी कर दी हैं। पिछले माह अचानक तेजी से फैलने के कारण बंदिशों का दौर फिर से शुरू हो चुका है। देश के कई राज्यों में नाइट कर्फ्यू लागू किया जा चुका है। साप्ताहिक या कुछ घंटों का लॉकडाउन कई शहरों में लागू हो चुका है। आर्थिक गतिविधियों पर मंडराते साए ने देश के सामने गंभीर चुनौतियां पेश कर रखी हैं। लेकिन, वैक्सीन को लेकर ठोस कदम के बजाय बयानबाजी जारी है।
पिछला साल कोरोना महामारी के साये में ही गुजर गया था। एक तिमाही तो जीडीपी में संकुचन 23.9 फीसद तक दर्ज हो चुका था। लेकिन, साल खत्म होते होते यानी पिछले वर्ष की दो तिमाही में आर्थिक गतिविधियां जोर पकड़ने लगी थीं। इस साल मार्च के दूसरे सप्ताह के बाद से स्थितियां तेजी से बिगड़ने लगीं। संक्रमितों की तादाद लगातार नए रिकॉर्ड बना रही हैं। कोई डेढ़-दो लाख लोग रोज संक्रमित हो रहे हैं। एक्टिव केसों की संख्या दस लाख पार कर चुकी है।
पिछले साल की तरह इससे निपटने का कोई और तरीका हुक्मरानों को नजर नहीं आ रहा है। फिर बंदिशों का दौर शुरू हो चुका है। रात्रि कर्फ्यू कई शहरों में लागू किया जा चुका है। इस लॉकडाउन से नोवल कोरोना वायरस की रोकथाम में कितनी मदद मिलती है, इस बारे में विशेषज्ञों की राय एक नहीं है। अलबत्ता इससे अर्थव्यवस्था को कितना नुकसान होता है। यह आंकड़े काफी हद तक देश के सामने आ चुके हैं। काफी हद तक कहने का आशय यह है कि जीडीपी की गणना में अनौपचारिक क्षेत्रों का पूरा हिसाब किताब दर्ज नहीं हो पाता है।
सवाल उठता है कि क्या एक बार फिर अर्थव्यवस्था गोते खाने जा रही है? इसका साफ जवाब है-नहीं। पिछले अनुभवों से सबक मिलता है कि देश एक बार फिर से देशव्यापी लॉकडाउन झेलने के लिए तैयार नहीं है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी मुख्यमंत्रियों की बैठक में यह कह चुके हैं। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल का भी यही मानना है कि इस बीमारी से निपटने में समूची दिल्ली को लॉकडाउन नहीं कर सकते हैं।
विश्व स्वास्थ्य संगठन की प्रमुख वैज्ञानिक डॉ. सौम्या विश्वनाथन ने हाल ही में कहा है कि लॉकडाउन इस बीमारी पर रोकथाम पाने का एकमात्र तरीका नहीं है। यदि पूरा लॉकडाउन लगाया गया तो इसके गंभीर परिणाम लोगों को भुगतने होंगे। उनका कहना है कि जब तक वैक्सीन ज्यादा से ज्यादा लोगों को लग नहीं जाती है, दूसरी और तीसरी लहर का खतरा हमेशा मौजूद रहेगा।
लेकिन, कुछ राज्यों ने अपने तमाम शहरों में नाइट कर्फ्यू लगा दिया है। उत्तर प्रदेश, पंजाब, मध्य प्रदेश और दिल्ली में यह लागू भी हो चुका है। कहीं रात के नौ बजे से कहीं रात के दस बजे से सुबह के पांच अथवा छह बजे तक यह लागू है। हैरत की बात है कि हुक्मरानों को लगता है कि रात की बंदिश से लोग और ज्यादा सतर्क हो जाएंगे और इसके चलते कोरोना के तेज प्रसार पर काबू पाया जा सकेगा। वैसे यह बड़ा मासूम तर्क है। यदि दिल्ली का उदाहरण लें तो समूची दिल्ली में लाखों लोग कामकाज के सिलसिले में सुबह घर से निकलते हैं और अधिसंख्य आठ से दस के बीच लौट आते हैं। कुछ लाख लोग इसके बाद भी लौटते हैं। यह तादाद वास्तव में काफी कम होती है। तो क्या यह माना जाए कि दिन भर इनकी आवाजाही अर्थव्यवस्था के लिए जरूरी है। रात में लौटने वाले या रेस्तरां, बार में जाने वाले लोगों की आवाजाही रोक दी जाए तो बड़ा फर्क पड़ेगा।
