अब आर-पार का खेला होबे!

किसान आंदोलन /kisan aandolan

  • आंदोलन के कड़क तेवरों से ‘महाबली’ सरकार हलकान!
  • आंदोलन मोदी सरकार के खिलाफ सियासी मारक अभियान में बदल रहा

राष्ट्रीय राजधानी के कई मोर्चो पर अंगद पांव की तरह चर्चित किसान आंदोलन के चार महीने पूरे हो गये हैं। पिछले साल 26 नवबंर से ये हाहाकारी आंदोलन शुरू हुआ था। इस बीच वार्ता और गैर वार्ता के नाम पर सरकार ने नई गिरगिटी रंग बदले। किसानों और सरकार के बीच झूमा-झटकी के दौर भी चले। प्रशासन ने आंदोलनकारियों को थकाने, डराने और धमकाने के कई करतब किये, लेकिन वे न तो डरे और न ही ठंडे पड़े। अलबत्ता चारण मीडिया बीच-बीच में ऐसी हवा फैलाने की नाकाम कोशिशें जरूर करता रहता है। इस सबके बावजूद आंदोलन के कड़क तेवरों से ‘महाबली’ सरकार हलकान हो गयी है। ये अलग बात है कि सरकार अपनी बेचैनी छिपाने के लिए ‘फर्क’ न पड़ने का स्वांग करती जरूर नजर आती है। 26 मार्च को ‘भारत बंद’ का आयोजन हुआ, इससे भी सरकार हिली जरूर है।महज धरनों से शुरू हुआ आंदोलन, अब राष्ट्रव्यापी हो चला है। सरकार की जिद्द के चलते, अब किसान आंदोलन मोदी सरकार के खिलाफ सियासी मारक अभियान में बदल रहा है। 22 जनवरी से सरकार ने आंदोलनकारी नेतृत्व से संवाद का सिलसिला रोक दिया है। 26 जनवरी को ट्रैक्टर मार्च के दौरान ‘लाल किला कांड’ हो गया था। इसके बहाने आंदोलन को तोड़ने के लिए पूरी ताकत लगा दी गयी। नेताओं के साथ आंदोलन में तीन सौ से ज्यादा किसानों पर गंभीर धाराओं में आपराधिक मुकदमे दर्ज हुए। तमाम गिरफ्तारियां हुईं, दर्जनों किसानों को महीनों तिहाड़ जेल में गुजारना पड़ा। भाजपा शासित उत्तर प्रदेश, हरियाणा, हिमाचल, कर्नाटक राज्यों में आंदोलन तोड़ने के लिए तमाम तरह के छल-कपट किये गये। आंदोलनकारी किसानों के खिलाफ उत्पीड़न की कार्रवाई बेशर्म तरीके से हुई। यह सिलसिला जारी रहा, इस सबके बावजूद आंदोलन बढ़ता गया। अब यह आंदोलन देशव्यापी बन रहा है। उड़ीसा, बिहार और बंगाल तक इसने हल्ला बोल दिया है। महाराष्ट्र की हिस्सेेदारी तो शुरुआती दौर से हो गयी थी। अब इसकी आंच कर्नाटक, आंध्र, तमिलनाडु और केरल तक पहुंची है। पिछले दिनों ही बगंलुरू और शिमोगा में बड़ी किसान पंचायतें हुईं। इन रैलियों में एक लाख से ज्यादा लोग जुटे। हैदराबाद और विजयनगर में भी बड़ी किसान पंचायतें हुईं। इनमें संयुक्त किसान मोर्चा के नेताओं की भीहिस्सेदारी रही। खास बात यह रही कि भाषा की समस्या भी दीवार नहीं बनी।बिहार में 24 मार्च को विधानसभा के सामने किसान और खेतिहर भूमिहीन किसानों ने बड़ा प्रदर्शन किया। इसमें बिहार के सुदूरवर्ती जिलों के लोगों ने बड़ी भागीदारी की। पटना में हुए इस हाहाकारी आंदोलन के जता दिया कि इस आंदोलन की आग अब पूरे बिहार में भी धधकने लगी है। इस किसान पंचायत को वामदलों ने आयोजित किया था। सीपीआई के वरिष्ठ नेता अतुल अनजान का मानना है कि किसानों के साथ खेत मजदूरों का जीवनयापन पर संकट के बादल हैं। कृषि के नये विवादित कानूनों से ग्रामीण अर्थव्यवस्था का विनाश होगा, ऐसे में सरकार के खिलाफ निर्णायक लड़ाई का ही विकल्प बचा है। यह आंदोलन अब तीन कानूनों की वापसी का नहीं रहा। आंदोलन लोकतंत्र एवं संविधान की रक्षा का राष्ट्रीय अभियान भी बन गया है। अतुल अनजान ने जोरदार ढंग से पटना पंचायत में भाषण भी दिया था। बाद में लोगों ने विधानसभा अध्यक्ष को ज्ञापन सौंपा था।