- केंद्र के अड़ियल रवैये के बाद भी आंदोलन नए विस्तार ले रहा
- आंदोलन की गूंज हुई अंतरराष्ट्रीय, ब्रिटिश संसद में उठा मसला
वीरेंद्र सेंगर
नयी दिल्ली। केंद्र सरकार के अड़ियल रवैये के बाद भी बहुचर्चित किसान आंदोलन
लगातार नए विस्तार ले रहा है। सरकार की तमाम घेरेबंदियों को किसानों का
हौसला टिकने नहीं दे रहा। तमाम दुश्वारियों को चीरते हुए अन्नदाता आंदोलन पर डटे
हैं। जबकि सरकार किसानों को थकाकर हराने की रणनीति पर कायम है। तेज
रस्साकशी जारी है। किसान तमाम दबावों के बावजूद सरकार को आइना दिखाने
पर उतारू हैं। बात बहुत आगे बढ़ गयी। आंदोलनकारियों के नेतृत्व ने कारगार
दबाव बनाने के लिए भाजपा के वोट बैंक पर सीधे निर्णायक चोट करने का
अभियान तेज कर दिया है। इसकी चुटीली शुरुआत कोलकाता से हुई है। 10 मार्च
से ही यहां के किसान नेताओं ने प. बंगाल में केंद्र सरकार के खिलाफ सियासी
हल्ला बोल दिया है। यहां पर विधानसभा के चुनाव होने जा रहे हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र
मोदी और उनकी टोली ने इस चुनाव को सीधे अपनी राजनीतिक प्रतिष्ठा का सवाल
बना लिया है। ऐसे में मोदी सहित, भाजपा के तमाम फायरब्रांड नेता मुख्यमंत्री ममता
बनर्जी को हर हाल में हराना चाहते हैं। भाजपा का कड़ा मुकाबला तृणमूल कांग्रेस
प्रमुख और मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से है।यूं तो प. बंगाल के साथ चार अन्य राज्यों में
भी चुनाव होने हैं, लेकिन प. बंगाल का चुनाव खास चर्चा में है। यदि ममता ने टीम
मोदी को शिकस्त दे दी, तो बात बहुत दूर तक जाएगी। सो, भाजपा के रणनीतिकार
विपक्ष को कोई मौका नहीं देना चाहते। टीम ममता कम आक्रामक मुद्रा में नहीं है।
वो केंद्र की योद्धाओं से डरती नहीं है। उन्हें सरकारी एजेंसियां भी डरा नहीं पा रही हैं।
जबकि कई राज्यों में टीम मोदी का ये ‘हिडेन’ हथियार काम का साबित हुआ है।
किसान नेतृत्व भी इन हथकंडों से डरा नहीं है। अब उसने ‘वोट पर चोट’ का मारक
चैलेंज दे दिया है। कहा है कि इस सरकार का नाभिस्थल वोट बैंक है, मजबूर होकर
इसी पर हमला करना पड़ रहा है, ताकि सरकार का अहंकार टूटे। किसान नेता
भाजपा को वोट न देने की अपील कर रहे हैं। किसान नेता राकेश टिकैत कहते हैं,
हम किसान भोले जरूर हैं लेकिन मूर्ख नहीं
‘हम किसान भोले जरूर हैं, लेकिन मूर्ख नहीं, हम सरकार के झूठे झांसों में ही फंसने
वाले नहीं हैं। अपने हक की लड़ाई जीतकर ही अपने घरों को लौटेंगे। सरकार के हर
अत्याचार का शांति से मुकाबला करेंगे। मोदी सरकार का घमंड चूर करेंगे। सरकार
से इस्तीफे की मांग भी करेंगे। किसान इस घमंडी राज सत्ता का तख्त बदलने पर
आ गये, तो नया इतिहास भी बन सकता है।सरकार ने आंदोलनकारियों से 22
जनवरी के बाद ‘संवाद’ बंद कर रखा है। जबकि, प्रधानमंत्री ने बहुत पहले कहा था
कि सरकार और किसानों के बीच महज एक फोन कॉल की दूरी है। इस बयान से
लगा था कि सरकार किसानों को वार्ता के लिए जल्दी बुलाएगी। लेकिन ऐसा नहीं
हुआ। इस बीच किसान आंदोलन को तोड़ने की तमाम तिकड़में जारी रहीं। सरकार
