धर्म नहीं सिखाता लड़ना

  •  काश! हम अपने धर्मों को नफरत से दूर प्यार की दुनिया में ले जाएं
  • यह भी हमें ही करना होगा
  • आखिर हमने ही अपने धर्म बनाए हैं
  • नफरत से प्यार तक हमें ही लेकर जाना है
  • उसके लिए एक अलग धर्मयुद्ध की जरूरत है…

राजीव कटारा

कुछ समय पहले पेरिस में एक टीचर सैमुएल पैटी की हत्या कर दी गई। एक मजहबी कट्टरपंथी ने उन्हें सजा-ए-मौत दे दी। यह सजा इसलिए दी गई, क्योंकि एक मजहबी ने दूसरे मजहब का मजाक उड़ाया था। और उस मजाक का बदला उसे ही उड़ा कर दिया गया। यहां एक ही साथ दो सवाल उठते हैं। क्यों हम दूसरे मजहब का मजाक उड़ाते हैं? और अगर कोई मजाक उड़ाता भी है, तो हम उसे मार क्यों डालते हैं?
अपने मजहब या धर्म को जीना, अपने धर्म को प्यार करना, अपने लोगों का ख्याल करना, उस पर गर्व करना, एक बात है। लेकिन दूसरे धर्म को सहन न करना, उससे नफरत करना, नीचा देखना या दिखाना, बिल्कुल दूसरी बात है। मैं ताकतवर हूं, मेरी बात मानो। मेरा राज है, मेरी बात मानो। यह कौन सी सभ्यता-संस्कृति है।
हम जैसे हैं, ठीक हैं। उसी तरह दूसरे जैसे हैं, वे भी ठीक हैं। उसी मायने में अपने को बचाना एक बात है, और दूसरे को मारना बिल्कुल अलग। हम तो सर्वश्रेष्ठ हैं। यह कहते ही दूसरे को छोटा मानने की शुरुआत हम कर बैठते हैं। और यही शुरुआत धीरे-धीरे हमें एक मनोराज्य की तरफ ले जाती है। उसकी मंजिल होती है धर्मराज्य। हमारा धर्म और हमारा राज्य हो, तो फिर क्या बात है? उसके बाद तो प्यार और युद्ध में सब जायज है, जैसा कुछ हो जाता है। यह अलग बात है कि जहां भी धर्मराज्य आया, वहां दुनिया छोटी ही हुई।
पेरिस की घटना एक बात है। लेकिन दुनियाभर में यह होते हम देख रहे हैं। अपने यहां भी धर्म बहुत बढ़-चढ़ कर बोल रहा है। अपने यहां धर्मराज्य की कोई मिसाल नहीं रही है। अपना हिंदू या सनातन धर्म का ढांचा तो लचीला ही रहा है। और वही उसकी खासियत है। बहुत बड़ा समाज अपने लचीलेपन से ही चल सकता है। बहुत कठोरता तो छोटे समाज में चलनी ही मुश्किल होती है। फिर भी कम लोगों पर हुक्म चलाना या हुकूमत करना आसान होता है। जितना बड़ा समाज होता है, उसमें उतनी ही विविधता होती है। उस समाज में उतने ही बड़े स्तर पर विकेंद्रीकरण की जरूरत होती है।
अब इतना बड़ा और विविध समाज बड़प्पन से चलता है। अपना समाज इतना बड़ा इसलिए बना रहा क्योंकि बहुसंख्यकों में एक किस्म का बड़प्पन था। एक बहुसंख्यक समाज अपने अल्पसंख्यकों से कैसे पेश आता है, उससे बहुत सारी चीजें तय होती हैं। किसी भी माहौल में अल्पसंख्यक थोड़ा बहुत डरा हुआ होता ही है। यह अल्पसंख्यक मन ही है, जो अपने को खतरे में समझने लगता है। उसे अपने हित साधने होते हैं। उसके लिए उसे बहुत भारी एकजुटता दिखानी होती है। थोड़ा एक किस्म का डर देख-दिखा कर ही हम थोड़ा कट्टर और थोड़ा हिंसक हो ही जाते हैं।