पश्चिम बंगाल, असम, तमिलनाडु, पुदुचेरी और केरल में विधानसभा चुनाव हो रहे हैं। चुनावी प्रक्रिया शुरू हो गयी है। पश्चिम बंगाल में प्रथम चरण का चुनाव हो भी गया है। यहां आठ चरणों में मतदान होना है। भाजपा नेतृत्व ने प. बंगाल और असम में अपनी पूरी ताकत झोंक दी है। असम में तो उसकी ही सरकार है जिसे बचाने की चुनौती हैै लेकिन वो प. बंगाल में ममता बनर्जी की सरकार को हर हालत में उखाड़ फेंकने के लिए कटिबद्ध हैं। प्रधानमंत्री मोदी और अमित शाह यहां का किला जीतने के लिए ताबड़तोड़ रैलियां कर रहे हैं। अरबों रुपये से चुनाव युद्ध लड़ा जा रहा है। ममता के सहयोगी रहे कई कद्दावर नेता अब ‘मोदी भक्त‘ बनकर मुकाबले में हैं। जन अवधारणा यह बनाई गयी कि ममता के कैंप में भगदड़ है। भाजपा चुनाव के मुख्य अभियान के संचालन कर्ता है। महाबली नेता अमित शाह वहां गजब की मेहनत भी कर रहे हैं। खुद मोदी जी ममता बनर्जी पर तीखे प्रहार करते नजर आते हैं। अमित शाह का दावा है कि इस बार 200 के पार यानी दो तिहाई बहुमत से भाजपा सत्ता में आने वाली है।यहां ‘हाई वोल्टेज’ चुनाव अभियान चल रहा है। पूरा केंद्रीय मंत्रीमंडल कोलकाता अभियान में जुटाया गया है। पूरा संघ परिवार जुटा है। ‘खेला होबे’ का नारा पीएम दे चुके हैं। ममता ने भी ललकारा है। ‘खूब खेला होबे!’ सियासी सेनाएं हर दांव चल रही हैं।माहौल चार्ज है, ऐसे सियासीकार्यकर्ताओं ने हवा को गर्म किया है। कहीं-कहीं छिटपुट हिंसा भी हुई है। एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोपों के दौर चले हैं। ऐसे चार्ज माहौल में किसान आंदोलन की इंट्री भी हो गयी है। आंदोलन के सबसे बड़े चेहरे बने हैं राकेश टिकैत। टिकैत अपनी टोली के साथ यहां कई दिनों तक डेरा डाले रहे। इन लोगों ने राज्य के किसान-मजदूरों से अपील की है कि वे किसी को भी अपना वोट दें, लेकिन भाजपा को वोट न दें, क्योंकि ये धोखेबाज और मक्कार नेताओं का जमावड़ा भर है। भाजपा नेतृत्व वाली सरकारें सब जगह किसान ओर मजदूर विरोधी नीतियां बना रही हैं।राकेश टिकैत के साथ योगेंद्र यादव और दर्शनपाल जैसे चर्चित किसान नेताओं ने भी यहां भाजपा के खिलाफ जोरदार लामबंदी की। मध्य प्रदेश के चर्चित किसान नेता है डाॅ. सुनीलम। उन्होंने भी बंगाल में दर्जनों किसान पंचायतें कीं। एक सप्ताह के ही इस अभियान से भाजपा नेतृत्व की बेचैनी बढ़ गयी, क्योंकि इन किसान नेताओं के विरोधी तेवरों से चुनाव की जन अवधारणा काफी बदली है। इससे भाजपा के चुनावी अभियान को धक्का लगा है। राकेश टिकैत कहते हैं, ‘अब मजबूरी में हमने सियासी दांव चला है। इनकी नाभि पर हमला किया है।’वे कहते हैं, ‘अब शैतान को मारना हो तो इसकी नाभि पर निशाना साधना चाहिए, हम सियासत नहीं कर रहे, केवल सबक सिखाने के लिए वोट की चोट दे रहे हैं। मोदी सरकार अहंकारी है। किसान के साथ अन्याय भी कर रही है और अपमान भी कर रही है। हम चुप नहीं रहेंगे, लड़ेंगे और जीतकर ही घर वापसी करेंगे। बंगाल के अलावा हमारे साथी असम भी गये हैं, वहां भी भाजपा को हटाने की अपील है, अब सरकार को किसानों-मजदूरों से भिड़ने की सजा मिलेगी, चाहे इसमें हमारी जान चली जाए। वैसे भी दिल्ली के मोर्चों पर तीन सौ से ज्यादा आंदोलनकारी किसान शहीद हो चुके हैं।इस आंदोलन से राकेश टिकैत खासे ट्रेंड नेता हो गये हैं। वे जमकर बोलना सीख गये हैं। उनकी गंवई बोली अलग तरह प्रभाव छोड़ती ह। वे चर्चित किसान नेता महेंद्र सिंह टिकैत के छोटे सुपुत्र हैं। महेंद्र सिंह टिकैत ने 1987-88 के दौर में पश्चिमी उत्तर प्रदेश में एक ऐतिहासिक आंदोलन खड़ा कर दिया था। मेरठ कमिश्नरी के सामने लंबे समय तक किसान पंचायत चली थी जिसमें हजारों-लाखों किसान रोज जुटते थे। 