फैसले के परिणामों पर इस दफा भी विशेष ध्यान नहीं दिया गया। शहरों में कारोबार के सामान की लोडिंग, अनलोडिंग अमूमन रात के नौ दस बजे से ही शुरू होती है। भारी वाहनों की आवाजाही भी तभी शुरू होती है। इसके लिए नौकरशाहों ने ‘पास’ का बंदोबस्त कर दिया है। लेकिन, क्या इससे सामान्य तौर पर जारी व्यापारिक गतिविधियों पर फर्क नहीं पड़ेगा? आखिर यह कब समझेंगे कि इन कदमों से डर का माहौल बनता है। कब नाइट कर्फ्यू पूरे लॉकडाउन में बदल जाएंगे यह आशंका लोगों के मन में आ चुकी है। यही वजह है कि औद्योगिक शहरों से कामगार अपने-अपने घरों के लिए रवाना होने लगे हैं।
यह सवाल बेमानी है कि वे पिछली बार के सख्त लॉकडाउन की वापसी से डर कर लौट रहे हैं। कामधंधा बंद होने की आशंका के चलते वे जा रहे हैं या खुद मालिकों ने इशारा कर दिया है कि बैठकर खिलाना या मजदूरी का भुगतान करना उनके बस में नहीं है। वजह चाहे जो हो यह तय है कि इनके जाने से व्यापारिक गतिविधियों के कम होने से इनकार नहीं किया जा सकता है।
आइए। इसे समझते हैं परचेजिंग मैनेजर इंडेक्स (पीएमआई) के आंकड़ों से। सर्विस सेक्टर का पीएमआई फरवरी माह में 55.3 था। यह मार्च में घटकर 54.6 पर आ गया है। आपको याद होगा कि जनवरी माह से ही अर्थव्यवस्था के पटरी पर लौटने की जोर शोर से चर्चा शुरू हो गई थी। मार्च के उत्तरार्ध से कोरोना के फिर से तेजी से फैलने के कारण इसमें गिरावट और आना तय है।
क्रिसिल की एक हालिया रिपोर्ट के मुताबिक, पिछले वित्त वर्ष की चौथी तिमाही में राजस्व वृद्धि 15 से 17 फीसद रही है। इसमें आधा योगदान आईटी, ऑटोमोबाइल और कंस्ट्रक्शन का रहा है। कंस्ट्रक्शन एक ऐसा क्षेत्र है जो बड़े पैमाने पर रोजगार मुहैया कराता है। इसपर  कोई भी विपरीत प्रभाव पड़े तो इसका असर सीमेंट, स्टील आदि सेक्टर पर बड़े पैमाने पर पड़ता है। पहले से ही बेरोजगारी की समस्या से जूझ रही केंद्र सरकार के लिए यह परेशानी का सबब रही है। इसमें और इजाफा मुश्किलें और बढ़ाएगा ही।
महंगाई एक और बड़ी समस्या है जिससे छुटकारा पाना नजर नहीं आ रहा है। रिजर्व बैंक ने भी इसे बड़ी समस्या माना है। रिजर्व बैंक को उम्मीद है कि चालू वित्त वर्ष की पहली तिमाही में यह पांच फीसदी पर रह सकती है। दूसरी तिमाही में यह जरूर 5.4 पर पहुंच सकती है। लेकिन, तीसरी तिमाही राहत देने वाली है। यह 4.4 फीसद और फिर चैथी तिमाही में 5.1 फीसद रह सकती है। यही वजह है कि केंद्रीय बैंक ने सात अप्रैल को मॉनिटरी पॉलिसी कमिटी की बैठक में रेपो और रिवर्स रेपो दर में कोई बदलाव नहीं किया है। यही नहीं, एक लाख करोड़ के बांड खरीदने का फैसला भी सरकार को सुकून देने वाला है। बाजार में बांड की ब्याज दरों में कोई खास बदलाव नहीं आएगा।
लगातार पांच बार यानी फरवरी 2020 के बाद से नीतिगत दरों में कोई परिवर्तन नहीं किया गया है। लेकिन, इसका फायदा कॉरपोरेट तक कितना पहुंच रहा है? क्या बैंकों के कर्ज देने की रफ्तार बढ़ी? यदि पिछले साल के मुकाबले देखा जाए तो कर्ज देने में सिर्फ 5.6 प्रतिशत का इजाफा हुआ। यानी कुल मिला कर 109.51 लाख करोड़ रुपए ही कर्ज दिए गए।