यह सही है कि अल्पसंख्यक होते ही हम अपने को खतरे में समझने लगते हैं। लेकिन उनका खतरे में होना और बहुसंख्यक का अपने को खतरे समझने में बड़ा भारी फर्क होता है। किसी भी देश का बहुसंख्यक जब छुटपने पर उतरता है, तो बहुत कुछ टूटता है। अल्पसंख्यक तो पहले से ही डरा हुआ होता है। बहुसंख्यक में जब बड़प्पन नहीं होता, तो अल्पसंख्यक को और भी डराया जाता है। धमकाया और मारा जाता है। इसीलिए यह बड़प्पन जाते ही अलग तरह के खतरे महसूस होते हैं। असल में जो बहुसंख्यक और ताकतवर होता है, उसे दूसरों का ख्याल रखना चाहिए। न कि उनको दरकिनार करते चलना चाहिए।
हिंदू धर्म को संकीर्ण दायरे में बांधने की कोशिश सदियों से होती रही है। यह आज की बात नहीं है। लेकिन यह भी सच है कि उसे उस दायरे से बाहर निकालने की कोशिशें भी कम नहीं हुई हैं। उसे संकरा और बड़ा करने की जद्दोजहद चलती रही है। कभी वह मुहिम कमजोर पड़ती दिखती है, कभी मजबूती से खड़ी रहती है। आज यह मुहिम कमजोर सी पड़ती दिखलाई पड़ रही है। यों भी जब धार्मिक घेरा बड़ा होने लगता है, तो मानवीय घेरा सिकुड़ने लगता है। और यही सबसे बड़ी दिक्कत है।
अपने यहां यह लड़ाई सेकुलर और सांप्रदायिक के खांचे में बांट दी गई है। सेकुलर को ठीक तरह से न समझ पाने की वजह से भी तमाम दिक्कतें हुई हैं। अपने समाज का मिजाज इस पश्चिमी सेकुलर के साथ मेल नहीं बिठा पाता। अगर हम किसी धर्म को मानते हैं, उसमें आस्था रखते हैं, पूजा पाठ करते हैं, तब क्या हम सेकुलर नहीं हो सकते। क्या हम एक धर्म में आस्था रखने की वजह से सांप्रदायिक हो जाएंगे। ये जो अजीब सा विभाजन कर दिया है। या तो आप धार्मिक होंगे या सेकुलर। अजीब है न।
सेकुलर होने के लिए नास्तिक होना जरूरी है। यह तो अपने समाज में नहीं चलेगा। यहां तो सब धर्मों का हम सम्मान करते हैं, तब सेकुलर होते हैं। अपने समाज में धर्म से निरपेक्ष होना आसान नहीं है। यह सहज ही धार्मिक भावनाओं वाला देश है। लेकिन उसके लिए लड़ने-भिड़ने वाला देश नहीं है।
हमारे कट्टरपन की जड़ें कहां से निकलती हैं? अपने धर्म को सबसे अच्छा और सबसे बड़ा मान लेने से ही उसके बीज पड़ने शुरू होते हैं। फिर यह गढ़ा जाता है कि हमारा फलाना-फलाना धर्मग्रंथ तो भगवान का कहा-लिखा हुआ है। एक मनुष्य की कही हुई बात पर हम शायद उतना लड़ने-भिड़ने को तैयार न हों, जितना भगवान की बात पर लड़-भिड़ जाते हैं। इसी रुझान पर शायद जॉर्जिया हार्कनेस ने लिखा था कि मनुष्य के फैसलों को जब भगवान का बना दिया जाता है, तब धर्म दुनिया की सबसे खतरनाक चीज बन जाती है। जॉर्जिया अमेरिका की मशहूर दार्शनिक रही हैं। वह अपने धर्म के लिहाज से ईसाई मैथोडिस्ट थीं।
हमारे भगवान ने ऐसा कहा है…यह कह कर ही कट्टरपंथ की बुनियाद रखी जाती है। ईशनिंदा यहीं कहीं से उपजती है। और किसी ने किसी के ईश की निंदा कर दी, तब उसके लिए तो धर्मयुद्ध करना ही पड़ेगा न। और जब धर्मयुद्ध करते हैं, तो उससे सही और जायज क्या हो सकता है? अगर आप उसके लिए मार-काट करते हैं, तो धर्म का काम करते हैं। और मारे जाते हैं, तो सीधे अपने भगवान के पास ही जाते हैं। किसी को मरने-मारने का लाइसेंस इसी बिना पर मिलता और रिन्यू होता है। संगठित धर्म इसी तरह अपने लोगों का इस्तेमाल करते हैं। और मजेदार बात है कि उनका धर्म हमेशा खतरे में होता है। फिर खतरे से निकालने के लिए तो लड़ना पड़ेगा ना।
