- उत्तर प्रदेश चुनाव/उपचुनाव
-किसानों के मुद्दों को भुनाने के बजाय चुप रहीं मायावती
-इन चुनावों में सपा और कांग्रेस नहीं खड़ी कर पाए चुनौती उत्तर प्रदेश के ताजा विधानसभा उप चुनावों के नतीजों ने प्रदेश की राजनीतिक तस्वीर काफी साफ कर दी है। बिहार, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के चुनाव और उपचुनावों में भाजपा की पकड़ साफ दिखाई दी है। यदि इसे 2022 के विधानसभा चुनावों के पूर्वाभ्यास के रूप में देखा जाए तो यह कहना पड़ेगा कि भाजपा बहुत ही सशक्त स्थिति में है, लेकिन सपा, बसपा और कांग्रेस में कुछ नई स्थितियां पैदा हुई हैं। सही मायने में देखा जाए तो इन उप चुनावों में प्रदेश सरकार के सम्मुख विपक्षी दल किसी तरह की चुनौती खड़ी नहीं कर पाये।
उप चुनावों के पहले प्रदेश के प्रमुख दलों में कृषि कानूनों को लेकर विरोध और आंदोलन का रवैया अपनाया गया। सबने दिखाने की यही कोशिश की कि इन मुद्दों पर जनता-किसानों के साथ हम ही खड़े हैं और हमसे ज्यादा चिंता न तो भाजपा सरकार को है न किसी और को। इन दलों में कांग्रेस, राष्ट्रीय लोकदल, सपा और बसपा खास तौर से हैं। इनमें आंदोलन, गिरफ्तारी और अन्य तरीकों में कांग्रेस ही किसानों की नजर में आगे रही। पर इस विरोध के चलते कांग्रेस उत्तरप्रदेश में 7 सीटों के लिए होने उप चुनाव में भी कुछ हासिल कर पाएगी, ऐसा लगता नहीं था और हुआ भी वही। लेकिन एक बात स्पष्ट दिखाई पड़ी कि उप चुनाव में कांग्रेस दो सीटों पर मत प्रतिशत के हिसाब से दूसरे स्थान पर पहुंच गई, जिसकी नियति ही लम्बे समय से आखिरी यानी चैथे स्थान के लिए ‘आरक्षित’ लगा करती थी..! इसका कारण यह है कि सपा, बसपा और भाजपा की तुलना में कांग्रेस का न जमीनी आधार बन पाया है और ना ही अब तक राहुल-प्रियंका और प्रदेश अध्यक्ष लल्लू सिंह के अलावा किसी की पकड़ ही बन पाई है। लेकिन इसमें दो राय नहीं है कि किसानों के लिए इस लड़ाई में वह सबसे आगे जरूर रही है। इस उप चुनाव में ही उसे इसका कोई लाभ हो जाए मत प्रतिशत बढ़ाने में, यही देखना बाकी था और उसे डूबे को तिनके का सहारा जरूर मिला है। यह कहा जा सकता है कि उसकी यह सारी कसरत उप चुनाव के लिए नहीं, बल्कि 2022 के विधानसभा चुनाव के लिए थी, है और रहेगी भी…!
उप चुनावों के पहले की स्थितियों को देखने पर साफ लगता था कि बसपा की सर्वेसर्वा मायावती की किसान बिल पर न तो राज्यसभा में कोई दिलचस्पी दिखाई दी और ना ही बाद में सड़क पर ही दिखाई पड़ रही है। कमोबेश यही हाल सपा का भी रहा है। इनसे ज्यादा सक्रियता तो आरएलडी के जयंत चैधरी ही जूझते-भिड़ते देखे गये हैं। उनका प्रतिरोध या जाटों का गुस्सा ही भाजपा सरकार के लिए नुकसानदेह साबित हो सकता था, पर उपचुनाव में इसका कसर कहीं नजर आया नहीं।
इस उप चुनाव में सबसे ज्यादा प्रतिष्ठा सपा और भाजपा की दांव पर थी। इसमें सपा ने अपनी पिछली जीत को बरकरार भी रख लिया। भाजपा इस चुनाव के पहले पांच सीटों पर काबिज थी और उसने अपनी सीटों पर पकड़ बनाये ही नहीं रखी, बल्कि एक सीट और झटक कर अपनी संख्या छह कर ली। यदि किसी को खाली हाथ रहना पड़ा तो वह बसपा ही थी। इतना ही नहीं, दो-तीन सीटों पर तो वह कांग्रेस से पीछे और नीचे सरक गयी। उपचुनाव में हाथरस पर जाकर मामला टिका ही नहीं, जो बसपा के लिए थोड़ा मददगार हो सकता था। लेकिन इस मामले में पूर्व मुख्यमंत्री मायावती की तल्खी भी कांग्रेस और सपा की तुलना में कम ही नजर आयी।
दरअसल, कांग्रेस, सपा और बसपा हाथरस की घटना को जातीय और समुदाय विशेष की घटना बनाकर किसी तरह चुनाव में फायदा लेना चाहते थे। और मुख्यमंत्री योगी ये किसी भी हालत में नहीं होने देना चाहते थे और इसे होने भी नहीं दिया। राजनीतिक रूप से गर्म उत्तरप्रदेश में कृषि कानूनों और हाथरस की घटना के आसपास विपक्ष और सरकार दोनों घूमते रहे और इसी बीच उप चुनाव आये भी और अपना परिणाम दिखा कर बीत भी गये ..!
-घनश्याम दुबे, लखनऊ।
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