सवाल पुराना है कि जब बाजार में मांग नहीं है तो कॉरपोरेट अपनी अंटी से धन क्यों निकालेगा? वह वैसे ही मौजूदा उत्पादन क्षमता का पूरा उपयोग नहीं कर पा रहा है। ऐसी स्थिति में कर्ज लेने की कोई वजह नजर नहीं आती है। वैसे कॉरपोरेट के मुनाफे के गंभीर विश्लेषण की जरूरत है। इस साल बैलेंस शीट के आकर्षण की प्रमुख वजह पिछले साल कोरोना महामारी के कारण उत्पादन ठप होना रहा है। नतीजतन, कच्चा माल सस्ता होता गया। कंपनियों ने खर्चे घटाए, कर्मचारियों के वेतन में कटौती की गई, सालाना वृद्धि रोक दी गई।
लेकिन, बाद में लॉकडाउन हटने के कारण औद्योगिक गतिविधियों में तेजी आने लगी। कच्चा माल की खपत और अंततः उसके दाम बढ़ने लगे। खर्च बढ़ने के चलते यह इस साल कंपनियों के मुनाफे पर असर डालेगा। इसका नतीजा पहले वेतन या मजदूरी में कटौती और फिर छंटनी के तौर पर सामने आना है। कुल मिलाकर बाजार में मांग बढ़ने के फिलहाल कोई आसार नहीं हैं।
ऑटोमोबाइल क्षेत्र में भी गाड़ियों की बिक्री की खबरें खूब आई। लेकिन, उस अनुपात में रजिस्ट्रेशन नहीं हुआ। इसकी वजह है कि गाड़ियों की बिक्री के आंकड़े कंपनियों से वाहनों के रवाना होने के समय के होते हैं। दूसरे शब्दों में वाहनों की संख्या डीलरों के यहां लगातार बढ़ती जाती है, लेकिन वाहनों का पंजीकरण ही सही पैमाना है ऑटोमोबाइल उद्योग की असली तस्वीर जानने का। वैसे कच्चा माल और सेमीकंडक्टर सामग्री की कमी के चलते भी यह उद्योग मुश्किलें झेल रहा है। रीयल एस्टेट की हालत भी खस्ता है। कंसल्टिंग फर्म प्रोपटाइगर के मुताबिक, पिछले साल की चैथी तिमाही में देश के आठ बड़े शहरों में आवास की बिक्री में पांच फीसद की गिरावट दर्ज की गई।
डूबत कर्ज की समस्या वाकई गंभीर है। सरकार एक बार फिर इसके लिए एक अध्यादेश लाई है। (देखें बॉक्स)। हालांकि इस बार इसे माइक्रो, लघु और मझौले उद्यमों तक ही सीमित रखा गया है। लेकिन, तमाम कॉरपोरेट भी इससे अछूते नहीं है। रेटिंग एजेंसी एस एंड पी ने एक रिपोर्ट में कहा था कि डूबत कर्ज 11 फीसद तक हो सकता है। रिजर्व बैंक की वित्तीय स्थिरता रिपोर्ट में इसके 13.5 फीसद होने की आशंका जताई जा चुकी है। यह वाकई खतरे की घंटी है।
बहरहाल, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के अनुमान के मुताबिक भारत की विकास दर 12.5 फीसद रह सकती है। वैसे रिजर्व बैंक ने अपने साढ़े दस फीसद विकास दर के अनुमान में कोई बदलाव नहीं किया है। कोरोना महामारी की दूसरी लहर के मद्देनजर इसे हासिल करना आज के हालात में मुुश्किल नजर आता है। गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियां भी बेहतर स्थिति में नहीं हैं। रेटिंग एजेंसी ‘फिच’ के मुताबिक मौजूदा हालात में प्रतिबंध बढ़ते हैं तो विकास दर का अनुमान घ

टाना भी पड़ सकता है। लेकिन, तस्वीर वैक्सीन लगाने की रफ्तार से ही साफ होगी। चुनौती है कि कितनी तेजी से साठ-सत्तर फीसद आबादी तक वैक्सीन की पहुंच हो जाए। अनिश्चितता के कारण अर्थव्यवस्था तब तक सरपट दौड़ नहीं सकेगी।

…तो क्या माइक्रो, लघु उद्यमों की हालत चमकदार है?