सालों तक मुझसे एक गुत्थी नहीं सुलझी। मैंने कई धर्मग्रंथ पढ़े। कई धर्मों के ग्रंथ पढ़े। मुझे उसमें कहीं लड़ाई की बात नजर नहीं आई। मुझे तो सभी धर्मों के ग्रंथ अच्छाई और शांति की बात करते हुए ही दिखलाई पड़े। लेकिन मैं जिनमें शांति देख रहा था, उसी में कोई युद्ध भी देख रहा था। मैं अभी दूसरों के धर्मग्रंथ की बात नहीं कर रहा। उसे शायद मैं कम ही जानता हूं। लेकिन गीता के बारे में जरूर कुछ कह सकता हूं। मुझे गीता शांति की बात करती हुई किताब लगती है। तमाम लोग कहते हुए मिल जाएंगे कि गीता पढ़ते हुए उन्हें असीम शांति मिलती है। लेकिन उसी गीता को मैंने युद्ध की किताब बताते हुए भी सुना है। एक अध्यात्मिक गुरू कह रहे थे कि अर्जुन युद्ध नहीं कर रहा था, तो कृष्ण ने कहा युद्ध कर। अब भगवान ही कह रहे हैं युद्ध कर। अपने शत्रुओं का नाश कर। हमने अपने शत्रु गढ़े। फिर उनका नाश करने के लिए अपने देवता गढ़े, ग्रंथ गढ़े। नहीं गढ़े, तो एक अलग मोड़ ही दे दिया।
लिट्टे के प्रभाकरन के बारे में कहा जाता है कि वह गीता का फैन था। वह अपने टाइगर्स को गीता पढ़ा-पढ़ा कर युद्ध के लिए झोंकता था। गीता की शपथ दिलाकर अपने ‘मरजीवड़े’ तैयार करता था। उन्हें मरने-मारने के लिए तैयार कर लेता था। ऐसे ही हर धर्म की किताबों का इस्तेमाल होता ही रहा है। और इससे दुखद क्या हो सकता है?
‘मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना। हिंदी हैं हम वतन है हिंदोस्तां हमारा।‘ कभी इकबाल ने यह लिखा था। एक दौर था जब हर एक की जुबां पर यह होता था। यह अलग बात है कि इकबाल बाद में बदल गए थे। वह दो देशों में हिंदुस्तान को बांटने के लिए राजी हो गए थे। हालांकि, अपने रहते वह पाकिस्तान बनते देख नहीं पाए। लेकिन इरादे तो जाहिर कर ही दिये थे। लेकिन उनकी वह लाइन कैसे भूली जा सकती है? ऐसे दौर में जब साबित हो रहा हो कि मजहब ही आपस में बैर रखना सिखाता है।
मुझे इधर 17वीं-18 वी सदी के महान आयरिश लेखक जोनाथन स्विफ्ट याद आ रहे हैं। उन्होंने एक कमाल की बात कही। उनके जाने के करीब पौने तीन सौ साल बाद भी वह कितनी आज की लग रही है। जरा देखिए तो ’हमारे पास तमाम धर्म हैं, जो हमें नफरत करना सिखाते हैं। ऐसे धर्म बहुत कम हैं, जो एक-दूसरे से प्यार करना सिखाते हैं।‘
काश! हम अपने धर्मों को नफरत से दूर प्यार की दुनिया में ले जाएं। यह भी हमें ही करना होगा। आखिर हमने ही अपने धर्म बनाए हैं। हम ही उन्हें यहां तक ले आए हैं। नफरत से प्यार तक हमें ही लेकर जाना है। उसके लिए एक अलग धर्मयुद्ध की जरूरत है।

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