के कुछ बड़बोले मंत्री तक आंदोलन को लेकर अनर्गल प्रलाप करते रहे। इससे
आंदोलनकारियों का गुस्सा लगातार बढ़ता गया। संसद के बजट सत्र के दौरान
कांग्रेस ने किसान आंदोलन को लेकर सरकार के खिलाफ तीखे तेवर दिखाए। पार्टी
के प्रमुख नेता राहुल गांधी, मोदी सरकार पर सोशल मीडिया के जरिए लगभग रोज
ही तीखे निशाने साधते हैं। पार्टी की तरफ से पश्चिमी उत्तर प्रदेश और राजस्थान में
कई बड़ी किसान रैलियां की गयीं। इन रैलियों में राहुल और प्रियंका गांधी ने तीखे
भाषण दिये। कांग्रेस द्वारा आयोजित किसान पंचायतों में भारी भीड़ उमड़ती रही।
कांग्रेस किसान आंदोलन के पक्ष में खुलकर मैदान में उतरी, तो सियासी दबाव बढ़ा
है। राष्ट्रीय लोकदल के सुप्रीमो चौधरी अजित सिंह और उनके सुपुत्र जयंत चौधरी
को इस आंदोलन से नयी सियासी ‘आक्सीजन’ मिल गयी है। वरना, ये लोग 2019
के लोकसभा चुनाव में करारी हार से पस्त पड़े थे। प. उत्तर प्रदेश के जाट बेल्ट में
चैधरी अजित सिंह का प्रभाव रहा है। वे उम्मीद कर रहे हैं कि फिर से उनके ‘अच्छे
दिन’ लौटने वाले हैं।कांग्रेस, एनएलडी, आप के बाद सपा भी ताबड़तोड़ किसान
पंचायतें करने में जुट गयी है। अलीगढ़ के टप्पल कस्बे में सपा प्रमुख अखिलेश
यादव ने एक बड़ी किसान पंचायत कर डाली। उन्होंने किसानों की आड़ में टीम मोदी
पर तीखे निशाने साधे। यह दावा भी किया कि जब तक केंद्र सरकार तीनों विवादित
कानून वापस नहीं लेती। तब तक उनकी पार्टी किसानों के पक्ष में सियासी मोर्चे बंदी
करेगी। उल्लेखनीय है कि उत्तर प्रदेश में सपा ही मुख्य तौर पर जनाधार वाली
विपक्षी पार्टी है। यूं तो सपा के साथ बसपा का भी बड़ा जनाधार रहा है। लेकिन इधर
सालों से बसपा सुप्रीमो मायावती चुप्पी के दौर में है। आम चर्चा है कि टीम मोदी की
नाराजगी का उन्हें ज्यादा खौफ है। बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव, सीधे
तौर पर मोदी से तूफानी तकरार लेकर जेल में झेल रहे हैं। खराब सेहत के बावजूद
वे चारा घोटाले के मामले में जेल भोग रहे हैं। अनुमान यहां तक है कि वे शायद ही
जीते जी जेल से बाहर खुली हवा में सांस ले पाएं। अदालतों से भी उन्हें जमानत तक
नहीं मिली। लालू यादव के हश्र ने अखिलेश यादव और मायावती जैसे नई विपक्षी
नेताओं को डरा रखा है, क्योंकि इनकी ‘अमीरी’ कमजोरी बन गयी है। इन सबको
ईडी, इन्कम टैक्स व सीबीआई का भूत जमकर डराता भी है। क्योंकि लालू यादव
का हाल सबके सामने है। किसान आंदोलन का बढ़ता दम विपक्षी क्षत्रपों का डर
कुछ-कुछ भगा रहा है। उन्हें भाजपा से सियासी टकराव का दम दे रहा है। मायावती
तो ‘जोखिम’ लेने के मूड में नहीं है। लेकिन अखिलेश यादव ने नया दम दिखाया है।
टीम मोदी इसको लेकर भी परेशान है कि कई क्षत्रपों ने मोदी जी से डरना कम कर
दिया है। वहीं ये ज्यादा सियासी नुकसान न कर दे, भाजपा के रणनीतिकार चिंतित
हैं। हालांकि, कई विरोधी क्षत्रप भाजपा से सीधे रार लेने को लेकर कुछ दुविधा में
हैं। लेकिन बढ़ते किसान आंदोलन ने ‘मोदी मैजिक’ में ‘ग्रहण’ लगाना शुरू कर दिया
है। वैसे, भाजपा को ज्यादा सियासी खतरा कांग्रेस से ही है। क्योंकि उसका जनाधार