अर्थव्यवस्था की हालत का पता इनसॉल्वेंसी एंड बैंकरप्सी कोड (आईबीसी) के आंकड़ों से भी लगता है। पहले 270 दिनों में आईबीसी के तहत कार्रवाई पूरी करने का प्रावधान किया गया था। कोरोना महामारी के कारण इस पर अमल कई चरणों में एक साल के लिए रोक दिया गया। हकीकत में नेशनल कंपनी लॉ ट्रिब्यूनल (एनसीएलटी) में कुल 1717 प्रकरण सामने आए। इनमें 1481 प्रकरणों में 270 से ज्यादा दिन लगे। अर्थव्यवस्था की हालत के चलते कर्ज की अदायगी तमाम उद्यमों के लिए मुसीबत का सबब बनी हुई है। यह इतना पेचीदा मसला बन गया कि इस साल नौ अप्रैल को एक अध्यादेश जारी करना पड़ा। सूक्ष्म, लघु व मझौले उद्यमों के लिए लाए गए आईबीसी (संशोधन) अध्यादेश में कहा गया है कि दिवालिया प्रक्रिया शुरू करने से पहले कर्ज लेने वाला खुद रेजोल्यूशन प्लान (समाधान की योजना) पेश कर सकता है। शर्त है कि 66 फीसदी कर्जदाता इसकी स्वीकृति दे दें। इस संशोधन की वजह मुश्किल में फंसी कंपनियों की बिक्री के लिए खरीदार न मिलना रहा है। वैसे इसे घाटे वाली कंपनियों पर चोर दरवाजे से नियंत्रण बनाए रखना भी मानने से इनकार नहीं किया जा सकता है।
बहरहाल, सरकार का तर्क है कि इस कदम से नाहक मुकदमेबाजी से कंपनी स्वामी बचेंगे। क्योंकि उन्हें कंपनी चलाने का मौका मिलेगा। कुल अवधि 120 दिनों की है। 90 दिन रेजोल्यूशन स्कीम बनाने के लिए और एनसीएलटी को तय करने के लिए 30 दिन। यानी डूबत मामले नहीं निपटे नौ माह में भी। देखना है कि यह अध्यादेश क्या रास्ता सुगम बना सकेगा?

वैक्सीन की पॉलिसी क्या है?

कोरोना महामारी की दूसरी लहर ने सबकी परेशानी बढ़ा दी है। एक बार फिर से गतिविधियां ठप होने की आशंका से लोग भयभीत हैं। डेढ़ लाख लोगों के इस
वायरस से संक्रमित होने का रिकॉर्ड वाकई परेशानी का सबब है। वैक्सीन का घटता स्टॉक और उसे लेकर बयानबाजी भ्रम की स्थिति पैदा कर रही है।
सरकार के सामने विकास दर बनाए रखना बड़ी चुनौती है, वहीं लोगों के सामने रोजी-रोटी का सवाल फिर से खड़ा हो गया है। इन सबके बावजूद केंद्र सरकार का यह दावा कि वैक्सीन की कोई कमी नहीं है, भ्रम और बढ़ा रहा है। जबकि कई राज्य सरकारें कह रही हैं कि उनके पास वैक्सीन का स्टॉक दो चार दिनों का ही है। महाराष्ट्र, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, दिल्ली आदि कई राज्यों में शुरू किए गए टीकाकरण केंद्र बंद हो गए।
विशेषज्ञों का मानना है कि साठ फीसदी आबादी के टीकाकरण के बाद ही हर्ड इम्यूनिटी (सामूहिक रोग प्रतिरोधक क्षमता) विकसित होती है। तीन माह से कम समय में देश में दस करोड़ लोगों को टीका लगाना गौरव की बात है। लेकिन, आबादी के अनुपात के हिसाब से टीकाकरण में हम अमेरिका और ब्रिटेन से बहुत पीछे हैं।
एक अहम मसला वैक्सीन की पॉलिसी को लेकर भी है। एक अप्रैल से 45 से अधिक आयु वर्ग के लोगों को वैक्सीन लगाने की छूट दी गई है। लेकिन, यह नहीं भूलना चाहिए कि बाजार और कार्यस्थलों में ज्यादा तादाद युवाओं की हैं। सर्वाधिक आवाजाही इस वर्ग की ही है। ऐसे में इस कामकाजी वर्ग को जल्द से जल्द इसके दायरे में लाकर हम औद्योगिक और व्यापारिक गतिविधियों को बरकरार रख सकते हैं। वैसे भी केंद्रीय नीति की शर्तों के कारण करोड़ों डोज बर्बाद हो रही हैं। क्या यह उचित नहीं होगा कि डोज बर्बाद न हो और ऐसे लोगों को इसके दायरे में लाया जाए। राज्य सरकारों को इतना अधिकार तो दिया ही जाना चाहिए। जरूरत से ज्यादा केंद्रीयकरण किस काम का जब स्वास्थ्य क्षेत्र ही राज्य सरकार के पास है।
देश की छवि विदेशों में निखारना अच्छी बात है, लेकिन वैक्सीन मैत्री जैसे कार्यक्रम के जरिए अपने लोगों को प्राथमिकता सूची में पीछे रखना कहां तक उचित है। यह नहीं भूलना चाहिए कि कामकाजी वर्ग जितना जल्दी वैक्सीन लेगा, मन में भय उतना ही कम होगा। उत्पादकता में वृद्धि तभी संभव है।
आलोक भदौरिया, नई दिल्ली।

Leave a Reply