सुशील उपाध्याय
पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा ( Haryana) की रोडवेज बसों का कोई कंडक्टर जब ‘आप’ या ‘सर’ कह कर बात करता है तो लगता है कि किसी पिछले जन्म का कोई पुण्य कर्म उदय हुआ है। वरना तो इन बसों में यात्रा करते हुए तू, तुम, तझे, तुझे की ऐसी आदत पड़ जाती है कि इन शब्दों को न सुनने पर दिनभर कुछ अधूरापन महसूस होता रहता है। (वजह, हम जैसे अनेक लोगों की जिंदगी तू, तुम की संगत में ही शुरू हुई है। इसलिए इन शब्दों के साथ भरपूर सहजता है।) पिछले दिनों ऐसा ही एक शुभ वाकया हुआ। कंडक्टर ( conductor)द्वारा ‘आप कहाँ जाएंगे सर’ कहे जाने पर मैं इतना विस्मित, बल्कि हतप्रभ रह गया कि बस से उतरने के घंटों बाद भी उस कंडक्टर की दिव्य छवि मेरी आत्मा के गुह्य कोनों में जस की तस विराजमान है।
वैसे इन कंडक्टरों की भी क्या गलती! जब ग़ालिब जैसा शायर अपनी रचनाओं में ‘तू क्या है’ (तुम ये कहते हो कि तू क्या है…) जैसे प्रयोग कर सकता है तो इन कंडक्टरों, ड्राइवरों ( Drivers) का तो स्वाभाविक अधिकार ही है। हालांकि, ये बात भी ध्यान रखने वाली है कि हरयाणवी, कौरवी बोली में ‘तू’ शब्द अपने से छोटों के लिए सहज रूप में प्रयोग में लाया जाता है। वहाँ तुम (तम, तझे, तम्हें आदि भी) आदरसूचक शब्द की तरह प्रयोग में लाये जाते हैं। इन दोनों ही बोलियों में ‘आप’ एक बाहरी और शहरी शब्द है, जिसका प्रयोग व्यक्ति के बनावटीपन की तरफ इशारा करता है।
बहुवचन’ वाले बच्चे!
कुछ लोग इतने भले मानस होते हैं कि घर के अंदर अपने बच्चों से भी ‘आप-आप’ कहकर बात करते हैं। उनके लिए चार-पांच साल के अपने बच्चे भी इतने आदरणीय, फादरणीय हो जाते हैं कि हमेशा ‘बहुवचन’ में ही बात करते हैं। अच्छी बात है। इसमें कुछ बुराई नहीं। जिसको जैसा रुचता हो, जैसा उनके अभ्यास में हो, वे कर सकते हैं। पर, मेरे जैसा भदेस आदमी सहम जाता है। जब ये बच्चे खुली दुनिया में होंगे, चारदीवारी के बाहर होंगे तब इन्हें कैसा सदमा पहुंचेगा! वहां इन्हें आसानी से ‘आप’ जैसा संबोधन नहीं मिलेगा, इस संबोधन को पाने में दशकों को लग जाएंगेे, जबकि घर के भीतर ये पका-पकाया मिल रहा है। किसी मेहनत के बिना ही मिल रहा है।
ये बच्चे किस तरह तू, तुुम, तेरा, तुम्हारा का मुकाबला कर पाएंगे! और बाहर के लोग भी इन्हें कैसे समझेंगे, क्योकि ये मैं, मेरा की बजाय ‘हम, हमारा’ वाले बच्चे हैं। इनके ‘हम, हमारा’ में ‘समूह’ नहीं है, बल्कि ‘अहं‘ है। यह एक ऐसा आवरण है जिससे बाहर के लोगों को लग सकता है कि ये ’सर्व’ की बात कर रहे हैं, लेकिन बाद में पता चलेगा कि ये तो ‘स्व’ की बात कर रहे थे। असल में, ये तमीज वाले बच्चे हैं, इनके संस्कार खरे हैं, ऊंचे पायदान के हैं। पर, क्या करें, दुनिया इतनी खोटी है कि हर किसी को जमीन पर खींच लेती है। तब इन्हें लगेगा कि ये कितने ‘वाहियात’ और ‘संस्कारहीन’ लोगों से घिरे हैं।
कुछ दिन पहले एक परिचित सज्जन से पूछा, आपका नवजात बेटा कैसा है? उन्होंने कहा, हां, वे एकदम अच्छे हैं। अब तो मुस्कुराने भी लगे हैं। मुझे लगा कि जुड़वा हैं शायद! मैंने पूछा कि क्या-क्या नाम रखे हैं? उन्होंने जवाब में एक ही नाम बताया। मैंने पूछा कि दोनों का एक ही नाम रख दिया ? ना मैं उनकी बात समझ पा रहा था और न ही वे मेरी। खैर, बाद में पता चला कि उनके लिए भी उनका बेटा ‘बहुवचन’ ही है। ऐसे भले लोगों से मिलते हुए अपरिभाषित-सा डर लगने लगता हैै। पता नहीं, कहां चूक हो जाए। हम जैसों की परवरिश में तो पहली सांस से ही तू, तेरा, मैं, मेरा छिपा हुआ है। ‘आप’ को संभालने में जबान लड़खड़ाने लगती है।
पुनश्चः जिन मित्रों की भाषा में बहुवचन सहज रूप से समाहित है, इस पोस्ट का उनसे संबंध नहीं है।