पूरे देश में है। इसीलिए टीम मोदी के सीधे निशाने पर कांग्रेस ही रहती है। राहुल
और प्रियंका टीम मोदी से डरती भी नहीं। सीधे प्रहार करती है। राहुल तो गजब ही
मिट्टी के हैं। भाषण कला में भले वे मोदी के मुकाबले कहीं नहीं ठहरते, लेकिन
तलवार की तरह के जुबानी हमला जरूर करते हैं। एकदम बेखौफ। उत्तर प्रदेश और
उत्तराखंड में अगले साल विधानसभा चुनाव होने हैं। इन दिनों दोनों प्रदेशों में मोदी
जी के नाम का सियासी डंका बज रहा है। यदि इन प्रदेशों में किसान आंदोलन के
चलते ‘भगवा‘ जमीन ने रंग बदला तो ‘राम राज्य‘ का युग खतरे में पड़ जाएगा।शायद
इसीलिए पिछले दिनों, उत्तराखंड के मुख्यमंत्री रहे त्रिवेंद्र सिंह रावत की गद्दी छीन ली
गयी। क्योंकि उनके ‘लचर’ नेतृत्व के चलते यहां से दिल्ली के किसान आंदोलन को
भी खूब ताकत मिली। वे सिख किसानों को ‘बगावत’ से रोक नहीं पाए। उनकी
कुर्सी जाने की एक वजह ये भी समझी गयी। केंद्रीय नेतृत्व ने अब तीरथ सिंह रावत
को मुख्यमंत्री बनवाया है। एक तरफ से किसान आंदोलन ने एक मुख्यमंत्री की छुट्टी
करा दी, ऐसे ‘कमाल कमल को मुरदनी सकते हैं।उत्तर प्रदेश में इधर ताबड़तोड़
किसान पंचायतें हो रही हैं। पहले ये रैलियां पश्चिमी उत्तर प्रदेश तक सीमित थीं।
बाकी हिस्से चुप्पी साधे थे। मुख्यमंत्री योगी जी के सियासी दबदबे का भी दबाव था।
लेकिन इधर योगी जी की ‘बाड़’ टूट गयी है। बाराबंकी, इटावा, प्रतापगढ़ से लेकर
बुंदेलखंड तक किसान आंदोलन ने पैर पसार लिए हैं। रैलियों की लामबंदी ने दबाव
बढ़ाया है। इस दबाव ने भाजपा के अंदर बेचैनी बढ़ानी शुरू की है। किसान
आंदोलन के चलते हरियाणा की मनोहर लाल खट्टर सरकार तो पिछले दिनों ‘डेंजर
जोन’ में चली गयी थी। दस मार्च को अविश्वास प्रस्ताव को चुनौती आयी थी। जोड़
तोड़ करके ही सरकार बच पायी। यह बात अलग है कि भाजपा और जेजेपी
केविधायक अपने क्षेत्रों में भी घुस नहीं पा रहे। उन्हें किसान घेर रहे हैं। गुस्से में
गालियां तक दे रहे हैं। भाजपा का सहयोगी दल जेजेपी विधायकों पर सरकार से
समर्थन वापस लेने का भारी दबाव था। लेकिन सत्ता का लालच ही जीता। सरकार
बच गयी है। लेकिन आंदोलन के चलते प्रदेश से किसानों में विधायकों के खिलाफ
गुस्सा और बढ़ गया है। वे सहमे हुए हैं।किसान संयुक्त मोर्चा ने फैसला लिया है कि
26 मार्च को आंदोलन के समर्थन में ‘भारत बंद’ का आयोजन होगा। कांग्रेस सहित
कई विपक्षी दलों ने इस ‘बंद’ में पूरा सहयोग करने का मन बनाया है। किसान
संयुक्त मोर्चा के एक प्रमुख नेता डॉ. दर्शन पाल कहते हैं ‘दिल्ली के सभी मोर्चां पर
महीनों तक और जमे रहने की तैयारी मुकम्मल है। आंदोलन में महिलाओं की
भागीदारी बढ़ी है। केंद्र सरकार किसानों का अपमान कर रही है। अब ये अस्मिता
की लड़ाई है। किसान हारेगा नहीं, भले यहीं शहीद हो जाए। वैसे भी धरना स्थलों में
करीब तीन सौ किसान ‘शहीद’ हो चुके हैं। इस बेमिसाल आंदोलन की गूंज
अंतरराष्ट्रीय हो गयी है। पिछले दिनों ब्रिटिश संसद में इस मामले पर चर्चा हुई। इससे
मोदी सरकार आहत हुई।’ बहरहाल, ‘वोट पर चोट ’ की रणनीति से भाजपा के अंदर
हड़कंप तो जरूर है।