व्यवसायिकता के कारण निष्पक्षता खोती पत्रकारिता !

डा श्रीगोपालनारसन एडवोकेट
जब से मिशनरी पत्रकारिता का दौर खत्म हुआ है और मिशनरी की जगह व्यवसायिकता का कब्ज़ा हुआ,तभी से पत्रकारिता पतन के कगार पर जा पहुंची है।हालांकि ब्रह्माकुमारीज जैसी संस्थाएं अभी भी पत्रकारिता को सकारात्मक मार्ग पर लाने के लिए भरसक प्रयत्न में जुटी हुई है।जिसके लिए राष्ट्रीय स्तर से लेकर लोकल स्तर पर भी पत्रकारों को बुलाकर उन्हें आध्यात्मिक ज्ञान देंकर उन्हें नकारात्मक पत्रकारिता के दल दल से निकालने का सार्थक प्रयास कर रही है। क्षेत्रीय ,प्रादेशिक व राष्ट्रीय अखबारो व मीडिया चैनलों ने अधिकांशतः सत्ता की ताकत के साथ समझौता कर अपने एथिक्स को कही पीछे धकेल दिया है।जिस कारण इतिहास बनती मिशनरी पत्रकारिता को बचाने के लिए अब हमें नए सिरे से विचार करना होगा कि सुबह का अखबार कैसा हो? समाचार चैनलों पर क्या परोसा जाए? क्या नकारात्मक समाचारों से परहेज कर सकारात्मक समाचारों की पत्रकारिता संभव है ?क्या धार्मिक समाचारों को समाचार पत्रों में स्थान देकर पाठको को
धर्मावलम्बी बनाया जा सकता है ? इसी माह देश के लगभग 500 पत्रकारों ने ब्रहमाकुमारीज के ज्ञान सरोवर माउण्ट आबू में हुए मीडिया सम्मेलन में एक स्वर में निर्णय लिया  कि व्यक्तिगत एवं राष्टृीय उन्नति के लिए उज्जवल चरित्र व सांस्कृतिक
निर्माण के सहारे सकारात्मक समाचारों को प्राथमिकता
देकर मीडिया सामग्री में व्यापक बदलाव किया जाए। सम्मेलन में विकास से सम्बन्धित
समाचारों,साक्षता,संस्कृति,नैतिकता और आध्यात्मिक मूल्य
जैसे मुददों का समावेश कर स्वस्थ पत्रकारिता का लक्ष्य
निर्धारित करने की मांग की गई थी। आज देशभर में
800  से अधिक चैनल चल रहे है। जिनमें से कई चैनल ऐसे है जो
समाज के सुदृडीकरण के लिए खतरनाक है। इन चैनलों पर
इतनी अश्लीलता दिखाई जाती है कि उसे पूरा परिवार एक साथ
बैठकर नही देख सकता। ऐसे चैनलों पर कोई रोक भी नही है। इसलिए ऐसे चैनलों को ऐसी आपत्तिजनक सामग्री परोसने के बजाए समग्र परिवार हित की सामग्री परोसने पर इन 
चैनलों को विचार करना चाहिए।
सम्मेलन में ऐसे समाचारों को परोसने से परहेज करने की सलाह दी गई थी जिसको चैनल पर देखकर या फिर अखबार में पढकर मन खराब होता हो या फिर दिमाग में तनाव 
उत्पन्न होता हो।बदलते दौर में हिन्दी पत्रकारिता के भी मायने बदल गए है। अपनी ताकत से दुनिया को मुठठी में करने के बजाए पत्रकारिता गली मोहल्लो तक सिकुडती जा रही है। अपने आप को राष्टृीय स्तर का बताने वाले समाचार पत्र क्षेत्रीयता के दायरे में और क्षेत्रीय स्तर का बताने वाले समाचार पत्र स्थानीयता के दायरे में सिमटते जा रहे है। जो पत्रकारिता के लिए शुभ संकेत नही है। सही मायने में पत्रकारिता का अर्थ अपनी 
और दुसरों की बात को दूर तक पंहुचाना है।साथ ही यह भी जरूरी है कि किस धटना को खबर बनाया जाए और किसे नही? आज की पत्रकारिता बाजारवाद से ग्रसित होने के साथ साथ मूल्यों की दृष्टि से रसातल की तरफ जा रही है। बगैर कार्यक्रम हुए ही कपोल कल्पित कार्यक्रम की खबरे आज अखबारो की सुर्खिया बनने लगी है,सिर्फ नाम छपवाने के लिए जारी झूठी सच्ची विज्ञप्तियों के आधार पर एक एक खबर के साथ बीस बीस नाम प्रकाशित किये जाने लगे है जो पत्रकारिता की विश्वसनीयता को न सिर्फ प्रभावित कर रहे है बल्कि ऐसी पत्रकारिता पर सवाल उठने भी स्वाभाविक है। इसके पीछे अक्सर यह तर्क दिया जाता है कि जितने ज्यादा नाम प्रकाशित होगे, उतना ही ज्यादा अखबार बिकेगा, लेकिन यह पत्रकारिता के स्वास्थ्य के लिए ठीक नही है । ठीक यह भी नही है कि प्रसार संख्या बढाने की गरज से समाचार पत्र को इतना अधिक स्थानीय कर दिया जाए कि वह गली मोहल्ले का अखबार बन कर रह जाए। 