1988 में दिल्ली के वोट क्लब में लाखों किसानों को ले जाकर टिकैत ने तत्कालीन राजीव गांधी की सरकार के खिलाफ निणर्यक आंदोलन किया था। आखिर सरकार को झुकना पड़ा था। इस आंदोलन को मैंने शिद्दत से कवर किया था। टिकैत का प्रभाव बड़ा था। इस आंदोलन ने उनके पुत्र राकेश को भी किसान आंदोलन का चैंपियन बना दिया है।मुजफ्फरनगर में हुए (2013) दंगों के दौरान किसान यूनियन की भूमिका दागदार हुई थी, क्योंकि इस पर ‘हिंदुत्व‘ का नशा चढ़ गया था, जबकि महेंद्र सिंह टिकैत हिंदू, मुस्लिम एकता के प्रतीक थे। इसी से उनका आंदोलन मजबूत और लोकप्रिय हुआ था। टिकैत अंतरराष्ट्रीय शोहरत मिली थी। उन्होंने यूरोप की यात्रा की थी। जहां इस गंवई नेता को देखने के लिए ‘गोरों‘ में भी क्रेज था। राकेश टिकैत ने संघ परिवार के साथ जुड़ाव दिखाया। दंगों में वे धुर मुसलमान विरोधी बन गये थे। मोदी जी के भी भक्त बन गये थे। ये बात उन्होंने पिछले दो महीने पहले रो-रोकर स्वीकार भी किया था। लेकिन अब राकेश बदल गये हैं। वे समझदार बन गये हैं।कहते हैं, ‘भगवाधारियों के चक्कर में गलत बन गया था। इसका अफसोस भी है। मुसलमान भी हमारे भाई हैं। गांव के सब लोगों का एक ही दर्द है। अब भगवा वालों के झांसे में न वे आयेंगे और न किसान, क्योंकि समझ में आ गया है कि मूंछ मुड़ाने वाले साधु-संत नहीं होते, शैतान भी होते हैं। वोटों की खेती वाले साधु-संत भेषधारी तो छलिए ज्यादा होते हैं। अब किसान जाग गया है। चुनाव में उनका बैंड बजा देगा‘। किसान अपना हक वापस लेकर ही अपने घरों को लौटेगा। भले उसे सरकार से हक छीनना पड़े। किसान अब याचना नहीं करेगा, हक के लिए रण करेगा। जय किसान जय जवान।पिछले दिनों श्रीगंगानगर (राजस्थान) की बड़ी किसान पंचायत में राकेश टिकैत ने नयी ललकार लगा दी। इससे शीर्ष स्तर पर सरकार में बेचैनी है। सरकार से ज्यादा अंबानी और अडानी जैसे धन्ना सेठ चिंतित हैं, क्योंकि टिकैत ने आगे की रणनीति के संकेत दे दिए हैं। उन्होंने यहां भारी भीड़ के बीच एलान कर दिया कि अब आर-पार की लड़ाई तय है। सरकार किसानों के धैर्य की परीक्षा ले रही है। हमारा सब्र टूटा, तो हम हरियाणा, राजस्थान व पंजाब में बने अंबानी और अडानी के गोदामों को तोड़कर मिट्टी में मिला देंगे। हरियाणा में अडानी समूह ने लाखों टन अनाज रखने के लिए ‘साइलो‘ चुपचाप तैयार कर लिए हैं। टिकैत बोले ये हमारी नजर में आ गये हैं। हम कुछ भी कर सकते हैं। इस एलान के बाद यह उद्योग घराना बेचैन बताया जा रहा है।किसानों के तेवर आक्रामक हैं। उनके विरोध के चलते हरियाणा के मुख्यमंत्री भारी सुरक्षा के बावजूद अपने कार्यक्रम नहीं कर पाते। पिछले दिनों करनाल जिले में नाराज किसानों ने ‘हेलीपैड‘ खोद डाला था। सीएम को अपना दौरा रद्द करना पड़ा था। सीवर (राजस्थान) की किसान पंचायत में टिकैत और कई अन्य भाषणकर्ताओं ने कहा कि किसान कानून रद्द नहीं किये गये तो सबसे पहले अडानी के ‘साइलो‘ कब्र में बदले दिए जाएंगे। समझा जाता है कि सरकार पर दबाव बढ़ाने के लिए किसान नेता ऐसी तल्ख जुबान बोल रहे हैं। आंदोलनकारियों को भी दो मई का इंतजार हैं। पांच राज्यों के चुनाव परिणाम इसी दिन आएंगे। इन परिणामों से किसान आंदोलन का नया अध्याय शुरू होगा। सरकार की परेशानी कम होने के फिलहाल आसार तो नहीं हैं।

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