तीरतुक्का/वीरेंद्र सेंगर
हुजूर! बात बेबात में पाॅलिटिक्स हो रही है। ये सिलसिला दशकों का है, लेकिन पता
नहीं क्यों राजनीतिक बेवड़ों की बाढ़ आ गयी है? ऐसे सियायत दां, जो एंटायर
पाॅलिटिक्स के ज्ञानी बन गये हैं, वे इतिहास, भूगोल, अध्यात्म, शुचिता से लेकर
राकेट साइंस तक अपना ज्ञान बांटते फिरते हैं। वो भी फुली कान्फीडेंस से, चाहे
सत्ता में हों, या सत्ता की फिराक में, पूरे साल राजनीति ही करते हैं। उसी में सोते हैं।
उसी में खाते हैं। जिसमें खाते हैं, मौका मिलते ही उसमें छेद करने से बाज नहीं आते,
क्योंकि वफादारी अब ओल्ड फैशन हो गयी है। फीकी राजनीति का युग लद गया।
यदि रोज तड़का न लगे, तो सियासी दाल बेस्वाद हो जाती है। अब राजनीति
वफादारी का नहीं, भक्त बनने और बनाने का खेला है। वैसे भी वफादारी दो पैर वाले
से कैसे हो सकती है? चार पैर वाले के गले में पालतू होने का पट्टा अच्छा लगता है।
लेकिन विडंबना है, चार पैर वाले इतने गए गुजरे नहीं हुए कि आपस में पाॅलिटिक्स
करें। वे एक-दूसरे के दोस्त होते हैं या दुश्मन। बीच का रिष्ता ही पाॅलिटिक्स
कहलाता है, जो सिर्फ दो पाए वाले ही करते हैं। न्यू इंडिया के इस पाॅलिटिक्स तो
विश्व गुरु बनते जा रहा है, जय हिंद। सो, यहां जमकर नए प्रयोग हो रहे हैं। कई बार
जो संयोग लगता है, दरअसल वो प्रयोग होता है। गजब बात यह है कि हमारे देश की
हीपोक्रेसी भी महान है, एकदम ग्रेट। सियासत के डर्टी गेम मास्टर भी पाॅलिटिक्स को
अछूत जैसा मानते हैं। पाॅलिटिक्स करने का ऐसे ताना मारते हैं मानो ये कोई बहुत
नीच हरकत हो? पार्टनर यही है, इनकी पाॅलिटिक्स! राजनीति की खेती चौतरफा
फल फूल रही है। ये संसद और विधानसभाओं में ही नहीं, बाकी जगह भी बदबू देने
लगी है। एक दौर था, जब राजनीति और इसके वाहकों का बहुत सम्मान था। नेता
का मतलब, शुद्ध सामाजिक विकास के योद्धाओं से होता था, लेकिन समय की
बलिहारी! पहले सियासत में त्याग-तपस्या के तत्व भरपूर थे। खांटी-सहज ईमानदार
नेताओं का बोलबाला होता था। जैसे-जैसे हम प्रगतिशील हुए, वैसे-वैसे बदलाव
आते गये। अब इस त्याग-तपस्या को गांठ बांधकर पाॅलिटिक्स में कूदे, तो रिजेक्शन
वाली गाड़ी की तरफ बढ़ जाओगे, क्योंकि समय की मांग है, जो बोलो वह कतई न
करो, वरना पाॅलिटिक्स क्या खाक करोगे? बस, यही अलाप लगाओ कि हम देश
सेवक हैं, चाौकीदार हैं, जनता जनार्दन ही मालिक है। फटेहाल जनता इतने जुमले
से ही मुरीद बन जाती है। लुटती है, पिटती है, और लुटेरे को ही अपना मसीहा मान
लेती है। दशकों से यह अजब गजब खेल जारी है। जब सत्ता में पंजे वाले थे, तो
चैतरफा हल्ला था कि जनता त्रस्त है। ‘बहुत हुआ भ्रष्टचार, अबकी बार…’ आज भले
ये नारा, जुमला बन गया हो, लेकिन उस दौर में बदलाव का छूमंतर बन गया था।
जादू सिर पर चढ़कर बोला। बदलाव का खेला हो भी गया। महीने-दो महीने नहीं,
सात साल हो गये हसीन सपनों के प्रोजेक्ट आगे के सपने में ही विस्तार पाते रहे।
रोजगार और घटे। महंगाई पहले डाइन होती थी खूब सताती थी। अब नामकरण
बदल गया है। वो शायद मस्त भौजाई का दर्जा पा गयी है। उसके सामने रोओ नहीं
मुस्कुराओ, महंगाई जो जगत भौजाई ठहरी! जन सेवक जुटे हैं। चौकीदार रखवाली
में हलकान हैं। दिन में सोलह-सोलह घंटे सेवादारी का घंटा बजा रहे हैं। लेकिन
अहसान फरामोश जनता को मजा नहीं आ रहा। कांग्रेसियों ने बंटाधार कर दिया है,
अपनी तरह जनता को भी आराम तलब बनाकर रख दिया है। कष्ट झेलने और त्याग
करने की आदतें कुंद कर दी हैं। वे सहज और खांटी प्राकृतिक जीवन से दूर भाग रहे
हैं। मंगता जीवी बना दिए गये हैं। हर रोज मांगते हैं। सरकार को चैन नहीं लेने देते,
विकास-विकास की रट लगाते हैं। ज्यादा विकास हुआ तो देश में भौतिकवाद
बढ़ेगा। इससे भारत की प्राचीन संस्कृति का नाश होगा। हमारे ऋषि-मुनियों ने कहा
था, कम खाओ और गम खाओ। बोले तो, ठंड करो। हमारी यशस्वी सरकार, प्राचीन
संस्कृति को फिर से लाने की अथक मेहनत कर रही है। लेकिन ये भौतिकवादी
सेक्यूलर गैंग, विघ्न संतोषी के रोल में है। राम-राम, क्या कलियुग आ गया है। जहां
लोकप्रिय राजा पर भी जनता विश्वास करने को तैयार नहीं। ये कांग्रेसी टाइप लोग
जनता को भ्रमित करते हैं। कितनी गंदी पाॅलिटिक्स है। आइए! समवेत स्वर में
इनकी निंदा करते हैं जय श्री राम-जय श्री राम! देश के सामने तमाम राष्ट्रीय
चुनौतियों के पहाड़ खड़े हैं। चीन जैसे दुष्ट को अभी भगाया गया है। वो सरकार के
यश से कांप रहा है। अक्ल आ गयी है, मुए को लेकिन मुए विपक्ष को डर्टी
पाॅलिटिक्स देखो। सरकार की आरती उतारने की बजाय विरोध के तबले बजा रहे
हैं। देश के अन्नदाताओं को भड़का कर रख दिया है। विश्वगुरु देश की बदनामी पूरे
जहां में हो रही है। कितनी गैर इंसाफी है। यूं ही पूंछ रहा हूं हुजूर! क्या लोकतंत्र में
पाॅलिटिक्स कोई गंदी हरकत होती है, बताइए प्लीज!