आज हालत यह है कि ज्यादातर अखबार जिले और तहसील तक सिमट कर रह गए है। यानि एक शहर की खबरे दूसरे शहर तक नही पंहुच पाती।देश के राज्यो व जनपदों की सीमा बदलने के साथ ही पत्रकारिता भी सीमाओं की परिधि में सिकुड़ गई है। जिस कारण जिला और प्रदेश बदल जाने के कारण एक नगर की खबरे दूसरे तक नही पंहुच पाती है।इससे पाठक स्वयं को ठगा सा महसूस करता है। ऐसा नही है कि स्थानीय खबरो की जरूरत न हो, लेकिन यदि एक अखबार में लॉक डाउन से पहले 4से 6 पेज स्थानीय खबरो के होते थे जो अब दो पृष्ठों में सिमट कर रह गए है।इससे पाठक को क्षेत्रीय,राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय खबरे कम पढने को मिल रही है, जो उनके साथ अन्याय है। वैसे भी खबर वही है, जो दूर तक जाए यानि दूरदराज के क्षेत्रो तक पढी जाए। दो दशक पहले तक स्थानीय 
खबरो पर आधारित अखबार बहुत कम थे। पाठक राष्ट्रीय स्तर के अखबारो पर निर्भर रहता था। वही लोगो की अखबार पढने
में रूची भी कम थी। स्थानीय अखबारो ने पाठक संख्या तो बढाई है लेकिन पत्रकारिता के स्तर को कम भी किया है। आज पीत पत्रकारिता और खरीदी गई खबरो से मिशनरी 
पत्रकारिता को भारी क्षति हुई है। जिसे देखकर लगता है जैसे पत्रकारिता एक मिशन न होकर बाजार का हिस्सा बनकर गई हो। 
पत्रकारिता में परिपक्व लोगो की कमी,पत्रकारिता पर हावी होते विज्ञापन,पत्रकारो के बजाए मैनेजरो के हाथ में खेलती पत्रकारिता ने स्वयं को बहुत नुकसान पहुंचाया है। जरूरी है पत्रकारिता निष्पक्ष हो लेकिन साथ ही यह भी जरूरी है 
ऐसी खबर जो सच होते हुए भी राष्टृ और समाज के लिए हानिकारक हो, तो ऐसी खबरो से परहेज करना बेहतर होता है। पिछले दिनों देश में गोला बारूद की कमी को लेकर जो खबरे आई थी वह राष्ट्र हित में नही थी इसलिए ऐसी खबरो से बचा जाना चाहिए था। जस्टिस मार्कण्डेय काटजू का यह ब्यान कि पत्रकारिता को एक आचार संहिता की आवश्कयता है,अपने आप में सही है ,बस जरूरत इस बात कि है कि यह आचार संहिता स्वयं पत्रकार तय करे कि उसे मिशनरी पत्रकारिता को बचाने के लिए क्या रास्ता अपनाना चाहिए जिससे स्वायतता और पत्रकारिता दोनो बची रह सके। इसके लिए जरूरी है कि पत्रकार प्रशिक्षित हो और उसे पत्रकारिता की अच्छी समझ हो,साथ ही उसे प्रयाप्त वेतन भी मिले।ताकि वह शान के साथ पत्रकारिता कर सके और उसका भरण पोषण भी ठीक ढंग से हो।तभी मौजूदा पत्रकारिता अपने मानदण्डो पर खरी उतर सकती है और अपने मिशनरी स्वरूप को इतिहास बनने से बचा सकती है।इसके लिए हमे अपनी सोच में भी परिवर्तन करना होगा।जब तक हमारे अपने चरित्र ठीक नही होंगे,हम सात्विक नही होंगे, हम आध्यात्मिक नही होंगे तब पत्रकारिता में भी सकारात्मक बदलाव की उम्मीद नही की जा सकती।

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